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Friday, May 31, 2013

फिर सलवा जुड़ुम की तैयारी,दंडकारण्य में माओवाद और सरकारी हिंसा के बीच युद्धबंदी हुए शरणार्थी!

फिर सलवा जुड़ुम की तैयारी,दंडकारण्य में माओवाद और सरकारी हिंसा के बीच युद्धबंदी हुए शरणार्थी!


पलाश विश्वास


सुकमा जंगल में परिवर्तन यात्रा पर हुए माओवादी हमले ने पहली बार राजनीतिक नेतृत्व को निशाना बनाया है और इसकी प्रतिक्रिया भी बेहद आत्मघाती होने जा रही है। इस हमले की जितनी भर्त्सना की जाये , वह कम है। माओवादियों ने सत्ता पर साधा निशाना साधकर आम आदिवासियों को सीधे सीधे सरकारी चांदमारी का शिकार बना छोड़ा है। केंद्र सरकार ने इस हमले की राजनीतिक आर्थिक सामाजिक वजहों की पड़ताल किये बिना सैन्य दमन का रास्ता अपनाया है तो छत्तीसगढ़ के संघी मुख्यमंत्री रमण सिंह ने फिर सलवा जुड़ुम को शुरु करने का संकेत दिया है, जिसे 2011 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने गैरकानूनी घोषित किया हुआ है।विश्वभर में मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के पैरोकार जिस सलवा जुड़ुम को बस्तर की इंद्रावती नदी के आर पार आदिवासियों को आदिवासियों के विरुद्ध खड़ा करने उन्हें ग्लेडियेटर की मौत देने का बंदोबस्त बताते हैं, उसके प्रवर्तक महेंद्र कर्मा को बाकायदा माओवाद से मुक्तिदाता अवतार बतौर पेश किया जा रहा है और निर्लज्ज ढंग से सलवाजुड़ुम का महिमामंडन किया जा रहा है। हकीकत यह है कि  छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के खिलाफ सक्रिय आदिवासी आंदोलन सलवा जुड़ुम की स्थापना एस्सार और टाटा को मदद करने के लिए किया गया। 2005 में महेन्द्र कर्मा ने सलवा जुड़ुम की स्थापना की थी!


हम पहले भी लिख चुके हैं कि दंडकारण्य में आदिवासी आबादी में आदिवासी वर्चस्व तोड़ने के लिए मानवीय कार्यभार की दुहाई देकर पांचवी और छठीं अनुसूचियों के खुले उल्लंघन की सुनियोजित योजना के तहत पूर्वी बंगाल से आये विभाजन पीड़ित शरमार्थियों  को पुन्रवासित किया गा। बाद में श्रीलंका से आये तमिल शरणार्थी भी इन इलाकों में बसाये गये। अब माओवादी सक्रियता और सर्कारी हिंसा के बीच इन शरणार्थी गांवों की हालत सबसे खराब है। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली, चंद्रपुर, गोंडिया और भंडारा जिलों में, छत्तीस गढ़ के कांकेर जिले के पाखनजोड़ इलाके में,जगदलपुर और बस्तर में , उड़ीसा के मलकानगिरि और नवरंगपुर जिलों में, मध्यप्रदेश के बैतुल समेत तमाम आदिवासी बहुल जिलों में शरणार्थी गांवों में माओवादी सक्रियता के बहाने सैन्यबलों की घेराबंदी है और लोग युद्धबंदी जैसे जी रहे हैं। राशन पानी, दवा जैसी बुनियादी जरुरतों से भी वे मोहताज हैं। मृतकों का अंतिम संस्कार तक नहीं हो पता। स्कूलों और पंचायत भवनों समेत तमाम पक्की इमारतों में या तो सुरक्षा बलों के जवानों का डेरा है या फिर माओवादियों का कब्जा।


सुकमा में छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व का सफाया करने के बाद बाकायदा बयान जारी करके वारदात की जिम्मेवारी लेने वाले माओवादी जनयोद्धा फिर गहरे जंगल के सुरक्षित ठिकानों में वापस चले गये हैं। मानसून दस्तक दे रहा है। जंगल में माओवादियों की अभेद्य किलेबंदी को तोड़ने में नाकाम सुरक्षा बलों का सघन अभियान इन्हीं निहत्था आदिवासी और शरणार्थी गांवों में चल रहा है।


मालूम हो कि सुकमा जंगल से सटे शरणार्थी उपनिवेश में एक नहीं, दो नहीं, कुल एक सौ पैंतीस बंगाली दलित शरणार्थियों के गांव बसाये गये हैं, जो अब सही मायने में यातना शिविर में तब्दील हैं।महाराष्ट्र के गढ़चिरौली और उड़ीसी के नवरंगदेवपुर व मलकानगिरि के बीच सैंडविच की तरह है बंगाली शरणार्थियों का सबसे बड़ा उपनिवेश पाखानजोड़ जिसके आस पास अबूझमाढ़,गढ़चिरौली और चिंतनलाढ़ मेंसुरक्षाबलों और माओवादियं के बीच अंतहीन लड़ाई जारी है। पाखानजोड़ से अरण्यबहुल गढ़चिरौली मात्र 24 किलोमीटर दूर है, जहां जंगल में मूला इलाके में बड़ी संख्या में शरणार्थी हैं। इसीतरह नवरंग देवपुर के उमरकोट के नब्वे शरणार्थी गांवों और मलकानगिरी के करीब सवा सौ शरणार्थी गांवों में मानवाधिकार और नागरिक अधिकार फिलहाल लंबित हैं।


सुकमा हमले के मद्देनजर सुरक्षा कवायद के तहत छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीशा और आंद्रप्रदेश तक विस्तृत दंडकारण्य के आदिवासी इलाकों में व्यापक धरपकड़ जारी है। जिस तिस को माओवादी तमगा नत्थी किया जा रहा है। इन्हीं इलाकों में तमाम शरणार्थी उपनिवेश हैं।


पश्चिम बंगाल के राजनेताओं को न तो बांग्लादेश  में रह गये अल्पसंख्यकों की कोई चिंता है और न भारत भर में छिड़का दिये गये बंगाली अनुसूचित शरणार्थियों की कोई परवाह। इसीतरह श्रीलंका में मानवाधिकार हनन पर कोहराम मचाने वाले तमिलनाडु के पक्ष विपक्ष के नेताओं को दंडकारण्य में युद्धबंदी बना दिये गये तमिल शरणार्थियों की कोई परवाह नहीं है।


छत्तीसगढ़ के जिस सुकमा जिले में नक्सलियों ने घात लगाकर प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं सहित 27 लोगों की हत्या कर दी थी, अब उसी सुकमा के कलेक्टर को कथित रूप से नक्सलियों की ओर से एक लाल खत प्राप्त हुआ है। बेहद टूटी फूटी हिन्दी में लिखी इस चिट्ठी में सीपीआई (माओवादी) की दरभा जिला कमेटी ने चेतावनी दी है कि वह अभी और कत्लेआम करेगी। 30 मई को जिला कलेक्टर कार्यालय में रिसिव किये गये इस पत्र में उन लोगों के नाम लिखे गये हैं जिन्हें नक्सली अपना अगला निशाना बनाएंगे।


कलेक्टर सुकमा को लाल सलाम करते हुए लिखे इस पत्र में लिखा गया है कि "तुम्हारे राज्य सरकार और केन्द्र सरकार को दरभा घाटी में सलवा जुड़ुम का जवाब मिल गया होगा। सलवा जुड़ुम के लोगों को और पुलिस के मददगारों को हम ऐसे ही दण्ड देंगे।" पत्र में आगे लिखा गया है कि सुकमा में अभी भी सलवा जुड़ुम और पुलिस के मददगारों को दंड देना बाकी है।

इस चिट्ठी में उन लोगों के नाम लिखे गये हैं जिन्हें कथित तौर पर नक्सली अभी दण्ड देना चाहते हैं। नक्सलियों की इस चिट्ठी में जो नाम लिखे गये हैं उसमें सलवा जुड़ुम के स्थानीय नेताओं के नाम लिखे गये हैं। इसके साथ ही उनके मददगारों की पहचान करके उनके भी नाम लिखे गये हैं और कहा गया है इन नेताओं और उनके मददगारों को नक्सली जल्द ही सजा सुनाएंगे।


परिस्थितियों की संवेदनशीलता देखते हुए, कथित रूप से नक्सलियों की ओर से लिखी गई इस चिट्ठी में लिखे नामों का खुलासा तो हम नहीं कर सकते लेकिन माओवादियों ने दो पेज की अपनी चिट्ठी में सुकमा जिला कलेक्टर के जरिए अपनी छह मांग सामने रखी है। माओवादियों की ओर से लिखी गई इस चिट्ठी में मांग की गई है कि


सीआरपीएफ को बस्तर से हटाया जाए


निर्दोष गांववालों को मारना बंद करो


आपरेशन ग्रीन हण्ट बंद करो


विकास यात्रा परिवर्तन यात्रा बंद करो


एडसमेटा में हुए फर्जी मुटभेड़ में शामिल सीआरपीएफ के ऊपर मर्डर केस दर्ज करो


हमारे निर्दोष साथियों को जेल से रिहा करो


माओवादियों ने बस्तर जिले में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर घातक हमले की जिम्मेदारी लेते हुए देशभर में उसके खिलाफ चलाये जा रहे सभी अभियान तत्काल बंद करने की मांग की।


अभी प्रधानमंत्री की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से अत्यंत आदरणीय समाजसेवी अरुणा राय ने इस्तीफा दे दिया, सिर्फ इसलिए कि देश के कारपोरेट नेतृत्व ने मनरेगा पर उनके सुझावों को दरकिनार कर दिया। लेकिन बहुत सारे आदरणीय लोग अब भी विभिन्न समितियों में बने हुए हैं। ताज्जुब तो यह है कि जो बात अरुणा जी को सताती है . वह उन्हें चैन की नींद सुलाती है। वनाधिकार अधिनियम बना, लागू नही हुआ। भूमि सुधार का सिर्फ वायदा है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर गर्मागर्म बहस चल रही है। टीवी पर भारत उदय के बाद भारत निर्माण का शोर है। सामाजिक योजनाओं से इस कारपोरेट राज में आदिवासिों और बहुजनों का कोई भला नहीं होने वाला। न ही अल्पसंख्योंको को। ये योजनाएं सिर्फ सरकारी खर्च बढ़ाकर बाजार में क्रयशक्ति के लिए बेहद जरुरी नकदी प्रवाह बढ़ाने का मार्केटिंग रणनीति के अलावा कुछ नहीं हैं।देश में सूचना अधिकार कानून का आंदोलन शुरू करनेवाली अरुणा रॉय का पहले सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से इस्तीफा और फिर इस्तीफे के अगले दिन सीधे सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आरोप कि वे सोनिया गांधी की भी नहीं सुनते, निरा राजनीतिक बयानबाजी भर नहीं हो सकती। अरुणा रॉय खुद उस तरह की राजनीतिक शख्सियत नहीं है कि वे लाभ हानि के आधार पर ऐसी बात कहें जिससे कोई गंभीर विवाद पैदा होता हो। लेकिन उनके आरोप का असर प्रधानमंत्री तक पहुंचा और उन्होंने भी सफाई दी है कि उनका सोनिया गांधी से कोई विवाद नहीं है।


