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Tuesday, April 28, 2015

कुछ तो रचनात्मक पहल करें कामरेड महाचिव! राजनीतिक हिंसा की आपराधिक संस्कृति जनता के मुद्दों को लेकर वाम आंदोलन को मजबूत करके खत्म कर सकते है,वरना नहीं। वाम और बहुजन राजनीति को हाशिये पर धकेलकर ही हिंदू राष्ट्र के फासिस्ट एजंडा को अमल में लाना चाहता है संघ परिवार ,जो निःसंदेह बंगाल में राजनीतिक हिंसा से बड़ी चुनौती है और इसके लिए संगठन को नये सिरे से व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी भी नये कामरेड महासचिव की है। एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


कुछ तो रचनात्मक पहल करें कामरेड महाचिव!
राजनीतिक हिंसा की आपराधिक संस्कृति जनता के मुद्दों को लेकर वाम आंदोलन को मजबूत करके खत्म कर सकते है,वरना नहीं।
वाम और बहुजन राजनीति को हाशिये पर धकेलकर ही हिंदू राष्ट्र के फासिस्ट एजंडा को अमल में लाना चाहता है संघ परिवार ,जो निःसंदेह बंगाल में राजनीतिक हिंसा से बड़ी चुनौती है और इसके लिए संगठन को नये सिरे से व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी भी नये कामरेड महासचिव की है।

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

विशाखापत्तनम कांग्रेस में बंगाल के कामरेडों के खास चहेते कामरेड सीताराम येचुरी ने केरल के कड़े मुकाबले के बावजूद पूर्व मुख्यमंत्री बागी कामरेड वीएस के समर्थन से माकपा कामरेड महासचिव बनते ही कम्युनिस्ट एकता जल्द हो जाने का एलान किया था।लेकिन केरल में परस्परविरोधी दो गुटों की लड़ाई से शंका होती है कि जब माकपा में ही एकता नहीं है तो कम्युनिस्टपार्टियों की विलय की बैत कैसे कर रहे हैं कामरेड महसचिव।

पूर्व कामरेड महासचिव ने पार्टी में आंतरिक लोकतंतर के पक्ष में सहमति बनाने में जो अभूमिका निभाई उससे जरुर उम्मीद बंधती है।

पोलित ब्यूरो में दो हिंदी भाषी कामरोडों सुभाषिनी अली और मोहम्मद सलीम के साथ किसानों के नेता हन्नान मोल्ला के शामिल किये जाने से लगता है कि पार्टी फिर राजनीतिक चुनौतियों का मुकाबला करने का इरादा रखती है।

कामरेड महासचिव विशाखापत्तनम में हुए परिवर्तन के बाद बंगाल आये हैं तो जाहिर है कि बंगाल के नेताओं ने पलक पांवड़े बिछाकर उनकी अगवानी की और इस मौके पर बंगाल के चुनावों में हुई हिंंसा का चुनाव आयोग से संज्ञान लेने के अलावा राष्ट्रीय कम्युनिस्ट पार्टी के कामरेड महासचिव के नाते देश के नब्वे फीसद आम जनता के जीवन मरण के सवालों पर उनकी खामोशी हैरतअंगेज है।

हिंदी पट्टी में वामदलों को फिर प्रासंगिक बनाने की जो चुनौती है,उससे बड़ी चुनौती है हैदराबाद कांग्रेस में पास दलित एजंडा को अमल में लाने की।


बंगाल में दलित और बहुजन आंदोलन एकदम जो हाशिये पर चला गया है,वह भी वाम दलों के लिए अच्छा नहीं है।

वाम और बहुजन राजनीति को हाशिये पर धकेलकर ही हिंदू राष्ट्र के फासिस्ट एजंडा को अमल में लाना चाहता है संघ परिवार ,जो निःसंदेह बंगाल में राजनीतिक हिंसा से बड़ी चुनौती है और इसके लिए संगठन को नये सिरे से व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी भी नये कामरेड महासचिव की है।

बंगाल में तेभागा आंदोलन से लेकर 1977 तक सत्ता हासिल करने तक वाम दलों में किसानों और बहुजनों की व्यापक सक्रियता थी।इसके पीछे भूमि सुधार का एजंडा खास रहा है जो वामदलों ने छोड़ दिया है।

इसके साथ ही सीमापार बांग्लादेश में जो धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक मोर्चा है और जो वाम आंदोलन है ,उसमे दलितों,पिछड़ों और आदिवासियों की खास हिस्से दारी रही है ,जो बंगाल में भी लंबे समय तक वाम आंदोलन की ताकत थी।

इस विरासत को बहाल करना कामरेड महासचिव की सबसे बड़ी चुनौती है,जिसके बिना हिंदी पट्टी और महाराष्ट्र और पंजाब जैसे राज्यों में न वाम बहुजन जनाधार वापस हो सकता है और न बहुजनों की वा आंदोलन में वापसी के बिना इस फासिस्ट कयामत का मुकाबला किया जा सकता है।

जहां तक चुनावी हिंसी की बात है, वह राजनीति की आपराधिक संस्कृति है जो बंगाल में वाम आंदोलन के भटकाव की वजह से ही पैदा हुई। पहले बिहार के चुनावों में जो नजारा नजर आता था,वह बंगाल के चुनावों में आम है।

