ऐ मेरे वतन के लोगों,थोड़ा आंखों में भर लो पानी कि पच्चीस हजार मौतों की नींव पर बसा है यह सीमेंट का हसीन ख्वाबगाह हिंदू हिंदुस्तान का!
पलाश विश्वास
The Economic Times
Cloudy sky, heavy drizzle...but no doubts, it's been a beautiful day for everyone watching #RepublicDay celebrations http://ow.ly/HVqLQ
Protests were held all across India condemning US Imperialism, with the slogan "Obama Go Back". The call had been given by the alliance of the 17 Left Parties. Various Trade Unions, People's organizations, Dalit-OBC groups too were part of the protest held today at Dadar, Bombay.
ऐ मेरे वतन के लोगों,थोड़ा आंखों में भर लो पानी कि पच्चीस हजार मौतों की नींव पर बसा है यह सीमेंट का हसीन ख्वाबगाह हिंदू हिंदुस्तान का !
माफ करना मेरे दोस्तों,मैं वह नन्हा सा खरगोश हूं जिसे दिख रहा है कि आसमान गिर रहा है और गिरते हुए आसमान कोथामने के लिए मैं सरपटदौड़ रहा हूं।जबकि बाकी लोगों के लिए नीला आसमान पिघलता हुआ विकासगाथा का प्रेमपगा पनाहगार है।
जब नंदीग्राम में नरसंहार हुआ था तो पूंजीपरस्त वाम के खिलाफ हम सड़क पर थे।जब नागरिकता संशोधन विधेयक 2003 में वाम समर्थन से पूर्वी बंगाल के अनार्य हिंदू शरणार्थियों के रंगभेदी देशनिकाला का सबब बना तो वामपंथ के विश्वासघात पर मैंने लिखना शुरु किया।वामपंथ से उस दिन से मैं खारिज हूं।
अब अंबेडकरी मित्रों की बारी हैं कि वे मुझे खारिज करें कि अंबेडकरी दुकानदारी के खिलाफ मेरी जंग है कि अंबेडकर को विष्ण भगवान का अवतार मानने से साफ मेरा इंकार है और अंबेडकर के अंध अनुयायियों के देश काल परिस्थितियों से एकदम बेखबर होने के खिलाफ मैं बोल रहा हूं।लिख भी रहा हूं।
अब अंबेडकरी मित्र भी मुझसे मुंह चुराने लगे हैं।
मैं कोई शरणस्थल खोज नहीं रहा हूं ,हालांकि जनमजात शरणार्थी हूं।जनमा हूं शरणार्थी बनकर तो मरना है शरणार्थी बनकर।बाकी सारा कुछ निमित्तमात्र है।थोड़ा पढ़ लिख गया।पत्रकारिता की नौकरी मिली ठैरी तो थोड़ी जान पहचान हो गयी ठैरी।
बाकी मैं बसंतीपुर का वही बच्चा हूं जो बचपन में कड़ाके की सर्दी में मिले हुए काला कोट चबाकर खा जाता रहा है और जिसकी नाक से गंगा जमुना बहती रही है।जेसके पांव धन के खेतो में गढ़े हुए थे और अब जब कंप्यूटर पर बैठा हूं तो भी उसी धान के खेत में धंसा हूं ौर देह मेरी माटी और गोबर है।
मैं आज भी उतना ही वामपंथी हू जितना कि मैं अंबेडकरी हूं आज भी।
मैं विचारधारा के खिलाफ नहीं हूं।
विचारधारा के बिजनेस के विरुद्ध हूं।
मैं जनांदोलन के कारोबार के खिलाफ हूं।
जनभावनाओं से खिलवाड़ के खिलाफ हूं।
सपनों के सोदागरों और मौत की तिजारत के खिलाफ हूं।
मैं आज भी उतना ही वामपंथी हू जितना कि मैं अंबेडकरी हूं आज भी।
स्त्री उत्पीड़क पुरुष वर्चस्व के खिलाफ मेहनतकश जनता के हक में खड़ा हूं मैं।
अत्याचारियों की नंगी तलवारों में जबतक बहती रहेगी खून की नदियां,तब तक मुझे माटीऔर गोबर के इस मोर्चे से छुट्टी नहीं मिलनेवाली है।
मैं आज भी उतना ही वामपंथी हू जितना कि मैं अंबेडकरी हूं आज भी।
मैं सत्ता समीकरण के खिलाफ हूं।नस्ली रंगभेद के खिलाफ है लड़ाई मेरी।
मैं आज भी उतना ही वामपंथी हू जितना कि मैं अंबेडकरी हूं आज भी।
अकेला हूं और मेरे साथ कोई कारवां या काफिला नहीं है।
फिर भी आदत से सच कहने लिखने को मजबूर हूं,दोस्तों कि माफ करना कि आप देख ही नही रहे हैं कि कयामत शुरु हो गयी है और सर पर जो आसमान है,वहां कोई मुहब्बत की महजबीं नहीं है।
वह आसमान टूटकर गिर रहा है।
कि कयामत चालू आहे।
गणतंत्र दिवस परेड में बाराक ओबामा महाशय और अपने कल्कि अवतार सुदामाकृष्ण जुगलबंदी से जो संगीतबद्ध समां बांध रहे हैं,वह दरअसल कयामत की दस्तक है।
ऐ मेरे वतन के लोगों,थोड़ा आंखों में भर लो पानी कि पच्चीस हजार मौतों की नींव पर बसा है यह सीमेंट का हसीन ख्वाबगाह हिंदू हिंदुस्तान का !