आदिवासी अलगाव को ख्तम करने के लिए सबसे जरुरी पहल का जिम्मा मानवाधिकार कर्मियों के हवाले हैं, पर उनका हाल यह है कि हिमांशु कुमार ने सिलसिले वार ढंग से लगाता आदिवासी इलाकों में सुरक्षाबलों और राजनीतिक दलों के कारनामों की रपट पेश करे रहे हैं। सुकमा हमले के बाद प्रधानमंत्री को खुला पत्र लिखकर उन्होंने माओवाद समस्या की असली वजहें भी बतायी। पर उनकी सुनवाई नहीं होती। बनवारी लाल शर्मा जबतक हो सका , शांतियात्राओं का आयोजन करते रहे तो स्वामी अग्निवेस मध्यस्थता की भूमिका निबाहते रहे। विनायक सेन आदिवासी इलाकों में बतौर चिकित्सक काम कर रहे थे, तो उन्हें सलाखों के पीछे डाल दिया गया। विश्वप्रसिद्ध लेखिका अरुन्धति राय लगातार आदिवासी समस्या पर सत्ता की परवाह किये बिना लिखती रही हैं। य़े कुछ उदाहरण मात्र हैं जो बड़े नाम वाले हैं। लेकिन इनकी सम्मिलित प्रयासों की कहीं कोई गूंज नहीं है क्योकि राष्ट्र आदिवासियों को अपने इतिहास भूगोल का हिस्सा ही नहीं मानता और उन्हें उनके वाजिब हक हकूक देने को कोई तैयार नहीं है। भारतीय राजनीति और अराजनीति की आदिवासी इलाकों में मानवाधिकार, नागरिक अधिकार और लोकतंत्र की बहाली में कोई दिलचस्पी नहीं है।


नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख व प्रसिद्ध गांधीवादी नेता मेघा पाटकर ने कहा कि दंतेवाड़ा और पूरे बस्तर की स्थिति गंभीर है। सरकार और सलवा जूड़ूम कार्यकार्ताओं के इशारे पर गांधीवादी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हमला कर उन्हें वापस जाने के लिए बाध्य किया गया। मेघा पाटकर ने फोन पर हरिभूमि को बताया कि उनकी मांग है कि वनवासी चेतना आश्रम के संस्थापक हिमांशु कुमार और उसके कार्यकर्ताओं को यहां काम करने की छूट मिलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि वनवासी चेतना आश्रम के कार्यकर्ता कोपा कुंजाम से मिलने वह जेल गई थीं। जहां जेल के अधिकारियों ने कहा कि वह उन लोगों से नहीं मिलना चाहता है, लेकिन मुलाकात करने के लिए अड़े रहने पर उन्होंने बाद में एक पत्र दिखाया जिसे कोपा कुंजाम ने लिखा गया बताया गया है। जिसमें उसने नहीं मिलने की इच्छा जताई है। उन्होंने कहा कि यह पत्र कोपा कुंजाम का नहीं था। वह पत्र कोपा कुंंजाम ने लिखा भी है तो वह पूरी तरह पुलिस के दबाव में है। मेघा पाटकर ने कहा कि उनके साथ और भी मानवाधिकार कार्यकर्ता है। इनके साथ वह बस्तर की हालत जानने आई हैं। उन्होंने कहा हम बस्तर के खनिज, वनसंपत्ति का दोहन करने वालों में से नहीं है, लेकिन ग्रामीणों को भड़काए जाने के कारण ऐसी स्थिति निर्मित हुई है। उन्होंने कहा कि केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिंदम्बरम ने कहा था कि वह बस्तर में जनसुनवाई करेंगे। यह कार्यक्रम वनवासी चेतना आश्रम का नहीं था। केन्द्रीय गृह मंत्री पी चिदम्बरम द्वारा स्वंय से जारी किया गया बयान था। इसमें वह प्रभावित क्षेत्र में समस्या जानने के लिए जनसुनवाई कार्यक्रम में शामिल होना चाहती थी, लेकिन इस कार्यक्रम को राज्य सरकार ने होने नहीं दिया। उन्होंने कहा कि सलवा जूड़ूम शिविर में आदिवासी परिवार सुरक्षित नहीं है। हम यहां सभी प्रकार की हिंसा का विरोध कर रहे हैं। इससे सरकार को डरना नहीं चाहिए। फोर्स सीधे साधे ग्रामीणों को नक्सली बनाकर मार रही है या फिर गिरफ्तार कर रही है। इससे आदिवासी परिवार शिविरों में रहने के लिए मजबूर है।


आदिवासी इलाकों में संविधान लागू करने की सबसे ज्यादा जरुरत है। पांचवीं और छठी ्नुसूचियों को तुरंत लागू करना चाहिए। संविधान की धारा 39 बी और सी के तहत आदिवासियों को प्राकृतिक संसाधनों पर उलके हक हकूक बहाल करने चाहिए। क्योंकि हमारे संविधान की पांचवी अनुसूची धारा २४४(१) भाग ख ४ में यह प्रावधान है कि ऐसे राज्य जिस में अनुसूचित जनजातियाँ हैं, एक जनजाति सलाहकार परिषद् स्थापित की जाएगी और वह राज्यपाल के अधीन होगी और वह ही ऐसे क्षेत्रों का प्रशासन देखेगी और राज्यपाल इस सम्बन्ध में सीधे राष्ट्रपति को ही रिपोर्ट भेजेंगे। मुख्य मंत्री का इन क्षेत्रों के प्रशासन पर कोई नियंत्रण नहीं होगा। इस के अतिरिक्त इस क्षेत्र के संसाधनों जैसे खनिज , जंगल तथा जल आदि पर गांव की पंचायत का नियंत्रण होगा और वह ही इस के उपयोग के बारे में कोई निर्णय लेने के लिए सक्षम होंगे। इस से होने वाले लाभ के वे ही हकदार होंगे।


परन्तु यह बड़े आश्चर्य की बात है कि देश में संविधान को लागु हुए ६२ वर्ष गुजर जाने पर भी इस क्षेत्रों में उक्त संवैधानिक व्यवस्था आज तक लागू नहीं की गयी और वहां पर पार्टियों द्वारा अवैधानिक रूप से शासन चालाया जा रहा है। अतः जब तक इन क्षेत्रों पर यह अवैधानिक शासन चलता रहेगा तब तक आदिवासियों और उन क्षेत्रों की प्राकृतिक संपदा की लूट होती रहेगी जिस के विरुद्ध लड़ने कि सिवाय आदिवासियों के सामने मयोवादियों की शरण में जाने के सिवाय कोई चारा नहीं रहेगा।


अब हमें सोचना होगा कि क्या इन क्षेत्रों में संवैधानिक व्यवस्था लागू करानी है या फिर राजकीय हिंसा और प्रतिहिंसा के खेल में इन आदिवासियों खत्म करना है।


ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि सरंडा जैसे नक्सली इलाकों में अगले 10 साल तक माइनिंग पर पाबंदी लगा देनी चाहिए।जयराम रमेश के मुताबिक खनन की वजह से कुछ लोग अमीर हो जाते हैं संसद में पहुंच जाते हैं लेकिन लाखों लोग गरीब रह जाते हैं। उन्होंने सरकारी नीति पर ही नहीं, नक्सलियों पर भी हमला किया है। उनके मुताबिक नक्सली बच्चों को भर्ती कर रहे हैं जो बहुत ही गलत है।तो केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री किशोरचंद्र देव ने खुलकर कहा है कि सलवा जुड़ुम में हुए आदिवासियों पर निरंकुश अत्याचारों की वजह से ही माओवाद का प्रचार प्रसार हुआ।


रमेश का मानना है कि नक्सलवाद अब विचारधारा का नहीं लूट का मामला बन गया है। निजी और सरकारी कंपनियां इन्हें 'हफ्ता' देती हैं। सरकारी ठेकों से भी इन्हें पैसा मिलता है।


दो दो महत्वपूर्ण केंद्रीय मंत्रियों ने आदिवासी अंचलों की विस्फोटक हालात के बारे में सच को ही उजागर किया है। हाल में आदिवासियों के दुमका में हुए अखिल भारतीय सरनाधर्म सम्मेलन में भी शिकायत की गयी है कि कायदे कानून को ताक पर आदिवासी अंचलों में प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट मची हुई है। संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक आजादी के सात दशक हो चलने के बावजूद आदिवासियों के जल जंगल जमीन और आजीविका के हक हकूक बहाल नहीं हुए हैं।लिहाजा उन्होंने संविधान बचाओ आंदोलन शुरु कर दिया है। वे सरनाधर्म कोड भी लागू करने की मांग कर रहे हैं।उनके संविधान बचाओ आंदोलन के तहत पांचवीं और छठीं अनुसूचियों के लागू न होने तक आदिलवासी इलाकों में खनन रोक देने की घोषणा हुई है।


भारत संवैधानिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष लोक गणराज्य राष्ट्र है और धर्मातंरित आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने के लिए संघ परिवार का वनवासी एजंडा दाशव्यापी है, लेकिन संपूर्ण आदिवासी आबादी की वर्षों पुरानी मांग सरनाधर्म कोड लागू करने की कोई बात नहीं करता।देश के नीति निर्धारक भाग्यविधाता आदिवासी आबादी समेत देश की बहुसंख्य जनता के विरुद्ध नरमेध यज्ञ अभियान की अगुवाई कर रहे हैं, जबकि समूचे राजनीति वर्ग, मीडिया, सिविल सोसाइटी के कुलीन लोग देश के आदिवासियों और बहुजनों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। वे आदिवासियों और बहुजनों को जिनमे अल्पसंख्यक और अनुसूचित और पिछड़े भी शामिल हैं,को सारी समस्याओं की मूल वजह नमाने हैं और उनके निर्मम सफाया के पक्षधर हैं। यही लोग अब सलवा जुड़ुम के झंडावरदार हैं। कोई अचरज नहीं कि देशभर में अब अंबेडकर और गांधी की मूर्तियों के अगल बगल अगर महेंद्र कर्मा की मूर्तियां लगाने का कार्यक्रम शुरु हो जाये!


