Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter
Follow palashbiswaskl on Twitter

Sunday, July 1, 2012

Fwd: [New post] राजनीति/अंग्रेजी : परिवर्तन की पटकथा



---------- Forwarded message ----------
From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/6/30
Subject: [New post] राजनीति/अंग्रेजी : परिवर्तन की पटकथा
To: palashbiswaskl@gmail.com


New post on Samyantar

राजनीति/अंग्रेजी : परिवर्तन की पटकथा

by रामशरण जोशी

विशेष : पुस्तकों पर केंद्रित छमाही आयोजन : परिच्छेद :समीक्षा ' साक्षात्कार ' लेख ' कविता: जून, 2012

स्क्रिप्टिंग द चेंज; अनुराधा गांधी; संपा.-अनंद तेलतुम्बडे, शोभा सेन; दानिश बुक मूल्य: 350 (पे.बे.)

ISBN 978-93-81144-11-4

scripting_the_change_coverऔपनिवेशोत्तर भारत ने इस वर्ष अपने संसदीय लोकतंत्र के साठ वर्ष पूरे किए हैं। षष्टिपूर्ति को यादगार बनाने के लिए 13 मई को संसद का विशेष सत्र आयोजित किया गया। शनिवार और रविवार को संसद का अवकाश रहता है। लेकिन 13 मई के रविवार को राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा अध्यक्ष ने दोनों सदनों के सदस्यों को संबोधित किया और षष्टिपूर्ति के सत्र को 'आत्ममंथन का सत्र' की संज्ञा भी दी गई। स्वतंत्र भारत के संसदीय तंत्र को 'सर्वोत्तम व्यवस्था का विकल्प' के रूप में घोषित किया गया। आत्ममंथन या आत्मश्लाघा के बावजूद बुनियादी प्रश्न तो अनुत्तरित रह ही गए! कैसे चंदेक हजार नवधन कुबेर संसदीय लोकतंत्र का अपहरण कर इसका कुलीनीकरण कर रहे हैं? क्यों आधी से अधिक आबादी नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त है? किसने इस देश को घोटालों-महाघोटालों के 'हिंद महासागर' में तब्दील कर दिया है? क्यों आज आदिवासी अंचल 'दावानल' की शक्ल ले चुके हैं? तब इस 'बूढ़े भारत' को कैसे बदलें और सड़ांध से बजबजाती इस व्यवस्था का क्या विकल्प होना चाहिए? संसदीय व्यवस्था के करीब आठ सौ निर्वाचित प्रहरियों ने इन सवालों को केंद्रीय कक्ष में हुए समापन समारोह में संतूर, सितार, भजन राष्ट्रगीत आदि की राग-रागनियों के बीच बड़ी खूबसूरती के साथ भुला भी दिया और... और सिर्फ याद रखा ''सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा'' (?)! आज बूढ़े भारत के संबंध में इकबाल की यह धारणा-आस्था आज उपहास बनने लगी है। आखिर क्यों? अब इसका जवाब और परिवर्तन के विकल्पों की तलाश की जरूरत है।

जब तक कोई पुस्तक सोचने के लिए उकसाए नहीं, उसके सफों से मुद्दे न उठते हों, विमर्श पैदा न होता हो, नई राहों को उद्घाटित न करती हो, तब तक वह 'शब्द-जमावड़ा' ही रहेगी। निश्चय ही अनुराधा गांधी की पुस्तक ''स्क्रिप्टिंग द चेंज'' को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अक्सर सुनने को मिलता है—कला-कला के लिए; साहित्य साहित्य के लिए; और अकादमीय बौद्धिकता अकादमीय कवायद के लिए है। अनुराधा की इस किताब में ऐसा कुछ नहीं मिलेगा। पुस्तक के शब्द पाठक को झकझोरते हैं भीतर और बाहर से, उसे नई व्यवस्था—नई बस्ती के सृजन के लिए पुकारते भी हैं; व्यवस्था परिवर्तन की चुनौती से ललकारते हैं।