वारेन एंडरसन की आत्मा को शांति मिल गयी होगी कि आखिर डाउ कैमिकल्स के वकील को भारी कामयाबी मिल गयी है और भोपाल गैस त्रासदियां दोहराने और उस मानवताविरोधी कयामती जुल्मोसितम का गुनाहगार कोई नहीं होगा और न पच्चीस हजार मौतों का रोना रोते हुए कोई विकास बुलेट के सामने सीना तानकर फिर कहेगा कि भोपाल के लिए न्याय चाहिए।
कारपोरेट वकील अरुण जेटली की बेमिसाल कामयाबी कहिए कि भूत भविष्य वर्तमान में किसी अमेरिकी कंपनी के खिलाफ किसी पारमाणविक औद्योगिक दुर्घटना का कोई मुकदमा इस दुनिया की सरजमीं या फलक में कहीं न दर्ज होगा और न फिर कभी किसी गैस पीडित की किसी अदालत में सुनवाई होगी।
परेड और ताजमहल देखने भारत आनेवाले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को कोस रहा था जो अमेरिकी मीडिया,वह गार्डन गार्डन है और गणतंत्र दिवस पर सैन्य राष्ट्र के शक्ति प्रदर्शन से बरसात की फुहारों के बीच अपनी हार रही क्रिकेट टीम की भीगी भीगी प्रेमकथा के बीच सर्दियों में वसंत बहार जो है,उसका असली किस्सा एक कारपोरेट वकील की यशोगाथा है,जिसपर भविष्य में कारपोरेट पुराण लिखा जायेगा।
हमने नारे सुने हैं अनेक।
मसलनः जयहिंद।दिल्ली चलो।
इंक्लाब।भारतमाता की जय।
मसलनःगरीबी हटाओ।
मसलनःराम की सौगंध खाते हैं,मंदिर वही बनायेंगे।
मसलन जय जवान जय किसान।
ऐ मेरे वतन के लोगों,थोड़ा आंखों में भर लो पानी कि पच्चीस हजार मौतों की नींव पर बसा है यह सीमेंट का हसीन ख्वाबगाह हिंदू हिंदुस्तान का !
डाउ कैमिकल्स के वकील अरुण जेटली ने देश को नया नारा दिया हैः कम्प्लीट प्राइवेटाइजेशन।संपूर्ण निजीकरण।
जो कहत रहल बाड़न,कि चाकरी करै तो कर सरकारी या बेच फिर तरकारी।
जो बुद्धिमान पिता षोडसी कन्या के खातिर चतुर्थ श्रेणी के बुढ़ऊ चाकर सरकारी चाकर खोजै आउर लाखौंलाख दहेज के साथ कन्या विदा करके तर जाये कन्या का जीवन नर्क बनाइके,अब उनर का होई,सोच बै,चैतू कि अब सरकारी चाकरी नाही।
कम्प्लीट प्राइवेटेआइजेशन।संपूर्ण निजीकरण चालू आहे।
ई तेजबत्ती टार्चवाला तो अंधियारा का जबरदस्त कारोबारी दीखै बै चैतू।
यह पीपीपी का मेकिंग इन और इन्नोवेशन है।
यह विनिवेश और प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश,अबाध पूंजी प्रवाह और विकास का सार है।
ऐ मेरे वतन के लोगों,थोड़ा आंखों में भर लो पानी कि पच्चीस हजार मौतों की नींव पर बसा है यह सीमेंट का हसीन ख्वाबगाह हिंदू हिंदुस्तान का !
