यह ब्राह्मण कथाकारों का समय है, दलित-पिछड़े कतार में हैं!
हिंदी समाज का साहित्य, इस कोण से
♦ प्रमोद रंजन
फारवर्ड प्रेस की बहुजन साहित्य वार्षिकी 2012 कई मामलों में विचारोत्तेजक है। अंक में एक ओर अनूप लाल मंडल जैसे प्रेमचंद के जमाने के लेखक, जिन्हें गुमनामी के अंधेरे में धकेल दिया गया था, उन्हें बहुजन साहित्य के एक रत्न के रूप में चमकाने की कोशिश की गयी है तो दूसरी ओर ब्रह्मणववादी साहित्य को चिन्हित भी किया गया है। अंक का संपादकीय लेख प्रमोद रंजन ने लिखा है, जिसमें युवा कवि-कहानीकार संजय कुंदन की कहानियों को ब्रह्मणवादी साहित्य का नमूना बताया है। कुंदन की इन्हीं कहानियों को नामवर सिंह समेत हिंदी के अनेक आलोचक जमकर तारीफ कर चुके हैं। संजय कुंदन के वर्ष 2008 में ज्ञानपीठ से छपे कहानी संग्रह 'बॉस की पार्टी' की प्रशंसा भरी समीक्षा लगभग सभी साहित्यिक पत्रिकाओं ने छापी थी : मॉडरेटर
सच तो यह है कि हम काफी पीछे हैं। हिंदी समाज को देखने के कोण में पिछले कुछ वर्षों में व्यापक परिवर्तन आया है। सामाजिक कार्यव्यापार को देखने का कथित सार्वभौमिक और सर्वसमावेशी नजरिया टूटा है और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आधारित अध्ययनों का जोर बढ़ा है। समाजशास्त्र व अन्य अनुसांगिक अनुशासनों में इस नये कोण का अधिकांश अध्ययन अंग्रेजी में हुआ है। हिंदी भाषा इस मामले में भी दरिद्र ही रही है।
क्या यह अब भी जरूरी नहीं है कि इस कोण से हिंदी साहित्य को भी देखा जाए? बहुजन आलोचना इसी कमी को पूरा करती है। बहुजन आलोचना न सिर्फ दलित, आदिवासी व पिछड़ा वर्ग के साहित्य बल्कि ब्राह्मणवादी साहित्य और अन्य द्विज साहित्य की मौजूदगी को भी चिन्हित करती है और उनकी बुनावट के मूल (सामाजिक) पहलुओं और उसके परिणामों को सामने लाती है। विविध प्रकार के साहित्य में विन्यस्त मूल्यों और सौंदर्यबोध की मीमांसा करती है। इस प्रकार यह कई प्रकार के आवरणों, क्षद्मों और भाषायी पाखंडों का उच्छेदन करते हुए वास्तविक जनोन्मुख साहित्य की तलाश करती है, जो मनुष्य की वैचारिक और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करे।
बेहतर होगा कि इसे किसी उदाहरण से पुष्ट करूं। फारवर्ड प्रेस के इस प्रथम 'बहुजन साहित्य वार्षिकी' (अप्रैल, 2012) का संपादन के करने दौरान मैंने अपने प्रिय समकालीन कवियों में से एक, संजय कुंदन का कहानी संग्रह 'बॉस की पार्टी' पढ़ रहा था। कुंदन का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ है। उनकी यह सामाजिक पृष्ठभूमि उनकी कविताओं में भी उन्हें घेरती है, लेकिन कहानियों में यह अधिक मुखर रूप से सामने आयी है।
'बॉस की पार्टी' पर निम्नांकित आलोचकीय टिप्पणी सिर्फ बानगी के लिए है, जिसमें बहुजन आलोचना की अनेक संभव पद्धतियों में से एक का इस्तेमाल किया गया है। हिंदी साहित्य को बहुजन कोण से देखने के लिए ऐसी अनेक पद्धतियों का निर्माण और उपयोग करना होगा ताकि इसके विविध अंतर्गुंफित पहलु सामने आ सकें।
संजय कुंदन और उनकी 'बॉस की पार्टी'
संजय कुंदन के कहानी संग्रह 'बॉस की पार्टी' में कुल 11 कहानियां हैं। हम इन कहानियों के विभिन्न पात्रों, नायकों, खलनायकों की सामाजिक पृष्ठभूमि और उसके अनुरूप कहानीकार के व्यवहार को देखें। संग्रह की 11 कहानियों में से 6 कहानियां सीधे तौर पर ब्राह्मण परिवारों की व्यथा को व्यक्त करती हैं। 'मेरे सपने वापस करो' का मुख्य पात्र बलभद्र 'मिश्र' का पुत्र अजय है। 'चिड़ियाघर' शालीग्राम 'शुक्ल' के दामाद रविशंकर की कहानी है। 'उम्मीदवार' आर्थिक अभाव में दो बार आत्महत्या कर चुके पिता के पुत्र मुकेश 'तिवारी' और नौकरी न मिलने पर अपराध को विकल्प बनाने का इरादा रखने वाले जयप्रकाश 'दूबे' की कथा है। यह ध्यान देने योग्य है कि कहानियां बुनते हुए संजय कुंदन भारतीय समाज के जाति आधारित गझिन ताने-बाने के प्रति सचेत रहते हैं। 'उम्मीदवार' शीर्षक कहानी का ही संवाद देखें।
पहला युवक पूछता है, 'तुम्हारा नाम क्या है?'