अनुराधा गांधी जिनकी 12 अपै्रल, 2008 को मृत्यु हो गई, कोबाद गांधी (इस समय तिहाड़ जेल में) की कामरेड जीवन साथी थीं। विदर्भ का बौद्धिक क्षेत्र दोनों को ही सम्मान के साथ याद करता है। इसका अहसास मुझे नागपुर व वर्धा से जुडऩे के बाद हुआ, और वहीं इस वर्ष पुस्तक के माध्यम से लेखिका अनुराधा गांधी से परिचय होता है तथा उनके वैचारिक जगत में झांकने का मौका मिलता है।

वास्तव में अनुराधा की पुस्तक में एक सक्रिय जमीनी कार्यकर्ता और प्रतिबद्ध अकादमीय लेखन के अनूठे योग का साक्षात्कार होता है। मुंबई के एक कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में अपनी जीवन यात्रा शुरू करने वाली अनुराधा महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर पहुंच गई। तब तक वह खांटी माक्र्सवादी बन चुकी थीं। नागपुर में जहां उनकी अकादमीय सक्रियता में तेजी आई, समाज को समझने में उन्होंने अपनी सैद्धांतिकी को विकसित करने में तेजी दिखाई, वहीं अपनी आस्थाओं को कर्म में ढालने की गरज से जमीनी एक्टीविस्ट भी बन गई। विदर्भ के चंद्रपुर गढ़चिरौली, अमरावती, यवतमाल जैसे इलाकों में चलने वाले संघर्षों में कूद पड़ी। उन्होंने विदर्भ की सीमाओं को लांघा और जबलपुर, बस्तर, झारखंड जैसे इलाकों में भी अपनी क्रांतिकारी उपस्थिति का विस्तार किया। उन्होंने खुद को जनसंगठनों (प्रगतिशील युवा आंदोलन, क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन सीपीडीआर, आदि) तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि दंडकारण्य में चलने वाले छापामार युद्ध से भी वे जुड़ गईं। जनमुक्ति गुरिल्ला सेना की तीन वर्ष तक सक्रिय सैनिक भी रहीं। इस प्रकार प्रतिबद्ध जीवन का एक बड़ा हिस्सा अनुराधा ने भूमिगत कार्यकर्ता के रूप में बिताया। भूमिगत जीवन में वे अनुराधा से अनू, अवंती, जानकी आदि बनती रहीं; आदिवासी औरतों का वैचारिक व व्यवहारिक सशक्तिकरण करती रहीं; माक्र्सवाद-माओवाद की कक्षाएं लगाती रहीं; भूमिगत रहते हुए अकादमीय और पत्रकारिता लेखन भी करती रहीं। सारांश यह है कि लेखिका ने अपने लेखन के सभी रूपों को बदलाव के शस्त्र बनाकर इस्तेमाल किया। विख्यात अकादमीय या पत्रकार बनना उनके जीवन-एजेंडा की प्राथमिकता नहीं थी। पुस्तक की भूमिका में विख्यात लेखिका अरुंधति रॉय का यह सटीक विश्लेषण है कि अनुराधा अपने लेखन व कर्म के माध्यम से बतलाने की कोशिश करती हैं कि वे माक्र्सवादी-लेनिनवादी क्यों बनीं, क्यों नहीं। वह एक उदार एक्टीविस्ट या एक रैडीकल नारीवादी, या एक अर्थशास्त्री-नारीवादी या एक अंबेडकरवादी बनीं। स्थिति स्पष्ट करने के लिए वे आंदोलनों के इतिहास की अपनी आरंभिक निर्धारित यात्रा पर हमें ले जाती हैं; विभिन्न विचारधाराओं के लाभों व कमियों को शिक्षिका की भांति चिन्हित करती हैं; गाढ़े फ्लोरेसेंट मार्कर से उसे ठीक कहती हैं। इस प्रक्रिया में लेखिका कभी-कभी नारेबाजी पर उतर आती हैं लेकिन इसके साथ ही अनुराधा की पैनी वैचारिक दृष्टि व राजनीतिक मस्तिष्क का भी पता चलता है। भूमिका-लेखिका की इस टिप्पणी से असहमति नहीं हो सकती कि अनुराधा का अपने विषय का ज्ञान उसके अवलोकन व अनुभव पर आधारित है, न कि केवल इतिहास और समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों पर टिका हुआ है।