टीवी चैनल सैकड़ों हजारों रातदिन चौबीसों घंटा बागों में बहार है।
अखबारों में रंगीन चीखों का अनंत सिलसिला है।
कल से खबर चल रही है कि नया इतिहास रच दिया है कृष्ण सुदामा उत्तरआधुनिक बंधुत्व ने कि वसंत बहार है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अब अमेरिकी है और भारत भी अमेरिका भयो रे।
उस इतिहास के दो चार पन्ने तो खेल कर बांच दिये होते।
नरेंद्र भाई ने बाराक को गले लगाया।
सरकारी समारोहों में अमेरिकी फर्स्ट लेडी नहीं गयीं।भारतीय लेडी जो लापता हैं।
नरेंद्र भाई ने ओबामा से बाराक बाराक कहा तो बाराक भी गदगदायमान होकर नमो नमो रटने लगे।
नमो ने बाराक को गले लगाया।
बाराक ने नमो को गले लगाया।
फर्स्ट लेडी किसे गले लगाती?
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी न रहबै करै हैं।
सुंदर सोलनी बहू स्मृति ईरानी को फ्स्ट लेडी से गले मिलाने लेजाते तो भी रस्म अदायगी हो जाती।
खड़ी रही स्टेच्यु जइसन।
सुजाता सिंह विदेश सचिव रहबे करि।
रहबे करि सलामी ठोंक पूजा पाठक विंग कमांडरो।
कि स्त्री सशक्तीकरण है कि बेटी बचाओ की गुहार है लेकिन फिर भी सीता मइया का वनवास है।
भव्य राममंदिर बनायेंगे लेकिन सीता मइया की रसोई को उपवास है।
BBC Hindi
3 mins ·
गणतंत्र दिवस के जश्न के बीच जसोदाबेन- 'मुझे वहां होना चाहिए पर साहेब ने नहीं बुलाया.' http://bbc.in/1C52JwS
और वो कुतवा ने तो हद कर दी।
ससुरा कुतवा अमेरिकी बा कि देशी,उसका बाइट साइट दे देत जइसन सिनेमा मा कुतवा का रोल जबर होत है।
कथे जात चैतू,बै।देखा नहीं घोंघियन आंखि से कि कइसन रेड कार्पेट में तब्दील हो गइलन अपना सुदामा जी डिजाइनर कुर्ता मा आउर जो लिडिया रहिन,उनर स्कर्टवा भी देसी है।साड़ी न पहना तो का,वो ईसाई भी बाड़न आउर मध्य नामो हुसैन बा।डालर स बड़का का धर्म का, धर्मांतरण का।
डालर लेडा लेडी दुनो हिंदुत्व के झंडेवरदार बन गई रहलन।
त ससुरा कुतवा ने मजा खराब कर दीहिस कि आगरा एक्सप्रेस मा लोगन से थूकवा चटवा कर चाकचौबंद बंदोबस्त कर दिहिस कि ताज की झांकी पेश कर दी जाये जिस राजपथ की परेड में शामिल ना करबे सकै।
वो ससुरा सबसे जो तेल धनी रहलनबाडा़,वो गुजर गइलन।
ई इमर्जिंग मार्केटमा अमितवा,भागवतवा,प्रवीणवा,तमाम तमाम संत संतवा, बाबावा,बाबिवा,खुदे नमो नमो,कारपोरेट वकील डाउ कैमिकल्स के खासमखास अरुण जेटली जइसन सिपाहसालार बाड़न जिनके हाथों हिंदी हिदू हिंदुस्तान सबै डालर महमहाये तो काहे वक्त खराब करैंं,जात बाड़न परेड से फारिग होइके।
बाकीर इतिहास तो अमेरिकी कंपनियों और इंडिया इंक का है।
गलती हो गइलन।कुतवा का भी आधार कार्ड होइबे चाहि।
उकर भी बायोमैट्रिक डाटा चाहि।
बाप मोर,का मस्त गडबडझाला हो गइलन रे चैतू कि ससुर कुतवा रेड कारपेटपर बाराक भइया और मिसेल भौजी की सुरक्षा तार तार करिके दौड़ गइलन।
कुतवा के पेट मा आरडीएक्स रहतो तो का हो जात,सोच बे।
के कुतवा ससुर कुतवा बम रहिस तो का होत,सोच बे।
ड्रोन के हवाले रहा देश।
गाइडेड मिसाइल,गाइडेड बुलेट,अंतरिक्ष में निगरानी प्रणाली और चप्पे चरप्पे पर सीआईए,मोसाद आउर एफबीआई।
फिर भी निराधार कुतवा की ये मजाल के मोदी जो फर्राटे से कार्पेटवा पर दौड़त रही कारों बीच बिछ बिछ जाय रहे,उनरका झांसा दे दौड़ि गयो और दावा रहिस कि परिंदा भी पर ना मर सकै।
