पुष्परंजन जनसत्ता 28 अगस्त, 2012: गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन के अध्यक्ष के तौर पर ईरान की ताजपोशी हो गई। सौ सदस्य देशों वाले विराट संगठन का अध्यक्ष बनने के बाद अब ईरान को अकेला करने की अ मेरिकी कोशिश बेकार साबित हो सकती है। तेहरान में गुटनिरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलन (26 से 31 अगस्त तक) से यही संदेश जा रहा है। 193 सदस्यीय संयुक्त राष्ट्र के बाद, दुनिया का यह दूसरा बड़ा संगठन है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नॉन अलाइंड मूवमेंट, संक्षेप में 'नैम') की तीन साल तक अध्यक्षता संभालने जा रहे ईरान को ऐसे नाजुक समय में यह हथियार मिला है, जब उसे अलग-थलग करने की कोशिश में अमेरिका और उसके मित्र-देश लगातार लगे हुए थे। ईरान के विदेशमंत्री अली अकबर सालेही ने सम्मेलन के उद्घाटन के दौरान कहा भी कि हमें पृथक करने का अमेरिकी प्रयास अब सफल नहीं होगा। ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद की कोशिश यही रही थी कि इस सम्मेलन में भाग लेने से 'नैम' का कोई सदस्य बाकी न रह जाए, खासकर उत्तर कोरिया, क्यूबा और वेनेजुएला जैसे देश, जिन्हें ओबामा और उनकी मंडली चिर-शत्रु मानती है। लेकिन इस सम्मेलन में अगर अमेरिका के चिर-शत्रु आए हैं, तो अमेरिका के मित्र-देश दक्षिण अफ्रीका, सऊदी अरब, अफगानिस्तान और भारत के नेता भी शिरकत कर रहे हैं। हमास प्रधानमंत्री इस्माइल हानिया नैम सम्मेलन में नहीं गए, इससे यह संदेश भी गया है कि फिलस्तीनी नेताओं को मनाने में ईरानी नेतृत्व समर्थ नहीं है। हानिया के प्रतिद्वंद्वी फिलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने घोषणा कर रखी थी कि अगर हानिया तेहरान गए, तो वे नैम-सम्मेलन का बहिष्कार करेंगे। हमास नेता हानिया गाजा पट््टी पर राज करते हैं, और महमूद अब्बास रामल्ला पर। ईरान ने दोनों गुटों को नैम-सम्मेलन में आमंत्रित कर रखा था। यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि जब कूटनीति के स्तर पर दो-धु्रवीय विश्व नहीं रहा, तब गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन की आवश्यकता क्या है? इसे थोड़ा समझने के लिए 1948 के दौर को याद करना होगा, जब यूगोस्लाविया सोवियत संघ का कट््टर समर्थक हुआ करता था। उसी साल स्तालिन और यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो के बीच अनबन हुई, और यूगोस्लाविया 'पूर्वी ब्लॉक' से बाहर हो गया। कोई बारह साल तक मार्शल टीटो, पंडित नेहरू और मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल नासिर के बीच संवाद चलता रहा कि क्यों नहीं विकासशील देशों का एक ऐसा संगठन बने जो न तो अमेरिका का पिछलग्गू हो, न ही सोवियत संघ का। इसी विचार के साथ गुटनिरपेक्ष देशों के नेताओं ने 1961 में यूगोस्लाविया की राजधानी बेलग्रेड में इसकी बुनियाद रखी। यह गर्व की बात है कि गुटनिरपेक्ष शब्द का पहला प्रयोग, 1957 से 1962 तक भारत के रक्षामंत्री रह चुके, वीके कृष्णमेनन ने किया था। 1953 में संयुक्त राष्ट्र में एक कूटनीतिक की हैसियत से संबोधन के दौरान वीके कृष्णमेनन द्वारा बोला गया 'नॉन अलाइनमेंट' यानी 'गुटनिरपेक्ष' शब्द मानो एक मंत्र की तरह था। यह शब्द पंडित नेहरू को इतना भाया कि वे इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर दोहराते चले गए। नेहरू ने 1954 के कोलंबो सम्मेलन में 'नॉन अलाइनमेंट' शब्द का भरपूर प्रयोग किया। उन्होंने एक दूसरे की क्षेत्रीय संप्रभुता का सम्मान करने, किसी देश पर हमला न करने, किसी देश के