राजनीति में अपराधियों का वर्चस्व इतना प्रबल है कि आम जनता अपनी जानमाल की हिफाजत की फिक्र करते हुए न मतदान करने की हिम्मत जुटा पा रही है और न उसकी आस्था राजनीति में है।

आर्थिक सुधारों का कोई विरोध न करने की भूमिका के चलते ट्रेड यूनियनें जनता के मुद्दों से सिरे से कटी हुई हैं और ट्रेड यूनियनों की हड़ताल से इस राजनीतिक हिंसा का प्रतिरोध असंभव है।

जिस आपराधिक राजनीतिक हिंसा के माहौल में चुनाव हुए,उसमें सत्ता की एकतरफा जीत को चुनाव आयोग भी पलट नहीं सकता और ट्रोडयूनियनों की हड़ताल के जरिये हालात बदलने की यह कवायद सिरे से फालतू है।

कामरेड महासचिव सीताराम येचुरी अत्यंत परिपक्व राजनेता हैं और उन्हें कुछ रचनात्मक पहल करनी चाहिए।

मसलन सीपीएम महासचिव बनने के बाद सीताराम येचुरी ने सीएनबीसी-आवाज़ से हुई खास मुलाकात में कहा है कि मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण बिल से गरीबी और बेरोजगारी दूर होने के बजाय बढ़ेगी। सीएनबीसी-आवाज़ के प्रधान संपादक संजय पुगलिया से खास मुलाकात में उन्होंने यह भी कहा कि भूमि अधिग्रहण बिल पर सहमति के लिए सरकार ने एक भी ऑल पार्टी मीटिंग नहीं की।

जाहिर है कि यह मामला सिर्फ संसदीय नहीं है अब,यह अब सड़क का मामला भी है।संसदीय लोकतंत्र की परवाह बिजनेस फ्रेंडली केसरिया कारपोरेट राज नहीं कर रही है,तो जनता को संगठित करके सड़कों पर आंदलन का जलजला बनाकर ही वे अपने कहे के मुताबिक पार्टी की प्रासंगिकता साबित कर सकते हैं और जनाधार जाहिर है कि किसी शार्ट कटचुनावी समीकरण से नहीं वापस होना है,वाम दलों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों को देश की बहुसंख्यबहुजन जनता को साथ लेकर लंबे संघर्ष के लिए सबसे पहले खुद को तैयार करना होगा।

कामरेड महासचिव,जवानी जमा खर्च से संघ परिवार के फासिस्ट हिंदू साम्राज्यवादी एजंडे के अश्वमेध अभियान का प्रतिरोध असंभव है।वामदलों को पिर जनांदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका लेनी होगी और तभी उसकी खोयी हुई साख वापस मिलेगी।खोया हुआ जनाधार वापस मिलेगा।

बहरहाल सीताराम येचुरी के मुताबिक जमीन अधिग्रहण कानून से रोजगार में कोई बढ़ोतरी नहीं होगी अलबत्ता किसानों को इस बिल से नुकासान ही होगा। उन्होंने कहा कि ये बिल कुछ खास लोगों को फायदा पहुंचाएगा। सीताराम येचुरी ने ये भी कहा कि बीजेपी को अब चुनाव प्रचार  की मानसिकता से बाहर निकल कर वास्तविक धरातल पर काम करना चाहिए।

सीताराम येचुरी ने कहा कि सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण बिल को पास कराने के लिए ज्वाइंट सेशन बुलाने की धमकी गलत है। सरकार को इस बिल पर आम सहमति बनाने के लिए ऑल पार्टी मीटिंग बुलानी चाहिए। उन्होंने कहा कि ये बिल अपने वर्तमान स्वरूप में खास सेक्टर के लिए ही फायदेमंद होगा। सीताराम येचुरी  के मुताबिक बीजेपी को दिल्ली हार से सबक लेते हुए जनविरोधी नीतियों से दूर रहना चाहिए।
गौरतलब है कि निकाय चुनाव में धांधली और बूथ दखल के लिए वाममोरचा के साथ-साथ सीटू, इंटक, एटक सहित छह श्रमिक संगठनों ने संयुक्त रूप से 30 अप्रैल को आम हड़ताल का आह्वान किया है। 12 घंटे की यह हड़ताल सुबह छह बजे तक शाम छह बजे तक होगा, जबकि तृणमूल कांग्रेस ने हड़ताल का विरोध किया है।

वाम मोर्चा के अध्यक्ष विमान बसु ने कहा कि कोलकाता व जिलों में निकाय चुनाव के दौरान विभिन्न जगहों पर विरोधी दल सहित माकपा समर्थित वाममोर्चा के समर्थकों पर हमला किये जाने के खिलाफ यह हड़ताल बुलायी गयी है। सीटू के वरिष्ठ नेता श्यामल चक्रवर्ती ने हड़ताल की घोषणा करते हुए कहा कि निकाय चुनाव में हिंसा के खिलाफ यह हड़ताल बुलायी गयी है।
उन्होंने कहा कि चुनाव के दौरान प्रजातंत्र की हत्या की गयी है। यदि निकाय चुनाव में इस तरह के हिंसक वारदात हो रहे हैं, तो फिर 2016 के विधानसभा चुनाव में क्या होगा। यह निरंतर जारी नहीं रह सकता है। इसका विरोध होना चाहिए।

