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Tuesday, April 30, 2013

मराठवाड़ाः काल तुझ से होड़ है मेरी!अभिषेक श्रीवास्तव (औरंगाबाद, अहमदनगर, जालना, बीड, परभणी, नांदेड़ से लौटकर)

मराठवाड़ाः काल तुझ से होड़ है मेरी!

अप्रैल के तीसरे सप्‍ताह में मैं मराठवाड़ा के दौरे पर रहा। वहां जो कुछ देखा, सुना, समझा, वह राष्‍ट्रीय मीडिया में सूखे पर आ रही खबरों से मिलता-जुलता भी था और दूसरे स्‍तर पर बिल्‍कुल अलहदा भी था। इसे हम या तो मुख्‍यधारा के मीडिया की सीमाएं कह कर टाल सकते हैं या फिर घटनाओं की अधिकता और खबरों की अफरा-तफरी में एक ज्‍वलंत सामाजिक मसले को दरकिनार कर दिए जाने की सुनियोजित साजि़श के तौर पर भी देख सकते हैं। दोनों ही स्थितियों में मराठवाड़ा का यथार्थ जो है, वह बदलता नहीं है। आगे जो कहानी मैं सुनाने जा रहा हूं, वह समकालीन तीसरी दुनिया के मई अंक में आवरण कथा के तौर पर प्रकाश्‍य है, लेकिन इस कहानी को जनपथ पर सुनाने के लिए 1 मई से बेहतर तारीख और नहीं हो सकती है। सात किस्‍तों में मराठवाड़ा की यह आंखों देखी कहानी उन लाखों गन्‍ना मज़दूरों को समर्पित है जो अपनी जि़ंदगी बचाने की जद्दोजेहद में  पश्चिमी महाराष्‍ट्र की दैत्‍याकार चीनी मिलों में काम करने को और अपना खून चूसने वाले दानवों को बार-बार वोट देने को मजबूर हैं क्‍योंकि मौत से बचने का उनके पास और कोई विकल्‍प नहीं। 



अभिषेक श्रीवास्तव
(औरंगाबादअहमदनगरजालनाबीडपरभणीनांदेड़ से लौटकर)

''शब्दों और उनके अर्थ का रिश्ता तकरीबन टूट चुका है। जिनके लेखन से यह बात झलकती हैवे आम तौर से एक सामान्य भाव का संप्रेषण कर रहे होते हैं- कि वे एक चीज़ को नापसंद करते हैं और किसी दूसरी चीज़ के साथ खड़े होना चाहते हैं- लेकिन वे जो बात कह रहे होते हैं उसकी सूक्ष्मताओं में उनकी दिलचस्पी नहीं होती।''

-जॉर्ज ऑरवेलपॉलिटिक्स एंड दि इंग्लिश लैंग्वेज, 1946



अकाल! इस शब्द से जुड़ी छवियां क्या हो सकती हैंशायद सबसे पहले केविन कार्टर की सोमालिया-1993 की मशहूर तस्वीर दिमाग में कौंध जाए जहां एक कुपोषित बच्चे को खाने के लिए उसकी ओर बढ़ता गिद्ध है। हो सकता है बंगाल के अकाल की कुछ छवियां हों या फिर कालाहांडी के जीर्ण-शीर्ण पुरुषस्त्री और बच्चे। ऐसी पूर्वस्थापित छवियों से आगे बढ़ें तो इस साल की शुरुआत में समाचार माध्यमों में महाराष्ट्र के गांव के गांव खाली होने संबंधी आई खबरों से भी कुछ धूसर सी छवियां बनी होंगी। हमें बताया गया कि बांध सूख गए हैंतो सूखे बांध की एक छवि ज़रूर दिमाग में होगी।'अकालदरअसल काल की निरंतरता का निषेध हैअनवरत सामान्य से असामयिक विचलन है। इसलिए जब यह शब्द साथ लेकर आप बाहर निकलते हैं तो ऐसी ही अतिरेकपूर्ण और असामान्य छवियों की तलाश में जुट जाते हैं जिनसे पूर्वाग्रहों की गठरी और भारी होती हो। जॉर्ज ऑरवेल कहते हैं कि एक बार यह प्रक्रिया शुरू हो जाए तो फिर पलटती नहीं यानी हमारी चुनी हुई भाषा आने वाली छवियों को अपने हिसाब से गढ़ती है और बदले में छवियां हमारी भाषा को और भ्रष्ट करते जाती हैं। इस प्रक्रिया के तहत एक ही देश-काल के भीतर 'अकालकी खोज करना बाध्यता बन जाती है और हाथ से यथार्थ फिसल जाता है। मराठवाड़ा के बारे में अब तक जो कुछ भी हमें मुख्यधारा के माध्यमों में बताया गयादिखाया गया या समझाया गया हैवह इसी मायने में संकटग्रस्त हैअधूरा हैसंदर्भहीन है।

मराठवाड़ा में अकाल नहींदुष्काल है। यह शब्द वहीं का है। सारे मराठी लोग'दुष्कालका इस्तेमाल करते हैं। मराठवाड़ा के छह जिलों को देखने-समझने के बीच एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने 'अकालका नाम गलती से भी लिया हो। 'अकालऔर 'दुष्कालदरअसल इस क्षेत्र को बाहर से और भीतर से देखने का मामला है। भीतर का आदमी खुद को कालबाह्य नहीं मान सकता। उसके लिए यह एक दौर है जो कुछ बुरी सौगातें लेकर आया है। जैसे आया है वैसे ही चला जाएगा। इसीलिए वह 'दुष्कालकी न तो किसी अतिरेकपूर्ण व्याख्या में विश्वास करता हैन ही उसके किसी इंकलाबी इलाज में। वह अपने अतीत से कोई सबक भी नहीं लेता। भविष्य के लिए कोई तैयारी भी नहीं करता। उसका वर्तमान दरअसल उसके तईं उसके अतीत का ही विस्तार है जहां पुराने अवसर भले गायब होंलेकिन कुछ नए अवसर अचानक जिंदा हो गए हैं। इन अवसरों को उन्होंने पैदा किया है जो इसे'अकालके रूप में देखतेसुनते और बताते हैं। इसीलिए यहां सारा मामला फिलहाल अवसरों को पकड़ पाने का बन जाता है। कह सकते हैं कि 2013का मराठवाड़ा एक ऐसा विशाल और जटिल प्रहसन है जिसका हर चरित्र अपनी-अपनी भूमिका से बाहर है। हर कोई आधा दर्शक है और बाकी निर्देशक। इस प्रहसन के सर्वाधिक दिलचस्पदर्दनाक और अनपेक्षित अध्याय से परदा उठता है जालना जिले मेंजो मराठवाड़ा के सबसे बड़े शहर औरंगाबाद से करीब साठ किलोमीटर की दूरी पर है।

दुष्काल का प्रहसन

स्‍कूल के इकलौते बोरिंग से प्‍यास बुझाता पूरा गांव 
हमारी गाड़ी जहां रुकती हैठीक वहीं पर करीब दो दर्जन औरतें और लड़कियां एक मोटे और काले से पाइप पर झुकी हुई हैं। करीब तीसेक बड़े-छोटे बरतन भरे जाने के इंतज़ार में एक-दूसरे से टकराकर भरी दोपहर में टन्न-टुन्न की बेतरतीब आवाज़ें पैदा कर रहे हैं। उनके पीछे विट्ठल मंदिर का बड़ा सा चबूतरा है जो तेज़ धूप को जलते हुए बल्ब से चुनौती दे रहा है। यानी बिजली भी आ रही है और पानी भी। दाहिने हाथ पर एक प्राथमिक पाठशाला है। यहां भी बल्ब जल रहे हैं। यह जालना के अम्बड़ तालुका का सोनकपिंपल गांव है। कहते हैं कभी यहां सोने का पीपल रहा होगाआज हालांकि पूरा गांव सिर्फ एक बोरवेल से पानी भरता है जो स्कूल के प्रांगण में खुदा हुआ है। स्कूल प्रशासन जब चाहे तब मोटर चालू करता है और बंद कर देता है। उसी के हिसाब से लोग भी पानी भर लेते हैं। मराठवाड़ा-2013 की मशहूर परिघटना के रूप में बहुप्रचारित पानी का टैंकर यहां नहीं आता। ज़ाहिर हैकिसी मेहमान के लिए ग्राम पंचायत से ज्यादा महत्व की चीज़ यहां का स्कूल है। बच्चे जा चुके हैं और शिक्षक काम निपटा कर अतिथियों का इंतज़ार कर रहे हैं। हमें यहां लाने वाले 28वर्षीय युवा बाबासाहेब पाटील जिगे को स्थानीय लोग नेता मानते हैं। उन्होंने पहले ही प्रधानाचार्य को ताकीद कर दी थीइसलिए हमें सीधे एक बड़े से सभागार में ले जाया जाता है और सबसे पहली सूचना यह दी जाती है कि मराठवाड़ा का यह पहला स्कूल है जहां एलसीडी प्रोजेक्टर से पढ़ाई शुरू हुई। सारी उंगलियां कमरे की छत की ओर मुड़ जाती हैं जहां एप्सन का एक प्रोजेक्टर लगा हुआ है। सामने की दीवार पर बड़ा सा सफेद परदा है। पहले से तय कार्यक्रम के आधार पर एक शैक्षणिक वीडियो हमें दिखाया जाता है जिसमें हृदय के काम करने के तरीके को एनिमेशन से समझाया गया है। वॉयस ओवर अमेरिकी अंग्रेज़ी में किसी विदेशी का है। कमरे के बाहर गांव के बच्चे उसे देखने के लिए इकट्ठा हो गए हैं और शिक्षक उन्हें हांकने और चुप कराने में जुटे हैं।

प्‍यासे गांव का नाम रोशन करता स्‍कूल 
''क्या बच्चे यह भाषा समझ जाते हैं'', हमने प्रधानाचार्य से पूछा। जवाब एक शिक्षक ने दिया, ''हांपरदे पर देख कर लेसन जल्दी समझ में आ जाता है।'' स्कूल का एक चक्कर लगाने के बाद हम चलने को होते हैंतो स्कूल की ओर से एक शिक्षक श्यामजी उगले हमसे आग्रह करते हैं, ''आप इस प्रोजेक्टर के बारे में ज़रूर लिखिएगा। मैंने उत्सुकता से पूछा, ''क्योंपानी के बारे में क्यों नहीं?'' उनकी ओर से हमारे साथ आए जिगे जवाब देते हैं, ''यह इस गांव की उपलब्धि है। विकास हो रहा है यहां। पानी का प्रॉब्लम तो हर जगह है न।'' हम गाड़ी में चढ़ने को होते हैं कि इसी गांव के रहने वाले एक स्थानीय अखबार के पत्रकार धीरे से कान में फुसफुसाते हैं कि इस गांव में एक औरत ने पिछले महीने कर्ज के चलते खुदकुशी कर ली थीउसके घर जरूर जाइएगा। हमने जिगे से इस बारे में जानने की कोशिश कीतो उन्होंने साफ इनकार कर दिया। बोले, ''ये सब छोटे पत्रकार हैं। अपने फायदे के लिए कुछ भी बोलते रहते हैं। इनकी बात पर ध्यान मत दीजिए।'' 

पर्वताबाई अर्जुनराव डुबल 
वापसी में अम्बड़ तालुका के जिस बाजार में जिगे को हमसे विदा लेना थावहां तक बात दिमाग में अटकी रही। उन्हें विदा करने के बाद हमने गाड़ी मुड़वाई और वापस चालीस किलोमीटर दोबारा सोनकपिंपल पहुंच गए। करीब दस साल के एक बच्चे से पूछने पर घटना सही निकली। पत्रकार का नंबर हमने एक दुकान से लियाउसे बुलवाया और सीधे चल दिए उस घर की ओर जो विकास के प्रोजेक्टर से पूरी तरह गायब था। करीब सोलह साल का एक लड़का मुस्कराते हुए हमारी ओर आया। यह दीपक था। इस घर पर मौत की छाया साफ देखी जा सकती थी। ओसारे में एक महिला गेहूं फटक रही थी। बाजू में उसका छोटा बच्चा शांत बैठा था। यह दीपक की भाभी थी। दीपक और उसके बड़े भाई प्रभु की मां पर्वताबाई अर्जुनराव डुबल ने मार्च की 15 तारीख को ज़हर खाकर जान दे दी थी। सरकारी फेहरिस्त में जिन किसानों ने दुष्काल के कारण खुदकुशी की हैउनमें अब तक ज्ञात सारे नाम पुरुषों के हैं। पर्वताबाई की कहानी स्थानीय टीवी-9 चैनल पर आ चुकी थीयह बात हमें दीपक ने गर्व से बताई। 