जो लोग माओवादी हिंसा की निंदा कर रहे हैं, उन्हें देशभर में जल जंगल जमीन और आजीविका से आदिवासियों की निरंतर हो रही बैदखली पर कोई ऐतराज नहीं है। समूची आदिवासी आबादी को माओवादी बताकर उनके निर्मम सैन्य दमन को ही वे राष्ट्र का प्राथमिक दाय़ित्व बताने से चूक नहीं रहे हैं और मीडिया सोशल मीडिया में जोर मुहिम चल रही है कि  बस्तर में माओवादी आतंकवाद के खिलाफ महेंद्र कर्मा सही मायने में आखिरी आवाज थे। वे आदिवासियों की अस्मिता, उनके स्वाभिमान और उनकी पहचान के प्रतीक थे। छत्तीसगढ़ में भाजपा दिग्गज बलिराम कश्यप के निधन के बाद महेंद्र कर्मा का चले जाना जो शून्य बना रहा है, उसे कोई आसानी से भर नहीं पाएगा। लिहाजा सलवा जुड़ुम को दोहराकर ही महेंद्र कर्मा को श्रद्धाजलि देने का राष्ट्रव्यापी आयोजन के बिना वे मानेंगे नहीं। माओवादी सक्रियता की तमाम सूचनाओं पेश करके दमन  और रंग बिरंगे आखेट अभियान का औचित्य सिद्ध किया जा रहा है, लेकिन किसी को आजादी के सात दशक के बावजूद पूरी की पूरी आदिवासी आबादी के अलगाव और विस्थापन और नरसंहार का पापबोध सताता नहीं है।


अभी आदिवासी माता सोनी सोरी जेल में बंद हैं, अदालत दावारा ज्यादातर मामलों में उन्हें निरपराध साबित कर दिये जाने के बावजूद। अभी जेल में उनपर अकथ्य अत्याचार का सिलसिला जारी है। जिस पुलिस अफसर ने उसपर बर्बर अत्याचार किये, उसे राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया। जिस सलवा जुड़ुम का कीर्तन करते अघाता नहीं संघ परिवार, उसी सलवा जुड़ुम में मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक बलात्कार के कम से कम निनानब्वे बड़े मामले हुए, जिनमें से एक भी मामले में एफआईआर तक दर्ज नहीं हुआ। जिस रमण सिंह को विकास पुरुष बतौर पेश किया जा रहा है, उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, नया राजधानी बसाने के लिए पुरखौती के आसपास दर्जनों आदिवासी गांव उन्होंने उजाड़ दिये और पूरे छत्तीसगढ़ में निरंकुश कारपोरेट राज की स्थापना कर दी गयी।


दूसरी ओर, बस्तर में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर नक्सली हमले में दिवंगत नेताओं के मौत का मातम अभी खत्म भी नहीं हुआ है और इधर कांग्रेस ने सत्ता की राजनीति शुरू कर दी है। कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में एक सप्ताह के अंदर फिर से परिवर्तन यात्रा शुरू करने का फैसला किया है। इसके साथ ही परिवर्तन यात्रा में कुछ ऐसा माहौल तैयार करने की रणनीति है जिससे मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को कुर्सी छोड़नी पड़े।


पार्टी सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार एक सप्ताह के भीतर परिवर्तन यात्रा को लेकर नई रणनीति बनाने की योजना तैयार की गई है। कांग्रेस आलाकमान का मानना है कि इस नक्सली वारदात के बाद से छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी कार्यकताओं को मनोबल टूट गया है और इससे आला नेतृत्व परेशान है। इसी से उबरने के लिए बुधवार की शाम कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राज्य के प्रभारी बी.के.बी.के. हरिप्रसाद समेत पार्टी के अन्य नेताओं से विचार-विमर्श कर परिवर्तन यात्रा को शुरू करने का निर्णय लिया है। बैठक में इस रणनीति पर मंथन हुआ है कि छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस मुख्यमंत्री रमन सिंह के खिलाफ  ऐसा वातावरण बना देना चाहती है कि मुख्यमंत्री को कुर्सी छोड़ने के लिए मजबूर किया जा सके।


नक्सलियों ने कहा कि उनके हमले का मुख्य मकसद नंद कुमार पटेल और महेंद्र कर्मा सहित पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को उनकी जनविरोधी नीतियों के कारण दंडित करना था। नक्सलियों ने कहा कि दो घंटे तक माओवादी कमांडरों और सुरक्षा बलों के बीच हुई गोलीबारी के दौरान कुछ निर्दोष लोग और कांग्रेस के निचले स्तर के कुछ कार्यकर्ता भी मारे गए।


मीडिया को जारी एक विज्ञप्ति में दंडकारण्य विशेष जोनल कमिटी के प्रवक्ता गुडसा उसेण्डी ने कहा कि वे हमारे दुश्मन नहीं थे, लेकिन उन्हें जान गंवानी पड़ी । निर्दोष लोगों की मौत पर हम दुख और प्रभावित परिवारों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं।

पत्र में सलवा जुडूम आंदोलन की शुरुआत में अहम भूमिका निभाने वाले महेंद्र कर्मा और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने और छत्तीसगढ़ में जनविरोधी नीतियां चलाने का आरोप भी लगाया गया है। संगठन ने वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्या चरण शुक्ल पर आरोप लगाया है कि उन्होंने राज्य में उद्योगपतियों के हित में नीतियां तैयार करने में सक्रिय भूमिका निभायी। शुक्ल कांग्रेस काफिले पर नक्सलियों की गोलीबारी में गंभीर रूप से घायल हो गये हैं और उनका गुडगांव के एक अस्पताल में इलाज चल रहा है। उनकी हालत गंभीर बनी हुई है।


उसेण्डी ने हत्याओं को जायज ठहराने के इरादे से अपने बयान में कहा, आदिवासियों के नेता कहे जाने वाले कर्मा एक सामंती मांक्षी परिवार से थे। उनका परिवार लगातार आदिवासियों का दमन करता आया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस और भाजपा दोनों सलवा जुडूम अभियान शुरू करने के लिये साथ हो गये ताकि बर्बरतापूर्ण अभियान (माओवादियों के खिलाफ) छेड़ा जा सके।

बयान में कहा गया है, सलवा जुडूम बस्तर इलाके में रहने वाले लोगों के लिये अभिशाप बन गया है। इस अभियान के नाम पर मासूम महिलाओं और पुरुषों पर अनेक अत्याचार किये गये कर्मा ने स्वयं गांवों में सलवा जुडूम से जुड़े कई अभियान चलाये। इस हमले के जरिये हमने उनलोगों की तरफ से बदला ले लिया जिनपर सलवा जुडूम के नाम पर कहर ढाया गया।


बयान में कहा गया है कि हमले के तत्काल बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने हमले को लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला करार दिया। भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राजनीति से ऊपर उठकर नक्सलवाद और आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष करने की बात कही। हम पूछते हैं कि क्या उन्हें लोकतंत्र या लोकतांत्रिक मूल्यों के बारे में बोलने का अधिकार है।


उसेण्डी ने आरोप लगाया कि हाल ही में 17 मई को बीजापुर जिले में अर्धसैनिक बलों से मुठभेड़ के दौरान तीन बच्चों समेत आठ लोग मारे गए थे। उस समय किसी ने लोकतांत्रिक मूल्यों की बात क्यों नहीं की। उन्होंने कई और उदाहरण दिये जिसमें आदिवासियों को कथित रूप से सुरक्षा बलों ने मारा था। माओवादी ने सभी लोगों से तत्काल ग्रीन हंट अभियान बंद करने और इन क्षेत्रों में तैनात सुरक्षा बलों को वापस बुलाने की मांग की।


बयान में कहा गया कि प्रशिक्षण के नाम पर इस क्षेत्र में सेना को तैनात नहीं किया जाना चाहिए और जेल में बंद सभी नेताओं को रिहा किया जाना चाहिए। गैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम और छत्तीसगढ़ विशेष लोक सुरक्षा अधिनियम जैसे कड़े कानूनों को समाप्त किया जाना चाहिए। इसके साथ ही निगमित घरानों से प्राकतिक संसाधनों के दोहन के बारे में किये गये सभी सहमति पत्रों को रद्द किया जाना चाहिए।


बस्तर के सुदूर इलाके में दिग्गज कांग्रेसी नेताओं समेत ढाई दर्जन से अधिक जन के नक्सली नरसंहार को लेकर अटकलों और अफवाहों का बाजार सरगर्म है। कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों ही पार्टी के तमाम नेता इसे सामान्य नक्सली हमला न मानकर राजनीतिक षड़यंत्र के तौर पर भी करार दे रहे है। सच तो यह है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की ओर शक की सुई घुमाने की कवायद जारी है। श्री जोगी भी इससे अनजान नहीं हैं। फिर भी बेपरवाह जरूर हैं। छत्तीसगढ़ के प्रमुख दैनिक अखबार हरिभूमि के प्रबंध संपादक डॉ हिमांशु द्विवेदी ने उनसे लंबी बातचीत की है। जानिये सीधे सवालों के सपाट जवाब :-


हरिभूमि: - राज्य भर में सवाल है कि अजीत जोगी हेलीकॉप्टर से क्यों उड़ गए? जबकि बाकी नेता सड़क मार्ग से परिवर्तन यात्रा में शामिल हुए।


जोगी:- बाकी कोई नेता व्हील चेयर पर नहीं है। मैं सड़क मार्ग से एक दिन में सौ-दो सौ किलोमीटर से ज्यादा यात्रा नहीं करता। जब सुकमा जाने की बात आई तो मैंने अपनी पार्टी के सांसद नवीन जिंदल के अधिकारी प्रदीप टंडन से संपर्क करके हेलीकॉप्टर उपलब्ध कराने का आग्रह किया। उन्होंने उपलब्ध करा दिया, इसलिए चला गया।


हरिभूमि: पहले तो कभी आपको हेलीकॉप्टर से इस प्रकार यात्रा करते नहीं देखा। इस बार ही क्यूं?


जोगी : यात्रा प्रभारी टी.एस. सिंहदेव एवं नंदकुमार पटेल जी का फोन आया था कि बस्तर में परिवर्तन यात्रा के कार्यक्रम में कम से कम एक दिन मुझे जरूर शामिल होना है। मैंने उनसे कहा कि जहां से पार्टी विधायक है, मैं वहीं शामिल होऊंगा। सुकमा की दूरी चार-पांच सौ किलोमीटर है। मेरी रीढ़ की हड्डी क्षतिग्रस्त है और सड़कों का भी हाल बेहाल है। इसलिए हेलीकॉप्टर के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।


हरिभूमि: आपकी पार्टी के वरिष्ठ नेता चरणदास महंत राजनीतिक षड़यंत्र की बात कह रहे हैं। सोशल मीडिया में आपको जिम्मेदार बताया जा रहा है। क्या कहना है आपका?