इंटक के बंगाल इकाई के अध्यक्ष रमेन पांडेय ने कहा कि वे लोग प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी से आग्रह करेंगे कि कांग्रेस इस हड़ताल का समर्थन करे। उन्होंने कहा कि वे लोग हड़ताल का निश्चित रूप से समर्थन करेंगे। यह जारी नहीं रखा जा सकता है।  
प्रदेश एटक के सचिव नवल किशोर श्रीवास्तव ने कहा कि वे लोग भी हड़ताल का समर्थन कर रहे हैं। निकाय चुनाव में गणतंत्र की हत्या की गयी है। लोगों के प्रजातांत्रिक अधिकार का हनन किया गया है। इसका वे लोग लगातार विरोध जारी रखेंगे। इसी दिन परिवहन संगठनों ने परिवहन हड़ताल का भी आह्वान किया है। इस कारण आम लोगों को काफी असुविधा होने की आशंका है।

दूसरी ओर, तृणमूल कांग्रेस के महासचिव पार्थ चटर्जी ने हड़ताल का विरोध करते हुए कहा कि तृणमूल समर्थित सभी संगठन हड़ताल का विरोध करेगा।

मगर हम चेतेंगे थोड़े ही. हम जल विद्युत् परियोजनाएँ भी बनायेंगे और परमाणु संयन्त्र भी. प्रकृति चाहे केदारनाथ के बहाने बताये, चाहे काठमांडू के, हमारा विकास हर विज्ञान पर भारी पड़ता है.

Rajiv Lochan Sah
कल दोपहर से अपने साढू भाई अशोक ब मल्ल और उनके परिवार की कुशल के लिये चिंतित रहा और याद करता रहा २ वर्ष पहले स्वयं पोस्ट किये डॉ. विनोद कुमार गौड़ के इस इंटरव्यू को, जिसमें उन्होंने हिमालय में भूकम्प के खतरे और जैंतापुर परमाणु संयन्त्र आदि पर बातचीत की है.
अशोक भिनाजू से लगभग 18 घण्टों की मशक्कत के बाद सम्पर्क हो पाया और उनसे सुना कि कल रात कैसे पूरा काठमांडू सड़कों पर खड़ा रहा. सुबह के वक़्त वर्षा शुरू हो जाने के बाद ही लोग घरों में जाने की हिम्मत कर पाए.
मगर हम चेतेंगे थोड़े ही. हम जल विद्युत् परियोजनाएँ भी बनायेंगे और परमाणु संयन्त्र भी. प्रकृति चाहे केदारनाथ के बहाने बताये, चाहे काठमांडू के, हमारा विकास हर विज्ञान पर भारी पड़ता है.

नैनीताल के सिर पर एक ‘वाटर बम’

अपने शीर्षक से यह लेख अत्यन्त दिलचस्प या सनसनीखेज लग रहा होगा, मगर यह एक खतरनाक सच्चाई है जो आपके आसपास भी घट रही होगी. अगर आप अपने आसपास ऐसी विकास योजनाओं को बनते देख रहे हों, जिनकी आप को जरूरत नहीं थी और जिनकी आपने कभी माँग भी नहीं की थी, तो पता लगाइए. जरूरत पड़ने पर RTI का सहारा लीजिये. वह जरूर ADB की परियोजना निकलेगी. जन कल्याण के नाम पर बनाई जा रही ऐसी परियोजनाएं शिक्षा, स्वास्थ्य, लोनिवि, पर्यटन और न जाने कहाँ-कहाँ घुसी हुई हैं. इनमें एक रुपये का काम चार रुपये में हो रहा है, हमारे मुख्यमंत्री, मंत्री, राजनेता, नौकरशाह, एनजीओ, देशी-विदेशी कम्पनियाँ और छोटे-बड़े ठेकेदार मालामाल हो रहे हैं और हम पर तथा हमारी आने वाली पीढ़ियों पर अरबों रुपये का क़र्ज़ थोपा जा रहा है.



पूरे देश को कर्ज में डुबा देने वाली जो संस्थायें भारत में सक्रिय हैं, उनमें विश्व बैंक तथा एशिया डेवलपमेंट बैंक (ए.डी.बी.) का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। जहाँ तक उत्तराखंड का सवाल है, यहाँ पिछ...
NAINITALSAMACHAR.COM|BY पूरन मेहरा

केदार का मौन

पेशावर का महानायकः वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली दिनेश ध्यानी