चैतु,परिंदों के बारे में सोच मत,कुतवा के बारे में सोच।
सोच,कि कुतवा ने का इतिहास रच दिहिस।
चाय पर चर्चा कुतवा चरचा हो गइलन बै चैतू।
दुइ दिन होई गवा।कृष्ण सुदामा लाइव है।
सेकंड दर सेकंड न्यूज ब्रेकिंग है।
टीवी तोड़ एंकर सगरे सुंदर सुंदरियां मुंहजोर हैं।
कारगिल से कच्छ तक कारपोरेटलाबिइंग विशेषज्ञ सगरे हैं तो पेइड न्यूज वाले भी कम ना टरटरायो है।
कुलि खबर ह कि इतिहास रच दियो रे इतिहास रच दियो।
का का उखाड़ लिहिस खेतवा मा,कछु कहत नाही।
फोटू फोटू आउरो फोटू सेल्फी मात कर दीहिस।
का का उखाड़ लिहिस खेतवा मा,कछु कहत नाही।
ससुरे जो असल भागवतकथा डाउ कैमिकल्स है,सो ना बांचै कोई।
जो असल विजेता है जेटली भाई,सो ना कहै कोई।
ऐ मेरे वतन के लोगों,थोड़ा आंखों में भर लो पानी कि पच्चीस हजार मौतों की नींव पर बसा है यह सीमेंट का हसीन ख्वाबगाह हिंदू हिंदुस्तान का !
वारेन एंडरसन की आत्मा को शांति मिल गयी होगी कि आखिर डाउ कैमिकल्स के वकील को भारी कामयाबी मिल गयी है और भोपाल गैस त्रासदियां दोहराने और उस मानवताविरोधी कयामती जुल्मोसितम का गुनाहगार कोई नहीं होगा और न पच्चीस हजार मौतों का रोना रोते हुए कोई विकास बुलेट के सामने सीना तानकर फिर कहेगा कि भोपाल के लिए न्याय चाहिए।
कारपोरेट वकील अरुण जेटली की बेमिसाल कामयाबी कहिए कि भूत भविष्य वर्तमान में किसी अमेरिकी कंपनी के खिलाफ किसी पारमानविक औद्योगिक दुर्घटना का कोई मुकदमा इस दुनिया की सरजमीं या फलक में कहीं न दर्ज होगा और न फिर कभी किसी गैस पीडित की किसी अदालत में सुनवाई होगी।
कुल जमा समझौता परमाणु विकास या कि विनाश का होइबै करै हो,उकर सार कि अमेरिकवा से तमाम हथियार,तमाम परमाणु चूल्हा वगैरह ले लिहिस नमो ने कि मेकिंग इन के तहत अमेरिकी कंपनियां कल कारखाने लगवायेंगे।
पर्यावरण,भूमि अधिग्रहण,खनन कानून,पांचवा छठां अनुसूची ,बीमा कानून सबै कुछ अमेरिकी कंपनियों को समर्पित। स्वतंत्रता,संप्रभुता,लोकतंत्र,संविधान समर्पित।
जल जंगल जमीन अमेरिकी कंपनियों को समर्पित।
हवाएं और पानियां.आसमान और अंतरिक्ष,रण मरुस्थल और हिमालयभी अमेरिकी हो गइलन।
तमाम ग्लेशियर अमेरिकी।
हीकर देश के हीरक राजा का राजकाज परमाणु हो गइलन।
अब विकास परमाणु है तो परमाणु है विनाश भी।
कुल जमा समझौता परमाणु विकास या कि विनाश का होइबै करै हो,देस की जो पांच बड़ी सरकारी बीमा कंपनियां हैं,उनकी पूंजी से बीमा पुल बर रहलिस कि उमा से शारदा फर्जीवाड़ा के भुक्तभोगियों को मिलल रहल मुआवजा बतर्ज मुआवजा सरकारी फंड से,जनता की बीमा रकम से भुगतान करेक चाहि।
अमेरिकी कंपनियों की जम्मेदारी खतम बा।
भारत में बीबीसी के संपादक हमारे दिनेशपुर से अठारह मील दूर किछा के राजेश जोशी हैं।तो सलमान रवि के सात एक अच्छी खासी टीम भी है।जिनके साथ जुड़े हैं,जनसत्ता में कभी हमारे सहकर्मी भाई रहे प्रमोद मल्लिक भी।प्रमोद मल्लिक को बधाई के साथ भोपाल गैस त्रासदी की यह खबर पेस है कि ऐ मेरे वतन के लोगों,थोड़ा आंखों में भर लो पानी कि पच्चीस हजार मौतों की नींव पर बसा है यह सीमेंट का हसीन ख्वाबगाह हिंदू हिंदुस्तान का !
