| Thursday, 26 January 2012 13:01 |
प्रियदर्शन मंडल आयोग की रिपोर्ट के समय हुए बवाल से जो बदलाव की क्रांतिकारी संभावना पैदा हुई वह एक नई तरह की यथास्थिति में बदल कर रह गई है और लालू-मुलायम या मायावती फिलहाल नए सामंतों जैसे ही दिख रहे हैं। यह सच है कि फिर भी इनकी मौजूदगी ने राजनीति में पिछड़े-दलित तबकों के लिए उम्मीद और गुंजाइश दोनों पैदा की हैं और समानता और स्वाभिमान का नया भरोसा इनमें पैदा हुआ है। लेकिन यह ऊर्जा जितने बडेÞ पैमानों पर जिन बदलावों के लिए इस्तेमाल की जा सकती थी, उनकी किसी को कल्पना ही नहीं है। शायद इसी का नतीजा है कि सत्ता भले पिछड़े-दलितों के बीच जा रही हो, सत्ता के लाभ उन तबकों तक नहीं पहुंच रहे- उलटे वे लगातार उनसे दूर हुए हैं। इस देश में जो लोग सबसे ज्यादा सताए और उजाडेÞ जा रहे हैं, वे दरअसल वही लोग हैं जिनके नाम पर अस्मितावादी राजनीति परवान चढ़ रही है। इस प्रक्रिया का एक चिंताजनक पहलू और है। जो कुछ भी संसदीय राजनीति के दायरे से बाहर है, जो कुछ भी चुनावी राजनीति से खुद को अलग रखना चाहता है, उसे अलोकतांत्रिक बताते हम नहीं हिचकते। पिछले दिनों अण्णा हजारे के आंदोलन पर चल रही बहस के दौरान यह बात हमारे नेताओं की तरफ से बार-बार उठाई गई कि टीम अण्णा का आंदोलन लोकतंत्र विरोधी है- बस इसलिए कि वह चुनावी प्रक्रिया से खुद को अलग रख रहा है और संसद के बाहर एक कानून पर बहस कर रहा है। निश्चय ही अण्णा हजारे के आंदोलन की कई सीमाएं बेहद स्पष्ट हैं और उनकी कई जायज आलोचनाएं भी हैं, लेकिन उनके आंदोलन को लोकतंत्र विरोधी बताना अपने गणतंत्र को एक ऐसी संस्थागत जड़ता या रीतिबद्धता में धकेल देना है जो अंतत: अपने चरित्र में लोक विरोधी है। फिर दुहराने की जरूरत है कि ऐसी स्थिति इसीलिए आ रही है कि हमने लोकतंत्र को जीवन-दृष्टि की तरह नहीं, बस पोशाक की तरह पहन रखा है। शायद यही वजह है कि जिस जन को केंद्र बना कर हमारे गणतंत्र की अवधारणा रची गई है, वही इस समूची व्यवस्था में सबसे उपेक्षित है और सबसे ज्यादा हाशिये पर है। इसका एक नतीजा यह भी हुआ है कि हमारी पूरी राजनीतिक व्यवस्था जैसे एक नई आर्थिक व्यवस्था की गुलाम बनती जा रही है। चुनावों में जो पैसा लग रहा है, वह किसी शून्य से नहीं आ रहा, वह चंद नेताओं की दलाली से भी नहीं मिल रहा, उसके पीछे अब सुनियोजित ढंग से लगी कॉरपोरेट देसी और विदेशी पूंजी है। इस पूंजी को अपने लिए स्पेक्ट्रम चाहिए, लाइसेंस चाहिए, दुकानें चाहिए, सिंगल विंडो क्लीयरेंस चाहिए, सौ फीसद निवेश की छूट चाहिए और एक ऐसा माहौल चाहिए जिसमें वह अपनी नवसाम्राज्यवादी परियोजना को अंजाम दे सके। जब कोई जनतांत्रिक प्रतिरोध उसकी इस परियोजना के आडेÞ आता है या उसकी रफ्तार मद्धिम करता है तो यह पूंजी इस पूरे गणतंत्र को कोसती है और उस चीन को याद करती है जहां फैसले फटाफट हो रहे हैं। हमारे गणतंत्र की असली विडंबना यहीं से शुरू होती है। हमारे संविधान ने राजनीतिक और सामाजिक बराबरी की जो प्रस्तावना लिखी है, उसको अमल में लाने वाली राजनीतिक प्रक्रियाओं के समांतर वे आर्थिक प्रक्रियाएं भी जारी हैं जो अपने स्तर पर भयावह गैरबराबरी को बढ़ावा दे रही हैं। बल्कि यह सिर्फ गैरबराबरी का मामला नहीं है, इस देश के सारे संसाधनों पर संपूर्ण कब्जे की भी कोशिश है। यह पुरानी औपनिवेशिकता को नए सिरे से साधना है और यह काम वही वर्ग कर रहे हैं जो अंग्रेजों के जमाने में भी सत्ता के हमकदम हुआ करते थे। सिर्फ इत्तिफाक नहीं है कि हमारा मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान अपरिहार्यत: उस उच्च मध्यवर्गीय संस्कृति से संचालित है जो खुद को वैश्विक या खगोलीकृत बताती है लेकिन मानसिक तौर पर असल में अमेरिका या यूरोप में बसती है। मौजूदा उदारीकरण ने उसे यह मौका दिया है कि वह भारतीय गणतंत्र के भीतर भी अपना एक स्वर्ण विश्व बसा सके। लेकिन इस स्वर्ण विश्व की कीमत वह असली भारत चुका रहा है जो साधनों के लिहाज से अपनी आर्थिक और सांस्कृतिक समृद्धि के बावजूद विपन्न है, क्योंकि उन पर कब्जा इस सत्ता-केंद्रित वर्ग का है। इस दोहरी प्रक्रिया का ही नतीजा है कि हमारे देश में दो भारत बन गए हैं- एक अमीरों का चमचमाता भारत और दूसरा गरीबों का बजबजाता भारत। गरीबी और अमीरी हमारे देश में पहले से रहीं, लेकिन वह फासला नहीं रहा जो अब मौजूद है- और यह सिर्फ आर्थिक फासला नहीं है, यह पूरी तरह सांस्कृतिक-वैचारिक फासला भी है- जैसे वाकई ये दो भारत दो अलग-अलग देश हों। छब्बीस जनवरी पर हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल यही हो सकता है कि हम इन दो देशों का फासला मिटा कर इन्हें एक कैसे बनाएं। |
Thursday, January 26, 2012
हमारे गणतंत्र का सबसे बड़ा सवाल
हमारे गणतंत्र का सबसे बड़ा सवाल
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