पेशावर का महानायकः वीरचन्द्र

 सिंह गढ़वाली

दिनेश ध्यानी 

आज हम जिस आजादी में संास ले रहे हैं वह हमें ऐसे ही नही मिल गई थी इसके लाखों लोगों को अनेकों कुर्वानिंया दी यातनायें सही। लोगों ने सोचा था कि देश आजाद होगा हम आजाद होगें हमें अपना विकास और अपने तरीके से जीवन जीने के अवसर मिलेंगे लेकिन आजादी के बाद जिस तरह से देश का विभाजन हुआ वह भारतीय इतिहास में सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण रहा। देश के विभाजन को दंश आजादी के छः दशक बाद भी लोगों को चैन से नही रहने दे रहा है। आजादी के बाद जो अल्पसंख्यक पाकिस्तान में रह रहे हैं जिन्हौने तब देश की आजादी के लिए जंग लड़ी थी वे अपने ही देश में बंधुवा मजदूरों से भी बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। जब-जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है उन लोगों का जीवन नरक हो जाता है। हाल ही के दिनों में मुम्बई बम धमाकों के बाद वहां रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को लूटा जा रहा है उनकी बहू बेटियां सुरक्षित नही हैं। उन्हें कहा जा रहा है कि या तो मजहब बदलो या देश बदलो। वे लोग किससे से पूछें कि हमारा क्या कसूर है? क्या यही हमारा दोष है कि हम अपने देश में ही रहे? दिल्ली में बैठकर बंटवारा करने वाले क्या जाने के बलूस्तिान व पेशावर में रह रहे हिन्दू किस हाल में हैं और इस बंटवारे के बाद उनपर क्या कहर बरपेगा। यही हाल हिन्दुस्तान में भी था। बंटवारे के बाद भी कुछ लोग थे जिन्हें अपना वतन प्यारा था और वे अपने ही देश में ही रह गये लेकिन समय के साथ-साथ उनके जीवन और अस्तित्व पर संकट गहराता जा रहा है।कश्मीर समस्या हो या पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद हो ये कुछ ऐसे मसले हैं जो आजादी के बाद से हमेशा से हमारे लिए सरदर्द बने हुए हैं। लोगों ने कभी नही सोचा था कि आजादी के बाद हमें इस प्रकार की समस्याओं से दशकांे बाद तक दो-चार होना पडेगा। भारतीय स्वाधीनका संग्राम के स्वतत्रंता सेनानियों ने अपनी सर्वस्व को दंाव पर लगाकर यह आजादी दिलाई थी लेकिन आजादी के बाद काले अंग्रेजों ने उन क्रान्तिकारियों को भी जलील करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी। इसी प्रकार का दंश पेशावर की अमर क्रान्ति के जनक और प्रखर स्वतंत्रता सेनानी वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली को भी आजीवन झेलना पड़ा। लेकिन हिमालय का यह बेटा आजीवन अपने सिद्धान्तों के लिए लड़ता रहा लेकिन किसी के आगे झुका नही। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जिनका नाम आज देश से अधिक पेशावर और पाकिस्तान में बड़े सम्मान से लिया जाता है। लेकिन आजाद में उनके योगदान को काले शासकों ने अपनी राजनीति में बाधा समझकर हमेशा कम करके आंका और इस जांबाज सिपाही को कभी भी चैनी से नही रहने दिया। आज गढ़वाली जी इस संसार में नही हैं लेकिन आज भी उनके परिजन दर-दर की ठोकर खा रहे हैं किसी को उनकी सुध लेने की फुरसत नही है। उत्तराखण्ड में चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम से अनेकों सरकारी योजनायें चल रही हैं लेकिन गढ़वाली जी की अल्मोड़ा की पुस्तैनी जमीन के बदले कोटद्वार हल्ुदखत्ता में जो 60 बीघा जमीन लीज पर दी गई थी वह आज भी लीज पर है और कोटद्वार में होते हुए भी उसको परिसीमन में उत्तर प्रदेश में दिखाया गया है। उनके परिजनों की इस मांग को कि हमें इस जमीन के बदले में चाहे कम जमीन दे दो लेकिन हमें मालिकाना हक तो दो। इस बात पर किसी के कान पर जंू नही रेंगती है। अपने चेहतों को औने-पौंने दामों पर ऐकड़ों जमीन देने वाले राजनेता जानते हैं कि चन्द्रसिंह गढ़वाली के आज उनके लिए वोट बैंक नही हैं इसलिए उनके परिजनों की हालात को कौन समझे। गढ़वाली जी सहित कई वीर सैनिक हैं जिनके परिजनों को तथा जीवित स्वतत्रता सेनानियो ंको आज कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।