मृत पर्वताबाई के पति (बीच में) और दोनों बेटे 
इस परिवार पर करीब डेढ़ लाख रुपए का कर्ज़ है। खेती 12 एकड़ है,लेकिन सूखे के कारण तबाह हो चुकी है। आम तौर पर यहां छोटे किसान साहूकारों से कर्ज़ लेते हैं,लेकिन इस परिवार पर स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद का कर्ज़ था। सरकारी बैंकों के कर्ज़दारों का खुदकुशी कर लेना उतना आम नहीं हैखासकर जब वह महिला हो। पूछने पर दीपक कहते हैं, ''मम्मी बहुत परेशान रहती थीसारा काम वही करती थीइसलिए उसने जान दे दी।'' ''आपके पिता क्या करते हैं'', मैंने पूछा। ''कुछ नहीं'', और उसकी नज़र मेरे पीछे अचानक आ खड़े हुए खिचड़ी दाढ़ी वाले एक शख्स की ओर चली गई। यह अर्जुनराव डुबल थेपर्वता के पति। हमने दो-तीन सवाल उनसे पूछे,उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। सिर्फ मुस्कराते रहे। उन्हें देखकर दीपक और प्रभु भी मुस्कराते रहे। अर्जुनराव सूरज ढलने से पहले ही नशे में थे। यह बात 16 अप्रैल की हैपर्वता की खुदकुशी के ठीक एक माह बाद।

हमारे पास पूछने को कुछ और नहीं था। स्थानीय पत्रकार सज्जन तब तक आ चुके थे। उनके चेहरे पर खुशी थी कि उनकी दी सूचना पर हम लौट कर आए। हमने इस बात पर अचरज ज़ाहिर किया कि इस गांव में हमें लाने वाले बाबासाहेब जिगे ने हमसे यह बात क्यों छुपाई। उन्होंने कहा, ''बाबासाहेब को मैं अच्छे से जानता हूं। उसके लोग यहां के स्कूल में हैं,इसलिए आपको यहां लाया था। इसके पहले भी नागपुर की एक पत्रकार को ला चुका है। उसकी नज़र खराब है।'' इस बात को समझने में हमें उतना वक्त नहीं लगाहालांकि समझ लेने का पूरा दावा भी मुमकिन नहीं। दरअसल,गाड़ी में सुबह बातचीत के दौरान जिगे से हमने अचानक ही पूछ लिया था कि क्या उनकी शादी हो गई। उन्होंने कहा था, ''दोबारा बनाना है न।'' 

तब उसके बड़े भाई और जालना में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के जिला सचिव देविदास जिगे भी हमारे साथ चल रहे थे। हमने विस्तार से जानना चाहातो अनमने ढंग से बाबासाहेब ने बताया कि शादी के एक महीने बाद ही उनकी पत्नी ने खुदकुशी कर ली थी। बात को संभालते हुए बड़े भाई देविदास ने कहा कि पूरे परिवार को उसने दहेज हत्या के केस में फंसा दिया है और आज तक तारीख पर जाना पड़ता है। रास्ते में देविदास के हमसे विदा लेने के बाद हम इस गांव में बाबासाहेब के साथ आए थे। तब उन्होंने उत्साहित होकर बताया था कि लड़की देखने उन्हें कल जाना है। कल फाइनल हो गया तो चार दिन में शादी बना लेंगे। ''इतनी जल्दी?'' वे बोले, ''हां तो! क्या करना हैबीस आदमी को ही तो बुलाना है। पानी तो है नहीं गांव में कि बड़ा प्रोग्राम करें।''

ऐसे में होने वाली शादियां जल्‍दी निपटती हैं 

क्रमश: 

[अपना मोर्चा] मई दिवस का सन्देश


From: Satya Narayan <notification+kr4marbae4mn@facebookmail.com>
Date: 2013/5/1
Subject: [अपना मोर्चा] मई दिवस का सन्देश
To: अपना मोर्चा <ApnaMorcha@groups.facebook.com>


मई दिवस का सन्देश स्मृति से प्रेरणा लो! संकल्प...
Satya Narayan 9:19am May 1
मई दिवस का सन्देश

स्मृति से प्रेरणा लो! संकल्प को फौलाद बनाओ! संघर्ष को सही दिशा दो!

मजदूर साथियो! नयी सदी में पूँजी के खिलाफ वर्ग युध्द में फैसलाकुन और मुकम्मल जीत के लिए आगे बढ़ो!!

जब तक लोग कुछ सपनों और आदर्शों को लेकर लड़ते रहते हैं, किसी ठोस, न्यायपूर्ण मकसद को लेकर लड़ते रहते हैं, तब तक अपनी शहादत की चमक से राह रोशन करने वाले पूर्वजों को याद करना उनके लिए रस्म या रुटीन नहीं होता। यह एक जरूरी आपसी, साझा, याददिहानी का दिन होता है, इतिहास के पन्नों पर लिखी कुछ धुँधली इबारतों को पढ़कर उनमें से जरूरी बातों की नये पन्नों पर फिर से चटख रोशनाई से इन्दराजी का दिन होता है, अपने संकल्पों से फिर नया फौलाद ढालने का दिन होता है।
अक्सर ऐसा होता है कि लोग लड़ते हैं और हारते हैं और हार के बावजूद, वे पाते हैं कि अन्तत: उन्हें वह हासिल हो गया है, जिसके लिए वे लड़े थे। लेकिन तब वे पाते हैं कि वास्तव में उससे आगे की किसी चीज को पाने के लिए उन्हें लड़ना है और वे उसकी तैयारियों में जुट जाते हैं। अक्सर ऐसा भी होता है कि लोग कुछ सपनों-आदर्शों के लिए लड़ते हैं और जीतने के बाद उन्हें अमल में उतारना भी शुरू कर देते हैं। इस सिलसिले में वे नौसिखुए की तरह कुछ अनगढ़ गढ़ते हैं, गलतियाँ करते और सीखते हैं। फिर उन्हें दिल तोड़ देने वाली हार का सामना करना पड़ता है। ऐसा लगता है कि सब कुछ खो-बिखर गया और हालात फिर एकदम वैसे ही हो गये, जैसे उनकी जीत के पहले थे। लेकिन हताशा और संशय से उबरने के बाद वे पाते हैं कि हालात एकदम पहले जैसे नहीं हैं। इन नये हालात में वे फिर से अपने उन्हीं सपनों-आदर्शों के लिए लड़ना शुरू करते हैं तो पाते हैं कि अब उन्हें एक नये उन्नततर धरातल पर लड़ना है और विगत के अनुभवों की समझ (स्मृति) और नये वर्तमान की समझ (मति) ने उनके सपनों-आदर्शों का नवीकरण करते हुए उन्हें भी उन्नत बना दिया है, यानी उनकी प्रज्ञा का विस्तार कर दिया है। लोग पाते हैं कि उनकी लड़ाई की जमीन उन्नत हो गयी है; नीति, रणनीति और रणकौशल बदल गये हैं, लेकिन पूरी लड़ाई में रोजमर्रे की छोटी-छोटी लड़ाइयों की कड़ियाँ पिरोते हुए कई बार मुद्दों के स्तर पर पीछे लौटकर शुरुआत उन्हें उन प्रारम्भिक स्तर की माँगों से करनी पड़ती है, जो लोगों ने कभी हासिल कर ली थीं और जो अब फिर उनसे छीन ली गयी हैं। ये कुछ बुनियादी नारे और मुद्दे पुराने लगते हुए भी नये होते हैं क्योंकि लड़ाई की जमीन (परिप्रेक्ष्य) बदल चुकी होती है। लगता है कि शुरुआत फिर वहीं से करनी पड़ रही है, लेकिन वास्तव में यह एक नयी शुरुआत होती है।

अब से 124 वर्षों पहले मई दिवस के वीर शहीदों - पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल, फिशर और उनके साथियों के नेतृत्व में शिकागो के मजदूरों ने आठ घण्टे के कार्यदिवस के लिए एक शानदार, एकजुट लड़ाई लड़ी थी। तब हालात ऐसे थे कि मजदूर कारखानों में बारह, चौदह और सोलह घण्टों तक काम करते थे। काम के घण्टे कम करने की आवाज उन्नीसवीं शताब्दी के मध्‍य से ही यूरोप, अमेरिका से लेकर लातिन अमेरिकी और एशियाई देशों तक के मजदूर उठा रहे थे। पहली बार 1862 में भारतीय मजदूरों ने भी इस माँग को लेकर कामबन्दी की थी। 1 मई, 1886 को पूरे अमेरिका के 11,000 कारखानों के तीन लाख अस्सी हजार मजदूरों ने आठ घण्टे के कार्यदिवस की माँग को लेकर एक साथ हड़ताल की शुरुआत की थी। शिकागो शहर इस हड़ताल का मुख्य केन्द्र था। वहीं 4 मई को इतिहास-प्रसिध्द 'हे मार्केट स्क्वायर गोलीकाण्ड' हुआ। फिर मजदूर बस्तियों पर भयंकर अत्याचार का ताण्डव हुआ। भीड़ में बम फेंकने के फर्जी आरोप (बम वास्तव में पुलिस के उकसावेबाज ने फेंका था) में आठ मजदूर नेताओं पर मुकदमा चलाकर पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल और फिशर को फाँसी दे दी गयी। अपने इन चार शहीद नायकों की शवयात्रा में छह लाख से भी अधिक लोग सड़कों पर उमड़ पड़े थे। पूरे अमेरिकी इतिहास में इतने लोग केवल दासप्रथा समाप्त करने वाले लोकप्रिय अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या के बाद, उनकी शवयात्रा में ही शामिल हुए थे।

शिकागो की बहादुराना लड़ाई को ख़ून के दलदल में डुबो दिया गया, पर यह मुद्दा जीवित बना रहा और उसे लेकर दुनिया के अलग-अलग कोनों में मजदूर आवाजें उठाते रहे और कुचले जाते रहे। काम के घण्टे की लड़ाई उजरती ग़ुलामी के खिलाफ इंसान की तरह जीने की लड़ाई थी। यह पूँजीवाद की बुनियाद पर चोट करने वाला एक मुद्दा था। इसे उठाना मजदूर वर्ग की बढ़ती वर्ग-चेतना का, उदीयमान राजनीतिक चेतना का परिचायक था। इसीलिए मई दिवस को दुनिया के मेहनतकशों के राजनीतिक चेतना के युग में प्रवेश का प्रतीक दिवस माना जाता है।
https://sites.google.com/site/bigulakhbar/may-2010/mai-divas-ka-sandesh
मई दिवस का सन्देश - मज़दूर बिगुल
sites.google.com
स्मृति से प्रेरणा लो! संकल्प को फौलाद बनाओ! संघर्ष को सही दिशा दो!