'मुकेश…'
'बस मुकेश या आगे भी…'
'मुकेश तिवारी'
पहले ने थोड़ा सहमते हुए कहा, लेकिन दूसरे की आंखें चमकी और तपाक से कहा – 'मेरा नाम जयप्रकाश दूबे है'।
इस नयी सूचना के बाद अब दोनों में कोई अवरोध नहीं था, कोई संशय नहीं!
…
इसी तरह, 'केएनटी की कार' का मुख्य पात्र शुद्दरों (शूद्रों) की सरकार से चिढ़ने वाले हरदयाल 'तिवारी' का पुत्र कमलनयन तिवारी है। 'बॉस की पार्टी' शीर्षक कहानी का मुख्य पात्र रूटीन क्लर्क का बेटा देवेश अपने सवर्ण होने की घोषणा करता है। अधिकांश मामलों में सरनेम के प्रति सचेत कहानीकार ने 'सुरक्षित आदमी' में मुख्य पात्र का नाम भी बताने की जरूरत नहीं समझी है। यह 'ब्राह्मण जाति में पैदा हुए हाईस्कूल मास्टर के बेटे' की कहानी है। बेटा बैंक का एक बड़ा अधिकारी है, जो वर्ष 2002 में गुजरात में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद अपने प्रदेश की 'सेकुलर दलित सरकार' से सशंकित है। वह कहता है, 'खतरा सिर्फ दंगों का ही नहीं है। इस शहर में पिछले कई वर्षों से सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए थे। कभी-कभी जातीय तनाव की खबरें जरूर आती थीं। राज्य में एक गठबंधन की सरकार थी, जिसका मुख्यमंत्री दलित था। दलितों का जुलूस जब शहर के बीच से निकलता था, तो सवर्ण लोग भीतर ही भीतर आतंकित हो जाते थे'। देखना चाहिए कि सांप्रदायिक दंगों से भयभीय यह ब्राह्मण युवक इसकी तुलना दलितों की रैली से करते हुए, किस तरह के राजनीतिक परिवर्तन का आकांक्षी है?