जोगी: अपने सैंतीस साल के राजनीतिक जीवन में मैंने अनेक दुष्प्रचारों का सामना इसी विश्वास के साथ किया है कि सत्यमेव जयते। इसलिए मैं इन बातों की कोई परवाह नहीं करता। यह दुष्प्रचार वही शक्तियां कर रही हैं जो महात्मा गांधी की हत्या, इंदिरा गांधी की हत्या के समय भी दुष्प्रचार करने में जुटी थीं। देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी के अधिकारी यहां आ चुके हैं। एक-दो महीने में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। रमन सिंह न्यायिक जांच की घोषणा करके मामले को ठंडे बस्ते में डालना चाहे रहे थे, लेकिन उनका षड़यंत्र जरूर विफल हो गया। रही बात महंत जी की तो मुझे भी ऐसा लगता है। लेकिन अब इस घटना पर टिप्पणी करने से पहले हमें जांच एजेंसी की रिपोर्ट का इंतजार करना चाहिए।


हरिभूमि: आप कुछ शक्तियों द्वारा दुष्प्रचार की बात कर रहे हैं, लेकिन परिवर्तन यात्रा का मार्ग बदलने की बात तो आपने ही कही थी?


जोगी: बिलकुल गलत। अखबारों में इस आशय की खबर छपी हुई थी। टीवी चैनल वालों ने मुझसे पूछा तो मैंने कहा कि अगर ऐन मौके पर रूट बदला गया था तो इसकी जांच होनी चाहिए। बाद में मैंने सिंहदेव जी और कुछ कार्यकर्ताओं से बात की तो उन्होंने  इससे इनकार किया। मैंने तुरंत ही बयान जारी किया कि यात्रा का रूट नहीं बदला गया था। सच बात यह है कि यह तमाम अफवाहें वही लोग उड़ा रहे हैं जो इस घटना के लिए जिम्मेदार हैं। लेकिन वो कितनी ही कोशिश क्यों न कर लें रमन सिंह और उनकी सरकार पर लगा यह कलंक हरगिज नहीं मिट सकता।


हरिभूमि: आपके अनन्य समर्थक और विधायक कवासी लखमा का हमले से सकुशल बच जाना भी तो मामले को संदेहास्पद बनाता है?


जोगी: बेहूदा बात है यह। सवा सौ लोगों का काफिला था जब हमला हुआ। तकरीबन नब्बे लोग जिंदा बच गये। सब पर सवाल उठा दीजिये। कुछ नेता यात्रा में शामिल नहीं थे, उन पर भी संदेह कीजिये। सच्चाई तो यह है कि राज्य सरकार ने हमारी पार्टी की पूरी एक पीढ़ी को खत्म कर दिया। यह उन्होंने जानकर किया या अनजाने में, इसका पता तो एजेंसी की जांच रपट से ही चलेगा। मेरा स्पष्ट तौर पर कहना है कि यह सरकार हत्यारी है।


हरिभूमि: आप राज्य सरकार पर इतना गंभीर आरोप लगा रहे हैं, जबकि खुद आपकी पार्टी के नेता राज्य में राष्ट्रपति शासन की मांग को खारिज कर चुके हैं। क्या समझ जाये इसे?


जोगी: यह बात सही है कि घटना वाले दिन भावातिरेक में मेरे द्वारा राष्ट्रपति शासन की मांग ही नहीं की गई थी, बल्कि राज्यपाल महोदय को ज्ञापन भी सौंपा था। मेरे अपने साथी मारे गये थे, जिसके लिए यह सरकार ही जिम्मेदार है।  लेकिन, बाद में अगले दिन जब आदरणीय सोनिया जी, राहुल जी और मनमोहन जी रायपुर आये तो उन्होंने हमें समझाईश दी कि देश हित में हम अपनी भावनाओं को काबू में रखें। नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई में हमें एकजुटता दिखानी होगी। उनका निर्णय सही है।


हरिभूमि: आप साथियों की मौत का हवाला दे रहे हैं, लेकिन न तो नंदकुमार जी की ही अंत्येष्टी में गए ओर न महेंद्र कर्मा की। क्यों?


जोगी: छत्तीसगढ़ में दशगात्र का महत्व है। नंदकुमार पटेल जी के यहां मैं उसमें शामिल होने जाऊंगा। कर्माजी के यहां उनके छोटे बेटे के साथ अमित का जाने का कार्यक्रम  था लेकिन हेलीकॉप्टर संबंधी व्यवस्था में कोई व्यवधान आ गया। इसलिए संभव नहीं हो पाया। बाकि उदय मुदलियार जी के यहां तो मैं आज ही होकर आया हूं।


हरिभूमि:  पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष का पद रिक्त है। आपकी कोई दावेदारी?


जोगी: कैसी बात कर रहे हैं आप? मैं तो क्या दुख की इस घड़ी में छत्तीसगढ़ का कोई भी नेता पद-वद के विषय में सोच सकता है क्या? वैसे भी जहां तक मेरा सवाल है तो मैंने आज तक गांधी परिवार से कुछ नहीं मांगा। मैंने तो मुख्यमंत्री पद की भी दावेदारी नहीं की थी। सोनिया जी ने बना दिया। मैंने कोई पद मांगा नहीं और जो जिम्मेदारी दी गई उसके निर्वहन से इकार किया नहीं।


हरिभूमि: आखिरी सवाल! सिंह सरकार का भविष्य क्या है?


जोगी: न कोई वर्तमान और न कोई भविष्य। मैंने तो उनसे इस्तीफा भी नहीं मांगा। मांगता तो तब जब उनमें नैतिकता दिखाई देती। इतने सालों में कितने ही कांड तो हो गये। बालको चिमनी हादसा, एसपी समेत 76 जवानों की मौत, बच्चियों से बलात्कार और भी न जाने क्या-क्या। इस्तीफा तो देना दूर रहा नैतिकता के नाते पेशकश तक नहीं की। उन्हें डर रहा कि अगर पेशकश कर दी तो बृजमोहन वगैरह मंजूर ही न करा दें। जनता सब देख रही है ओर वहीं इनसे हिसाब चुकता करेगी।


बंदूक के बल पर नहीं ख़त्म होगा माओवाद

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमणसिंह से आवेश तिवारी की बातचीत

मुझे सपनों में बस्तर दिखता है। वहां से माओवाद का खात्मा बेहद जरुरी है, लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि बंदूक के बल पर ये ख़त्म नहीं हो सकता। सिर्फ विकास और शिक्षा ही माओवाद का समूल नाश करेगी और हम ये करके रहेंगे। बेमेतरा से पाटन के रास्ते में रथ की खिडकियों से भीड़ के मिजाज को पढ़ने की कोशिश करते हुए डॉ रमन सिंह जब ये कहते हैं तो उनके चेहरे का आत्मविश्वास साफ़ नजर आता है। हम पूछ बैठते हैं "ये बात पहले कभी क्यों नहीं कही? तपाक से जवाब आता है "अब कह रहे हैं छाप दीजिये"।


मुख्यमंत्री रमन सिंह यात्राओं से थकते नहीं, हाँ पत्नी वीणा सिंह को जिनका गला खराब है और वे बार-बार वापस जाने की सलाह दे रहे हैं| रथ में साथ चल रहे कार्यकर्ताओं का दाना–पानी हो या फिर फाइलें सब पर उनकी निगाह है। बीच–बीच में सांसद सरोज पांडे के साथ सड़कों, तालाबों, गाँवों और विकास यात्रा के दौरान हो रही सभाओं की बतकही भी जारी है। हमने मुख्यमंत्री रमन सिंह से कई सवालों पर सीधे बात कि और रमन सिंह ने बेबाकी से सभी सवालों के जवाब दिए। आइये पढ़ते है ये पूरी बातचीत-


सवाल- आपकी यात्रा की सबसे बड़ी सफलता क्या है? इन यात्राओं से आखिर हासिल क्या हुआ है?

जवाब- रथयात्रा के 40 दिन से हम वो काम कर पाते हैं जो चार सालों में नहीं कर पाते। एक सरकार की उपलब्धि को जनता के बीच ले जाने और जनता से सीधे संवाद करने का मुझे नहीं लगता इससे बेहतर कोई रास्ता हो सकता है। ये यात्रा मेरे लिए तीर्थाटन की तरह है।


सवाल- आप अलग-अलग विधानसभाओं में घूम रहे हैं। क्या विधानसभा में टिकटों का बंटवारा इस यात्रा के माध्यम से लगाये गए आकलन से निर्धारित होगा?


जवाब- जी देखिये, टिकटों का बंटवारा तो संगठन को करना है, लेकिन हाँ इस यात्रा के निष्कर्षों की मैं संगठन से साझेदारी जरुर करूँगा।


सवाल- आपको क्या लगता है कि आपकी सरकार भ्रष्टाचार का खात्मा करने में कितना सफल रही है?

जवाब- प्रदेश में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार पीडीएस में था, उसे हमने काफी हद तक कम कर दिया। सिपाही भर्ती, शिक्षाकर्मियों की भर्ती में भी हमने नए नियम कायदों को लागू कर भ्रष्टाचार को कम करने का प्रयास किया है लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी रह गया है। हम सिर्फ इतना जानते हैं कि अगर नियत सही हो तो बदनाम से बदनाम महकमा भी ईमानदार हो सकता है।


सवाल- नरेन्द्र मोदी केंद्र की राजनीति करने जा रहे हैं। आपको नहीं लगता आपकी डिमांड राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ गयी है और आपको भी केंद्र की राजनीति करनी चाहिए?


जवाब- मुझे छत्तीसगढ़ की राजनीति से संतुष्टि मिलती है। मैं अटल जी के सरकार में मंत्री रहा हूँ लेकिन मुझे लगता है जब आप राज्य में काम करते हैं तो उसके व्यापक नतीजे सामने आते हैं। केंद्र में इतने व्यापक नतीजे सामने नहीं आ पाते हैं।


सवाल- आपको नहीं लगता कि आपकी और नरेन्द्र मोदी की छवि के आगे पार्टी का अस्तित्व हल्का पड़ रहा है?

जवाब- ये बात पूरी तरह से निराधार है। पार्टी के बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। अगर मैं बीजेपी छोड़ देता तो मुख्यमंत्री क्या एक पार्षद भी नहीं बन सकता था। मैंने भाजपा के कार्यकर्ता के तौर पर अपनी पारी की शुरुआत की थी और आज मुख्यमंत्री हूँ।


सवाल- क्या केन्द्र में भाजपा की सरकार न होने से आपको राज्य में नुकसान उठाना पड़ता है?