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সংবাদ বিজ্ঞপ্তি: "মে দিবসের ছবিরহাট" শিল্পকর্ম প্রদর্শনী প্রসঙ্গে



বরাবর

বার্তা সম্পাদক

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বিষয়ঃ "মে দিবসের ছবিরহাট" শিল্পকর্ম প্রদর্শনী প্রসঙ্গে

 

 

জনাব,

আপনার বহুল প্রচারিত সংবাদমাধ্যমে নিচের সংবাদ বিজ্ঞপ্তিটি প্রকাশ করে বাধিত করবেন।

 

 

বার্তা প্রেরক

ছবিরহাট, শাহবাগ, ঢাকা

 

 

 

 

 

সংবাদ বিজ্ঞপ্তি

 

মহান মে দিবসে উপলক্ষে ছবিরহাট নিয়মিত আয়োজন হিসেবে "মে দিবসের ছবিরহাট" শিরোনামে উন্মুক্ত পরিসরে শিল্পকর্ম প্রদর্শনীর উদ্যোগ নিয়েছে। হাটুরেদের অংশগ্রহণে ১মে থেকে ১১মে পর্যন্ত দিবা-রাত্রি ছবিরহাটে প্রদর্শনী চলবে। উল্লেখ্য,সম্প্রতি সাভারের রানা প্লাজায় সংঘটিত মর্মান্তিক প্রাণহানির বিষয়টিকে কেন্দ্র করে বিশেষ মাত্রা যোগ করার প্রয়াস থাকছে প্রদর্শনীতে।

 

 

 

 

 

 

 

"শ্রমে-সৃষ্টিতে শ্রমিকের জয়গান"

 

মৃত্যুপুরী থেকে শ্রমিকের লাশ এলো জনসমুদ্রে। ধ্বংসস্তূপের ভিতরে দুমড়ানো-থেঁতলানো লাশের স্তূপ থেকে কংক্রিটের দেয়াল কেটে শ্রমিক তুলে আনছে আধমরা,জীবিত,মৃত একের পর এক সহস্র। ওরা মানুষ,ওরা শ্রমিক।

 

রক্ত মাংসের গন্ধে ভারি হয়ে গেছে সাভারের বাতাস। তবু সেই মৃত্যুপুরীতে গর্ত খুড়ে নামছে জীবন্ত মানুষ। প্রাণান্ত চেষ্টায় তুলে আনছে প্রাণের মানুষ। ঝুলন্ত কাপড়ে শুয়ে নামল জীবন্ত মানুষ - আধমরা আহতের দল।

 

রক্ত মাংসের গন্ধে ভারি হয়ে গেছে সাভারের বাতাস। তবু সেই মৃত্যুপুরীতে গর্ত খুড়ে নামছে জীবন্ত মানুষ। প্রাণান্ত চেষ্টায় তুলে আনছে প্রাণের মানুষ। ঝুলন্ত কাপড়ে শুয়ে নামল জীবন্ত মানুষ - আধমরা আহতের দল।

 

ওখানে অনেক জীবিত মানুষ আছে। হাত,পা,কোমর,বুক,ঘাড় আটকে পড়ে আছে তারা। ছটফট প্রাণ তার। বাঁচাও বাঁচাও করছে।

 

রাষ্ট্রের আশি-ভাগ প্রবৃদ্ধি আনে এইসব শ্রমিকের দল। বিনিময়ে একের পর এক দুর্ঘটনায় হাজার হাজার শ্রমিকের মৃত্যু। নেই মজুরি,নেই নিরাপত্তা,আছে মৃত্যু। এমনকি স্বজনের আহাজারি উপেক্ষা করে চোখের সামনে থেকে গুম হয়ে যায় এইসব শ্রমিকের লাশ।

 

রক্ত মাংসের দাগ ধুয়ে আবার উঠে দাঁড়ায় ভুলের ইমারত। অনুভূতিহীন,অমানবিক। -আবার মৃত্যুর জন্য সিঁড়ি ভাঙে এ কদল মানুষ। দিনরাত কাজ করতে তারা স্বপ্ন বোনে - উনুনে হাঁড়িতে ফুটছে সাদা ভাত। ক্ষুধার রাজ্য পার হয়ে যাবে এবার। তারপর মানুষ হবে মানুষের। জীবনের সঞ্চিত স্বপ্ন বাস্তবে নেবে রূপ। নিরাপত্তা ‌দেবে রাষ্ট্র। দেবে অধিকার। মৃত্যুপুরী নয়,কলকারখানা হবে নিরাপদ।

 

ভাবতে ভাবতে দাউ দাউ জ্বলে ওঠে চারিপাশ। ধোঁয়ার কুন্ডুলিতে ঢেকে যায় সব মুখগুলি। তারপর শুধু আগুনের গর্জন। জানালার কাঁচ ভেঙে বাঁচার জন্য মানুষ ঝাপ দেয় বহুতল থেকে অবধারিত মৃত্যু মেনেও। তখন বাতাসে রক্ত মাংসের পোড়া গন্ধ। ছাই আর কয়লার স্তূপে সমস্ত স্বপ্ন মিলিয়ে যায়। শুধু স্বজনের হাতে একমুঠো ছাই।

 

তবু ওই ধ্বংসস্তূপে ছাই গন্ধ টেনে টেনে মানুষ বাঁচার স্বপ্ন দেখে। স্বজনের লাশ ছাই হয়ে ওড়ে বাতাসে। সে দৃশ্য পাড় হবার আগেই অন্য কোথাও কেঁপে ওঠে বহুতল শ্রমিক খেকো কারখানা-গার্মেন্টস। ভয়ার্ত মানুষ বাঁচার জন্য নেমে আসে মর্তে -মালিকের রক্ত চক্ষু আর মজুরির প্রলোভনে আবার মৃত্যুর সিঁড়ি ভেঙ্গে ওঠে শ্রমিক, সুত টানা মানুষগুলোর সুতো টানতে টানতে জীবনের সুতোয় পরে টান।

 

টালমাটাল হয়ে ওঠে গোটা কারখানা ভবন। মূহুর্তে বিশাল আকাশ শূন্যটা নিয়ে ধ্বংসস্তূপ চুইয়ে নামে রক্তের বন্যা। চাপা পরা মানুষের আর্তনাদ। দ্বিখণ্ডিত ছিন্নভিন্ন দেহ। তবু মৃত্যুর তলানিতে বেঁচে থাকে কেউ কেউ মহাপ্রাণ। মানুষ নামছে পাতালে মানুষের সন্ধানে। ওরা মানুষ,মানুষ খোঁজার দল,ওরা শ্রমিক। ওরা জানে মানুষ মানুষের।

 

আর রাজনীতিবিদ,রাষ্ট্রনায়কের নাটকে তখন ক্লাইম্যাক্স। ভোটারের গায়ে ভাই ফোটার কাল। তখনো শ্রমিকের রক্ত নামে কংক্রিটের দেয়াল বেয়ে টুপটাপ। লাশের স্তূপে তখনো মানুষ আছে,জীবিত মানুষ।

 

সামনে শ্রমিক দিবস,আসছে ১লা মে। শ্রমিকের রক্তে লাল শ্রমিক জান্তা। আমরা পুড়ে যাওয়া কয়লা,ভেঙ্গে যাওয়া পাজর,নির্বাক চোখ,হিম শীতল দেহ,নিথর।

 

তবু শ্রমিকের হাত মুষ্টিবদ্ধ হবে জানি। তবু জীবনের পক্ষে লড়বে মজুর। অধিকার-সংগ্রাম চলবেই। মৃত্যু উপত্যকায় শ্রমিক গাইবে মৃত্যুঞ্জয়ী গান।


पांच मंत्री , तीन सांसद सांसद, दो बुद्धिजीवी, सीएमओ के तीन कर्मचारियों और पार्टी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई सबसे जरुरी है, वरना सुनामी का मुकाबला करना मुश्किल!

पांच मंत्री , तीन सांसद सांसद, दो बुद्धिजीवी, सीएमओ के तीन कर्मचारियों और पार्टी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई सबसे जरुरी है, वरना सुनामी का मुकाबला करना मुश्किल!

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


पांच मंत्री , तीन सांसद सांसद, दो बुद्धिजीवी, सीएमओ के तीन कर्मचारियों और पार्टी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई सबसे जरुरी है, वरना सुनामी का मुकाबला करना मुश्किल!शारदा समूह के गोरखधंधे के सिलसिले में ये नाम सामने आये हैं बतौर अभियुक्त।सुदीप्त और देवयानी से जिरङ और बाद में बाकी कंपनियों की बहुप्रतीक्षित भेंडापोड़ और केंद्राय जांच एजंसियों  की जांच के सिलसिले में और नाम भी जुड़ते चले जायेंगे। सरकार कार्रवाई नहीं करती तो जनता की अदालत में वे दागी बने ही रहेंगे। इसकी एवज में कोई भी आक्रमण या आत्मरक्षा की रणनीति कारगर नहीं होनेवाली। इस मामले को लेकर राजनीति इतनी प्रबल है कि अनिवार्य काम हो नहीं रहे हैं। यह राजनीतिक मामला कतई नहीं है। विशुद्ध वित्तीय प्रबंधन और कानून व व्यवस्था का मामला है। राजनीतिक तरीके से इससे निपटने की कोशिश आत्मघाती हो सकती है और जरुर होगी। १९७८ के कानून के तहत कार्रवाई होनी चाहिए थी । नहीं हुई। लंबित विधेयक को कानून बनाकर प्रशासन के हाथ मजबूत करने चाहिए थे। लेकिन इसके बदले पुराने विधेयक को वापस लेकर विधानसभा के विशेष अधिवेशन में एकतरफा तरीके से बिल पास करा लिया गया और अब इसके कानून में बदलने के लिए लंबा इंतजार हैं।विपक्ष की एकदम सुनी नहीं गयी। विशेषज्ञों की चेतावनी नजरअंदाज कर दी गयी। पूरा मामला राजनीतिक बन गया है। जिससे प्रशासनिक तरीके से निपटने के बजाय राजनीतिक तरीके से निपटा जा रहा है। इसके राजनीतिक परिणाम भी सामने आ रहे हैं।


खास बात तो यह समझ लेनी चाहिए कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की राज्य, देश और दुनिया में जो ईमानदार छवि है, उस पर आंच नहीं आये, इसके लिए पलटकर विपक्ष पर वार करेने के बजाये यह बेहद जरुरी है कि दोषियों और जिम्मेवार लोगों के खिलाफ समय रहते वे तुरंत कार्रवाई करें।उनका बचाव वे राजनीतिक तौर पर करती रहेंगी तो उनकी छवि बच पायेगी, इसकी संभावना कम है। आम जनता को न्याय की उम्मीद है। आम जनता चाहती है कि निवेशकों को पैसे वापस मिले और दोषियों के साथ सात इस प्रकरण में जिम्मेवार लोगों के खिलाफ कार्रवाई करें। राजनीतिक व्याकरण की बात करें कि नैतिकता का तकाजा है कि जो जनप्रतिनिधि इस मामले में सीधे तौर पर अभियुक्त हैं, वे सफाई देने से पहले अपना इस्तीफा मुख्यमंत्री तक देदें, तो यह सत्तादल और मुख्यमंत्री के लिए सबसे अच्छा उपाय विरोधियों को जवाब देने और जनता में साख बनाये रखने का होगा।


न्याय हो, यह जितना जरुरी है, यह दिखना उससे ज्यादा जरुरी है कि न्याय हुआ।सुदीप्त सेन और उसकी खासमखास से जिरह से  लगातार मंत्रियों, सांसदों, सत्तादल  के असरदार नेताओं से लेकर परिवर्तनपंथी बुद्धिजीवियों के​ ​ नाम चिटफंड फर्जीवाडे़ में शामिल होने के सिलसिले में उजागर हो रहे हैं। दूसरे राज्यों की ओर से भी जांच प्रक्रिया शुरू होने वाली है और पानी हिमालय की गोद में अरुणाचल और मेघालय तक पहुंचेगा। बंगाल सरकार चाहे या न चाहे , शारदा समूह और दूसरी जो कंपनियां बंगाल से बाहर काम करती हैं, उनकी सीबीआई जांच होगी। सेबी, रिजर्व बैंक, ईडी और आयकर विभोग जैसी केंद्रीय एजंसियों की जांच अलग से हो रही है। देवयानी समेत शारदा ​​समूह के कई कर्मचारियों के सरकारी गवाह बन जाने की पूरी संभावना है। देवयानी और ऐसी ही लोगों की पित्जा खातिरदारी से और भी खुलासा होने की उम्मीद है।शारदा समूह के लेनदेन की तकनीक भी मालूम है और लेनदेन का रिकार्ड बरामद होने लगा है। सुदीप्त सीबीआई को ६ अप्रैल को पत्र लिखने से   पहले कंपनी और कारोबार को ट्रस्ट के हवाले करने की जुगत में फेल हो चुके हैं ।पर उनकी कंपनी को दिवालिया घषित कराने की योजना अभी कामयाब हो सकती है। ऐसे हालात में अभियुक्तों को ठोस सबूत के बावजूद बचा पाना एकदम असंभव है।


पहले से ही जमीन विवाद में उलझे परिवर्तन पंथी बुद्धिजीवी विश्व प्रसिद्ध चित्रकार शुभोप्रसन्न अपना बचाव यह कहकर करते हैं कि सुदीप्त के साथ उनकी तस्वीर डिजिटल जालसाजी है। फिर अपने नये चैनल को वे सुदीप्त को बेचने की बात भी मानते हैं। यह चैनल `एखोन समय' शुरु ही नहीं हुआ, इसके चार निदेशकों में शुभोप्रसन्न और उनकी पत्नी, सुदीप्त और देवयानी हैं।


मुख्यमंत्री कार्यालय के तीन कर्मचारी सामने आ गये हैं, जो मुख्यमंत्री के साथ काम करते हुए शारदा समूह के लिए काम करते रहे। इनमें एक दयालबाबू तो कहते हैं कि वे शारदा समूह से वेतन पाते रहे हैं और राज्य सरकार से उन्हें वेतन नहीं, भत्ता मिलता है।


परिवर्तनपंथी नाट्यकर्मी अर्पिता घोष `एखोन समय' के मीडिया निदेशक बतौर शारदा समूह के लिए काम करती रही। अति राजनीतिसचेतन अर्पिता की दलील है कि उन्होंने सासंद कुणाल घोष के कहने पर यह नौकरी कबूल की और सुदीप्त से तो उनकी बाद में मुलाकात हुई।