आनंद तेलतुम्बडे और शोभा सेन द्वारा संपादित अनुराधा की यह पुस्तक मूलत: 7वें, 8वें और 9वें दशकों में लिखे गए अकादमीय पेपरों और पत्रकारीय आलेखों का संकलन है। लेखिका का यह अनुभव, अवलोकन और सक्रिय सहभागिता जन्य वैचारिक सामग्री समय-समय पर प्रतिबद्ध पत्रिकाओं के साथ-साथ फ्रंटीयर, इकोनोमिक एंड पॉलीटिकल वीकली जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही है और जमीनी राजनीतिकर्मी एवं शहरी बौद्धिक क्षेत्र आंदोलित होते रहे हैं। इतना ही नहीं, 1977 में दिल्ली जैसे महानगर में भी वे राजनीतिक बंदियों की रिहाई को लेकर सक्रिय रहीं। वी.एम. तारकुंडे, गोविंद मुखोटी, सुब्बा राव जैसे मानवाधिकार व नागरिक अधिकार आंदोलन के नेताओं के सहयोग से उन्होंने ऐतिहासिक 'नागरिक स्वतंत्रता सम्मेलन' का आयोजन भी किया। जब सम्मेलन के मंच से रिहाई की संगठित मांग उठाई गई तो देश की जनता बंदियों की हालत और नागरिक स्वतंत्रता व अधिकारों के प्रति जागरूक हुई। कहा जा सकता है, अनुराधा गांधी का यह प्रशिक्षण काल था।