लगभग 78 वर्ष पूर्व 23 अपै्रल 1930 को पेशावर में रायल गढवाल राइफल्स के वीर गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों के आदेश का उलंघन करते हुए पेशावर में अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे निहत्थे पठानों पर गोलियां चलाने से मना कर दिया था। गढ़वाली सैनिकों की अचानक इस बगावत से अंग्रेज शासकों की पांवों तले की जमीन खिसक गई। अंग्रेजी हुकूमत का हुक्म न मानकर गढ़वाली सैनिकों ने सैकड़ों निहत्थे पठानों की जान बचाई ही देश की आजादी के लिए लड़ रहे लोगों को एक दिशा भी दी। पेशावर की यह घटना देश के इतिहास में एक ऐसी घटना थी जिसके बारे में नेताजी सुभाषचन्द्र वोस ने कहा कि हमें आजाद हिन्द फौज सेना के गठन की प्रेरणा रायल गढ़वाल राईफल्स के जवानों की पेशावर की बगावत से मिला। अब देश को आजाद होने से कोई नही रोक सकता। तब महात्मा गांधी ने कहा था कि वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली यदि मुझे पहले मिल गया होता तो देश कब का आजाद हो गया होता। यह अलग बात है कि देश के आजाद होन के बाद कहते हैं कि गांधी जी से जब पेशावर की बगावत तथा उसके बन्दियों के बारे में पूछा गया तो तब गांधी जी ने कहा था कि पेशावर में 23 अपै्रल 1930 को गढ़वाली सैनिकों ने सर्वोंच्च सत्ता के खिलाफ बगावत की थी और बगावत बगावत होती है इसलिए हम इस बगावत को मान्यता नही देते हैं। यही कारण रहा कि सन् 1947 में देश आजाद हो गया लेकिन पेशावर के बहादुर सैनिकों को सरकार की तरफ से कुछ भी सहयोग या सम्मान नही मिला। सन् 1974 में जाकर इन वीर सैनिकों को स्वतत्रता सेनानियों का दर्जा दिया गया व 65 रूपये पेंशन तय की गई। तब तक कई वीर सैनिक दिवंगत हो चुके थे। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को जो पेंशन दी गई उन्हौंने उसे लेने से मना कर दिया था। असल में पेशावर में गढ़वाली वीर सैनिकों ने जो बगावत की उसकी योजना एकदम नही बनी। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली 11 सितम्बर 1914 को घर से भागकर लैन्सडौंन में 2/18 गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गये थे। अगस्त 1915 ई. में चन्द्र सिंह प्रथम विश्व युद्ध में मित्र देशों की ओर से लड़ने के लिए फ्रांस गये वहंा जब फ्रांसीसी हिन्दुस्तानी सैनिकों को मिलने लगे पुलिस द्वारा उन्हें रोक दिया। पूछने पर पता चला कि अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को बता दिया था कि हिन्दुस्तानी हमारे गुलाम हैं इसलिए तुम्हारे से ऐसा व्यवहार किया जा रहा है। अंग्रेज सेना में हिन्दुस्तानी सैनिकों को कम वेतन देते थे और अंग्रेज सैनिकों को उनसे पांच गुना वेतन देते थे। हिन्दुस्तानी सैनिकों को गुलाम समझते थे यही कारण था कि हिन्दुस्तानी ओहदेदार मामूली अंग्रेज सैनिकों को सल्यूट मारते थे। 1920 में गढ़वाल में अकाल पडा अंग्रेजों ने सेना में जो ओहदेदार थे उन्हें कहा कि यदि सेना में रहना है तो आम सिपाही बनकर रहो तथा पन्द्रह साल से कम नौकरी जिसकी भी थी सबकों सेना से निकाल दिया। इन सभी बातों का चन्द्र सिंह के मन पर काफी गहरा असर पड़ा और वे अंग्रेजों की सेना में रहते हुए देश की आजादी के लिए सोचने लगे। कहते हैं जहां चाह वहां राह चन्द्र सिंह सेना में जहां भी रहे वे देशकाल की घटनाओं से जुड़े रहे और समय-समय पर वे अखबार और लोगों के माध्यम से देश की आजादी के बारे में जानते सुनते रहे। इस बीच चन्द्र सिंह 1929 में गांधी जी के अल्मोड़ा आगमन पर उनसे भी मिले थे गांधी जी से चन्द्र सिंह ने एक टोपी मांगी और उसे पहनते हुए कहा कि मैं इस टोपी की कीमत चुकाकर रहंूगा। मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, पं. गोविन्द बल्लभ पंत, सरदार बल्लभ भाई पटेल आदि नेताओं से मिले थे। 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में एक वहां कांग्रेस के बैनर तले एक जलसे का आयोजन किया गया था जिसमें देश की आजादी के लिए लोग अपने नेताओं को सुनने के लिए हजारों की संख्या मंें उपस्थित थे। अंग्रेज फौजी शासकों ने अपनी पूर्व नियोजित षड़यंत्र के आधार पर पहले पेशावर में तैनात गढ़वाली सैनिकों को भड़काया कि यहां पेशावर में 98 प्रतिशत मुसलमान हैं और मात्र 2 प्रतिशत हिन्दू हैं। हिन्दू चूंकि व्यापारी हैं इसलिए मुसलमान उनकी दुकानें लूट लेते हैं तथा हिन्दुओं पर अत्याचार करते हैं। राम-कृष्ण को गालियां देते हैं गौ हत्या करते हैं।