इसी तरह मदन मित्र कहते हैं कि किसी चिटफंड कंपनी को वे नहीं जानते। अपनी ओर से यह जोड़ना भी नहीं भूलते कि मुख्यमंत्री से सुदीप्त का परिचय उन्होंने नहीं कराया।फिर यह सफाई कि मुख्यमंत्री भी उन्हें नहीं जानतीं। अब तक शारदा को सर्टिफिकेट देने और इस समूह को प्रोत्साहन देने के बारे में, पियाली की रहस्यमय मौत और उसके संरक्षण, उन्हें शारदा समूह में चालीस हजार की नौकरी दिलवाने के संबंध में अपने विरुद्ध आरोपों के बारे में वे खामोशी अख्तियार किये हुए थे। अब वे बता रहे हैं कि उनकी तस्वीर भी जालसाजी से सुदीप्त के साथ नत्थी कर दी गयी। वे भी शुभेंदु की तरह अपने अनुयायियों से तत्काल चिटफंड कंपनियों से पैसा निकालने के लिए कह रहे हैं।


सुदीप्त दावा करते हैं कि​​ सांसद शताब्दी राय शारदा समूह की ब्रांड एंबेसेडर हैं  और एजंट व आम निवेशक तो लगातार यही कहते रहे हैं कि शताब्दी के कारण ही वे इस फर्जीवाड़े के शिकार बने। सुदीप्त के सहायक सोमनाथ दत्त शताब्दी के चुनाव प्रचार अभियान में उनकी गाड़ी में उनके साथ देखे गये, हालांकि शताब्दी ने कम से कम यह नहीं कहा कि उनकी तस्वीर के साथ जालसाजी हुई।


सांसद तापस पाल किसी भी कंपनी के सात पेशेवर काम को वैध बताते हैं। यानी फिल्मस्टार विज्ञापन प्रोमोशन वगैरह का काम सांसद विधायक होने का बावजूद करते रह सकते हैं।


पूर्व रेलमंत्री मुकुल राय के सुपुत्र शुभ्रांशु राय ने `आजाद हिंद' उर्दू  अखबार शारदा समूह से ले लिया। सुदीप्त की फरारी से पहले पत्रकारों की दुनिया में जोरों से चर्चा थी कि सुभ्रांशु नई टीमों के साथ अखबारों और चैनलों को लांच करेंगे।


इसीतरह सांसद सृंजय बोस का नाम सीबीआई को लिखे पत्र में सांसद कुणाल घोष के साथ लिया है  सुदीप्त ने। कुणाल से तो पूछताछ हुई पर एक फुटबाल क्लब और एक अखबार समूह के मालिक सृंजय से तो पूछताछ भी नहीं हुई।


इसी तरह सत्ता दल के अनेक सांसद, विधायक और मंत्री तक के तार फिल्म उद्योग, मीडिया और खेल के मैदान से जुड़े हैं, जिनके नाम शारदा समूह के साथ जुड़े हुए हैं।संगठन के लोगों के नाम भी आ रहे हैं। जैसे कि तृणमूल छात्र परिषद के नेता शंकुदेव ।


इसी सिलसिले में विपक्ष की क्या कहें, सोमेन मित्र जैसे वरिष्ठ तृणमूल लनेता सीबीआई जांच के जिरिये दोषियों को पकड़ने की मांग कर चुके हैं, जो गौरतलब है। मेदिनीपुर जिले में सांसद शुभेंदु अधिकारी ने ने निवेशकों से तुरंत पैसे निकालने की अपील कर दी और लोग ऐसा बहुत मुश्तैदी से कर रहे हैं। इससे बाकी बची कंपनियों का चेन ध्वस्त हो जाने की आशंका है। एक कंपनी शारदा समूह के फंस जाने से मौजूदा संकट हैं, जिसके साढ़े तीन लाख एजंट हैं । तो दूसरी बड़ी कंपनी के विज्ञापन से मालूम हुआ कि उसके बीस लाख फील्ड वर्कर है। ऐसी बड़ी कंपनियां सौ से ज्यादा है।


अभी आसनसोल में छापे मारकर एक तृणमूल पार्षद की कंपनी का फंडाफोड़ किया गया जो स्थानीय स्तर पर काम करती है। ऐसी स्थानीय कंपनियों की संख्या भी सैकड़ों हैं।


एक एक करके इनके पाप का घड़ा फूटने पर राज्य में जो सुनामी आने वाली है , उससे अब सुंदरवन भी नही बचा पायेगा।सभाओं, भाषणों और रैलियों से इस सुनामी का मुकाबला करने की रणनीति सिर से गलत है और राज्य सरकार वक्त जाया करते हुए अपने पतन का रास्ता बनाने लगी है। मालूम हो कि इन्हीं शुभेंदु अधिकारी ने, जिनकी मेदिनीपुर और समूचे जंगलमहल में वाम किले ध्वस्त करने में सबसे बड़ी भूमिका रही है, ने मांग की है कि अविलंब दागी नेताओं के खिलाफ कार्रवाई की जाये। उद्योग मंत्री पार्थ चट्टोपाध्याय ने बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके घोषणा की कि कानून  कानून के मुताबिक काम करेगा। पार्टी किसी को नहीं बचायेगी। लेकिन कानून कहां काम कर रहा है,जनता को तनिक यह भी तो बताइये!



सत्ता परिवर्तन और चुनावों में बंगाल से होकर चिटफंड का पैसा अरुणाचल , मिजोरम, मेघालय,मणिपुर , त्रिपुरा में सत्ता परिवर्तन और चुनावों में कैसे लगाया गया, सीबीआई उसकी भी जांच करेगी!

सत्ता परिवर्तन और चुनावों में बंगाल से होकर चिटफंड का पैसा अरुणाचल , मिजोरम, मेघालय,मणिपुर , त्रिपुरा में सत्ता परिवर्तन और चुनावों में  कैसे  लगाया गया, सीबीआई उसकी भी जांच करेगी!


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


शारदा समूह और दूसरी फर्जी चिटफंड कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में असम की तरुण गगोई सरकार ने केंद्र और पश्चम बंगाल सरकारों के मुकाबले बढ़त ले ली है। औपचारिक रुप से गगोई की मांग के मुताबिक अभी सीबीआई जांच शुरु नहीं हुई है लेकिन जांच के सिलसिले में तैयारियों के लिए​​ सीबीआई टीम गुवाहाटी पहुंच चुकी है। बंगाल में पूर्ववर्ती वाम सरकार २००३ से लंबित चिटफंड निरोधक बिल पास कराने में नाकाम रही जिसे ​​वापस लेकर आज बंगाल सरकार ने नया कानून बनाने के लिए बंगाल विधानसभा के विशेष अधिवेशन में बिल पास कर दिया है। केंद्र सरकार सेबी को विशेष अधिकार देने के लिए कानून बदल रही है और ऐसी कंपनियों को मान्यता न मिले, इसके लिए केंद्र सरकार के कंपनी मामलों के मंत्रालय ने कानून में संसोदन का इरादा जताया है। पर असम सरकार पहले ही कानून बना चुकी है। इसके बावजूद शारदा समूह को वहां अपना जाल बिछाने का मौका कैसे मिल​​ गया, कैसे मीडिया कारोबार में बेंगल पोस्ट की तर्ज पर सेवन सिस्टर्स जैसे चिट अखबारों के जरिये शारदा समूह ने असम की आम जनता को अहमक बनाकर जमा पूंजी लूट ली, उसकी जांच कराने को तत्पर हैं गोगोई। सूत्रों के मुताबिक असम समेत पूर्वोत्तर की राजनीति में चिटफंड का इफरात जो पैसा​​ लगा, सीबीआई उसकी भी जांच करेगी।इस बात की भी जांच होगी की अरुणाचल , मिजोरम, मेघालय,मणिपुर , त्रिपुरा में सत्ता परिवर्तन और चुनावों में बंगाल से होकर चिटफंड का पैसा  कैसे  लगाया गया।​

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​इस बीच बंगाल में इस फर्जीवाड़े के खिलाफ जिनके खिलाफ आरोप हैं, गिरफ्तार सुदीप्त और देवयानी के अलावा उनमें से सांसद कुणाल घोष से पुलिस ने पूछताछ की है। लेकिन बाकी असरदार लोगों को पुलिस छूने  की हालत में भी नहीं है। प्रमुख विपक्षी दल माकपा ने तो सीबीआई  जांच के लिए जोरदार प्रचार अभियान छेड़ दिया है, जिसके तहत मुख्यमंत्री की ईमानदार छवि को ध्वस्त करने की मुहिम बी शुरु हो गयी है। पंचायत चुनावों में नये जोश के साथ उतरने वाली माकपा इसे प्रमुख मुद्दा बनायेगी , जाहिर सी बात है।​


तृणमूल सांसद व पार्टी के वरिष्ठ नेता सोमेन मित्र के खुलकर सीबीआई जांच की मांग कर देने से साफ जाहिर है कि दीदी और उनकी पार्टी के अनुयायियों का एक असरदार तबका सीबीआई जांच के हक में हैं। पर तरुण गोगोई की पहल के बाद सवाल उठता है कि बंगाल में शारदा समूह के लिए सीबीआई जांच से तृममूल सुप्रीमो को आखिर कौन और क्या रोक रहा है।सोमेनदादाकी दलील है कि इस फर्जीवाड़े के चपेट में अनेक राज्य हैं , इसलिए किसी एक राज्य के कानून और उसकी जांच एजंसी के मार्फत दोषियों को सजा नहीं दिलायी जा सकती। ऐसे में सीबीआई जांच की पहल कर चुकी असम के पास कानूनी हथियार होने के बावजूद बंगाल सरकार क्यों नहीं उसके साथ मिलकर काम कर रही है, सवाल यह भी है। इसके विपरीत, केंद्रीय जांच एजंसियां सक्रिय तो हो ​​चुकी हैं पर उनकी सारी कवायद अपनी जिम्मेदारी राज्य सरकार और उसकी एजंसियों पर टालने की है।सेबी ने सफाई और  वादे से अलग हटकर शारदा समूह और दूसरी फर्जी कंपनियों के खिलाफ अभी कार्रवाई शुरु ही नहीं की है, वरना सीना ठोंककर डंके कीचोट पर बाकी कंपनियां दिनदहाड़े डाका डालने का यह धंधा जारी रखने की हिम्मत नहीं कर पातीं। आयकर विबाग को तो अब पता चला है कि शारदा समूह के खातों में फर्जी घाटा दिखाकर अबतक किसी भी तरह आयकर भुगतान नहीं किया जाता रहा है। आम आयकरदाता के साथ जो सलूक करता है आयकर विभाग, उसके मद्देनजर शारदा समूह को कैसे छूट मिली हुई है, इसकी जांच जाहिर है राज्य सरकार की कोई एजंसी या जांच आयोग के जरिये संभव नहीं है। इस फर्जीवाड़े के दौरान दो दशक से अधिक समय तक क्यों केंद्रीय एजंसियां सोयी रहीं, इसकी जांच न हो, तो दोषियों को पकड़ना बेहद मुश्किल है।


गौरतलब है कि गुवाहाटी सीबीआई टीम के पहुंचने की खबर खुद मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने दी है।गोगोई के मुताबिक औपचारिकताएं पूरी होने में थोड़ा वक्त लग सकता है।लेकिन अनौपचारिक तरीके से सीबीआई जांच टीम ने सारा मामला देखने का काम अभी से शुरु कर दिया है।अभी प्राथमिक जांच ​​चलेगी।​

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​इसके अलावा मुख्यमंत्री ने चिटफंड मामलों की जांच के लिए एक आयोग की भी घोषणा की है। उनके मुताबिक असम के चिटफंड निरोधक कानून में निवेशकों के हित सुरक्षित करने के अलावा यह प्रावधान भी है कि महज ट्रड लाइसेंस से ही कोई कारोबार नहीं चला सकता। इसके लिए अलग से जिलाधिकारी से इजाजत ही नहीं, लाइसेंस भी लेना होगा। लाइसेंस देते वक्त कंपनी की वित्तीय हालत और उसकी संपत्ति की जांच का प्रावधान है।​​उन्होंने दावा किया कि पिछले दो साल से ऐसी कंपनियो के खिलाफ इस कानून के तहत कार्रवाई की जा रही है। पुलिस ने १२८ संस्थाओं के खिलाप २४६ मुकदमे शुरु किये हैं।३०३ लोग गिफ्तार हुए। १०६ बैंक खाते सील हुए। चालीस करोड़ रुपये और ९० एकड़ जमीन जब्त की गयी। मुख्यमंत्री ने कहा कि शारदा समूह समेत ११ कंपनियों के खिलाफ मामले सीबीआई को सौंपे  जा रहे हैं।


अब बंगाल सरकार भी चिटफंड कंपनियों के खिलाफ अपनी कार्रवाई के आंकड़े जारी करें।



नागरिकों को म्युटेशन में उलझाकर राज्यभर में नगर निगम और पालिकाओं को चूना लगा रहे हैं कबूतरखानों के मालिक और दलाल गिरोह!