जवाब- जी, निश्चित तौर पर केंद्र में अपनी सरकार न होने से हमें बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। छत्तीसगढ़ में रेलवे का विकास नहीं हो पाया। राष्ट्रीय राजमार्गो के निर्माण में भी केंद्र धन देने में आनाकानी कर रहा है। ऐसी तमाम योजनाएं जिनमे केंद्र सरकार के विभागों की सहमति की जरुरत होती है अनावश्यक तौर पर टाली जा रही हैं।


सवाल- आपकी सभाओं में महिलाओं कि सहभागिता ज्यादा देखने में आ रही है। कोई ख़ास वजह?


जवाब- देखिये, छत्तीसगढ़ में लिंगानुपात सबसे आदर्श स्थिति में है। मतलब ये कि हमारे यहाँ भ्रूण हत्या नहीं होती। अभी शासन ने निर्णय लिया है कि राशन कार्ड सीधे महिलाओं के नाम से बनाया जाए यानि कि उन्हें घर-गृहस्थी में सीधे मालिकाना हक़ दिया जाए। महिलाओं को सस्ते ब्याज पर कर्ज देने की हमने शुरुआत की और हाँ चावल का रसोई से और रसोई का सीधा नाता महिलाओं से है। निश्चित तौर पर वो भाजपा के साथ खड़ी हैं।


सवाल- विधानसभा का अंतिम सत्र सामने है। आप कांग्रेस को शत्रु विपक्ष कहेंगे या मित्र विपक्ष?


जवाब- विपक्ष ने अपनी भूमिका निभाई है। परिवर्तन यात्रा भी निकाल रहे हैं। मैं उन्हें शुभकामना देना हूँ अगले 10 साल तक वे भी अच्छा करते रहें।


सवाल- क्या आप पुत्र अभिषेक सिंह को चुनाव मैदान में उतार रहे हैं?


जवाब- ये संगठन को तय करना है कि वो किसको टिकट देगी किसको नहीं।




उत्तराखंड कु विकास से अक्षर ज्ञान




गढ़वाली हास्य -व्यंग्य 
 सौज सौज मा मजाक मसखरी 
   हौंस,चबोड़,चखन्यौ    
    सौज सौज मा गंभीर चर्चा ,छ्वीं  

                                     उत्तराखंड कु  विकास से अक्षर ज्ञान

                          चबोड़्या - चखन्यौर्याभीष्म कुकरेती
(s = आधी  )

क - कैको विकास ? क्यांको, कैकुण विकास? कखौ विकास?
ख पैल लखनऊ मा अर अब देहरादून माँ खूब खड़कु -दड़कु /खड़को -दड़को हौर जगा खारु-खरपट
ग-गुदखैऋ (इर्ष्या ) को विकास
घ- ग्यूं बि खत्याणा छन अर घाघरो बि उठ्युं च।
च -चकडैत चोर चकचुन्दरों जन जनता तैं चौतरफी चकच्यौणा त छैं छन
छ -भौतुन छंछोळ (भेद लेना ) पण यु विकास कना हरच धौं!
ज- इलाहाबाद बिटेन जंक जोड़ से विकास तैं जनक्याणो बुलायाँ त छन!
झ- देखिक त लगणु च क्वी झझकू (प्रेतवाधा ) लगी गे। दिल्लि बिटेन झाड़ ताड़ वाळ बुलायुं त छें च धौं!
ट -टंगट्यपाळि (चालु काम ) तैं सैत विकास बुलदन तबि त स्यु विकास टुटगाँ /टोटकु पड्यु च।
ठ -ठग्गू न ठग अर जनता मा ठमसाट (असंतोष ). ठिका अर ठेकेदारी विकासोनुमुख च।
ड -डोखरौं (खेत ) मा सट्यूं जगा मळसु  (घास) फुळणु च। धरम करम कि डंडलि सजीं च। डाम  डामणा छन।
ढ -ढंट ढंटणा छन। नेता लोग ढंड करंदेर ह्वे गेन।
त -लोग तरसणा छन अर अधिकारि तस्मैं  (खीर ) घटकणा छन।
थ - विकास का अस्वासन अब थंवार (दिलासा ) नि दींदन उल्टां थिनकै(रुलाना) दींदन।
द - विकास माने द्वाळेण (अटकना ,उलझना ,  विलम्ब  होना )
ध -ध्वकादारि मा छौसठ साल बीति गेन अगनै बि बीति जाला।
न -विकासौ नक्क -छक्क छ क्या च ?
प - परथारि (उधार ) की तकनीक से बि विकास हूंद?
फ -फ्युंद्यानाथुं क मकान देखिक त लगणु च कुछ त ह्वाइ च।
ब- बांज पुंगड़ देखिक समजि ल्यावो क्या ह्वे ह्वालो
भ - भत्याभंग त ह्वाइ छैं च
म - घुतडु  बुबा जीक मन्यौडर अब नि आंदन . इंटरनेट से पैसा ट्रांसफर ह्वे जांदन।
य -यख क्या च शहर जौंला
र -अधिकारी अर नेता हम तैं रिंगांणा रौंदन।
ल - ब्यलो  पावर्टी लाइन का कार्ड  लीण वाळु  लंगत्यार तो द्याखो।
व- विकास अब विकोड़णु  (उपहास के लिए मुंह विचकाना) रौंद   .
स - अब हम वकास का सस्यौणम (लालच ) मा नि आंदा।
ह -हथजुडै च कि अब विकास कि छ्वीं नि लगैयाँ। भौत सुणि याल भौत देखि आल।  



  
 
          

Copyright @ Bhishma Kukreti  31/05/2013           
(लेख सर्वथा काल्पनिक  है )


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Regards
Bhishma  Kukreti

कथाकार बटरोही का नया उपन्यास

कथाकार बटरोही का नया उपन्यास

गर्भगृह में नैनीताल

Garbh-Griha-Mein-Nainitalभारत के सुंदरतम शहरों में से एक नैनीताल के बहाने समकालीन राजनीति, समाज, संस्कृति व उत्तराखंड के इतिहास की तलाश करनेवाला बटरोही का यह उपन्यास बुदापैश्त (हंगरी) में 'खुली आंखों' से शुरू हुए लेखक के सात सपनों का एक कोलाज है। यह उपन्यास अपनी विषय वस्तु में ही नहीं बल्कि फॉर्म में भी नए प्रतिमान स्थापित करता है।

मूल्य: रु. 300 
मेधा बुक्स 
एक्स-11, नवीन शाहदरा, 
दिल्ली- 110032 
फोन 011-22323672

History of Garhwal, Kumaon, Haridwar (Uttarakhand) - Part 59




Khashadhipati of Kartripur, Kartipur, Kartikeynagar of Classical Age or Gupta Period   

 

History of Garhwal, Kumaon, Haridwar (Uttarakhand) - Part 59  

 

Historical Aspects of Classical Period of Haridwar -Kumaon-Garhwal (Uttarakhand), Himalayas-1   

 

 

(History write ups are dedicated to great Historians Hari Krishna Raturi, Rahul Sanstyankritan, Badri Datt Pandey and Dr Shiv Prasad Dabral, Satish Chandra Kala, Dr. Patiram, K.P. Nautiyal, B.M. Khanduri, Jeewan Singh Kharakwal, Om Chanda Handa)

 

                                                       By: Bhishma Kukreti

 

           Chandragupta I was the founder of Gupta Dynasty (320-550 BCE) of Patliputra Kingdom. His son Samudragupta (335-380 AD) extended the Gupta rule.  

   The 'Prayag Prashsti' of Samudragupta states that

समतट -डवाक -कामरूप -नेपाल -कर्त्रीपुरादि प्रत्यंतपतिभि: ..... सर्वकरादान करणप्रणाममागमनपारितोषित प्रचंडशासनस्य..... (समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति)

' Harshcharit' by Banbhatt, references of 'Devichandragupta natak', 'Kavyamimaansha' by Kanauj court poet Rajshekhar also refer Kartripur, Kartikeypur ruled by a Khashadhipati.

  

  Initially the historians as Raychaudhari suggested Kartripur as Kartarpur of Jalandhar and the rule of such Khashadhipati was supposed from Jalandhar to Kumaon. However the Lakhamandal changed the thinking.

  Now, it is believed that Khashadhipati of Kartripur ruled from east of Yamuna to west of Nepal that is some part of Garhwal and Kumaon and some part of Ruhelkhand.

                          Kartripur in Ancient time

 

               There are evidences of Kartripur (different names as Kartipur, Kartikeynagar) in ancient literature as in Ashtadhyayi of Panini. The Parvnaresh inscriptions (830AD) state-

कार्तिकेयपुरे निम्ब्सार्या बलाध्यक्ष लवचन्द्रकाशाद ... (पौरव नरेश अभिलेख )   

 The Kanuaj court poet Rajshekhar (920) describes in 'Kavyameemansa' that Kartikeypur as the Himalayan cave place where Kinnars sing sweet songs.

    Lalitshur and Pattabh inscriptions show Kartikeypur with Antrag, Tankanpur, Badrikashram, Tapovan, Badrikashram, Yoshika, Garudashram, Palsari, Vishnuganga. That shows that present Joshimath was Kartikeypur (Dr Dabral). However, B.D. Pandey criticizes this theory for other reasons. It seems that Kartripur, Kartipur; Kartikeynagar names are for one place (Dabral).

 

                          Contemporary kingdoms of Khashadhipati of Kartripur

 

       It seems that the kingdom of Ashvamedha performer kings was divided into two parts

1-Jayadasa of Lakhamandal region (west south Uttarakhand)

2-Kartikeypur or Kartripur that is Eastern Uttarakhand and later on the ruler might have taken shelter under Samudragupta.  

          Om Chanda Handa writes, "In the remote past when Katyuris were yet to appear on the political scene of Uttarakhand as the sovereign n rulers, Talihat should have remained a centre of the unknown political powers, about which stray and vague indications are available." (2009, Art and Architecture of Uttarakhand, page 184)

  However vague information is available for complete knowledge.

                           Khashadhipati of Kartripur

 

   Dabral wrote the historical details of Khashadhipati of Uttarakhand on the basis of Harshcharit, Devichandraguptanatak, Kavyameemansha, and Sajjan inscriptions   (while Dr Handa mentions the history very briefly) as-

 

              After death of King Samudragupta, Ramgupta/Sharmgupta the son of Samudragupta attacked on Himalayan tribe chief Shakanarsh-Khashadhipati. Ramgupta took his wife Dhruvswamini with him on the campaign.   When Ramgupta reached to Kartikeynagar, Khashadhipati blocked a narrow road for Ramgupta returning from Kartikeypur.