25000 मौतें, सज़ा 35 मिनट प्रति मौत
राजकुमार केसवानीवरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए विशेष
- 2 दिसंबर 2014
साल 1984 में दो और तीन दिसंबर की मध्यरात्रि में अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड के भोपाल स्थित संयंत्र से जानलेवा गैस लीक होनी शुरू हुई.
इस दुर्घटना में क़रीब 25 हज़ार लोगों की मौत हुई. एक लाख से ज़्यादा लोग इस हादसे में बेघर, बीमार या फिर अपंग हुए.
पीड़ित आज भी पर्याप्त मुआवज़ा नहीं मिलने की शिकायत करते हैं. वहीं मामले के दोषियों को नाममात्र की सज़ा मिली.
पढ़ें विशेष लेख विस्तार से
भोपाल गैस त्रासदी के तीस साल गुज़र गए. इन सालों में हज़ारों लोग भी गुज़र गए. जो बाक़ी हैं, वे भी गुज़रते वक़्त के साथ गुज़रने वालों की कतार में हैं.
लगता है अमरीकी मल्टी-नेशनल कम्पनी यूनियन कर्बाइड के पास कोई जादू की छड़ी थी. इस 'जादू' का नाम था मिथाईल आइसो-साइनेट उर्फ एम.आई.सी. उर्फ मिक.
इस मिक गैस के ज़ोर से सबसे पहले भोपाल के हज़ारों बेगुनाह और मासूम लोग दो और तीन दिसम्बर की मध्य रात्रि में गुज़र गए.
उस रात जो पांच लाख लोग बचे उनमें से एक-एक कर अब तक कोई 25 हज़ार लोग गुज़र चुके हैं. कोई डेढ़ लाख लोग अपंग या शदीद तौर पर बीमार हैं.
सर्द रात में रेंगती मौत
दिसम्बर की उस सर्द रात, शहर के लोग रविवार की छुट्टी मनाकर, अपने-अपने बिस्तर में न जाने किन सपनों में खोए थे.
इन सपनों में चाहे जो कुछ हो लेकिन यह कतई नहीं था कि मौत ने एम.आई.सी गैस का रूप धर लिया है और शहर के हर इंसान को अपना निशाना बना लिया है. लेकिन उस घड़ी का सच यही था.
ज़हरीली मिथाईल आइसो-साईनेट ने हवा का सहारा लेकर धुएं का रूप ले लिया और भोपाल के सोते-जागते-भागते हर इंसान के फेफड़ों में घुसकर घर बना लिया.
मौतों की शुरुआत
उस एक रात में जो कुछ हुआ, वह महज़ एक शुरुआत थी. तीस साल गुज़र चुके हैं और इसका अब तक कोई अंत नज़र नहीं आता.
शायद तब तक, जब तक अंतिम गैस पीड़ित का अंत नहीं हो जाता. यह सब लोग हैं तो लेकिन ये नहीं जानते कि इनके साथ ऐसा क्यों हुआ ? क्यों उन्हें बेवक़्त ही मौत के हवाले कर दिया गया.