नागरिकों को म्युटेशन में उलझाकर राज्यभर में नगर निगम और पालिकाओं को चूना लगा रहे हैं कबूतरखानों के मालिक और दलाल गिरोह!


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


पश्चिम बंगाल के शहरी इलाकों में कोलकाता और हावड़ा नगरनिगम, चंदननगर, सिलीगुड़ी, मालदह, आसनसोल और दुर्गापुर जैसे बड़े शहरों, जिलासहरों, नगरपालिकाओं और कस्पौं नें निगम और पालिका कार्यालयों में करोड़ों लोग इस लिए मारे मारे फिर रहे हैं  कि उनकी संपत्ति पर उनकी मिल्कियत साबित करने का आधार ही नहीं है क्योकि जमीन और मकान का म्युटेशन वर्षों से लालफीताशाही के कारण अटका हुआ  है। एक मेज से दूसरी मेज तक फाइलें सरकने में पुष्पांजलि देते रहने के बावजूद वर्षों लग जाते हैं।स्थानीय निकायों में काबिज पार्टी का रंग बदलता रहता है लेकिन व्यवस्था हरगिज नहीं बदलती। कतारबद्ध अभिशप्त लोगों के लिए अपनी किस्मत को कोसने के सिवाय कुछ हाथ नहीं आता। राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद बी इस मंजर में कोई बदलाव अभी नहीं आया।​

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​मसलन कोलकाता नगरनिगम में तृणमूल कांग्रेस का राज है, पर इंतजामात वही वाममोरचे जमाने का। दूसरी ओर, हावड़ा नगरनिगम में तो किसी भी कोण से कुछ भी नहीं बदला है। व्यवस्था चट्टानी है, जिससे माथा फोड़ लेने के अलावा कुछ हासिल नहीं होता।अकेले कोलकाता महानगर में ही म्युटेशन के लिए एक लाख से ज्यादा अर्जियां लंबित हैं। हावड़ा में यह संख्या बहुत कम होगी, ऐसा नहीं है। इसके साथ सिलिगुड़ी, आसनसोल, दुर्गापुर और मालदह के अलावा बाकी शहरों और कस्बों को जोड़ लीजिये तो पता चलेगा कि कितने लोग मारे मारे घूम रहे हैं। अभी तेरह पालिकाओं के कार्यकाल खत्म हो रहे हैं और निकट भविष्य में वहां चुनाव असंभव हैं, वहां जिनका मामला लटका है, वे तो अब त्रिशंकु की तरह लटकते ही रहेंगे।


यह नुकसान सिर्फ नागरिकों का हो रहा है, ऐसा भी नहीं है। म्युटेशन न हुा तो संबंधित संपत्ति से टैक्स वसूला नहीं जा सकता। जमीन और मकान के म्युटेशन के बिना बतौर करदाता किसी को पंजीकृत नहीं किया जा सकता और न ही उससे टैक्सस वसूला जा सकता है। फ्री में उन्हें नागरिक सेवाओं के उपभोग से रोका भी नहीं जा सकता।साफ जाहिर है कि संबंधित महकमा के लोग आम नागरिकों को ही तबाह नहीं कर रहे हैं बल्कि नगरनिगमों और  पालिकाओं को भी चूना लगा रहे हैं। राजनीति में उलझे हुए मेयरों और पालिकाअध्यक्षों को इसकी कोई परवाह नहीं होती। तो अपना अपनी कमाई के पिराक में कारिंदे मामला लटकाने के खेल में  शतरंज खिलाड़ियों को भी मात देने लगे हैं।सबसे जटिल समस्या है कि एक ही पजद पर एक ही महकमे में बरसों से जमे हुए इस तरह के कर्मचारियों ने नगरनिगम और पालिका दफ्तरों को कबूतरखाना में तब्दील कर दिया है। इन कबूतरखानों में उनकी मर्जी के आगे न मेयर की चलती है और न पालिका अध्यक्ष की।पार्षद और बोरो चेयरमैन किस खेत की मूली हैं। वे भी अक्सर अपना जोर लगाकर हारकर मैदान छोड़कर भाग खड़े होते हैं। मुश्किल तो आम जनता की है, मैदान में डटे होने के बावजूद वे लड़ भी नहीं सकते।कोलकाता नगरनिगम में कहने को वन टाइम म्युटेशन विंडो खुला हुआ है पर इससे भी साल साल भर कम से कम बटकते रहने के अंजाम से बचना मुश्किल है। वे बजड़े ही किस्मत वाले हैं जो दो महीने तीन महीने में किसी तरह का जुगाड़ बिटाकर म्युटेशन करा लेते हैं।लंबित पड़ी अर्जियों की भारी संख्या हालत बताने के लिए काफी है।


इससे राज्यभर में नगरनिगमों और पालिकाओं के आसपास दलालों का गिरोह बड़े पैमाने पर सक्रिय हो गया है जो दिनदहाड़े लोगों की जेब उनकी ही मर्जी से काट रहे हैं। उनकी मिलीभगत से निगमों और पालिकाओं के संबंधित कर्मचारी बैठे बैठे चांदी काट रहे हैं। शिकायत की कोई जगह नहीं है। शिकायत करो तो काम और लटक जाने का खतरा है। बना बनाया काम बिगड़ने काखतरा है। टैक्स में जो घाटा हो रहा है , सो हो ही रहा है, मालिकाना हस्तांतरण की हालत में म्युटेशन न होने के कारण पुरानी इमारतों की मरम्मत भी नहीं हो पाती। जिसी वजह से आये दिन दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं।


ध्वस्त उत्पादन प्रणाली की बहाली का आवाहन करता हुआ फिर आ गया कामगारों के खून से सींचा मई दिवस।

ध्वस्त उत्पादन प्रणाली की बहाली का आवाहन करता हुआ फिर आ गया कामगारों के खून से सींचा मई दिवस।


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


वैश्विक व्यवस्था और खुले बाजार की अर्थ व्यवस्ता के मुताबिक मजदूरों को मौजूदा समय की चुनौतियों को कबूल करने और क्रान्तिकारी इतिहास से प्रेरणा लेकर ध्वस्त उत्पादन प्रणाली की बहाली का आवाहन करता हुआ फिर आ गया कामगारों के खून से सींचा मई दिवस।मजदूर वर्ग के नेतृत्व में संपन्न क्रांतियों के बाद यह सबसे महत्वपूर्ण घटना है। मई दिवस मजदूर वर्ग के अंतर्राष्ट्रीय इतिहास में मील का पत्थर है।विडंबना तो यह है कि मई दिवस का इतिहास भले ही क्रांतिकारी हो, पर नवउदारवादी दो दशक के दोरान भारतीय श्रमजीवी बहुसंख्यक जनता के लिए यह अवसर अपना मायने खो चुका है। क्योंकि भारतीय मजदूर आंदोलन राजनीतिक दलों के साथ नत्थी होकर कामगारों के हक हकूक के बजाय सत्ता की लड़ाई का हथियार में तब्दील है।


सौदेबाजी, समझौता और आत्मघाती आंदोलन के अर्थवाद में फंसकर भारतीय मजदूर आंदोलन मई दिवस के इतिहास से एकदम अलग हो गया है।खासकर बंगाल में जो उत्पादन प्रणाली ध्वस्त हुई है, जो अर्थव्यवस्था बदहाल हुई है और जो ५६ हजार से ज्यादा औद्योगिक इकाइयां बंद होने के कारण करोड़ों कामगार बेरोजगारी के आलम में भुखमरी की जिंदगी जीते हुए रोज रोज मरकर जी रहे हैं, उसके लिए राजनीतिक हित में चलाये जानेवाले जंगी मजदूर आंदोलन को जिम्मेदार ठहराता है ठगा हुआ मजदूर वर्ग।श्रमिकों की समस्या आज ज्यों की त्यों रह गयी है।


हड़ताल अंतिम औरनिर्णायक हथियार होता है, पर मजदूर वर्ग के हक हकूक की बजाय सत्ता की राजनीति में हड़ताल का लगातार इस्तेमाल होने की वजह से बंगाल जो देशभर में औद्योगिक विकास में अव्वल था, अब दौड़ में कहीं नहीं है।


बेहतर हो कि इस मई दिवस पर मजदूर आंदोलन बदले हुए परिप्रेक्ष्य में उत्पादन प्रणाली और औद्योगिक माहौली की बहाली के लिे कोई सकारात्मक संकल्प करें और उसपर अमल करें।


हुगली नदी के दोनों तटों पर भारतीय मैनचेस्टर और शेफील्ड की जो रचना हुई, जैसे बीटी रोड के किनारे किनारे उद्योगों का जाल रचा, वह कैसे और क्यों सिरे सेखत्म हो गया और चारों तरफ तबाही का मंजर बन गया, कपड़ा मिलें खत्म हो गयीं, इंजीनियरिंग वर्क्स टप हो गया और जूट मिलें कब्रिस्तान में तब्दील हो गयीं, इस पूरे परिदृश्य को सिरे से बदलने के लिए अब सकारात्मक मजदूर आंदोलन  की आवश्यकता है जो सत्ता की राजनीति से एकदम अलहदा हो। तभी मई दिवस मनाने का कोई मायने निकल सकता है।


बंगाल के लिए जो ज्वलंत सच है, वह बाकी भारत में भी प्रासंगिक है।मुख्य सवाल यह है कि हम मई दिवस क्यों मनाते हैं? इतिहास के अपने नायकों को क्यों याद करते हैं? इसलिए कि हम उनके संघर्ष और बलिदान की उदात्त भावना से प्रेरणा ले सकें और उनके संघर्ष की परिस्थितियों, नारों और तौर-तरीकों को ठीक से समझ-बूझकर आज की परिस्थिति में उनका सर्जनात्मक उपयोग कर सकें। यह मंतव्य एकदम सही है कि जब तक लोग कुछ सपनों और आदर्शों को लेकर लड़ते रहते हैं, किसी ठोस, न्यायपूर्ण मकसद को लेकर लड़ते रहते हैं, तब तक अपनी शहादत की चमक से राह रोशन करने वाले पूर्वजों को याद करना उनके लिए रस्म या रुटीन नहीं होता। यह एक जरूरी आपसी, साझा, याददिहानी का दिन होता है, इतिहास के पन्नों पर लिखी कुछ धुँधली इबारतों को पढ़कर उनमें से जरूरी बातों की नये पन्नों पर फिर से चटख रोशनाई से इन्दराजी का दिन होता है, अपने संकल्पों से फिर नया फौलाद ढालने का दिन होता है।बशर्ते कि हम गुमशुदा सपनों  और बाजार में बिके हुए आदर्शों को अपने सीने में डालकर कुछ नया करने का माद्दा रखते हों।


इस महान दिन का राजनीतिक निहितार्थ उत्तरोत्तर लुप्त होता जा रहा है और आयोजन के लिए आयोजन का रिवाज बनता जा रहा है। पूंजीवादी और अवसरवादी (कथन में समाजवादी और करनी में पूंजीवादी) राजनीति के घने बादलों के बीच मई दिवस का सूर्य तत्काल ढंक सा गया है।



मई दिवस (1 मई 1886) की घटनाओं को याद कर लेना और शहीदों की प्रतिमाओं पर फूल माला चढ़ाकर इतिश्री कर लेना पूंजीवादी तरीका है। यह धर्म राष्ट्रवादी राजनीतिक व्यवस्था में राजनीतिक दिखता हुआ धार्मिक कर्मकांड के अलावा कुछ नहीं है।


जबसे भारत में नवउदारवादी विकास का माडल औपचारिक रुप से लागू हुआ, यानी बहुसंख्य जनता और किसानों मजदूरों, छोटे व्यापारियों के हितों की बलि देकर बाजार के अनुरुप अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली का कायाकल्प होने लगा कारपोरेट सरकारों के कारपोरेट नीति निर्धारण के तहत,तबसे लेकर आज तक कभी इस रस्मअदायगी में कोई व्यवधान नहीं आया। पर कहीं भी मजदूरों कामगारों के हक हकूक की कोई लड़ाई शुरु करने में इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर भारत में मई दिवस को याद करने का अवसर नहीं आया।