संग्रह में मुख्य पात्रों का इतनी बड़ी संख्या में ब्राह्मण होना खुद लेखक की सामाजिक पृष्ठभूमि को ही नहीं, उसकी एकांगी और संकीर्ण सोच को भी बताता है। भाषा और ट्रीटमेंट के स्तर पर ये कहानियां प्रभावशाली हैं लेकिन क्या यह काफी है? संग्रह की अन्य तीन कहानियों 'गांधी जयंती', 'कभी नहीं आएगी गंगा' और 'कोई है' के कथानकों में भी द्विज परिवार ही झांकते हैं। सिर्फ एक कहानी 'ऑपरेशन माउस' के कथानायक के गैर द्विज होने का संकेत मिलता है। कहानी का मुख्य पात्र है बीके उर्फ ब्रजेश कुमार। उसने डिप्लोमा किया है लेकिन खुद को इंजीनियर कहता है। एक छोटे से शहर में छोटी सी दुकान चलाने वाला उसका चचेरा भाई दिनेश उसके बड़बोलेपन पर कहता है 'तुम कुछ भी बन जाओ, रहोगे मुरारी लाल के बेटे ही न'। एक अन्य प्रसंग में यही दिनेश बीके का मन रखने के लिए कहता है, 'हमसे जो पूछता है कि तुम्हारे भैया क्या करते हैं तो हम कहते हैं कि वे इंजीनियर हैं। हम लोगों के खानदान में कोई इतना भी है क्या'। कहानीकार इस कहानी में बीके की जाति नहीं बताता लेकिन 'रहोगे तो मुरारी लाल के बेटे', 'खानदान में किसी का डिप्लोमाधारी न होना' जैसी बातें उसके बनिया या किसी अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) होने का पता देती है।
अब देखें… 'बॉस की पार्टी' शीर्षक कहानी में निजी कंपनी के सवर्ण असिस्टेंट मैनेजर देवेश कुमार और 'केएनटी की कार' के राष्ट्रीय दैनिक के वरिष्ठ पत्रकार कमलनयन तिवारी उर्फ केएनटी की ही तरह 'ऑपरेशन माउस' का ब्रजेश कुमार उर्फ बीके का मौजूदा महानगरीय परिवेश, व्यथाएं, लालसाएं समान हैं। तीनों ही पात्र बिहार के रहने वाले हैं। तीनों अपनी लालसाओं को पूरा करने के लिए अपने अतीत से पीछा छुड़ना चाहते हैं। अपनी जड़ों से कटे ये तीनों पात्र मिलकर उन मध्यवर्गीय लोगों का रूपक गढ़ते हैं, जिनके लिए जीवन महज कुछ उपभोक्ता वस्तुएं जुटा लेने का नाम रह गया है। कहानीकार की नजर में उदारवादी आर्थिक नीतियों ने उनके काम के घंटों में बेतहाशा वृद्धि कर दी है, उनकी जीविका हर क्षण संगीन की नोक पर है, जिस कारण इनमें मानवीय मूल्यों का निरंतरण क्षरण हो रहा है। इन समानताओं के बावजूद कहानीकार ने सवर्ण होने पर गर्व करने की बात सोचने वाले 'बॉस की पार्टी' के देवेश कुमार और 'आरक्षण के जमाने में रेलवे क्लर्क की नौकरी' को नियामत मानने वाले 'केएनटी की कार' के कमलनयन तिवारी के चरित्र से काफी अलग 'आपरेशन माउस' के मुरारी लाल के बेटे ब्रजेश कुमार उर्फ बीके का चरित्र गढ़ा है। मसलन, नये संपादक संजीव भटनागर को सेट करने के लिए उसके सामने अपनी साली को परोसने का विचार करने करने वाले कम्युनिस्ट कमलनयन तिवारी उर्फ केएनटी के बारे में कहानीकार की टिप्पणी है कि 'उन्होंने अपने को गिराया जरूर था, वे समझौते की राह पर चल निकले थे पर इस रास्ते पर चलने की भारी कीमत अदा करनी होती है, इसका अंदाजा उन्हें न था… वे झूठ और फरेब के कीचड़ में थोड़ी दूर चले आये थे पर इसकी सड़ांध झेल पाना उनके वश की बात नहीं थी'। मनुष्यता के न्यूनतम पैमानों को धत्ता बता चुके केएनटी के लिए कहानीकार की यह टिप्पणी क्या इस पात्र के प्रति उसके अतिरिक्त मोह के कारण ही नहीं है? कहानीकार की नजर में केएनटी की नीचता 'मजबूरीवश' है। इसके विपरीत 'ऑपरेशन माउस' के ओबीसी पात्र बीके उर्फ ब्रजेश कुमार के मामले में वह ऐसी कोई 'मजबूरी' नहीं दिखाता। बीके अपनी कमजोरियों के लिए स्वभाववश (संस्कारवश?) जिम्मेदार है।
संग्रह की 11 कहानियों में न कोई दलित है, न आदिवासी और न ही मुसलामन अथवा अन्य सांस्कृतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि वाला कोई पात्र है। बिना अपवाद के सभी ब्राह्मण परिवार निम्नमध्यम आय वर्ग के, कर्ज में डूबे, बेटियों के विवाह के लिए चिंतित, भारतीय संविधान में आरक्षण के प्रावधान के प्रति विद्वेष से भरे और सामाजिक न्याय की अवधारणा वाली राजनीतिक सत्ता के प्रति घनघोर प्रतिक्रियावादी रुख वाले हैं। कहानियों के मुख्य पात्र इन परिवारों के नवयुवक हैं। ये 'धूप में चलकर दो दिन तक बीमार पड़े रहने वाले सुकुमार' लड़के हैं। वे पढ़ाई में अव्वल रहते हैं और इनके गैर द्विज साथी, जो ठेकेदारों और नवधनाठ्यों के बेटे हैं, इनकी कॉपियों से नकल करके पास होते हैं। गलत तरीके से पद पाते हैं लेकिन इनकी मदद के लिए आगे नहीं आते या कहें यदुवंशी कृष्ण और ब्राह्मण सुदामा की मित्रता नहीं निभाते। द्विज युवकों के पिता भी निरपवाद रूप से सामाजिक रूप से प्रतिगामी और अपने पुत्रों को उसी रास्ते पर ले जाने को इच्छुक हैं (गांधी जयंती, मेरे सपने वापस करो, झील वाला कंप्यूटर, बॉस की पार्टी और केएनटी की कार)। इसके बावजूद क्या यह अनायास है कि कहानीकार की नजर में ये पिता 'आर्थिक अभावों के बावजूद स्वाभिमानी, किसी के आगे न झुकने वाले तथा संपन्नता के मद में चूर या चापलूस लोगों को नापसंद करने वाले' हैं?
किसी भी कहानी में स्त्री की उपस्थिति मुखर नहीं है। बहनों के रूप में (गांधी जयंती, मेरे सपने वापस करो, चिड़ियाघर, उम्मीदवार) वे घर में रेडियो सुनते हुए विवाह का इंतजार करने, पति की मार चुपचाप बर्दाश्त करने वाली लड़कियां हैं, जिनका प्रायः नाम तक लेने की जरूरत नहीं समझी गयी है। प्रेमिकाओं के रूप में (बॉस की पार्टी, झील वाला कंप्यूटर) उनका चरित्र रो-धो कर शांत हो जाने वाला है जबकि पत्नी के रूप में वे या तो अपनी कोई इच्छा न रखने वाली स्त्रियां हैं या जया के रूप में पति को बर्बाद करने वाली खलनायिका (मेरे सपने वापस करो, चिडियाघर)। भाइयों, प्रेमियों और पतियों की बौद्धिक क्षमता, लालसाएं और महत्वाकांक्षाएं इन्हें नहीं व्यापती।
वास्तव में प्रतिगामी रुझान अकेले नहीं होते। इनका एक पूरा पैकेज होता है। अगर आप जाति को लेकर रूढ़ हैं, तो स्त्रियों के प्रति भी आपका नजरिया वही रहेगा।
(प्रमोद रंजन। प्रखर युवा पत्रकार एवं समीक्षक। अपनी त्वरा और सजगता के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। फॉरवर्ड प्रेस के संपादक। जनविकल्प नाम की पत्रिका भी निकाली। कई अखबारों में नौकरी की। बाद में स्वतंत्र रूप से तीन पुस्तिकाएं लिखकर नीतीश कुमार के शासन के इर्द-गिर्द रचे जा रहे छद्म और पाखंड को उजागर करने वाले वह संभवत: सबसे पहले पत्रकार बने। उनसे pramodrnjn@gmail.com पर संपर्क करें।)
कुंदन एक कमज़ोर कहानीकार हैं. रवीन्द्र कालिया के प्रमाण-पत्र जुटाने वाला हिंदी जगत में वैसे ही दयनीय ही समझा जाता है. रही बात समीक्षा की तो यह तो आजकल की संपर्क-कला है क्यूं कि अच्छी किताबों का कोई नोटिस नहीं लेता, घटिया किताबें पत्र-पत्रिकाओं पर छाई रहती हैं. हलके लेखक अपनी किताब की समीक्षा खुद मित्रों से करवाते हैं और मित्र संपादकों से छपवा भी लेते हैं.
इस तरह के ब्रह्मणवादी लेखकों का 'साहित्यक वहिष्कार' किया जाना चाहिए लेकिन दु:ख है कि इन्हें ही सभी तरह के सम्मान प्राप्त होते हैं। अपने समाज की अधिकांश आबादी को इग्नोर करके भी सम्मान की प्राप्ति भारत में ही हो सकती है। संजय कुंदन जैसे कहानीकार इस मामले में अकेले नहीं हैं। प्रमोद रंजन जी को चाहिए कि वे काशीनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह आदि 'सिंहों' की कहानियों पर लिखें।
बहुत सुंदर लेख। बहुजन आलोचकों से इसी तरह सच्चाई को सामने लाते रहने की उम्मीद रहेगी। नयी पीढी के आलोचकों के लिए नामवर सिंह जैसे आलोचकों का मूल्य गमले में लगे पलास्टिक के गुलदस्ते जैसा ही है। नये विचारों को समझना उनके बूते की बात नहीं रह गयी है।
साहित्य समाज का वो प्रतिबिम्ब है जो आपको रचनाकार के पास रखे आईने के माध्यम से दीखता है… मामला फ्रेम ऑफ़ रेफेरेंस का है और ये शै कभी absolute हो ही नहीं सकती… आप दुसरे ग्रह के जीव से वैचारिक सहानुभूति, प्रेम या इर्ष्या भले ही कर लें , मगर उस किरदार को आप अपनी रचना में जिन्दा नहीं कर सकते जिसको आपने कभी महसूस या जिसके संघर्ष का आपको अनुभव नहीं है… अपने समय का पूरा सच समझने के लिए सबकी कहानी महत्वपूर्ण है… उपरोक्त कहानियां भी …
सबको अपनी कहानी खुद ही बयां करनी होगी… अपना संघर्ष खुद ही करना होगा… हाँ एक बात ज़रूर है, इस संघर्ष में विरोधियों से ज्यादा सहानुभूति रखनेवालों से सावधान रहने की ज्यादा ज़रुरत है …
Ranjan ji, apka vishleshan vicharottejak hai. Lkin mai chahta hoo ki jo lekhak jis varg or varan se hai , uski kalam se usi varg or varan ke anubhav ayenge. Unhe Promod ji, aane dijiye. Bhartiy samaj ka poora sach ana chahiye, tabhi ti bahujan ki mukhya dhara banegi. Jati adharit bahujan avdharana loktantric nahi hai
abhinaw जी, यह भी भारत में ही संभव है कि अपनी, विशेषकर अपनी जात की कहानी कहने वाले को 'साहित्यकार' मान लिया जाए। परानुभूति भी कोई चीज होती है। सब कुछ स्वानुभूति ही नहीं होती।
वैसे यह भी सोचिए कि यह कहानीकार अपनी कहानियों में कौन सा संघर्ष कर रहा है। इसके पात्र दकायानूस और पोंगापंथी है। ये उन्हें ही नायक बना रहा है।
arshad जी, राह चलते आप दुसरे के दुःख को देख या सुन कर दुखी हो सकते हैं … कितना दुखी होंगे ये आपके सेंसिटिविटी पर निर्भर है… अनुभव और नजरिये में फर्क तो होगा ही…रही बात protagonist तो वो तो sirf एक character है, कुछ भी हो सकता है… नायक-खलनायक तो हम चुनते हैं या यूँ कहिये बनाते हैं …
और रही बात जात की तो शायद जात सिर्फ भारत में है… और अभी पूरी तरह से जिंदा है… और जब है तो इसके प्रतिबिम्ब भी मौजूद रहेंगे हर समकालीन चीज़ पर… रही बात साहित्यकार कहलाने या कहने की तो उसके पैमाने मुझे मालूम नहीं… किसी को पता हो तो कृपया मुझे सूचित करे… अडवांस में शुक्रिया…
अदम गोंडवी की मशहूर कविता 'चमारों की गली में ले चलूँगा आपको…' एक बार फिर से पढिये और बताईये की ये भोगा हुआ सच है या देखा हुआ… क्या कोई चमार अगर इस विषय को उठता तो क्या उसका perspective यही होता?? शेखर कपूर की बजाए अगर bandit queen कोई दलित बनता तो क्या उसका नजरिया वही होता ??
प्रभात रंजन जी, हो सके तो 'मोहल्ले' का भी जायजा लीजिये… अपने angle से…
**प्रमोद रंजन जी
वैसे अभिनव जी की यह बात भी गौर करने के लायक है क्यों आखिर ठाकुर, ब्रह्मण, और कायस्थ आदि सवर्ण जातियां आगे बढ़कर दलितों से उनका भोगे हुए यथार्थ को साहित्यिक कृति बनाने का मौका छीन लेती हैं? आज के पचास साल पहले तक ये बात समझ में आती थी जब प्रेमचंद जैसे कायस्थ को कफ़न लिखना पड़ता था, क्योंकि शायद तब दलित अपने एक जून की रोटी के जुगाड़ में लगे थे और साहित्यिक रचनाएँ करने का जोखिम नहीं उठा सकते थे, शायद उन्होंने लिखी भी हों पर सवर्णों के साहित्यिक फलक पर वर्चस्व के कारण सामने न आ सकी हों, ऐसा संभव है. लेकिन पिछले २ दशकों से कितने ही प्रतिभाशाली दलित और पिछड़े लेखक लगातार लेखन और अच्छा लेखन कर रहे हैं, तो फिर ऐसा क्यों होता है कि २०१० में उदयप्रकाश जैसे राजपूत (जो हाथी और शेरों के बच्चे पालने वाले जमींदार घर में पैदा हुए और आज भी जमीदारों वाले शौक फरमाते हैं, गोरी स्त्रियाँ, मंहगी विदेशी शराब इत्यादि उनके कुछेक शौक हैं) लेखक को साहित्य अकादमी पुरस्कार दे दिया जाता है. अपने नाम से जाति-सूचक शब्दों को हटाकर (ताकि सामान्य लोगों को यह भ्रम बने कि उदयप्रकाश भी दलित है या पिछड़ा वर्ग में पैदा हुआ है) बारम्बार दलितों की स्थितियों पर घडियाली आंसू बहाते हुए मोहनदास जैसी झूठी कहानी लिखकर पिछड़ों और दलितों के मुद्दों पर स्वयं पिछड़ों और दलितों द्वारा लिखी गयी इससे भी अच्छी कहानियों को पीछे छोड़ते हुए सारी वाहवाही लूटना और पुरस्कारों पर कब्ज़ा कर लेना भी एक प्रकार की मक्कारी है उदयप्रकाश और काशीनाथ जैसे सवर्ण लेखकों की. यह एक असहज प्रश्न है जिसे दलित और पिछड़े लेखकों को स्वयं से पूछना होगा और सोचना होगा कि आखिर उनसे कहाँ चूक हो रही है कि ऐसे मक्कार और धूर्त सवर्ण लेखक उनका हक मारकर आगे आ जाते हैं?
उदय प्रकाश या कशीनाथ सिंह के नियत पर शक करने की जरूरत नहीं है… जैसा की मैंने पहले ही कहा की ये वैचारिक सहानुभूति है… ये सवर्ण कथाकार दलितों और पिछडो के मुद्दों पे अच्छी कमेंट्री तो कर सकते हैं मगर उसकी आत्मा तक नहीं जा सकते… और सिर्फ इस वजह से इनका महत्व कम भी नहीं हो जाता है … साहित्य अकादमी पुरस्कारों के बारे में तो कोई कमेन्ट नहीं करूँगा मगर इतना जरुर कहूँगा की ये दोनों हिंदी के महत्वपूर्ण रचनाकार हैं और जो भी इन्होने लिखा है पाठकों द्वारा सराहा जाता रहा है… मैं सबके perspective की बात कर रहा हूँ …दलित पिछड़े भी अपना नजरिया रखते हैं .. यहाँ कोई किसी का हक भला कैसे मर सकता है ..? जो पठनीय होता है पढ़ा, सुना जाता है … साहित्य सिर्फ मुद्दा तो है नहीं , ये कला भी है…
सहमति है अभिनव आपसे कि इन साहित्यकारों का भी अपना अकादमिक महत्व है. लेकिन बात घूम फिर कर वहीं पहुंचती है कि क्या वजहें हैं कि भोगे हुए यथार्थ जनित साहित्य की तुलना में देखने से उत्पन्न हुआ सहानुभूतिक साहित्य भारी पड़ जाता है….इन कारणों की पड़ताल खुद पिछड़े और दलित साहित्यकारों को करनी पड़ेगी….
लेकिन बात घूम फिर कर वहीं पहुंचती है कि क्या वजहें हैं कि भोगे हुए यथार्थ जनित साहित्य की तुलना में देखने से उत्पन्न हुआ सहानुभूतिक साहित्य भारी पड़ जाता है….
kaisa bhoga hua yatharth….aj ka dalit sirf 'bhogata' hi nahi hai D.M, C.M ,HIsTORIAN ,GEOLOGIST, ATHROPOLIGIST, DOCTOR, MANAGER,I.A.S, P.C.S ..etc bhi banta hai .'bhoge' hue yatharth ke liye chhina-jhapati, yani ve or hum -bakvas hai.dalit kya kahe iski ruprekha dusre kaise khich sakte hai…dalit sirf 'bhoga' hua yatharth kyon sunaye? sahnabhutik sahiytya bhari hai, …. ab us bojh ko utarana chahta hai.
मुद्दतों बाद चला उनपे हमारा जादू ~
मुद्दतों बाद हमें बात बनानी आई ..
महेंद्र सिह जी, आपकी बात से सहमत हूँ. क्रांतिकारी साहित्य हो या क्रांतिकारी संगठन. दलित साहित्य हो या कुछ और. . तलवार भांजते शब्दवीरों का कहना है उनके पास हर ताला खोलने के लिए मास्टर की मौजूद है. सुनने में मासूम सी लगने वाली बात है कि 'जो पठनीय होता है, पढ़ा-सुना जाता है.. जिसे लोग स्वीकार करते हैं, वही नेता होता है.' हमें समझना चाहिए कि पठनीयता और स्वीकार्यता का भी समाजशास्त्र और राजनीति होती है.
इस दौरान मैं बताता चलूँ पटना कॉलेज के सामने में 'प्रगतिशील साहित्य सदन' करके प्रगतिशील साहित्य पर केंद्रित एक किताब्ब दूकान है और उसने 'फारवर्ड प्रेस' को जातिवादी और अ-प्रगतिशील पत्रिका बता कर अपना सब्स्क्रिप्सन रद्द कर दिया है. ये सिर्फ़ एक घटना नहीं है ये समाज के एक वर्ग तथाकथित प्रगतिशील वर्ग की 'मानसिक प्रक्रिया' और 'वैचारिक ठीठता' है, ऐसा निश्चित ही तथाकथित प्रगतिशील पाठकों के कहने पर राय बनी होगी. तो ये घटना या मानसिक प्रक्रिया 'भोगे हुए यथार्थ जनित साहित्य','नामवर सिंह जैसे आलोचकों का मूल्य', 'अनुभव और नजरिये में फर्क','नियत पर शक' जैसे कई मुददों पर एक सटीक टिपण्णी है.
उस जैविक प्रकिया की भी सूक्ष्म पड़ताल करनी होगी जो किसी को स्वीकार्य और पठनीय बनाती है.
Read this facebook status from Uday Prakash' wall:
March 26
"आज अभी से कुछ घण्टे पहले, 7 बज कर 33 मिनट पर कुमकुम और मैं दूसरी बार दादी-दादा ( हम लोगों के परिवार में 'बाबा-बुआ' बोलते हैं) बन गए। हमारी पोती का जन्म हुआ है। यानी मैरी और सिद्धार्थ की बेटी। यानी हमारे पोते मारियूस (जिसे आप सब प्यार करते हैं ) की नन्ही सी छोटी बहन -अनुक या अनुष्का। आज लारेंस और एलिस नानी बन गईं । फोटो मिलते ही लगाऊँगा। हम सभी लोग बहुत-बहुत खुश हैं । कुछ संबंधियों का कहना है कि आज नवरात्रि का तीसरा दिन है, इसलिए हमारे घर देवी आई हैं। यहाँ अमरकंटक में , जहां मैं रहता हूँ, उससे कुछ ही फासले पर नर्मदा का उद्गम है और उसी के साथ नर्मदा मंदिर……! जब अनुक का जन्म हुआ, मंदिर की घण्टियों की आवाज़ें हम तक पहुँच रही थीं……."
यह है हिंदी के स्वयंभू "महान" साहित्यकार उदयप्रकाश की असलियत जो अपने नाम से जाति सूचक सरनेम हटाकर अपनी राजपूत aur jameendar होने की पहचान हटा कर दलित और पिछड़ों का मसीहा होने का दावा करते हुए मोहनदास लिखकर साहित्य अकादमी पुरस्कार जीतकर ओम प्रकाश बाल्मीकि और तेज सिंह और न जाने ऐसे कितने सच्चे दलित साहित्यकारों का हक मार लेता है.
किसी ने अभी जल्दी ही बताया था की इसी उदयप्रकाश को उन्होंने उसके घर पर गीले गमछे में हनुमान चालीसा का पाठ करते देखा था…और पूछने पर कहने लगा कि हाँ उसे भी एक भगवान् चाहिए क्योंकि वो अपनी पत्नी के आगे नहीं रो सकता…
अब ऐसा आदमी जिसे अपनी पत्नी के सामने रोने में शर्म आती है क्योंकि वो स्त्री है, "नवरात्रि के तीसरे दिन" जर्मनी में एक गोरी स्त्री (जो इसकी बहु है) के कोंख से पैदा हुई लड़की को दुर्गा का अवतार मानता है (वह दुर्गा जिसने महिसासुर का वध किया, ध्यान रहे कि बहुत सारे दलित और पिछड़े समुदाय महिसासुर को अपना पूर्वज मानते हैं), जब दलित और पिछड़ों के नाम पर सहानुभूतिक साहित्य लिखकर घडियाली आंसू बहाता है तो दलितों को स्वयं ही सोचना चाहिए ऐसे तथाकथित प्रगतिवादी लेखकों से किसका कल्याण होने वाला है?