तीन भागों और दो दर्जन से अधिक पेपर व आलेखों में फैली यह पुस्तक पाठक को भारत की जाति, समस्या, औरतों की स्थिति व स्त्री विमर्श, बस्तर का जनसंघर्ष, तेंदूपत्ता आंदोलन, पुलिस हिरासत में मौतें, व्यवहारिक समाजवाद या शुद्ध फासीवाद, क्रांतिकारी महिला आंदोलन जैसे अनेक बुनियादी सवालों से टकराने का मौका देती है। देश की जाति व्यवस्था और स्त्री-स्थिति से संबंधित सामग्री निश्चित ही गंभीर विश्लेषणपरक है। करीब 18 लेखों में लेखिका ने इतिहास के परिप्रेरक्ष्य में इन दोनों मुद्दों से जुड़े बुनियादी सवालों की अनुभव आधारित पड़ताल की है और गैर-पारंपरिक ढंग से निष्कर्ष भी निकाले हैं। स्त्री-स्थिति के संदर्भ में भी लेखिका पश्चिम के स्त्री-विमर्श व सैद्धांतिकी से आतंकित दिखाई नहीं देती है, वरन भारत की असमतल सामाजिक-सांस्कृतिक जमीन पर औरत की जो दशा है, उसे वह विश्लेषण का आधार बनाती है। इसलिए जाति और स्त्री के सवालों पर अनुराधा का पक्ष खासा मजबूत दिखाई देता है। जाहिर है कि वे कई बिंदुओं पर स्थापित साम्यवादी दलों के पारंपरिक नजरिए से अलहदा भी नजर आती हैं। इस नाते वे माओवादियों की सैद्धांतिक-स्थिति को प्रस्तुत करती हैं। लेखिका से सहमति-असहमति अपनी जगह है। लेकिन उनके इस निष्कर्ष से इंकार किसे हो सकता है कि आज भी शासक वर्ग की राजनीति 'जाति-विचारधारा' पर टिकी हुई है। यही कारण है कि देश के उत्पादक वर्ग में 'वर्ग-चेतना' विकसित नहीं हो पा रही है। एक एकताबद्ध क्रांतिकारी संघर्ष के लिए वर्ग चेतना से लैस होना निहायत जरूरी है। 'भारत में जाति का सवाल' के अध्याय में लेखिका प्राचीन भारत से लेकर आधुनिक काल तक इस सवाल के विभिन्न पहलुओं से टकराती है। उनके इस मत में दम है कि मध्यकाल से ही शासक वर्ग अछूतों और आदिवासियों से बंधुआ मजदूरी कराते रहे हैं। 1977 में जब देश का पहला राष्ट्रीय बंधक श्रमिक सर्वेक्षण कराया गया था, तब के परिणाम भी यही बतलाते हैं कि 98 प्रतिशत बंधक-श्रम की सामाजिक पृष्ठभूमि दलित और आदिवासी है। इसलिए अनुराधा कहती है, ''जाति प्रथा का विकास और सुदृढ़ीकरण एक स्वस्फूर्त प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि राज्य की शक्ति व समर्थन से जुड़ी हुई थी। हिंसा से जाति प्रथा को बनाए रखा गया। ब्राह्मणों ने अछूतों के विरुद्ध ऊंची जातियों की हिंसा को स्वीकृति दी। ...जाति व्यवस्था को धर्म की विचारधारा के साथ-साथ तलवार से भी बनाए रखा गया।'' लेखिका के मत में अंग्रेजों ने भी वही किया जो मध्ययुग के शासक वर्ग करते रहे थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्राह्मणवादी हिंदू व्यवस्था के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की, और न ही गुणात्मक परिवर्तन की कोशिश की क्योंकि जातिप्रथा गैर-बराबरी पर आधारित थी। 20वीं सदी के गैर-ब्राह्मणवादी आंदोलन भी एकांगी रहे क्योंकि गैर-ब्राह्मण जातियों के उच्च वर्ग के हाथों में ही आंदोलनों से प्राप्त हुई राजनीतिक सत्ता सिमटी रही। इस संदर्भ में अनुराधा द्रविड़ आंदोलन, दी जस्टिस पार्टी, दी यूनियनिस्ट पार्टी, रेड्डी व कम्भा, मराठा, बोकालिंगा व लिंगायत, पटेल, यादव व जाट जैसी जातियों के सामाजिक सुधार व राजनीतिक बराबरी के आंदोलनों के चरित्र व परिणामों के विश्लेषण से यह बतलाती हैं कि इस तरह के गैर-ब्राह्मणवादी आंदोलनों से न तो जाति-प्रथा समाप्त हुई, और न ही दलितों की स्थिति में आधारभूत बदलाव आया। लेखिका का स्पष्ट मानना है कि देश की प्रथम स्वतंत्र सरकार के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ''नए शासक वर्ग के हितों के अनुकूल संविधान के निर्माण में अंबेडकर की दक्षताओं का इस्तेमाल किया और उन्हें प्रतिपक्ष से अलग रखा।'' लेखिका के मत में आरक्षण एक सुधारवादी नीति है जो कि राहत तो देती है, लेकिन मुक्ति नहीं देती है। लेकिन अनुराधा यह भी कहती हैं कि आरक्षण के कारण उच्च पदों पर ऊंची जातियों का एकाधिकार भी टूटा है और उच्च व्यावसायिक पदों पर पहुंचने का उन्हें अवसर भी मिला है। इसलिए वे आरक्षण-विरोधी आंदोलनों से सहमत नहीं है।

जहां अनुराधा राष्ट्रव्यापी ब्राह्मण विरोधी आंदोलनों की पड़ताल करती हैं वहीं वे दलित आंदोलनों (दलित पैंथर, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया आदि) की भी चीराफाड़ी करती हैं। उनका यह विश्लेषण सही है कि दलित आंदोलन व पार्टियां भी भटकाव की शिकार हुई हैं। सत्ताधारी दल कांग्रेस ने दलित नेतृत्व को विभिन्न प्रलोभनों से खरीदा। वर्तमान दौर के दलित आंदोलन पर की गई टिप्पणी में वे कहती हैं कि दलितों का नेतृत्व अपनी मिलीटेंसी को छोड़ लम्पटीपन का शिकार होता जा रहा है। भ्रष्ट व कुलीनवादी नेतृत्व संविधानवाद में धंसा हुआ है जिससे मिलीटेंसी बिखर रही है। इस मामले में लेखिका बीएसपी पर भी जबर्दस्त हमला करती हैं। वह इसे शासक वर्गों का मुख्य 'फरेबी घोड़ा' (ट्रोजन होर्स) बतलाती हैं।