इस समय समय में देश में श्रमिक हित हेतु गठित मुख्यतः अखिल भारतीय स्तर के चार-पांच श्रमिक संगठन हैं जिनमें प्रमुख हैं भाकपा की नीतियों से जुड़ी अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक), माकपा से जुड़ी सेन्टर ऑफ ट्रेड यूनियन (सीटू), कांग्रेस की छत्रछाया पायी भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भाजपा के विचारधारा से जुड़ी भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) है। इनके अलावा इन्हीं के बीच से स्वार्थ वशीभूत होकर आपसी मतभेद के कारण उभरे अनेक श्रमिक संगठन भी हैं जिनमें हिन्दुस्तान मजदूर पंचायत, हिन्दुस्तान मजदूर सभा, किसान ट्रेड यूनियन आदि। जिनपर भी किसी न किसी राजनीतिक दलों की छाया विराजमान है। श्रमिकों के हित का संकल्प लेने वाले ये श्रमिक संगठन देश के मजदूरों को कभी भी एक मंच पर होने नहीं देते।


संगठित क्षेत्र में मजदूर आंदोलन का एक ही मतलब रह गया है वेतनमान और भत्तों में । इस आंदोलनका न देश के बहुसंख्य जनता और न कामगार तबके के लिए कोई मायने नहीं रह गया। मजदूर संगठन इन्हीं मांगों को लेकर इसके साथ आम जनता की कुछ मागो को लेकर आंदोलन पर उतरते हैं। समस्याएं जहा कि तहां रह जाती हैं। जो छंटनी या स्वेच्छा अवसर योजना या विनिवेश या आधिुनिकीकरण के शिकारहुए उनकी बहाली के लिए कतई लड़े बिना अंततः वेतनमान और भत्तो के मुद्दे पर समझौते कर लिये जाते है। मजदूरविरोधी हर कारपोरेट फैसलों में इनमजदूर संगठनों की सहमति होती है और अमूमन फैसला लागू करते वक्त इन संगठनों के नेता अक्सर सपरिवार दूसरों के खर्च पर विदेस यात्राओं पर होते हैं। इसी निरंतर विश्वास घात का मनाम है उत्तरआधुनिक मजदूर आंदोलन।



इस मई दिवस के अवसर पर क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनों को चाहिए कि वे तमाम गैर प्रजातांत्रिक कदमों - महंगाई, भ्रष्टाचार, पर्यावरण के क्षरण, भूमि हथियाने आदि के खिलाफ उत्पीड़ित जनता के संघर्ष के साथ एकजुट हों।भूमंडलीयकरण के इस युग में सबसे ज्यादा प्रभावित आज का मेहनतकश वर्ग हुआ है।


सरकार की नई आर्थिक नीतियो के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े -बड़े उद्योग घाटे के नाम से कुछ बंद कर दिये गये तो कुछ निजी हाथों में सौंप दिये गये। इन उद्योगों में कार्य कर रहे अधिकांश लोगों को स्वैच्छिक सेवा के तहत कार्य सेवा से बहुत पहले ही मुक्त कर बेरोजगार की पंक्ति में खड़ा कर दिया गया।मई दिवस पर सामाजिक व उत्पादक सक्तियों का साझा मोर्चा बनाकर हालात बदलने का संकल्प भी किया जा सकता है।


कौन कहता है कि आसमान में छेद नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो!


मगर इसके लिए जो जज्बा चाहिेए,वह हममें नदारद है।




आज हालात ऐसे उभर चले है कि मजदूर संगठनों की आवाज भी नहीं सुनी जा रही है। इसका ताजा उदाहरण है कि अभी हाल ही में देश के समस्त मजदूर संगठनों ने सरकार की मजदूर विरोधी नीतियों एवं बढ़ती महंगाई को लेकर एक दिन की आम हड़ताल की पर सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। इस हड़ताल में पहली बार देश के सभी श्रमिक संगठन शामिल हुए तथा औद्योगिक क्षेत्रों,  सार्वजनिक बैंकों में हड़ताल शत् प्रतिशत सफल रही। करोडों का नुकसान हुआ। श्रमिकों की एक दिन की मजदूरी कटी पर सरकार पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा। उलटे मजदूरों की गाढ़ी कमाई से एकत्रित की गई भविष्य निधि की राशि पर व्याज दर घटा दी गई। जो कुछ नुकसान हुआ देश का हुआ, आम जन का हुआ,मजदूरों का हुआ जिससे इनका कोई लेना देना नहीं। इसकी भरपाई तो देश की अवाम टैक्स भरकर कर ही देगी। फिर हड़ताल हो या बंद, क्या फर्क पड़ता है ?


ऐसा इसलिए हुआ कि श्रमिक संगठन राजनीतक दलों के साथ नत्थी हैं औरर उन्हीके हितों के मुताबिक आंदोलन की परिणति हो जाती है। अक्सर जिन नीतियों और कानूनों के खिलाफ आंदोलन होते हैं, इन  संगठनों से जुड़े राजनीतिक दलों के सांसदद और विधायक उन्हें पास कराते हैं और कोई विरोध भी दर्ज नहीं करते। राजनीतिक नेतृत्वके मातहत होने की वजह से ही भारतीय मजदूर संगठनों की कोई स्वायत्ता नहीं होती और आंदोलनों को ​​बेअसर   करने वाली राजनीतिक व्यवस्था में बैठे हुए लोगों के मातहत श्रमिक नेतृत्व इस लसिलसिले में कुछ कर भी नहीं पाता।


इस तरह के बदलते परिवेश में देश के श्रमिक संगठनों को मई दिवस की प्रासंगिकता के संदर्भ में श्रमिकों के हित में अपनी कार्यशैली, सोच एवं तौर तरीके बदलने होंगे।


साल 2011 का यह फैसला ऐसे दौर में आया है जब निजीकरण (पीपीपी), छंटनी, तालाबन्दी, डाउनसाइजिंग, ठेकाकरण की तेज मुहिम चल रही है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) व 'लचीले श्रम कानून' के बहाने लम्बे संघर्षों के दौरान मिले कानूनो को छीनना जायज ठहराया जा चुका है। राज्य मशीनरी ज्यादा दमनकारी हुई है तो न्यायपालिकाएं ज्यादा आक्रामक और मज़दूर विरोधी फैसलों के लिए कुख्यात।


साल 2011 मज़दूर हादसों में बढ़ोत्तरी का रहा है तो छोटे-बड़े संघर्षों का भी। हालांकि ज्यादातर आन्दोलन छिने जा चुके पुराने अधिकारों की बहाली, श्रम कानूनों को लागू करने, यूनियन बनाने के अधिकार, ठेकेदारी प्रथा को खत्म करने आदि के इर्द-गिर्द और बिखरे-बिखरे रहे। दरअसल, आज मज़दूरों के काम करने की स्थितियां एकदम कठिन हो चुकी हैं।


आधुनिक तकनीकें और सीएनसी मशीनों ने श्रमशक्ति काफी घटा दी हैं। ऊपर से ठेकेदारी में मामूली दिहाड़ी पर 12-12 घण्टे खटना नियम बन चुका है। सुरक्षा के कोई इंतेजाम न होने से रोजमर्रा के हादसे आम बात बन चुकी है। अंग-भंग होने से लेकर जान जाने तक की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं।


कारखानों के इर्द-गिर्द डाक्टरों के धन्धे भी खूब चमक गये हैं, क्योंकि घायलों के कथित इलाज के बहाने कम्पनियों के कुकर्मों को ढकने का ठेका इन्हीं के पास होता है। यह भी गौरतलब है कि अवसरवादी हो चुकी पुरानी ट्रेड यूनियनें, उनके महासंघ और मठाधीश मज़दूर नेताओं की काली करतूतें कोढ़ में खाज का काम कर रही हैं। इसी आलोक में वर्ष 2011 के कुछ मज़दूर संघर्षों पर नजर डालते हैं :-


देशी-विदेशी कम्पनियों के नये हब गुजरात के आलोक में बहुराष्ट्रीय जनरल मोटर के मज़दूरों का संघर्ष, पश्चिम बंगाल में मज़दूर क्रान्ति परिषद के नेतृत्व में बन्द कारखानों के मज़दूरों का बन्दी भत्ता बढ़ाने का आन्दोलन, ईसीएल के खुदिया कोयलरी में पीस रेट श्रमिकों की हड़ताल, महाराष्ट्र में वोल्टास कारखाने की बन्दी के खिलाफ सफल मज़दूर आन्दोलन, तामिलनाडु में न्यूक्लियर एनर्जी परियोजना विरोधी आन्दोलन, उड़ीसा में पास्को विरोधी प्रतिरोध संघर्ष, उत्तर प्रदेश में भटनी से लेकर अलीगढ़, ग्रेटर नोएडा तक जमीन छीने जाने के खिलाफ किसानों के उग्र आन्दोलन, गोरखपुर का मज़दूर आन्दोलन, उत्तर प्रदेश के लम्बे समय से बन्द कताई मिलों के मज़दूरों का सामूहिक सेवानिवृत्ति के लिए लखनऊ में कई दौर के धरना-प्रदर्शन के बाद वी.आर.एस. की प्राप्ति, सहित तमाम प्रतिरोध आन्दोलन पूरे वर्ष चलते रहे।


इस क्रम में उत्तराखण्ड में जहाँ 4600 शिक्षामित्रों का नियमितीकरण को लेकर सतत जारी आन्दोलन और पुलिसिया दमन 2011 में सुर्खियों में रहा, वहीं बी.पी.एड. प्रशिक्षित बेराजगारों का भी आन्दोलन चलता रहा।


उधर राज्य के औद्योगिक क्षेत्र सिडकुल में लगातार बढ़ते शोषण-दमन और छंटनी के खिलाफ छिटपुट संघर्ष भी पूरे साल होते रहे। इनमें मंत्री मेटेलिक्स पंतनगर, एवरेडी हरिद्वार, बु्रशमैन लि. पंतनगर, सूर्या रोशनी काशीपुर, आई.एम.पी.सी.एल. मोहान-अल्मोड़ा आदि के संघर्ष प्रमुख हैं। वोल्टास लिमिटेड पंतनगर में ठेकेदारी के खत्मे और श्रम कानूनों को लागू करने आदि मुद्दों को लेकर आन्दोलन अभी भी चल रहा है।


इसी के बीच विदेशी कम्पनियों के हितानुरूप बीमा संसोधन बिल के खिलाफ सार्वजनिक बीमा कर्मियों के आन्दोलन की कुछ कवायदें और सार्वजनिक बैंक कर्मियों के हड़ताल की रस्मअदायगी भी सम्पन्न हुई। सार्वजनिक क्षेत्र के कोल इण्डिया लि. की 10 फीसदी भागेदारी बाजार में बेंचने का विरोध भी सामान्य रहा।


इस वर्ष सर्वाधिक सुर्खियों में रहा गुडगाँव-मानेसर में मारुति सुजकी, सुजुकी पॉवरट्रेन, सुजुकी बाइक के मज़दूरों का जुझारू संघर्ष। तमाम उतार-चढ़ावों से भरे इस महत्वपूर्ण आन्दोलन ने कुछ नये सवाल खड़े कर दिये और एक नयी बहस को जन्म दे दिया।


'मज़दूर जीते या हारे', 'नेताओं ने धोखा दिया या मजबूर थे', 'ट्रेड यूनियन महासंघों की भूमिका संदिग्ध थी' 'मज़दूरों की तो आज यही नियति है', 'मज़दूरों में चेतना का अभाव था', 'नेताओ में वैचारिक अपरिपक्वता थी', 'आन्दोलन के दौर के समर्थक-पक्षधर लोग निराश हुए'... आदि-आदि। आज के कठिन दौर में मज़दूर आन्दोलन के सामने यह एक बेहद चुनौतीपूर्ण प्रश्न है। सबक के तौर पर इस मुद्दे पर गहन विचार मंथन जरूरी है।


यह सच है कि 21वीं सदी का मज़दूर आन्दोलन मुश्किल भरे दौर से गुजर रहा है। जहाँ आज श्रम और पूँजी ज्यादा खुलकर आमने-सामने खड़ी हैं, वहीं श्रम विभाजन ज्यादा जटिल हो गया है। इसने मानव जीवन के समस्त पहलुओं को अपने प्रभाव में ले लिया है। वैश्विक पूँजी एकाकार हुई है, तो दुनिया का मज़दूर वर्ग भी एकदूसरे से अदृश्य धागे में बंधा है। एक रूप में 'दुनिया के मज़दूरों, एक हो' का नारा आज ज्यादा सार्थक अर्थ ग्रहण कर रहा है।