घरेलू मामले में हस्तक्षेप न करने, समान व्यवहार और आपसी सहयोग करने और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व जैसे पांच सिद्घांत प्रतिपादित किए, जिसे आज भी दुनिया 'पंचशील' के नाम से याद करती है। इसके साल भर बाद 1955 में बांडुंग सम्मेलन हुआ, जिसमें अफ्रीका और एशिया के नेता जुटे। बांडुंग सम्मेलन में यह लगभग तय हो चुका था कि गुटनिरपेक्ष देशों का एक ऐसा संगठन बने, जो दोनों महाशक्तियों के दबाव से मुक्त हो। उस जमाने में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो गुटनिरपेक्षता के विचार को आगे बढ़ाने में काफी सक्रिय थे। इस आंदोलन के जनक के रूप में उस दौर के पांच नेताओं का नाम आता है- भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति मार्शल टीटो, इंडोनेशिया के प्रथम राष्ट्रपति सुकर्णो, मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल नासिर और घाना के पहले राष्ट्रपति क्वामे न्कुरमा। इन पांच नेताओं के अलावा इथियोपिया के शहंशाह हेले सिलासी के योगदान को भी लोग याद करते हैं। इनमें से कोई भी नेता अब जीवित नहीं है। लेकिन उनके विचार अब भी जिंदा हैं। सोवियत संघ के धराशायी होने के बाद इस पर बहस चली कि अब गुटनिरपेक्ष आंदोलन की आवश्यकता क्या है। सबके बावजूद संगठन को जीवित रखने का प्रयास जारी रहा। एक सौ बीस सदस्य देशों वाले इस संगठन को बने पांच दशक से अधिक हो चुके, लेकिन जी-20 की तरह आज भी इसका स्थायी सचिवालय नहीं बन सका है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का अपना कोई संविधान नहीं है, यह भी इसकी कमियों में एक है। ईरान-सम्मेलन से पहले जुलाई 2009 में मिस्र के शर्म-अल शेख में 'नैम' का पंद्रहवां शिखर सम्मेलन हुआ था। मिस्र ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अध्यक्षता औपचारिक रूप से ईरान को सौंप दी है। 'नैम' में मिस्र का महत्त्व इसलिए भी रहा है, क्योंकि 5 से 12 जून 1961 को इस संगठन का पहला शिखर सम्मेलन काहिरा में ही हुआ था। मिस्र अमेरिका का मित्र देश है, इस सचाई से पूरी दुनिया वाकिफ है। आज की तारीख में ईरान अमेरिका का शत्रु-देश है, यह भी सारी दुनिया जानती है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अध्यक्षता अमेरिका के एक मित्र के हाथ से, उसके एक चिरशत्रु के हाथ जा चुकी है, इसलिए पूरी दुनिया के लिए यह जिज्ञासा का विषय रहेगा कि ईरान इसे क्या दिशा देता है। मिस्र से ईरान की बनती नहीं है। डर इस बात का भी है कि आवेश में आकर ईरान गुटनिरपेक्ष आंदोलन का दुरुपयोग न करे। तेहरान सम्मेलन का संदेश है, 'साझा ग्लोबल गवर्नेंस के जरिए शांति'। क्या यह संभव है कि साझा संचालन जैसी विश्व व्यवस्था बनेगी? हमें आंख मूंद कर यह नहीं मान लेना चाहिए कि 'नैम' के सभी एक सौ बीस सदस्य देश अमेरिका-विरोधी हैं। गौर से देखें तो गुटनिरपेक्ष आंदोलन के कम से पचास सदस्य-देश ऐसे हैं, जो अमेरिका की जी-हुजूरी में लगे रहते हैं। इसलिए नैम के आलोचक बराबर यह सवाल उठाते हैं कि इस संगठन में गुटबाजी करने वाले देशों की घुसपैठ है। इसके बरक्स ईरान के कारण गुटबाजी तेज होगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। एक बड़ा सवाल यह भी है कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन में अब भारत की भूमिका क्या होगी? जैसा कि विदेश सचिव रंजन मथाई ने जानकारी दी कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद और वहां के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह अली खामेनी से 29 अगस्त को मिल रहे हैं। दोनों देशों के बीच शिखर स्तर पर 2001 के बाद की यह पहली बातचीत होगी। यह लगभग तय है कि अफगानिस्तान में ईरान और भारत एक नई भूमिका में आना चाहते हैं। यह भूमिका कूटनीतिक से ज्यादा व्यापारिक है। ईरान के चाह बहार बंदरगाह और उसके गिर्द बनने वाले विशेष व्यावसायिक क्षेत्र से भारत को यही फायदा होगा कि उसे अफगानिस्तान माल भेजने में आसानी होगी, और ईरान में वह अपने पांव पसार सकेगा। मगर भारत यह खुल कर कहने की स्थिति में नहीं है कि चाह बहार बंदरगाह समझौते पर आगे नहीं बढ़ने के लिए अमेरिका ने उस पर कितना दबाव डाल रखा है। कूटनीतिक हलके में पूछा भी गया है कि संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी दूत सूजान राइस, तेहरान गुटनिरपेक्ष सम्मेलन से पांच दिन पहले नई दिल्ली क्या सिर्फ सीरिया समस्या पर बात करने आई थीं? पाकिस्तान के लिए भी पेचोखम की हालत है कि उसके द्वारा मार्ग अवरुद्घ करने के बावजूद भारत ने ईरान की मदद से अफगानिस्तान माल भेजने का रास्ता ढूंढ़ लिया है। पाकिस्तान बदलती भू-सामरिक स्थिति से कैसे निपटेगा, इस पर इस्लामाबाद में मंथन जारी है। सिस्सतान और बलूचिस्तान प्रांत के जिस इलाके से लगा चाह बहार बंदरगाह है, वहां तालिबान और दूसरे कठोरपंथी समूहों का दबदबा है। पाकिस्तान बाधा पैदा करने के लिए परोक्ष रूप से इन्हें उकसा सकता है, इस जमीनी सचाई को हमें जेहन में रखना होगा। अफगानिस्तान के लिए रणनीति बनाने के साथ-साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के तेहरान में उपस्थित होने का मतलब यह भी होना चाहिए कि किस तरह भारत, ईरान में निर्यात बढ़ाए। 2011-12 में भारत ने साढ़े तेरह अरब डॉलर का माल, जिसमें ज्यादातर तेल ही है, ईरान से मंगाया था। लेकिन इसके मुकाबले हम सिर्फ ढाई अरब डॉलर का माल ईरान भेज पाए थे। यह घाटे का सौदा है, और इसे लंबा नहीं चलना चाहिए। सीरिया पर भारत ने अपना आधिकारिक रुख यह बनाए रखा है कि कोफी अन्नान द्वारा रखा छह सूत्री प्रस्ताव सही है, और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 2042 और 2043 पर हम सहमत हैं। इसे 'नैम' के अधिकतर नेताओं ने भी माना है। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान का छह सूत्री प्रस्ताव यह था कि सीरिया में मानवीय मदद करने वाली संस्थाओं को जाने दिया जाए, हिंसा से प्रभावित जनता को तुरंत मदद मिले, हिरासत में लिए लोगों को रिहा किया जाए, राजनीतिक संवाद शुरू हो, विवादित समूहों के दूत साझा रूप से मिलें, और अंतरराष्ट्रीय मीडिया को सीरिया में जाने दिया जाए। कोफी अन्नान सीरिया-समस्या के हल के लिए संयुक्त राष्ट्र और अरब लीग की ओर से विशेष दूत बनाए गए थे। लेकिन उनके प्रस्तावों पर जब कोई काम नहीं हुआ, तो अन्नान ने इसी महीने की दो तारीख को यह पद छोड़ने की घोषणा कर दी। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के मंच से इस बार सीरिया समस्या का समाधान हो जाएगा, इस पर तो शक ही है। सीरिया को ईरान अपने चश्मे से देख रहा है। ईरानी विदेशमंत्री सालेही की सुनें तो सीरिया पर उनका प्रस्ताव 'न्यायसंगत और स्वीकारयोग्य' होगा। पर समस्या यह है कि बाईस सदस्यीय अरब लीग का माई-बाप सऊदी अरब यह नहीं चाहेगा कि ईरान सीरिया के मामले में चौधरी बने। सऊदी अरब के कहने पर सीरिया को अरब लीग और मुसलिम देशों के संगठन 'ओआईसी' से निलंबित किया गया था। ईरान अरब लीग में नहीं है। ऐसे में क्या ईरान गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बूते सीरिया का समाधान कर पाएगा? 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