अनुराधा गांधी अपने लेखन में देश से जाति के सफाया को लेकर चिंतित, सतर्क और सक्रिय भी दिखाई देती हैं। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे 29 सूत्री क्रांतिकारी एजेंडा भी सामने रखती हैं। उनका मानना है कि 'नव लोकतांत्रिक क्रांति' के लिए जातिप्रथा के विरुद्ध वर्ग संघर्ष अत्यावश्यक है। उनका मानना है कि जाति-प्रथा भारत का यथार्थ जिसे नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए लेकिन इसके विरुद्ध अथक संघर्ष भी अपरिहार्य है। मेरे मत में इस 29 सूत्री एजेंडे के लिए भूमिगत पार्टी की जरूरत नहीं है बल्कि जन संगठन व रैडिकल सिविल सोसाइटी एक्टीविस्ट भी इसे अपना सकते हैं। संस्कृतिकर्मी भी इस अभियान में सक्रिय हो सकते हैं। वर्तमान व्यवस्था के दायरे में रहकर संघर्ष करते हुए कई बिंदुओ को लागू करवाया जा सकता है।

पुस्तक में लेखिका की जातिप्रथा और कम्युनिस्ट पार्टियों (सीपीआई और सीपीएम) की विवेचनात्मक समझदारी पर यहां चर्चा गैर-जरूरी नहीं रहेगी। अनुराधा मानती हैं कि संशोधनवादी पार्टियों ने जाति-प्रश्न को इसलिए नकारा है क्योंकि दोनों ने ही सामंतवाद-विरोधी लड़ाई में कृषि-संघर्ष को प्राथमिकता पर नहीं रखा। दोनों ही पार्टियां अर्थवाद और चुनावी लड़ाइयों में धंसी रहीं। इसके साथ ही दोनों पार्टियों ने यह भी माना कि उत्पादन से सामाजिक संबंध स्वत: ही बदल जाएंगे। यहां मैं पाठकों को यह बताना आवश्यक समझता हूं कि इंद्रजीत गुप्त (सीपीआई) और ज्योति बसु (सीपीएम) दोनों ने ही अपने जीवन-काल के अंतिम दौर में जाति-यथार्थ को स्वीकार किया था। फ्रंटलाइन को दिए गए अपने साक्षात्कारों में दोनों शिखर नेताओं की आत्मस्वीकृति थी कि वर्ग-संघर्ष व श्रमिक आंदोलनों में जाति की भूमिका की उपेक्षा एक बड़ी भूल रही है। देश की सामाजिक संरचना में जाति-कारक को समझना ही होगा। शायद लेखिका का इस ओर ध्यान नहीं गया। यह भी हो सकता है कि यह पेपर काफी पहले लिखा गया हो। वास्तव में, भारत में उत्पादन-पद्धति व साधनों में परिवर्तन का यह अर्थ कदापि नहीं है कि इससे उत्पादन संबंध अपने आप बदल जाएंगे। उपरी ढांचे में बदलाव होते रहते हैं लेकिन आधारभूत ढांचा जड़ बना रहता है। भारत में जाति को वर्ग से 'डीलिंक' करने की जरूरत है। इसलिए अनुराधा के इस मत से असहमति नहीं हो सकती कि ''वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को नष्ट करके ही जाति-व्यवस्था पर निर्णायक आक्रमण किया जा सकता है।''

अत्यंत जटिल मुद्दा है जिसे समझना चुनौतीपूर्ण काम है। सवर्ण बनाम दलित; सवर्ण बनाम पिछड़े; पिछड़े बनाम दलित; सवर्ण बनाम गैर सवर्ण जैसे कई उपसवाल के भीतर कई परतें हैं। इन परतों के बीच भी अंतर्विरोध है। इसी प्रकार, दलितों और पिछड़ों के मध्य नए प्रकार के अंतर्विरोध उभर रहे हैं। दलित और आदिवासियों के संबंधों का मामला। यह भी कम पेचीदा सवाल नहीं है। दलितों के समान आदिवासी समाज के एक हिस्से का अभिजातकरण हुआ है। इसमें भी लघु-स्तर पर नौकरशाह व राजनीतिक वर्ग उभरा है। संघर्ष की रणनीति में लघु व वृहतस्तरीय अंतर्विरोधों की पहचान की भूमिका भी होती है। इस तरह के कुछ सवाल हैं जो अनुत्तरित लगते हैं। फिर लेखिका का जमीनी अनुभव-संसार काफी व्यापक है। एक्टीविस्ट लेखिका को जिंदगी कुछ मोहलत देती तो वे इन सवालों में और गहरे तक उतर सकती थीं।