हमारे भारतीय समाज की यही त्रासदी है कि हर दौर की सरकारें हमें इस बात का अंदाज़ा ही नहीं होने देतीं कि हमारे साथ कब, क्या हो सकता है.
भोपाल की गैस त्रासदी, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी मानव निर्मित त्रासदी क़रार दिया गया है, इसी सच्चाई का एक सुबूत है.
'लाश पर विकास'
विकास के नाम पर किस तरह इंसानी ज़िंदगियों की अनदेखी होती है. यह त्रासदी इस शर्मनाक हक़ीक़त का एक नुमाया सुबूत है कि हमारे देश में दुनिया के तमाम मोटे उद्य़ोगपतियों के मोटे मुनाफे के सामने इंसान को किस क़दर बौना और किस कदर सस्ता बना दिया गया है, यह त्रासदी सुबूत है उसी ग़लीज़ और गंदी सरकारी सोच का.
ज़रा ग़ौर फ़रमाएं कि ख़ुद को 'जन कल्याणकारी सरकार' कहने वाली सरकार ने बिना ज़रूरी सुरक्षा शर्तों के इतने ख़तरनाक कारख़ाने को लगाने की इजाज़त दे दी.
एजेंसियों ने मूँदी आँख
जब इस कारख़ाने ने सामान्य सुरक्षा व्यवस्थाओं पर भी ख़र्च में कटौती करके सारे सिस्टम बंद कर दिए तब भी सरकारी एजंसियों ने आंख मूंदना बेहतर समझा.
और जब गैस लीक हुई तो लोगों को मरने के लिए बेसहारा छोड़कर सरकार के आला अफसर और आला मंत्री अपनी जान बचाने दूर जा छिपे. लेकिन जब यूनियन कारबाईड को बचाने की बारी आई तो यही भगोड़ी सरकार उसके बचाव में सामने आकर खड़ी हो गई.
इसी मक़सद से सरकार ने एक कानून बनाकर गैस पीड़ितों से कार्बाईड के ख़िलाफ कानूनी कार्यवाही का अधिकार छीनकर अपने हाथ में ले लिया. और अधिकार लेकर एक दिन, 14-15 फरवरी 1989 को गुपचुप तरीके से सुप्रीम कोर्ट के सामने एक समझौते का मसविदा पेश कर दिया.
मुआवज़ा और दावा
इस समझौते के मुताबिक यूनियन कार्बाईड को 3.3 बिलियन डालर (लगभग 4500 करोड़ रुपए) के क्लेम के बदले महज़ 470 मिलियन डालर(715 करोड़ रुपए) का मुआवज़ा देना था और बदले में उसके ख़िलाफ मुवाअज़ा दावे के साथ ही साथ लापरवाही से हत्या करने वाला आपराधिक केस भी समाप्त होना था.
इस समझौते को अदालत की मान्यता भी मिल गई और हज़ारों हत्याओं की ज़िम्मेदार कंपनी चंद रुपए देकर बरी हो गई. यह अलग बात है कि इस समझौते को बाद में चुनौती दी गई तो आपराधिक प्रकरण फिर से चलाया गया लेकिन मुआवज़ा राशि जस की तस ही बनी रही.
आठ रुपए का वित्तीय भार
एक शर्मनाक लेकिन हमेशा याद रखने लायक बात यह है कि यह मुआवज़ा राशि चुकाने के बाद यूनियन कार्बाईड कार्पोरेशन अमरीका ने अपने शेयर धारकों को बधाई देने वाले अंदाज़ में बताया था कि इस समझौते के नतीजे में कंपनी पर बेहद मामूली वित्तीय भार आया है.
और जानते हैं कितना था वह वित्तीय भार ? मात्र 50 सेंट प्रति शेयर. मतलब आधा डालर. मतलब कोई आठ रुपए. जी हां, 1989 में डालर का मूल्य मात्र 16 रुपए था.
जब इस रक़म का बंटवारा गैस पीड़ितों के बीच हुआ तो पांच लाख दावेदारों में से 90 प्रतिशत लोगों के हिस्से में आया 25-25 हज़ार रुपए.
वह भी इसलिए कि मुआवज़ा बांटने के लिए अदालतें बनाने और अदालते बनने के बाद फ़ैसले होने में इतने बरस लग गए कि तब तक गैस पीड़ितों की उम्र भले ही कम होती चली गई हो लेकिन डालर की कीमत लगातार बढ़ती जा रही थी. 16 रुपए वाला डालर 2002 के आते-आते 45-46 रुपए तक जा पहुंचा था.