लेकिन ठीक इसी मुकाम पर आज का मज़दूर वर्ग पहले से ज्यादा विभाजित है। जाति-मजहब-क्षेत्र, परमानेण्ट-कैजुअल-ठेका, सरकारी-निजी जैसे बहुविध बंटवारे तो पहले से ही थे, अब इस दौर में सेवा क्षेत्र जैसे नये-नये सेक्टरों के खुलने से श्रमशक्ति का बहुस्तरीय विभाजन हुआ है। वैज्ञानिक प्रबंधन की अपनी तकनीक के जरिए पूँजीवाद ने नये श्रमविभाजन से वैर-भावपूर्ण (जलनपूर्ण, दुश्मनाना) सामाजिक रिश्तों का निर्माण किया है।


मोबाइल-नेट की दुनिया इसे मुकम्ल बना रही है। उत्पादन के साधन और शोषण के तरीके ज्यादा उन्नत व जटिल हुए हैं, तो मज़दूर वर्ग के संघर्ष लगभग पुराने रास्ते पर ही चल रहे हैं - नये तरीकों की बात करते हुए भी।


आज हमारे सामने बिखरी, किन्तु केन्द्रीकृत असेंबली लाइन पर बिखरी हुई मज़दूर आबादी है। यूं तो ज्यादातर काम ठेकेदारी के मातहत है। उस पर भी मूल कारखाने का अधिकतम काम बाहर होता है, जहॉं उनके वेण्डर, उनके भी सब वेण्डर और उसके भी नीचे पीस रेट पर काम करने वालों की पूरी एक चेन है। यह स्थानीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर पर फैला हुआ है।


इस प्रकार एक ही उत्पाद में लगी पूरी आबादी खण्डों में बिखरी हुई है। थोड़े से परमानेण्ट मज़दूरों को छोड़ कर भारी आबादी बेहद कठिन परिस्थितियों व मामूली दिहाडी पर खटते हुए बेहद जिल्लत की जिन्दगी जीने को अभिशप्त है।


संगठित क्षेत्र की होकर भी यह असंगठित आबादी संगठित कैसे हो, यह बड़ी चुनौती है। ऐसे मे कभी-कभार होने वाले स्फुट संघर्ष मज़दूरों की चेतना और संघर्षशीलता को आगे ले जाने की जगह कई बार पीछे धकेल देते हैं। यह भी होता है कि स्थाई मज़दूर अपने वेतन बढोत्तरी की लड़ाई में कैजुअल और ठेका मज़दूरों का इस्तेमाल कर ले जाते हैं और वे ठगे रह जाते हैं। संधर्षों के बावजूद मज़दूरों का क्रान्तिकारीकरण भी नहीं हो पाता है।


ध्वस्त उत्पादन प्रणाली के गवाह ये आंकड़े हैं।औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) पर आधारित देश की औद्योगिक उत्पादन दर फरवरी 2013 में 0.6 फीसदी रही, जो वित्त वर्ष 2011-12 की समान अवधि में 4.30 फीसदी थी। यह जानकारी शुक्रवार को जारी केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के आंकड़ों से सामने आई है।


उपभोक्ता वस्तु को छोड़कर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में समाहित अन्य सभी क्षेत्रों को गिरावट का सामना करना पड़ा। खनन, बिजली और उपभोक्ता गैर टिकाऊ वस्तु क्षेत्र का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। इससे पता चलता है कि एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में औद्योगिक सुस्ती जारी है। आईआईपी में जनवरी में 2.4 फीसदी तेजी आई थी।


आलोच्य अवधि में खनन उत्पादन में 8.1 फीसदी की गिरावट रही, जिसमें पिछले साल की समान अवधि में 2.3 फीसदी तेजी थी। जनवरी 2013 में इसमें 2.9 फीसदी गिरावट रही।


आलोच्य अवधि में बिजली उत्पादन में 3.2 फीसदी गिरावट रही, जिसमें पिछले वर्ष की समान अवधि में आठ फीसदी तेजी थी।


इसी अवधि में हालांकि विनिर्माण उत्पादन में 2.2 फीसदी तेजी रही, जिसमें पिछले वर्ष की समान अवधि में 4.1 फीसदी तेजी थी।


उपभोक्ता वस्तु में 0.5 फीसदी तेजी रही, जिसमें एक साल पहले 0.4 फीसदी गिरावट थी।


अप्रैल 2012 से फरवरी 2013 तक की कुल अवधि में औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर एक साल पहले की समान अवधि के मुकाबले 0.9 फीसदी रही।


कारेाबारी क्षेत्र की दृष्टि से सर्वाधिक गिरावट वाले क्षेत्र रहे बिस्किट (-26.8 फीसदी), ग्राइंडिंग व्हील (-34.2 फीसदी), स्टाम्पिंग एंड फोर्जिग (-24.4 फीसदी), मशीन टूल्स (-51.9 फीसदी), अर्थ मूविंग मशीनरी (-20 फीसदी) और वाणिज्यिक वाहन (-23.6 फीसदी)।


सर्वाधिक तेजी वाले क्षेत्रों में रहे काजू की गरी (83.4 फीसदी), परिधान (16.00 फीसदी), चमड़े के परिधान (39.6 फीसदी), पानी का जहाज, निर्माण और मरम्मत (105.4 फीसदी), कंडक्टर, एल्यूमीनियम (66.00 फीसदी), केबल, रबर इंसुलेटेड (188.5 फीसदी)।



दरअसल विकेन्द्रीकरण की मौजूदा प्रक्रिया ने समग्र तौर पर पूंजीवादी उत्पादन को अपने सारतत्व में और अधिक एकीकृत, केन्द्रीकृत कर दिया है। विकेन्द्रीकृत वह जिस हद तक भी हुआ है वह स्वतंत्र और आत्मनिर्भर, उत्पादन इकाइयों के आंदोलनों की जमीन तैयार कर रहा है क्योंकि आत्मनिर्भर औद्योगिक इकाइयों में अन्य उद्योगों से जो पार्थक्य का तत्व था उसको  इसने खत्म कर दिया है। हालांकि पूंजीवादी उत्पादन में पूरी तरह आत्मनिर्भर उत्पादन या शेष उत्पादक इकाइयों से पूरी तरह पार्थक्य संभव नहीं है।


जो विकेन्द्रीकरण हुआ है उसने एक मुख्य उत्पादक इकाई के इर्द गिर्द सहायक उत्पादक इकाइयों (एसीसरीज) का जो जाल खड़ा किया है उसने इसको एक नए संकट की तरफ धकेला है। इसने उत्पादक इकाइयों को नए संबंधों में जोड़ दिया है। एक के प्रभावित होने पर इस जाल में बंधी सभी उत्पादक इकाइयों के प्रभावित होने के खतरे बढ़ गए हैं। विकेन्द्रीकरण के इस जाल में पृथकता का तत्व आभासी रूप से हावी दिखायी देता है लेकिन दूसरे रूप में इसने एक नयी परस्पर संबद्ध संरचना का वास्तविक जाल तैयार कर दिया है।


इस जाल के तार चूंकि राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय पैमाने पर जुड़े हैं इसलिए इनमें से किसी एक में पैदा होने वाला संकट सभी को अपनी चपेट में अवश्यंभावी तौर पर ले लेगा। कुल मिलाकर विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण की उत्पादन प्रणाली ने भावी मजदूर आंदोलन के फलक को और ज्यादा विस्तारित किया है। उसे राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने तक फैला दिया है। इसने न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित मजदूर आंदोलन के आधार को मजबूत किया है।


इस तरह दुनिया भर के मजदूरों के साझा संघर्षों के नारे को पहले से अधिक मौजू बना दिया है। 'दुनिया के मजदूरो,एक हो' का नारा उत्पादन के विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण की प्रक्रिया में और अधिक प्रासंगिक हो गया है।


विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण की उत्पादन प्रणाली के गहन जाल के किसी एक तंतु पर ही सारा ध्यान केन्द्रित करने पर यह निराशावादी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अब एक इकाई या एक एक कारखाने के संघर्ष उस इकाई में उत्पादन को ठप्प नहीं कर सकते इसलिए कारखाना आधारित संघर्षों का युग अब खत्म हो गया है।


विकेन्द्रीकृत केन्द्रीकरण की प्रणाली के चलते एक कारखाने में बड़े पैमाने पर संगठित मजदूरों की संख्या का घटते जाना या उनकी संघर्षशीलता के लुप्त होते जाने की भविष्यवाणी भी अपने आप में कितनी बेतुकी है इसे मौजूदा गुड़गांव के ऑटो मजदूरों के संघर्ष से समझा जा सकता है।


मजदूरो को आज नये तरीके से चीजों को शुरू करना पड़ेगा। हड़ताल को अन्तिम हथियार समझकर संघर्ष के नये तौर तरीके विकसित करने होंगे। जमीनी स्तर पर कामों को केन्द्रित करना होगा। सार्थक संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए सही रणनीति जरूरी है और सही रणनीति के लिए वस्तुस्थिति व मौजूदा हक़ीकत को समझना बेहद आवश्यक है।


निजीकरण, विनिवेश , अबाध विदेशी पूंजी और कल कारखानों में क्लोजर, लाकआउट, छंटनी के जरिये जो एकाधिकारवादी आक्रमण मजदूरवर्ग पर हो रहा है, उसके प्रतिरोध में किसी भी मई दिवस पर नये आंदोलन की शुरुआत नहीं हुई है पिछले बीस साल के दरम्यान। इस लिए मई दिवसपालन मात्र रस्म अदायगी भर रह गया है और फिलहाल इससे दूसरा कोई तात्पर्य निकलता हुआ देखता नहीं।सनद रहें कि 18 मई, 1882 में 'सेन्ट्रल लेबर यूनियन ऑफ़ न्यूयार्क' की एक बैठक में पीटर मैग्वार ने एक प्रस्ताव रखा, जिसमें एक दिन मजदूर उत्सव मनाने की बात कही गई थी। उसने इसके लिए सितम्बर के पहले सोमवार का दिन सुझाया। यह वर्ष का वह समय था, जो जुलाई और 'धन्यवाद देने वाला दिन' के बीच में पड़ता था। भिन्न-भिन्न व्यवसायों के 30,000 से भी अधिक मजदूरों ने 5 दिसम्बर को न्यूयार्क की सड़कों पर परेड निकाली और यह नारा दिया कि "8 घंटे काम के लिए, 8 घंटे आराम के लिए तथा 8 घंटे हमारी मर्जी पर।" इसे 1883 में पुन: दोहराया गया। 1884 में न्यूयार्क सेंट्रल लेबर यूनियन ने मजदूर दिवस परेड के लिए सितम्बर माह के पहले सोमवार का दिन तय किया। यह सितम्बर की पहली तारीख को पड़ रहा था। दूसरे शहरों में भी इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय त्योहार के रूप में मनाने के लिए कई शहरों में परेड निकाली गई। मजदूरों ने लाल झंडे, बैनरों तथा बाजूबंदों का प्रदर्शन किया। सन 1884 में एफ़ओटीएलयू ने हर वर्ष सितम्बर के पहले सोमवार को मजदूरों के राष्ट्रीय अवकाश मनाने का निर्णय लिया। 7 सितम्बर, 1883 को पहली बार राष्ट्रीय पैमाने पर सितम्बर के पहले सोमवार को 'मजदूर अवकाश दिवस' के रूप में मनाया गया। इसी दिन से अधिक से अधिक राज्यों ने मजदूर दिवस के दिन छुट्टी मनाना प्रारम्भ किया।इन यूनियनों तथा उनके राष्ट्रों की संस्थाओं ने अपने वर्ग की एकता, विशेषकर अपने 8 घंटे प्रतिदिन काम की मांग को प्रदर्शित करने हेतु 1 मई को 'मजदूर दिवस' मनाने का फैसला किया। उन्होंने यह निर्णल लिया कि यह 1 मई, 1886 को मनाया जायेगा। कुछ राज्यों में पहले से ही आठ घंटे काम का चलन था, परन्तु इसे क़ानूनी मान्यता प्राप्त नहीं थी; इस मांग को लेकर पूरे अमरीका में 1 मई, 1886 को हड़ताल हुई। मई 1886 से कुछ वर्षों पहले देशव्यापी हड़ताल तथा संघर्ष के दिन के बारे में सोचा गया। वास्तव में मजदूर दिवस तथा कार्य दिवस संबंधी आंदोलन राष्ट्रीय यूनियनों द्वारा 1885 और 1886 में सितम्बर के लिए सोचा गया था, लेकिन बहुत से कारणों की वजह से, जिसमें व्यापारिक चक्र भी शामिल था, उन्हें मई के लिए परिवर्तित कर दिया। इस समय तक काम के घंटे 10 प्रतिदिन का संघर्ष बदलकर 8 घंटे प्रतिदिन का बन गया।