तो भी सीमित जिंदगी रहते हुए भी अनुराधा भारतीय स्त्री की दशा से जुड़े सवालों से शिद्दत के साथ टकराती हैं। लेखिका 'नारी आंदोलन में दार्शनिक प्रवृत्तियां', 'भारत में क्रांतिकारी महिला आंदोलन', 'फासीवाद', 'कट्टरतावाद व पितृसत्तात्मकता', 'क्रांतिकारी आंदोलन में आदिवासी औरतों की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति', 'श्रमिक वर्गीय औरतें: अदृश्य का साक्षात में रूपांतरण' जैसे मुद्दों की अनुभव आधारित खोज-परख करती हैं। अनुराधा के विश्लेषण की मजबूती यह है कि वे भारतीय जमीन से स्त्री-विमर्श की यात्रा शुरू करती हैं। इस सिलसिले में रामायण, महाभारत, मीरा बाई आदि की खोज-खबर लेते हुए सामंतवाद से पूंजीवाद और भारत से पश्चिम की तरफ पहुंचती हैं। लेखिका बतलाती है कि माक्र्सवाद, अस्तित्ववाद, अराजकतावाद, उदारतावाद, विकसित पूंजीवाद, कांट, हेगल, लॉक, नित्शे, फ्रॉयड आदि का स्त्री मुक्ति आंदोलन और विमर्श पर क्या प्रभाव पड़ा। सुसान एंथोनी, एलिजाबेथ केडी स्टेनटोन, इम्मा गोल्डमेन, मदर जोन्स, क्लारा जेटकिन, इलेए्नोरा, माक्र्स, बेट्टी, फ्राइडन, पामेला एल्लेन, हेदी हर्टमन्न, मारीयारोसा डाला कोस्टा जैसी प्रतिबद्ध स्त्री-आंदोलनकारियों और चिंतकों ने योरोप व अमेरिका में स्त्री अस्मिता यात्रा को किन चुनौतियों के बीच आगे बढ़ाया। लेखिका यह भी विश्लेषित करती हैं कि इस यात्रा में उदार नारीवाद, रैडिकल नारीवाद, अराजकता-नारीवाद, ईको-नारीवाद, मोन-लिंग प्रथा व पितृसत्तात्मकता, यौनिकता: विषययौनिकता और समलिंगी स्त्रीकामुकता, समाजवादी नारीवाद जैसे विवादास्पद विषयों की क्या भूमिका रही है। विभिन्न विचारधाराओं से प्रेरित नारीवादी आंदोलनों की मजबूती क्या है और कमजोरियां क्या हैं, इन सबकी संक्षिप्त विवेचना अनुराधा की खुली कलम से निकलती हैं। इस संबंध में माक्र्सवादी आंदोलन की कमजोरियों की ओर भी संकेत करती हैं। ईको-नारीवाद के संदर्भ में वंदना शिवा, नारिया मीस, यनेस्त्रा किंग जैसी प्रसिद्ध ईको-नारीवारियों को अपनी आलोचना के निशाने पर रखती हैं और बतलाती हैं कि ''ईको-नारीवादी प्रकृति के साथ औरत के संबंधों का आदर्शीकरण करती हैं लेकिन उसमें वर्ग दृष्टि का अभाव रहता है।'' अनुराधा का मानना है कि ''वंदना शिवा जिसका गुणगान कर रही हैं वह वास्तव में पूर्व पूंजीवादी निम्न कृषि अर्थव्यवस्था है जिसका संबंध सामंती ढांचे और चरम असमानताओं से है।'' लेखिका चिपको आंदोलन पर भी अपनी कलम चलाती हैं। सारांश यह है कि लेखिका का स्पष्ट मत है कि औरतों के संघर्ष को एकांगी दृष्टि से देखना-समझना गलत होगा। इसे व्यवस्था के संदर्भ में व्यापकता के साथ देखा जाना चाहिए। इसलिए जब तक साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था का पूरी तौर पर खात्मा नहीं होगा तब तक स्त्री-मुक्ति का संघर्ष कामयाब नहीं होगा। भारत के संदर्भ मे एक्टीविस्ट अनुराधा का निष्कर्ष है। ''माक्र्सवाद के सैद्धांतिक मार्गदर्शन में क्रांतिकारी महिला आंदोलन, जैसा कि यह लेनिन व माओ के अनुभवों की रोशनी में भी विकसित हुआ है, उत्पीडि़त जातियों व समुदायों, गरीब ग्रामीण किसानों और भूमिहीन श्रमिकों की औरतों को संगठित करने में सफल रहा है।'' वैसे अनुराधा यह भी चाहती है कि वैश्विक आंदोलनों और दार्शनिक प्रवृत्तियों को सकारात्मक पहलुओं से सीखा जाना चाहिए। विभिन्न अनुभवों के परिप्रेरक्ष्य में ही भारतीय स्त्री जगत को सभी प्रकार के शोषण व उत्पीडऩ से मुक्त कराया जा सकता है।