हिन्दुओं की बहू बेटियों को उठा ले जाते हैं गढ़वाली पल्टन को शहर जाकर हिन्दुओं की रक्षा करनी होगी और जरूरी हुआ तो मुसलमानों पर गोलियां भी चलानी पड़ेंगी। अंग्रेज अफसर के चले जाने के पर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने अपने साथियों को वस्तुस्थिति से अवगत कराया और कहा कि यह लड़ाई हिन्दू मुसलमान की नही है बल्कि यह अंग्रेजों और कांग्रेस की लड़ाई है। अंग्रेज हिन्दू-मुसलमानों के नाम पर पेशावर मंे दंगा कराना चाहते हैं। इसलिए चन्द्र सिंह ने अपनी कंम्पनी सहित तमाम गढ़वाली सैनिकों तक यह संन्देश पहुंचा दिया कि जब भी हमें पेशावर में निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने के लिए आदेश दिया जाये हम उसे न मानें। इसके लिए सैनिकों को तैयार करने में चन्द्र सिंह को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। जिन अंग्रेजों के अधीन वे नौकरी कर रहे थे उनके आदेश को खुद भी न मानना तथा बटालियनों को इसके लिए संयुक्त रूप से तैयार करना कितना जोखिम भरा काम था। जरा सी चूक होने पर कोर्ट मार्शल की सजा या गोली भी मारी जा सकती थी लेकिन चन्द्र सिंह के अन्दर तो देश की आजादी का जो जुनून उफन रहा था उसके मूल में कई कारण थे।22 अप्रैल को गढ़वाली सैनिकों को आदेश मिला कि उन्हें कल 23 अप्रैल को पेशावर जाना होगा। चन्द्र सिंह ने तत्काल पॉंचों कम्पनियों के पॉंच प्रमुख व्यक्तियों को बुलाया और उनके साथ विचार-विमर्श से गोली न चालने की योजना पास हो गई।23 अप्रैल, 1930 की सुबह कप्तान रिकेट 72 सैनिकों को लेकर पेशावर में किस्साखानी बाजार पहॅंुच गये। किसी व्यक्ति द्वारा शिकायत किये जाने पर चन्द्रसिंह पर सन्देह हो जाने के कारण कप्तान रिकेट उन्हें शहर नही ले गये। चन्द्र सिंह ने दूसरे अधिकारी से पेशावर में पहुॅंची सेना के लिए पानी ले जाने के बहाने पेशावर जाने की इजाजत ले ली और पानी लेकर पेशावर के लिए रवाना हो गये। पेशावर पहुॅंकर चन्द्रसिंह ने देखा कि पेशावर में हजारों की संख्या में लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। कैप्टेन रिकेट उन्हें वहां से हटने के लिए कह रहा है लेकिन कोई भी अपनी जगह से टस से मस नही हुआ। रिकेट चिल्ला रहा था कि हट जाओं नही तो गोलियों से मारे जाओगे। जनता उसकी धमकियों से भड़क गई और अंग्रेजों के ऊपर बोतलें आदि फेंकने लगी। रिकेट ने गढ़वाली सिपाहियों को आदेश देते हुए कहा गढ़वाली थ्री राउंड़ फायर, यानि गढ़वाली सैनिकों तीन राउंड़ गोली चलाओं तो तभी चन्द्र सिंह गढ़वाली ने कहा कि गढ़वाली सीज फायर यानि कि गढ़वाली सैनिकों फायर न करो। गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों अफसर के ऑर्डर को न मानते हुए अपने नेता चन्द्र सिंह गढ़वाली की बात को मानते हुए अपनी राइफलें नीचे रख दीं। चन्द्र सिंह ने कहा कि हम निहत्थे पठानों पर गोली नही चलायेंगे। हम देश की सेना में देश की रक्षा के लिए भर्ती हुए हैं न कि किसी निदोंर्ष की जान लेने के लिए। हम अपने पठान भाइयों पर किसी भी कीमत में गोली नही चलायेंगे चाहो तो हमें गोलियां से भून दो। तत्पश्चात गढ़वाली सैनिकों को छावनियों में लाया गया। 24 अप्रैल 1930 को पुनः इन सैनिकों को पेशावर में जाने के लिए कहा गया तो गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों के हुक्म को मानने से मना कर दिया था। तब पेशावर में अंग्रेज सैनिकों को बुलाकर निहत्थे प्रदर्शनकारियेां पर गोलियां चलवाई गई। पेशावर की इस बगावत में 67 गढ़वाली सैनिकों पर मुकदमा चलाया गया और उनमें से कईयों को काला पानी की सजा व आजीवन कारावास हुआ। 12 जून 1930 को रात में चन्द्र सिंह को एकटाबाद जेल में भेज दिया गया। चन्द्रसिंह कई जेलों में यातनाएॅं सहते रहे। नैनी जेल में उनकी भंेट क्रान्तिकारी राजबन्दियों से हुई। लखनऊ जेल में उनकी मुलाकात सुभाष चन्द बोस से हुई। चन्द्रसिंह कहते थे कि जेल में जो बेड़ियां हाथ पांवों में लगी हैं वे मर्दों के जेवर होते हैं। चन्द्र सिंह गढ़वाली को सबसे पहले कालापानी की सजा व कोड़ों की सजा हुई क्योंकि अंग्रेज मानते थे कि पेशावर की बगावत चन्द्र सिंह के ही कहने पर हुई थी। गढ़वाल के प्रसिद्ध वैरिस्टर मुकुन्दीलाल जिन्हौंने गढ़वाली सैनिकांे का केस लड़ा उनका कहना है कि कमांड़र-इन-चीफ स्वंय चाहते थे कि संसार को यह पता न लेगे कि भारतीय सेना अंग्रेजों के विरूद्ध हो गई है इसलिए उन्होंने मेरी ओर ध्यान न देकर चन्द्रसिंह की मौत की सजा को आजन्म कारावास की सजा में बदल दिया। 