         According to a saying, Ramgupta put a pact note before Khashadhipati. Khashadhipati asked Dhruvswamini the wife of Ramgupta in turn of freeing the road for Ramgupta.    Ramgupta gifted his wife Dhruvswamini to Khashadhipati and returned from Kartikeypur.

            Another saying states that when Ramgupta was ready to gift his wife to Khashadhipati, Chandragupta (younger brother of Ramgupta) went to Khashadhipati as Dhruvswamini along with his soldiers in women dresses. Chandragupta killed Khashadhipati. This way Gupta captured the territory of Khashadhipati.

Later on Chandragupta killed his elder brother Ramgupta, married Dhruvswamini and became King of Patliputra.

 The king Khashadhipati was a Shaka but his subject was Khasa.

Rahul Santyakritan states that Kartikeypur must be Joshimath.

 

                             Time Period of Khashadhipati

   The time period of Khashadhipati seems to be 350- to 381AD.

              

                         Gupta Rule over Garhwal, Kumaon and Haridwar

 

      Gupta ruled over some part of Uttarakhand and Haridwar from Chandragupta time (376 AD onwards).

 The fort at Mangalaur   , Haridwar built by king Mangal Sen threw some light on Gupta rule on Sahranpur and part of Haridwar. Mangal Sen was a regent of Gupta Empire (Samudragupta).

 

        Missing Historical Links of Khashadhipati of Uttarakhand

 

 

 There are many historical links of Khashadhipati missing and it is difficult to calculate the numbers of regent of Gupta Empire in Haridwar, Garhwal and Kumaon.

 

 

 

Copyright@ Bhishma Kukreti 31/05/2013

 

 

(The History of Garhwal, Kumaon, Haridwar write up is aimed for general readers)

 

History of Garhwal – Kumaon-Haridwar (Uttarakhand) to be continued… Part -60

Historical Aspects of -Classical Period of Haridwar -Kumaon-Garhwal (Uttarakhand), Himalayas to be continued…2 



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Regards
Bhishma  Kukreti

संस्मरण : एक साक्षात्कार की कहानी


[आठवें दशक में पंडित रविशंकर सिर्फ एक रात के लिए लखनऊ आए थे। उस दौरान लेखक आकाशवाणी लखनऊ केंद्र में कार्यक्रम अधिकारी थे। इस अंतराष्ट्रीय ख्याति के संगीताकार का किस तरह साक्षात्कार लिया गया उसकी यह रोचक कहानी कई स्तरों पर महत्त्वपूर्ण है। यह तत्कालीन अधिकारियों के समर्पण, ज्ञान और कर्तव्य-निष्ठा को तो दर्शाती ही है साथ में आकाशवाणी के महत्त्व को भी बतलाती है। ]

ravi-shankarजब पंडित रविशंकर सन् 1976 में भारत आए तो उस समय देश में आपातकाल की स्थिति थी। मुझे अच्छी तरह स्मरण है जुलाई चार को आकाशवाणी लखनऊ में दिल्ली से संदेश आया कि पंडित जी वहां आ रहे हैं और तुरंत संपर्क करके उनका कार्यक्रम रिकार्ड किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं उन्होंने बताया कि दूरदर्शन दिल्ली ने संपर्क किया था किंतु उन्होंने समय नहीं दिया। यह बात मुझे 4 जुलाई को बताई गई उन दिनों लखनऊ में केंद्र निदेशक का पद खाली था। परमेश्वर माथुर दिल्ली प्रोन्नति पर जा चुके थे। अत: जब तक दूसरे महाशय केंद्र निदेशक का कार्यभार संभालते तब तक के लिए केवल रत्न गुप्ता (इंजीनियर इंचार्ज) को यह कार्य दिया गया। गुप्ता मूल रूप से जम्मू के रहने वाले थे। जब मैं सन् 58 में जम्मू केंद्र पर कार्यरत था तब वह वहां टेकनिकल अस्सिटेंट थे। बाद में जम्मू-कश्मीर राज्य के विलीनीकरण के कारण उनकी सारी सेवाएं जुड़ गईं और वह काफी वरिष्ठ हो गए थे। हम दोनों वहां प्राय: रात्रि को तीसरी सभा के कार्यक्रम देखते थे अर्थात् मैं कार्यक्रम तथा वे तकनीकी पक्ष देखते थे। हममें अच्छी मित्रता हो गई थी। लखनऊ में मैं आपातकाल के दौरान संगीत कार्यक्रमों का कार्यक्रम अधिकारी था। पंडित जी को रिकार्ड करने का आदेश एक चुनौती था। गुप्ता ने सर्वप्रथम सहायक केंद्र निदेशक राजेंद्र प्रसाद को बुलाया और दिल्ली का आदेश सुनाया। वह भी पूर्व में तकनीकी सहायक थे। गुप्ता जी की तरह ही विज्ञान के स्नातक भी। राजेंद्र प्रसाद विज्ञान के स्नातक तो थे किंतु उन्हें तुलसी साहित्य का अच्छा ज्ञान था और संघ लोक सेवा आयोग से पूर्व में नियुक्ति पा चुके थे। उनका पद उस समय मुझसे एक पद ऊंचा था। उन्होंने गुप्ता जी को बताया कि इस कार्य को केवल मैठाणी ही अंजाम दे सकते हैं। संगीत कार्यक्रम के इंचार्ज होने के नाते वह यहां के तो सभी कलाकारों को जानते हैं और पंडित जी तो बहुत बड़े कलाकार हैं। मुझे बुलाया गया। गुप्ता ने मुझे बैठाकर जम्मू वाली मित्रता की याद दिलाई और कहा आपको हर हाल में पंडित जी को रिकार्ड करना है। यह मेरी इज्जत का सवाल हैं राजेंद्र प्रसाद ने भी मुझे सारी बाते समझाई मैंने विनम्र भाव से कहा, "गुप्ता जी! यह तो बड़ा कठिन कार्य है। आप तो जानते ही हैं कि दूरदर्शन दिल्ली वालों को भी उन्होंने अपनी असमर्थता बताई है तब आकाशवाणी लखनऊ क्या चीज है?" गुप्ता को मेरा उत्तर अच्छा नहीं लगा। "मैठाणी जी! आपको यह काम करना है, बस। " राजेंद्र प्रसाद बीच में बोल पड़े" मैठाणी जी! आप तो इंदौर मध्य प्रदेश में भी यह कार्य कर चुके है कई वर्षों का अनुभव है। कुछ कीजिए। हांलाकि यह कार्य कठिन है असंभव नहीं। " "हां! समय बलवान है। हो सकने को तो कुछ भी हो सकता है! मैं इतना कह सकता हूं कि पूरा प्रयत्न करूंगा जिससे उनसे मुलाकात हो सके। मिल जाए तब उनसे निवेदन किया जा सकता है। "

सहायक केंद्र निदेशक इस कार्य की सफलता के लिए मेरे साथ हो लिए। पांच तारीख की दौड़ धूप और पूछताछ से पता चला कि रवि शंकर जी बनारस गए हुए हैं और वहां अपना मकान बनवा रहे हैं। पंडित जी के सेक्रेट्री दूबे को मैं कुछ जानता था। बस, यों समझिए कि गाने बजाने वालों की सोहबत से मुझे इतना मालूम था। दूबे का पूरा नाम न तब जानता था न अब। किसी तरह उनका फोन नंबर प्राप्त किया उस जमाने में फोन की सुविधा आज जैसी नहीं थी। बुक करवाकर बड़े प्रयास के बाद उनसे बात करने का गौरव प्राप्त हुआ। उन्होंने मेरा नाम सुनते ही खुशी का इजहार किया। कहने लगे मैं आपको जानता हूं। सहसवान घराने के किसी कलाकार का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि हम लोग मिल चुके हैं मेरा कुछ साहस बढ़ा। बिन हरि कृपा मिलहि नहि संता…। "दूबे जी! सुना है पंडित जी वहां बनारस आए हैं। यहां लखनऊ आकाशवाणी में दर्शन दें तो बड़ी कृपा होगी" दूबे जी ने बड़े सौम्य भाव से कहा "अरे लखनऊ की ओर तो उन्होंने प्रस्थान कर लिया है। वह रास्ते में होंगे। मैं यहां मकान का कार्य देख रहा हूं। " मैंने जिज्ञासा भरे शब्दों में पूछा " दूबे जी वे यहां लखनऊ कहां ठहरेंगे? हम लोग यहीं तुरंत उनसे संपर्क साध लेंगे। " "देखिए! लखनऊ कहां ठहरेंगे, यह तो नहीं बता पाऊंगा, किंतु रास्ते में वे दिन के भोजन के लिए सुधा सिंघानिया के यहां कानपुर होकर जाएंगे। आप उनसे कानपुर संपर्क कीजिए अभी तो वहां पहुंचे भी नहीं होंगे।"

मैंने दूबे जी को इस सूचना के लिए धन्यवाद दिया और कानपुर सुधा सिंघानिया के यहां फोन बुक करने का प्रयास करने लगा। फोन की उस युग में अवगति गति की कुछ समझ न आने वाली हालत थी। सुधा सिंघानिया आकाशवाणी लखनऊ की कलाकार थीं, इस नाते उन्हें जानता था। फोन मिलाते-मिलाते मिल ही गया। सुधा से मैंने सारी बातें फोन पर कहीं और पंडित जी या उनके किसी सहयोगी से बात करने की इच्छा प्रकट की। सुधा सिंघानिया ने हंसकर कहा, "मैठाणी जी, अपने फोन करने में थोड़ा देर कर दी। पंडित जी तो लंच करके लखनऊ की ओर निकल पड़े हैं। " मैं सन्न रह गया। अच्छा मौका हाथ से निकल गया। मैंने पूछा, "सुधा जी यह बताइए कि वह लखनऊ कहां पर टिकेंगे?" इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने अपनी असमर्थता जतला दी।

अब लखनऊ में तलाशने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह गया था। मैंने और साथ में राजेंद्र प्रसाद ने लखनऊ का चप्पा-चप्पा छान मारा। बड़े-बड़े होटल, अतिथि गृह सभी महत्त्वपूर्ण स्थानों पर अपना खोज अभियान जारी रखा पर सफलता नहीं मिली। अंत में रात्रि के आठ बज रहे थे मैंने निराश एवं स्थिर भाव से राजेंद्र प्रसाद से कहा "अब एक स्थान बाकी है यदि वहां नहीं मिले तो समझिए लखनऊ से निकल गए। " ऐसा न कहिए मैठाणी जी, गुप्ता साहब हम लोगों पर बहुत नाराज हो जाएंगे। बताइए! अब कौन-सी जगह रह गई है? "वह जगह है राज भवन। हो सकता है वह राज भवन में रात्रि विश्राम करें।