'भ्रष्टाचार की मांद'
मुआवज़े की रकम का बंटवारा किसी हैबतनाक हादसे से कम नहीं है. भोपाल गैस पीड़ितों के लिए बने 'क्लेम कोर्ट' भ्रष्टाचार की एक ऐसी मांद में तब्दील हो गई जिसमें घुसकर निकलने वाला ख़ुद को ख़ुशनसीब समझता था.
कभी-कभार यूं भी हुआ कि दुख-दर्द और अन्याय से बग़ावत करके किसी गैस पीड़ित ने अदालत में ही अदालत की नीयत पर सवाल खड़ा कर दिया.
ऐसे मौकों पर वहां मौजूद दलालनुमा लोगों ने हमदर्द की भूमिका अपना ली और कमीशन कुछ कम कर दिया. लेकिन इस सबके बावजूद आख़िर में बेहक़ का हक़ जताने वाले फ़र्ज़ी दावेदारों को को मुआवज़े की भारी रकम मिल गई और हक़दार के हिस्से आईं कौड़ियां.
बैंक वालों की भूमिका
इन हालात को और बदतर बनाने के लिए बैंक वाले भी क़तार में खड़े थे.
इस फैसले की आड़ में कि अशिक्षित लोगों को मुआवज़े की रकम तत्काल न देकर छह माह के लिए बैंक़ में फिक्स डिपाज़िट के तौर पर रखा जाए, दावा अदालतों और बैंक लाबी के गठजोड़ के नतीजे में अधिकांश पढ़े-लिखे लोगों का मुआवज़ा भी बैंक में डिपाज़िट करने के आदेश होते चले गए.
बड़े व्यापारिक घरानों के कर्ज़े के लिए काम आने वाले इन डिपाज़िट्स के बदले कुछ लोगों को कमीशन ज़रूर मिल गया. ज़ाहिर है, करोड़ों रुपए पर लाखों का कमीशन तो बनता ही है.
'नापाक समझौता'
सरकार और कार्बाईड के बीच हुए इस नापाक और नाजायज़ समझौते पर तूफ़ानी तेज़ी से अदालत की मंज़ूरी की मुहर लगाने वाले सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरएस पाठक रिटायरमेंट के बाद हॉलैंड के इंटरनेशनल कोर्ट में जज की कुर्सी पर जा बैठे.
इस नियुक्ति को इसी नाजायज़ और नापाक समझौते पर मुहर लगाने का इनाम माना जाता है.
इसी तरह 1996 में सर्वोच न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एएम अहमदी ने भोपाल नरसंहार के अपराधियों के ख़िलाफ भारतीय दंड विधान की धारा 304–II के अंतर्गत दर्ज अपराध की धारा को बदलकर 304-ए में बदल दिया.
इसका मतलब था अपराध की गंभीरता और सज़ा दोनो में कमी. पहली धारा में जहां दस साल की सज़ा का प्रावधान है, वहीं दूसरी धारा में मात्र दो साल की सज़ा.
पहली धारा में मामला संघातक हत्या का बनता है जबकि बदली हुई धारा में विश्व के सबसे भीषण मानवीय त्रासदी को एक सड़क दुर्घटना के स्तर पर लाकर खड़ा कर दिया गया.
फ़ैसले के बाद
इस फ़ैसले के कुछ अरसे बाद जब जस्टिस अहमदी रिटायर हुए तो उन्हें यूनियन कार्बाईड के पैसों से बने अस्पताल – भोपाल मेमोरियल हास्पीटल और रिसर्च सेंटर के ट्रस्ट का चेयरमैन बना दिया गया.
इसी आपराधिक निर्णय का नतीजा था कि अपराध के 26 साल बाद, सात जून 2010 को जब भोपाल जिला न्यायालय में मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी मोहन तिवारी ने एक बंद कमरे में फ़ैसला सुनाया तो इन सात मुलज़िमों में से हर एक को दो-दो बरस की सज़ा सुनाई गई.
अगर आप ज़रा सा हिसाब लगाएं तो भोपाल में हुई 25 हज़ार मौतों में से हर मौत के लिए महज़ 35 मिनट की सज़ा.
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