मई दिवस या 'मजदूर दिवस' या 'श्रमिक दिवस' 1 मई को सारे विश्व में मनाया जाता है।मई दिवस या 'मजदूर दिवस' या 'श्रमिक दिवस' 1 मई को सारे विश्व में मनाया जाता है।


भारत में 'मई दिवस'


कुछ तथ्यों के आधार पर जहाँ तक ज्ञात है, 'मई दिवस' भारत में 1923 ई. में पहली बार मनाया गया था। 'सिंगारवेलु चेट्टियार' देश के कम्युनिस्टों में से एक तथा प्रभावशाली ट्रेंड यूनियन और मजदूर तहरीक के नेता थे। उन्होंने अप्रैल 1923 में भारत में मई दिवस मनाने का सुझाव दिया था, क्योंकि दुनिया भर के मजदूर इसे मनाते थे। उन्होंने फिर कहा कि सारे देश में इस मौके पर मीटिंगे होनी चाहिए। मद्रास में मई दिवस मनाने की अपील की गयी। इस अवसर पर वहाँ दो जनसभाएँ भी आयोजित की गईं तथा दो जुलूस निकाले गए। पहला उत्तरी मद्रास के मजदूरों का हाईकोर्ट 'बीच' पर तथा दूसरा दक्षिण मद्रास के ट्रिप्लिकेन 'बीच' पर निकाला गया।


सिंगारवेलू ने इस दिन 'मजदूर किसान पार्टी' की स्थापना की घोषणा की तथा उसके घोषणा पत्र पर प्रकाश डाला। कांग्रेस के कई नेताओं ने भी मीटिंगों में भाग लिया। सिंगारवेलू ने हाईकार्ट 'बीच' की बैठक की अध्यक्षता की। उनकी दूसरी बैठक की अध्यक्षता एस. कृष्णास्वामी शर्मा ने की तथा पार्टी का घोषणा पत्र पी.एस. वेलायुथम द्वारा पढ़ा गया। इन सभी बैठकों की रिपोर्ट कई दैनिक समाचार पत्रों में छपी। मास्को से छपने वाले वैनगार्ड ने इसे भारत में पहला मई दिवस बताया।


फिर दुबारा 1927 में सिंगारवेलु की पहल पर मई दिवस मनाया गया, लेकिन इस बार यह उनके घर मद्रास में मनाया गया था। इस अवसर पर उन्होंने मजदूरों तथा अन्य लोगों को दोपहर की दावत दी। शाम को एक विशाल जूलुस निकाला गया, जिसने बाद में एक जनसभा का रूप ले लिया। इस बैठक की अध्यक्षता डा.पी. वारादराजुलू ने की। कहा जाता है कि तत्काल लाल झंडा उपलब्ध न होने के कारण सिंगारवेलु ने अपनी लड़की की लाल साड़ी का झंडा बनाकर अपने घर पर लहराया।


अमरीका में 'मजदूर आंदोलन' यूरोप व अमरीका में आए औद्योगिक सैलाब का ही एक हिस्सा था। इसके फलस्वरूप जगह-जगह आंदोलन हो रहे थे। इनका संबंध 1770 के दशक की अमरीका की आज़ादी की लड़ाई तथा 1860 ई. का गृहयुद्ध भी था। इंग्लैंड के मजदूर संगठन विश्व में सबसे पहले अस्तित्व में आए थे। यह समय 18वीं सदी का मध्य काल था। मजदूर एवं ट्रेंड यूनियन संगठन 19वीं सदी के अंत तक बहुत मज़बूत हो गए थे, क्योंकि यूरोप के दूसरे देशों में भी इस प्रकार के संगठन अस्तित्व में आने शुरू हो गए थे। अमरीका में भी मजदूर संगठन बन रहे थे। वहाँ मजदूरों के आरम्भिक संगठन 18वीं सदी के अंत में और 19वीं सदी के आरम्भ में बनने शुरू हुए। मिसाल के तौर पर फ़िडेलफ़िया के शूमेकर्स के संगठन, बाल्टीमोर के टेलर्स[2] के संगठन तथा न्यूयार्क के प्रिन्टर्स के संगठन 1792 में बन चुके थे। फ़र्नीचर बनाने वालों में 1796 में और 'शिपराइट्स' में 1803 में संगठन बने। हड़ताल तोड़ने वालों के ख़िलाफ़ पूरे अमरीका में संघर्ष चला, जो उस देश में संगठित मजदूरों का अपनी तरह एक अलग ही आंदोलन था। हड़ताल तोड़ना घोर अपराध माना जाता था और हड़ताल तोड़ने वालों को तत्काल यूनियन से निकाल दिया जाता था।


अमरीका में 18वें दशक में ट्रेंड यूनियनों का शीघ्र ही विस्तार होता गया। विशिष्ट रूप से 1833 और 1837 के समय। इस दौरान मजदूरों के जो संगठन बने, उनमें शामिल थे- बुनकर, बुक वाइन्डर, दर्जी, जूते बनाने वाले लोग, फ़ैक्ट्री आदि में काम करने वाले पुरुष तथा महिला मजदूरों के संगठन। 1836 में '13 सिटी इंटर ट्रेंड यूनियन ऐसासिएशन' मोजूद थीं, जिसमें 'जनरल ट्रेंड यूनियन ऑफ़ न्यूयार्क' (1833) भी शामिल थी, जो अति सक्रिय थी। इसके पास स्थाई स्ट्राइक फ़ंड भी था, तथा एक दैनिक अख़बार भी निकाला जाता था। राष्ट्रव्यापी संगठन बनाने की कोशिश भी की गयी यानी 'नेशनल ट्रेंड्स यूनियन', जो 1834 में बनायी गयी थी। दैनिक काम के घंटे घटाने के लिए किया गया संघर्ष अति आरम्भिक तथा प्रभावशाली संघर्षों में एक था, जिसमें अमरीकी मजदूर 'तहरीक' का योगदान था। 'न्यू इंग्लैंड के वर्किंग मेन्स ऐसासिएशन' ने सन 1832 में काम के घंटे घटाकर 10 घंटे प्रतिदिन के संघर्ष की शुरुआत की।1835 तक अमरीकी मजदूरों ने काम के 10 घंटे प्रतिदिन का अधिकार देश के कुछ हिस्सों में प्राप्त कर लिया था। उस वर्ष मजदूर यूनियनों की एक आम हड़ताल फ़िलाडेलफ़िया में हुई। शहर के प्रशासकों को मजबूरन इस मांग को मानना पड़ा। 10 घंटे काम का पहला क़ानून 1847 में न्यायपालिका द्वारा पास करवाकर हेम्पशायर में लागू किया गया। इसी प्रकार के क़ानून मेन तथा पेन्सिल्वानिया राज्यों द्वारा 1848 में पास किए गए। 1860 के दशक के शुरुआत तक 10 घंटे काम का दिन पूरे अमरीका में लागू हो गया।


अब से 124 वर्षों पहले मई दिवस के वीर शहीदों - पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल, फिशर और उनके साथियों के नेतृत्व में शिकागो के मजदूरों ने आठ घण्टे के कार्यदिवस के लिए एक शानदार, एकजुट लड़ाई लड़ी थी। तब हालात ऐसे थे कि मजदूर कारखानों में बारह, चौदह और सोलह घण्टों तक काम करते थे। काम के घण्टे कम करने की आवाज उन्नीसवीं शताब्दी के मध्‍य से ही यूरोप, अमेरिका से लेकर लातिन अमेरिकी और एशियाई देशों तक के मजदूर उठा रहे थे। पहली बार 1862 में भारतीय मजदूरों ने भी इस माँग को लेकर कामबन्दी की थी। 1 मई, 1886 को पूरे अमेरिका के 11,000 कारखानों के तीन लाख अस्सी हजार मजदूरों ने आठ घण्टे के कार्यदिवस की माँग को लेकर एक साथ हड़ताल की शुरुआत की थी। शिकागो शहर इस हड़ताल का मुख्य केन्द्र था। वहीं 4 मई को इतिहास-प्रसिध्द 'हे मार्केट स्क्वायर गोलीकाण्ड' हुआ। फिर मजदूर बस्तियों पर भयंकर अत्याचार का ताण्डव हुआ। भीड़ में बम फेंकने के फर्जी आरोप (बम वास्तव में पुलिस के उकसावेबाज ने फेंका था) में आठ मजदूर नेताओं पर मुकदमा चलाकर पार्सन्स, स्पाइस, एंजेल और फिशर को फाँसी दे दी गयी। अपने इन चार शहीद नायकों की शवयात्रा में छह लाख से भी अधिक लोग सड़कों पर उमड़ पड़े थे। पूरे अमेरिकी इतिहास में इतने लोग केवल दासप्रथा समाप्त करने वाले लोकप्रिय अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या के बाद, उनकी शवयात्रा में ही शामिल हुए थे।


शिकागो की बहादुराना लड़ाई को ख़ून के दलदल में डुबो दिया गया, पर यह मुद्दा जीवित बना रहा और उसे लेकर दुनिया के अलग-अलग कोनों में मजदूर आवाजें उठाते रहे और कुचले जाते रहे। काम के घण्टे की लड़ाई उजरती ग़ुलामी के खिलाफ इंसान की तरह जीने की लड़ाई थी। यह पूँजीवाद की बुनियाद पर चोट करने वाला एक मुद्दा था। इसे उठाना मजदूर वर्ग की बढ़ती वर्ग-चेतना का, उदीयमान राजनीतिक चेतना का परिचायक था। इसीलिए मई दिवस को दुनिया के मेहनतकशों के राजनीतिक चेतना के युग में प्रवेश का प्रतीक दिवस माना जाता है।


शिकागो के मजदूरों को कुचल दिया गया। पूरी दुनिया में 8 घण्टे के कार्यदिवस की माँग उठाने वाले मजदूर आन्दोलनों को कुछ समय के लिए पीछे धकेल दिया गया। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था को चलाने वाले दूरदर्शी नीति-निर्माता यह समझ चुके थे कि इस माँग को दबाया नहीं जा सकता और पूँजीपतियों के हित में पूँजीवाद को बचाने के लिए 8 घण्टे कार्यदिवस के लिए कानून बना देना ही उचित होगा। बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में ही दुनिया के ज्यादातर देशों में ऐसे कानून बनाये जा चुके थे। हालाँकि उन्नत मशीनें लाकर, कम समय में ज्यादा उत्पादन करके मजदूर के शोषण का सिलसिला फिर भी जारी रहा (बल्कि पहले से भी ज्यादा मुनाफा निचोड़ा जाने लगा) फिर भी मजदूर को सोने-आराम करने, परिवार के साथ समय बिताने के लिए, इंसान की तरह जीने के लिए, कुछ वक्त नसीब होने लगा। हालाँकि एक समस्या यह भी थी कि कानून बनने के बावजूद, इसके प्रभावी अमल के लिए मजदूर वर्ग को लगातार लड़ना पड़ा और असंगठित मजदूरों के लिए यह कानून, और ऐसे तमाम कानून कभी भी बहुत प्रभावी नहीं रहे।


प्रथम मजदूर राजनैतिक पार्टी सन 1828 ई. में फ़िलाडेल्फ़िया, अमरीका में बनी थी। इसके बाद ही 6 वर्षों में 60 से अधिक शहरों में मजदूर राजनैतिक पार्टियों का गठन हुआ। इनकी मांगों में राजनैतिक सामाजिक मुद्दे थे, जैसे-


10 घंटे का कार्य दिवस


बच्चों की शिक्षा


सेना में अनिवार्य सेवा की समाप्ति


कर्जदारों के लिए सज़ा की समाप्ति


मजदूरी की अदायगी मुद्रा में


आयकर का प्रावधान इत्यादि।


मजदूर पार्टियों ने नगर पालिकाओं तथा विधान सभाओं इत्यादि में चुनाव भी लड़े। सन 1829 में 20 मजदूर प्रत्याशी फ़ेडरेलिस्टों तथा डेमोक्रेट्स की मदद से फ़िलाडेलफ़िया में चुनाव जीत गए। 10 घंटे कार्य दिवस के संघर्ष की बदौलत न्यूयार्क में 'वर्किंग मैन्स पार्टी' बनी। 1829 के विधान सभा चुनाव में इस पार्टी को 28 प्रतिशत वोट मिले तथा इसके प्रत्याशियों को विजय हासिल हुई।


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