हम दोनों फौरन राज भवन पहुंचे। उन दिनों अकबर अली खां राज्यपाल थे। उनके पी.ए. महेशानंद सुंदरियाल मेरे परिचित थे। मैंने सुंदरियाल को मैंने सारी बातें बताईं। उन्होंने मेरे उदास मुख को देखकर कुछ मधुर होते हुए कहा, "चिंता न कीजिए मैठाणी जी! जिन्हें आप ढूंढ रहे हैं, वह यहीं आठ नंबर सूट में टिके हुए हैं। आप मुझसे फोन पर पहले पूछते तो इतनी दौड़-धूप नहीं करनी पड़ती। " मेरा तुरंत उत्सुकतापूर्ण प्रश्न था? "क्या हम उनसे मिल सकते हैं? आप मिला दें तो बड़ी कृपा होगी। " वैसे तो सुंदरियाल सहज व्यक्ति थे और सुशील अधिकारी किंतु मेरे प्रश्न से वह कुछ असहज हो गए। इस वक्त तो मिलना बड़ा कठिन है। इस समय महामहिम के साथ रात्रि भोज कर रहे हैं। बातें लंबी खिंच सकती हैं। यदि मुझे पहले मालूम होता तो आपके लिए समय निश्चित करा देता। "मेरा उदास चेहरा देखते हुए उन्होंने कहा, " किंतु आप चिंता न कीजिए। कल प्रात: सात बजे मैं आपसे उनको मिलवा दूंगा। आप कल प्रात: ठीक साढ़े छह बजे आठ नंबर सूट के पास मुझे मिलें। वहीं पर सब ठीक कर दूंगा। समय का पूरा ध्यान रखिएगा क्योंकि राज भवन से उनकी विदाई का समय प्रात: साढ़े आठ बजे है। " सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मैंने प्रात: साढ़े छह बजे राजभवन पहुंचने का उन्हें आश्वासन दिया।

प्रात: छह बजे राजेंद्र प्रसाद मेरे घर गाड़ी लेकर पहुंच गए। उनके पास एक छोटा सा टेप रिकार्डर भी था जो उनके कंधे पर लटक रहा था। मुझे उनकी यह व्यवस्था अच्छी लगी। गाड़ी से उतरते ही उन्होंने बताया कि सात बजे हम उनसे मिलेंगे और ठीक आधे घंटे बाद उनका लंबा-चौड़ा बाहर जाने का कार्यक्रम शुरू हो जाएगा। ऐसा लगता है सारी दौड़-धूप गुड़ गोबर होने वाली है। मैंने उन्हें बताया इतना ही नहीं सारे कलाकार इस समय स्टूडियो में बैठे हैं। उन्हें न मालूम किसने कह दिया कि पंडित रवि शंकर स्टूडियो होकर दूसरी जगह जाएंगे। न मालूम हमारे मिलने की सूचना उन लोगों को किसने दी है। मैंने राजेंद्र प्रसाद को धैर्य बंधाते हुए कहा "प्रयत्न करना ही तो अपने हाथ में है। " वह बड़बड़ाने लगे "पता नहीं इ.इन.सी. साहब ने क्या सोच रखा है!"

हम दोनों जल्दी से मकान की तीन सीढिय़ों से नीचे सड़क पर उतरे और गाड़ी में बैठकर राजभवन की ओर कूच कर गए। केवल दस मिनट का रास्ता था। आठ नंबर सूट के आगे सुंदरियाल अपने वायदे के मुताबिक पहुंचे हुए थे। उन्होंने देखते ही कहा, "मैठाणी जी। आइए! आइए! अंदर सूट में आइए! पंडित जी आते ही हैं ये लीजिए कौन हैं?" मुझे देखते ही सामने से आवाज आई, "मैठाणी साहब!" मैं सकपका गया। उस्ताद अल्ला रखा थे।

"अरे! खां साहब! आप! इतने सालों बाद!"

"हां! भई! मैं पंडित जी के साथ ही तो अकसर रहता हूं… आप तो जानते ही होंगे?"

मैंने अपनी किस्मत को सराहा!

उस्ताद अल्ला रखा पंजाबी घराने के तबला वादक थे। कहा जाता है कि उनके उस्ताद कादर बख्श इस घराने के प्रवर्तक थे। किंवदंतियों के आधार पर उनके सवा लाख शागिर्द बताए जाते हैं। उस्ताद अल्ला रखा पखावज के खुले बोलों को बंद करके एक नई शैली का निर्माण तबला वादन में कर रहे थे। बुखारी साहब जब आकाशवाणी के महा निदेशक थे तब उन्होंने अल्ला रखा की योग्यता को देखते हुए उन्हें आकाशवाणी के दिल्ली केंद्र पर नियुक्त किया था। वह मूलत: जम्मू के रहने वाले थे। मैं भी सन् 1958 से लगभग छह वर्ष तक जम्मू-कश्मीर में कार्यरत रहा था। उस्ताद से कई बार मिलना हुआ। हम दोनों कई संगीत कार्यक्रमों में मिलते रहते थे। उनका राज भवन में मिलना ही सुखद आश्चर्य था। सोचने लगा काश पहले इन्हीं से संपर्क करता तो काम हो भी सकता था। वह पंडित रविशंकर के काफी समीप रहे हैं। देश-विदेश में उनके साथ संगत की है। उनके तीन पुत्र जाकिर हुसैन, फजल हुसैन, तौफीक हुसैन तथा एक पुत्री थी जिसकी अचानक हृदय गति रुक जाने से मृत्यु हो गई। उस्ताद पुत्री की मृत्यु का समाचार सह नहीं पाए और उनकी भी जल्दी ही मृत्यु हो गई। पर यह इतर प्रसंग है।

उस समय उस्ताद मुझ से मिलकर बड़े खुश हुए और बोले, "आइए आपको पंडित जी से मिलवाता हूं। " सुंदरियाल समझ गए कि अब मेरी जरूरत नहीं है।

उस समय तक पंडित रवि शंकर के बारे में मेरी जो जानकारियां थीं उनके स्रोतों में एक उनकी लिखी माई म्यूजिक, माई लाइफ पुस्तक थी। इसमें उन्होंने बताया है कि वह अपने भाई उदय शंकर के दल में एक सदस्य के रूप में दस वर्ष तक कार्य करते रहे। इसके बाद सन् 1938 में वे बाबा अलाउद्दीन खां से संगीत की शिक्षा लेने के लिए मैहर (म.प्र.) चले गए। बाबा के प्रमुख शिष्य ज्योतिन भट्टाचार्य के मतानुसार 1935 में बाबा उदय शंकर की प्रेरणा से योरोप यात्रा पर गए इस दौरान पंडित रवि शंकर ने उनके दुभाषिए का कार्य किया। अपनी माता जी की प्रेरणा तथा बाबा जी की संगीत साधना से प्रभावित होकर पं. रवि शंकर ने नृत्य का आकर्षण छोड़ संगीत की शिक्षा के लिए बाबा अलाउद्दीन खां का शिष्यत्व ग्रहण किया। योरोप से आने के पश्चात् बाबा के पुत्र अली अकबर खां, पुत्री अन्नपूर्णा और पंडित रविशंकर उनसे एक साथ शिक्षा लेने लगे।

अब यह प्रश्न उठता है कि पंडित रवि शंकर किस घराने के संगीकार हैं। यह स्पष्ट है कि बाबा से उन्होंने संगीत शिक्षा ली। बाबा का जन्म त्रिपुरा राज्य में 1862 में हुआ था। उन्होंने कई उस्तादों से सीखा। किंतु रामपुर के उस्ताद वजीर खां से उन्होंने लगभग 30 वर्ष तक संगीत की शिक्षा पाई। बाबा के प्रमुख शिष्य अली अकबर खां, पन्ना लाल घोष, अन्नपूर्णा, निखिल बनर्जी, तिमिर बरन और रवि शंकर हैं। उस्ताद वजीर खां से शिक्षा पाकर उन्होंने मध्य प्रदेश में मैहर को अपना कार्य क्षेत्र बनाया। रामपुर घराने का संबंध तानसेन के सेनिया घराने से कहा जाता है। इस प्रकार रामपुर घराना ग्वालियर घराने का ही एक रूप माना जा सकता है। आचार्य बृहस्पति के अनुसार उ. वजीर खां, अलाउद्दीन खां, रवि शंकर, हफीज अली, अमजद अली खान जैसे उत्कृष्ट कलाकार रामपुर या सेनिया घराने के कलाकार कहे जाते हैं। यहां तक कि प्रसिद्ध संगीतज्ञ पंडित भातखंडे ने भी संगीत सामग्री यहीं से ही ली है। भारतीय संगीत का इतिहास तानसेन (1532-95) से आरंभ होता है। वह अकबर के नवरत्नों में से एक था। सेनिया घराने के कलाकार उसी की परंपरा के माने जाते हैं। मियां की तोड़ी सारंग उनके सुपुत्र विलास खां ने विलास खानी तोड़ी राग बनाया। इस तरह वह तानसेन की मृत्यु के पश्चात् तानसेन परम्परा के खलीफा कहलाए। यहां मैं यह सब इसलिए बता रहा हूं कि नवाब मुर्तजा अली के समय में रविशंकर और अल्ला रखा रामपुर आकर खास बाग महल में ठहरे थे हालंकि वहां वे एक कार्यक्रम देने आए किंतु उद्देश्य था उस्ताद वजीर खां के मकान को देखने का। वहां पंडित जी ने भावुक होकर उस्ताद वजीर खां, जो उनके उस्ताद के उस्ताद थे, के मकान के निकट के एक छोटे से मकान की मिट्टी उठाई और उसे अपने पल्लू में बांध लिया। यह मिट्टी उनके उस्ताद के मकान की थी। इस मिट्टी को उन्होंने नमन किया। बाबा जिस मिट्टी में पैदल चलकर अपने उस्ताद वजीर खां के पास सीखने जाते थे उसे शत-शत प्रणाम। उस्ताद वजीर खां सेनिय घराने के वंशज थे और रामपुर नवाब हामिद अली खान (मुत्यु 1930) के दरबार में प्रसिद्ध वीनकार थे। उस्ताद वजीर खान नवाब हमीद अली खां के भी उस्ताद थे उन्हें रियासत में बहुत बड़ा रुतबा प्राप्त था। नवाब साहब के तीनों शाहजादे प्रात: उठकर उन्हें सलाम करने जाते थे। जब नवाब साहब का इंतकाल हो गया तो उस्ताद निराशा में कलकत्ता चले गए जहां उनके गुण-गाहकों की लंबी कतार थी। बाबा दो ढाई वर्ष तक उनके मकान के दरवाजे पर उस्ताद की आहट की प्रतीक्षा घंटों तक किया करते थे। उनका संगीत के सभी अंगों पर पूर्ण अधिकार था।