बहुरंगी सैद्धांतिकी और विमर्श तक सीमित न रहते हुए नक्सलबाड़ी आंदोलन में औरतों की भूमिका का जायजा लेती हैं। दंडकारण्य में सक्रिय क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन, महिला विमुक्ति संगम जैसे आंदोलनों का उल्लेख करती हैं। यह भी बतलाती हैं कि गुरिल्ला सेना में संघर्षरत औरतों का क्या योगदान रहा है। अरुंधति रॉय के अनुसार क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन की 90 हजार से अधिक समस्याएं हैं, और अनुराधा इसके साथ वर्षों तक संघर्षरत रहीं थीं। उनका स्त्री-विमर्श क्रांतिकारी संघर्ष की पैदाइश है, न कि पश्चिम से आयातित या देह-मुक्ति आंदोलन से प्रेरित। वे स्त्री के मन-मस्तिष्क-देह की मुक्ति की इस्पाती पक्षधर जरूर हैं लेकिन इसे वे साम्राज्यवादी-पूंजीवादी बाजार के हवाले करने के लिए हरगिज तैयार नहीं हैं। इसीलिए वे पुरजोर मांग भी उठाती हैं कि कामगार औरतों के मामले में वैश्वीकरण की नीतियों और साम्राज्यवादी हमलों को उजागर करने के साथ-साथ उनका विरोध भी किया जाना चाहिए। उनके इस वैचारिक व व्यवहारिक स्टैंड को स्वीकार करना होगा।

बेशक अनुराधा गांधी माओवादी थीं। माता-पिता से विरासत में साम्यवादी संस्कार मिले थे। पारसी कामरेड कोबाद गांधी से 1977 में उनका विवाह हुआ। उत्तर-आपातकाल में वे नागरिक स्वतंत्रता आंदोलन में तेजी के साथ उभरी थीं। इसके पश्चात उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। अंतिम क्षण तक वे क्रांतिकारी रहीं और इसी के लिए उन्होंने अपने प्राणों का उत्सर्ग भी किया, अरुंधति के शब्दों में ''क्या औरत थी वो।''

नि:संदेह अनुराधा की यह पटकथा मुकम्मल नहीं है, इसमें गैप्स हैं। इन्हें दूर करने और पटकथा को पूरा करने की जिम्मेदारी उनकी भी है जो इसे पढ़ेंगे। भारतीय लोकतंत्र की इमारत पर बदलाव की इबारत लिखने के लिए नई पटकथा का सृजन किया भी जाना चाहिए। तब तक 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां' के उत्सव को क्यों न मुल्तवी रखा जाए?

Comment    See all comments

Unsubscribe or change your email settings at Manage Subscriptions.

Trouble clicking? Copy and paste this URL into your browser:
http://www.samayantar.com/scripting-the-change-anuradha-gandhi-book-review/



No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors