सीधे जनरलों को ही खरीद डालें ?
जो लोग 1962 और 65 में चीन या पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों के साक्षी रहे हैं, उन्हें इन दिनों सेना में हो रही घटनाओं से शर्म आ रही होगी। तब लोग मोर्चे पर जा रहे सैनिकों को गले मिल कर विदाई देते थे, जगह-जगह स्टेशनों पर उनका बारातियों की तरह स्वागत होता था। औरतें सैनिकों के लिये स्वेटर बुना करती थीं और प्रधानमंत्री रक्षा कोष में दान देने की बात होती थी तो निस्पृह भाव से अपने शरीर पर पहने गहने स्वेच्छा से उतार कर दे देती थीं। आज क्या कोई ऐसी कल्पना भी कर सकता है ? देश और समाज के हर क्षेत्र में क्षरण हुआ। नौकरशाही तो अंग्रेजों के जमाने से दमन करने के लिये ही बनी हुई है, आजादी के पच्चीस सालों के बाद पहले संसद नष्ट होनी शुरू हुई और फिर न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पनपने लगा। इसका असर सेना पर पड़ना भी स्वाभाविक था। जब सांसद, जज, अध्यापक, डॉक्टर, पत्रकार. …कोई भी ईमानदार नहीं रहा तो फौजी क्यों रहता ? वह भी अपने कोटे की शराब गाँव में बेचने लगा। बोफोर्स तोपों की खरीद एक बड़ा मामला बना। कारगिल युद्ध के बाद सामने आये ताबूत कांड के बाद तो सेना को लेकर भी नये-नये घोटाले उजागर होने लगे। इन दिनों थल सेनाध्यक्ष जनरल वी.के. सिंह के आसपास जो घट रहा है, वह उसी सिलसिले की एक और कड़ी है। जिस देश की सरकार अपनी सेनाओं का प्रयोग अपनी सीमाओं की रक्षा के लिये न कर कॉरपोरेट घरानों के हित साधने के लिये अपने देश के गरीब आदिवासियों को समूल नष्ट करने के लिये 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' के रूप में करे तो वहाँ यह उम्मीद क्यों की जाये कि सेना ईमानदार रह जायेगी ? नीरा राडिया जैसे जो कॉरपोरेट लॉबीस्ट मंत्रियों-सांसदों को खरीद सकते हैं, वे सीधे जनरलों को ही क्यों न खरीद डालें ?
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