यहां पर मैं सन् 1907 में उर्दू में तबले पर प्रकाशित पुस्तक रिसालाए तबलानवाजी का जिक्र करना अपना कर्तव्य समझता हूं। इसके लेखक मुहम्मद 'इशहाक देहलवी' हैं। (इस पुस्तक की खोज मेरी पत्नी उमा मैठाणी ने सन् 1972-73 में की थी) अब तक यह किसी संगीत पत्रिका या पुस्तकालय के माध्यम से संगीत प्रेमियों के सामने नहीं आई है। मेरी पत्नी का दावा है कि यह पुस्तक तबले पर लिखी गई पहली पुस्तक है। पुस्तक में उ. वजीर खां का उल्लेख है। जिन तालों का वर्णन मुहम्मद इशहाक करते हैं उनके प्रेरणा श्रोत उ. वजीर खां हैं, मेरा उद्देश्य यह बताना है कि पंडित रवि शंकर के उस्ताद बाबा और फिर बाबा के उस्ताद वजीर खां कितने महान थे। यह एक ऐसी परंपरा है जिस पर संगीत जगत को अभिमान है और आने वाली पीढिय़ां भी करती रहेंगी।

इन बातों की उधेड़बुन में मेरी निद्रा तब टूटी जब पंडित रवि शंकर हाथ में सितार लिए उस बैठक में आए जहां पर अल्ला रखा, मैं और राजेंद्र प्रसाद बैठे थे। उनके हाथ में एक सितार था जिसे वे अंगिठिया के ऊपरी समतल भाग में रखने आए थे। वह भव्य व्यक्तित्व के धनी थे। खुली केश राशि और गौर वर्ण।

उस्ताद अल्ला रखा ने पंडित जी को देखते ही मुझसे कहा, "अरे मैठाणी साहब! आ गए हैं पंडित जी। "

पंडित जी की ओर देखकर कुछ कहने को थे ही कि उन्होंने भी मुस्कराकर कहा, "अच्छा अच्छा! आप ही मैठाणी साहब है अरे आज ही तो दुबे जी बनारस से आपके बारे में बता रहे थे। खान साहब आप तो इन्हें जानते ही हैं। "

"जी हां! बर्सों से। आप आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र पर म्यूजिक के इंचार्ज यानी पैक्स हैं। स्टाफ आर्टिस्टों का बड़ा ख्याल रखते हैं पंडित जी। " मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था क्या कहूं? क्या करूं? जीवन में इतने बड़े कलाकार से मिलने का पहला मौका था। हालांकि लखनऊ से पहले मैं इंदौर आकाशवाणी में संगीत के इसी पद पर रह चुका था। वहां उ. अमीर खान के घर जाकर मैं उन्हें कई बार रिकार्डिंग के लिए ला चुका था। कुमार गंधर्व और उनकी पत्नी वसुंधरा के घर देवास जाकर रिकार्डिंग कर चुका था। इस तरह और भी कई नामी-गिरामी कलाकारों की मुझ पर कृपा रही किंतु उस समय मेरे चारों ओर एक शून्य विचरण कर रहा था मैं कुछ निवेदन करना चाह ही रहा था कि पंडित जी आकाशवाणी लखनऊ के कलाकारों के संबंध में पूछने लगे। उनका वार्तालाप उतना ही मनोहर था जितना कि मुखमंडल। हमारे संगीत के स्टाफ में इस्माइल खान सितार वादक थे। उन्होंने इस्माइल भाई के बारे में सबसे पहले पूछा। तब मुझे याद आया कि उनके वालिद उस्ताद युसुफ अली खान सितार के नामी उस्ताद थे। वह लखनऊ के नजीराबाद मुहल्ले में किसी जमाने में रहते थे। उस समय पंडित जी का संपर्क रेडियो लखनऊ से था। इस्माइल खान की कुशल-क्षेम पूछने के बाद उन्होंने मुजद्दिद नियाजी के बारे में पूछा। मैंने कुछ भावुक होकर उन्हें उनकी असली हालत बताई पंडित जी सुनकर दुखी हुए। उन दिनों भाई नियाजी लाइट म्यूजिक के प्रोड्यूसर थे और मेरी ही बगल में बैठते थे। उनकी आवाज का जादू दूर-दूर तक फैला था। एक जमाना था लोग उन्हें दूर-दूर से देखने आया करते थे। इस बीच उन्हें एक अंधे सरोद वादक की भी याद आई। पंडित जी ने कभी आकाशवाणी लखनऊ में ठा. शमशेर सिंह को सरोद बजाते सुना था। उनकी माता साथ में रहती थीं। वह उस्ताद सखावत हुसैन के शार्गिद थे। मैंने पंडित जी को बताया कि वे अब बाजक नहीं हैं और हमारे स्टाफ में सरोद वादक हैं। इस तरह आकाशवाणी लखनऊ के कलाकारों के बारे में जितना हो सका उन्होंने जानने की कोशिश की।

मैंने समय और अनुकूल वातावरण का लाभ उठाते हुए उन्हें स्वयं आकाशवाणी लखनऊ में सब कलाकारों को दर्शन देने का निवेदन किया। यह भी कहा कि वे सब आपकी प्रतिक्षा कर रहे हैं आशा है पंडित जी आप उन्हें और मुझे निराश नहीं करेंगे। पंडित जी सारी दुनिया घूमे हुए कलाकार थे उन्होंने मंद-मंद मुस्कान के साथ अपनी आंखों से कुछ टटोला। मेरे पीछे राजेंद्र प्रसाद टेप रिकार्डर लिए खड़े थे।

"मैठाणी जी समय मेरे पास बहुत कम है। मुझे भी मिलने की इच्छा है। मेरी यह इच्छा उन्हें अवगत करा देना और आपके पास तो यह टेप रिकार्डर है कुछ पूछना है तो पूछ लीजिए। "

मैं ऐसी स्थिति के लिए तैयार तो न था किंतु, अनजाने में मुझे यह उपहार मिल गया। इस बीच की बातचीत से मैं भी उतना असहज नहीं था। राजेंद्र प्रसाद ने टेप रिकार्डर का छोटा माइक मेरी ओर कर दिया। समय का अभाव देखते हुए मैंने दो तीन प्रश्न पूछने ही ठीक समझे। सहसा उस समय मेरे मस्तिष्क में पं. रवि शंकर के एक लेख की याद आ गई जो कि मैंने वर्ष 1966 की जनवरी में ही पढ़ा था। यह लेख हाथरस से निकलने वाली संगीत पत्रिका का लोक संगीत अंक था। "लोकधुनों की धड़कने" इसका शीर्षक था। यों ही मेरे मुख से निकल पड़ा कि आप तो भारत के संगीत का प्रचार देश-विदेश में कर रहे हैं। क्या हमारी लोकधुनें उनसे कहीं समानता रखती हैं? तो उन्होंने बताया विश्व की लोक धुनें एक-दूसरे से मिलती हैं। हमारे देश में तमिलनाडु के लोक गीतों से मैक्सिकन जैसी प्रतीत होती है। इस तरह दक्षिण भारत की लोक धुनों का भी संग्रह उनके पास है। बनारस में पंडित जी का जन्म हुआ था। अत: वहां की कजरी और चैती को वह बहुत पसंद करते थे। जब मैंने पूछा कि लोक धुनों का क्या शास्त्रीय आधार है? उन्होंने बताया संगीत मर्मज्ञ 12 श्रुतियों की बात कहते हैं, किंतु कई आदिवासी लोकधुनों में इनसे इतर अन्य श्रुतियों का भी प्रयोग हुआ है। यह संगीत के क्षेत्र में बड़ा चमत्कारिक है। बात पर बात बढ़ती गई। रस का संगीत में क्या स्थान है? पंडित जी ने इस प्रश्न को बड़े संजीदा ढंग से लिया। बिना रस के कला बेकार ही समझी जाएगी। कलाकार अपनी कला के द्वारा अंदर झांकता है और आगे-आगे बढ़ता चला जाता है। इस संबंध में उन्होंने बहुत सी बातें थोड़े ही समय में बता दीं। आरंभ में जब लोक गीतों की बात चल रही थी तो उन्होंने कहा कुछ लोक गीत होने के कारण शास्त्रीय संगीत के निकट हो गए। कुछ ऐसे भी हैं जो राग से प्रभावित होते हैं। यह इसका अर्थ नहीं है कि वे राग का अनुगमन करते हैं। गढ़वाल और हिमालय में ऐसे ही लोक गीत मिलते हैं दुर्गा, भूपाली, झिंझोटी की छाया इनमें होती है।

इस प्रश्न से पंडित जी निकलना चाहते थे। अब मेरा भी हौसला बुलंद हो रहा था। मैंने एक अंतिम प्रश्न के लिए निवेदन किया और पूछ ही बैठा पंडित जी आप अब अमेरीका में संगीत साधना कर रहे हैं। पहले भी कई ऐसे स्थानों पर रह चुके हैं। आपने विश्व में भारत का गौरव बढ़ाया है किंतु यहां हम भारत वासी आप से आपके दर्शन न होने के कारण, सदैव विदेश में रहने के कारण, यहां कभी-कभार अपना कार्यक्रम देने के कारण निराश हैं। आप अपने हैं। वह दिन कब आएगा जब आप हम भारतीयों को सुगम होंगे? जो पंडित जी ने कहा उसका सार कुछ इस तरह है:

मैठाणी जी आपके प्रश्न ने प्रेम दर्शित किया है। मैं, ठीक है इधर कुछ समय से कभी-कभी आता हूं किंतु अब तो मेरा मकान बनारस में बन रहा है। दूबे जी की देखरेख में काम भी चल रहा है। मेरा विचार भविष्य में भारत में ही रहने का है। भारत में ही रहूंगा तब सब कलाकार बंधुओं से मिलना-जुलना होता रहेगा। मेरे कार्यक्रम भी होंगे। अब समय बहुत हो गया है, मुझे-जाना है। अपने इंटरव्यू में काफी समय ले लिया है। इतना कहकर पंडित जी बाहर खड़ी गाड़ी की ओर बढ़ गए।

बाहर मैदान में बड़े से बड़े कलाकार उन्हें विदाई देने के लिए खड़ा था। वह चले गए। पीछे से राजेंद्र प्रसाद ने मेरी पीठ थपथपाई।

साभार: सृजन से

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