महेंद्र सिंह जी… काफी रिसर्च किया है आपने उदय प्रकाश के निजी ज़िन्दगी पर… उदय हमारे समय के साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं… बेहतर होता आप 'मोहनदास', 'पाल गोमरा का स्कूटर' या 'वारेन हेस्टिंग के साड़' की बात करते(जैसा की प्रमोद रंजन जी ने किया है ) तो बात कुछ आगे भी बढती… माफ़ कीजियेगा , मुझे कहने पर बाध्य होना पर रहा है की आप एकदम से ओछी बाते कर रहे हैं है … यहाँ उदय प्रकाश जी के विचार फेसबुक के मार्फ़त बिना उनकी अनुमति के चिपका रहा हूँ …
"हा…हा….हा….! अगर हिंदी भाषा से संबंधित किसी भी संस्थान में मुझे पांच-सात साल की पक्की नौकरी मिल जाये, तो मैं फिर से अपने बाबा के ज़माने का 'हाथी-शेर' पालने की कोशिश करूंगा. और अगर महेंद्र 'सिंह' हैं, तो उन्हें भी पालने की कोशिश करूंगा. हां, हर सुबह-शाम उन्हें बिल्कुल फ्रेश ..ताज़ा 'बीफ़' (गो-मांस) खिलाऊंगा। (हे..हे…पता चल जाएगा कि वे सचमुच 'सिंह' हैं या जातिवादी, हिदुत्ववादी ब्राह्मणवाद के छ्द्म मुखौटे हैं…!!) ..और हां, जातिवादी ब्राह्मणवाद के लिए तो मैं सदा से ही 'चोर', 'नकलची', 'धूर्त', 'मक्कार', 'ठाकुर' , किसी भी ठीक-ठाक नौकरी के लिए अयोग्य और साहित्य अकादमी ही नहीं, हिंदी के तमाम अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं के लिए अन-फिट, विश्वविद्यालयों के लिए संदिग्ध वगैरह रहा हूं…! अब साठ के पार मुझे 'हिंदी-हिंदुत्ववादियों' से किसी सम्मान की अपेक्षा भी नहीं है. मैं समग्र हिंदी साहित्य और समग्र हिंदी भाषा इन्हीं जैसे लोगों और इनके गुरुओं को सौंपता हूं..और अंत में एक मुस्कान…!
अगर जो लिखा है, उसकी चर्चा करेंगे तो वो 'हिंदी भाषा के सतासीन' शरीर में वह 'वैक्सीन' लग जाएगा, जो इस भाषा के भ्रष्ट जातिवादी वर्चस्व के 'डेंगू' या 'मस्तिष्क-ज्वर' यानी 'सेरेब्रल -मैलेरिया' या 'मेनिंजाइटिस' , जो जानलेवा जीवाणुओं (वैक्टेरिया) के संक्रमण से पैदा होते हैं, वे खत्म हो जाएंगे…..और तब , अब तक के सारे 'मठ' किले और और गुंबद ढह जाएंगे ..और तब गजानन माधव मुक्तिबोध का अधूरा स्वप्न पूरा होगा…!! हा…हा…!
मैं दोस्तों से आग्रह करूंगा कि अगर उन्होंने 'पीली छतरी वाली लड़की', 'मोहन दास' और 'मैंगोसिल' नहीं पढ़ी है, तो इन्हें ज़रूर पढ़ें…! हिंदी ही नहीं, इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था, इसके विभिन्न सामुदायिक-जातीय सौहार्द्र और इसकी संप्रभुता को वास्तविक खतरा छ्द्म और उग्र जातिवाद (जो वास्तव में ब्राह्मणवाद का ही सांस्कृतिक-सामाजिक उत्पाद है) से है. सांप्रदायिकता इसी की कोख से जनमती है. अनैतिकता, ठगी, लूट, और भ्रष्टाचार भी."