23 अप्रैल को सैनिक बगावत हुई लेकिन अंग्रेजों ने बगावत का केस दर्ज नही किया वे जानते थे कि यदि बगावत का केस दर्ज होगा तो देश में जो आन्दोलन चल रहा है उसमें यह आग में घी का काम करेगा। इसी आधार पर उन्हें बन्दी बनाया गया। लेकिन देश की जनता 23 अप्रैल 1930 की सैनिक बगावत के बारे में जान चुकी थी कई अखबारों में इस खबर को छापा। यह अलग बात है कि देश के इतिहास में पेशावर की बगावत को उतना महत्व नही दिया गया जिस प्रकार से यह कं्रान्ति हुई थी। पंड़ित जवाहर नेहरू ने अपनी एक पुस्तक मंे लिखा है कि पेशावर में गढ़वाली सैनिकों ने सैनिक बगावत इसलिए की थी कि वे जानते थे कि देश आजाद होने वाला है और उनके खिलाफ किसी प्रकार की कठोर कार्यवाही नही की जायेगी। इससे जाहिर होता है कि देश की लिए अपनी जान को दांव पर लगाने वाले वीर सैनिकांें की उस समय भी नेताओं की नजर में कोई कीमत नही थी। जो सैनिक अंग्रेजों के अधीर नौकारी कर रहे थे उनके खिलाफ सशस्त्र बगावत करना आम बात नही थी। अंग्रेज चाहते तो गढ़वाली सैनिकों को पेशावर में गोलियों से भून देते कोई उस समय पूछने वाला नही था। फिर गढ़वाली सैनिक जानते थे कि इस बगावत का अंजाम कुछ भी हो सकता था। लेकिन नेहरू जी की बातों से लगता है उस समय भी देश की आजादी को नेता राजनीति के चश्मे से देखने लगे थे। चन्द्र सिंह गढ़वाली को सन् 1945 में जेल से रिहा कर दिया गया लेकिन उनके गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जेल में क्रान्तिकारी यशपाल से परिचय होने से जेल से बाहर आने के बाद गढ़वाली जी कुछ दिन लखनऊ में उनके साथ रहे। उसके बाद वे हल्द्वानी आ गये।1946 में चन्द्र सिंह ने रानीखेत में भंयकर अकाल से पीड़ित लोगों की मदद से सरकारी गल्ले के भण्डार को जनता में बांट दिया। इससे स्थानीय प्रशासन नाराज हुआ लेकिन गढ़वाली जी ने कहा कि एक तरफ हमारी जनता भूख से मर रही है और तुम हमारे हिस्से के अनाज को ब्लैक में बेच रहे हो। रानीखेत में अंग्रेजों की बटालियनें थी उनके लिए पानी का समुचित प्रबन्ध था लेकिन स्थानीय लोगों को काफी परेशानी होती थी गढ़वाली जी ने लोगों की पानी की समस्या का भी समाधान कराया। दिसम्बर 1946 को चन्द्र सिंह ने गढ़वाल में प्रवेश किया गढ़वाल की जनता ने उन्हें सर ऑंखों पर स्थान दिया और जगह-जगह उनका भव्य स्वागत हुआ। चूंकि गढ़वाली जी 1944 में पक्के कम्युनिस्ट बन गये थे इसलिए गढ़वाल के कांग्रेसी उनके स्वागत सत्कार को पचा नही पाये इसलिए उनका विरोध करना शुरू कर दिया।सन् 1948 में टिहरी में राजशाही के खिलाफ लड़ने वाले अमर वीर नागेन्द्र दत्त सकलानी के शहीद हो जाने के बाद वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जी ने टिहरी आन्दोलन का नेतृत्व भी किया। सरकार को आशंका हो गई थी कि चन्द्रसिंह जिला बोर्ड के चेयरमैन का चुनाव लड़ना चाहते हैं इसलिए सरकार ने उन्हें पेशावर का सजायाफ्ता बताकर जेल में ड़ाल दिया। कुछ माह बाद जेल से छूटने के बाद गढ़वाली जी ने गढ़वाल में शराब के खिलाफ आन्दोलन भी किया इसमें कोटद्वार की इच्छागिरि मांई जिन्हंे लोग टिंचरी मांई के नाम से जानते थे उनका भी अहम योगदान रहा। और इसमें उन्हें काफी सफलता भी मिली।सन् 1947 में देश आजाद हो गया। नेहरू जी आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बन गये थे, चन्द्र सिंह गढ़वाली उनके पास पेशावर के सैनिकों की पेंशन के बारें में मिलने आये और उनसे पेशावार के स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन के बारे में कुछ करने का आग्रह किया तथा कहा कि पेशावर की क्रान्ति को राष्ट्रीय पर्व समझा जाये जीवित सैनिकों को पेंशन तथा मृत सैनिकों के परिजनों को आर्थिक सहयोग दिया जाय, तो नेहरू जी क्रोध में उबल पड़े और बोले कि मान्यवर तुम यह कैसे भूल जाते हो कि तुम बागी हो। पंड़ित मोतीलाल नेहरू ने अपने अन्तिम दिनों में जवाहर लाल नहेरू से कहा था कि गढ़वाली सैनिको को मत भूलना। जवाहर लाल नेहरू ने जो टिप्पणी गढ़वाली सैनिकों के लिए की थी उसका विरोध वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने उनसे किया और उन्हंे बताया कि गढ़वाली सैनिकों ने वही काम किया जो उन्हें देश हित में अपना फर्ज दिखा इसके जो मतलब आप निकाल रहे हैं वह सरासर गलत और पेशावर की बगावत के महत्व को कम करना ही है।देश की अस्मिता और आजादी को नेताओं ने किस कदर अपनी कुंठा का शिकार बनाया इसका जीता जागता उदाहरण हमारे सामने आज कश्मीर है। आजादी के बाद जब देसी रियासतों का भारत में सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा विलय कराया जा रहा था लेकिन कश्मीर को नेहरू जी ने आसानी से भारत में मिलाने नही दिया और कश्मीर का मसला आज भी देश के लिए नासूर बना हुआ है। इस बात को आम हिन्दुस्तानी जानता है कि अगर अन्य रियासतों की तरह उस समय कश्मीर को भी भारत में मिलाने दिया जाता तो आज हजारों निरीह लोगों की जान न गंवानी पड़ती तथा देश के लिए हमेशा का यह सरदर्द नही होता। सन् 1951-52 में देश में नये संविधान के अनुसार चुनाव कराये गये। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली ने गढ़वाल से कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा तो उन्हें पेशावर का बागी होने के दोष में आजाद भारत की सरकार ने बंदी बना दिया तथा महीनों तक जेलों में यातनायें दी। जिस आदमी ने देश की आजादी के लिए अपने सर्वस्व को दॉंव पर लगा दिया उसे देश की आजादी के बाद भी यातनायें दी गईं उनको कई बार बे-वजह गिरफ्तार करके जेल में ड़ाला गया। अपने मित्रों के सहयोग से गढ़वाली जी ने चुनाव लड़ा और बिना संसाधनों के 7714 वोट लिये जबकि विजयी प्रत्याशी को 10000 वोट मिले।पेशावर की सैनिक बगावत को देश की आजादी के बाद भी उतना महत्व नही दिया गया जिस तरह से इसे दिया जाना चाहिए था यही कारण रहा कि अपनी राजनीति चमकाने वाले समय-समय पर वीर चन्द्र सिंह जैसे देश भक्तों के लिए नारे तो लगाते रहे लेकिन देश की आजादी के बाद भी पेशावर के बागी सैनिकों को दोयम दर्जे की जिन्दगी गुजारनी पड़ी। जिन वीरों ने देश की आजादी के लिए एक लौ जलाई और देश की आजादी को एक नई दिशा दी उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया गया। चन्द्रसिंह गढ़वाली में ऐ सेनानायक के सभी गुण विद्यमान थे। उनका जीवन संर्घषमय रहा। उन्हौंने देश सेवा एंव समाज सेवा का कार्य बड़ी कर्तव्य-परायणता के साथ निभाया। गांधी जी ने उनके बारे मंे कहा कि अगर मुझे एक गढ़वाली और मिल गया होता तो देश कब का आजाद हो गया होता। चन्द्रसिंह गढ़वाली के पेशावर सैनिक विद्रोह ने हमें आजाद हिन्दे फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी। वहीं बैरिस्टर मुकुन्दीलाल जी के शब्दों में चन्द्रसिंह गढ़वाली एक महान पुरूष हैं। आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है। पेशावर कांड का नतीजा यह हुआ कि अंग्रेज समझ गये कि भारतीय सेना में यह विचार गढ़वाली सिपाहियों ने ही पहले पहल पैदा किया कि विदेशियों के लिए अपने खिलाफ नही लड़ना चाहिए। यह बीज जो पेशावर में बोया गया था उसका परिणाम सन् 1942 में सिंगापुर में देशभक्त हजारो गढवाली नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने आ गये थे। प्रसिद्ध विचारक एवं महाने लेखक राहुल सांकृत्यायन के अनुसार पेशावर का विद्रोह विद्रोहों की एक श्रृंखला को पैदा करता है जिसका भारत को आजाद करने में भारी हाथ है। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली इसी पेशावर-विद्रोह के नेता और जनक हैं।वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली आजीवन यायावर की भांति घूमते रहे। आजादी से पहले तो अंग्रेज शासकों ने उन्हें तरह-तरह की यातनायें दी लेकिन आजादी के बाद भी उनका कोई ठिकाना न रहा और वे समाज के कार्यों में सदा ही लगे रहे। देश के आजाद होने के बाद भी गढ़वाली जी कभी कोटद्वार कभी चौथान गढ़वाल में अनेकों योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए लड़ते रहे लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने हमेशा उन्हें परेशान ही किया। असल में कांग्रेसी चाहते थे कि गढ़वाली जी काग्रेस में रहें लेकिन गढ़वाली जी पहले तो साधारण आर्यसमाजी थे लेकिन बाद में वे पक्के कम्युनिस्ट बन गये। और आजीवन कम्ुयनिस्ट पार्टी के कार्ड़ होल्डर ही रहे। गढ़वाली जी के सामाजिक जीवन का खामियाजा उनके परिवार को उठाना पड़ा। जब जेल में थे देश गुलाम थ तब उनकी पत्नी भागीरथी देवी बच्चों को लिये दर-दर की ठोकरें खाती रहीं और तो और इतने बड़े स्वतत्रता सेनानी की पत्नी को कई बार लोगों के जूठे वर्तन तक साफ करने पड़े और लोगों दया पर आश्रित रहना पड़ा। आजादी के बाद भी गढ़वाली जी दिन रात देश और समाज के बारे मे ंसोचते रहेत थे। उनका सपना था कि कोटद्वार गढ़वाल में जहां कण्वऋर्षि का आश्रम था और जहां महाराजा भरत का जन्म हुआ वहां भरत नगर बसाया जाय और उनके गांव चौथान के गवणी में तहसील बने तथा चन्द्रनगर जिसे आज गैरसैंण कहा जाता है वहां उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी बने। गढ़वाली जी रामनगर से चौथान, दूधातोली रेलमार्ग बनाने के लिए भी प्रयासरत रहे लेकिन सत्ता की राजनीति तथा उनका कम्ुयनिस्ट होना ही उनके लिए एक तरह से अभिषाप रहा। कल तक नेहरू सहित जो नेता उन्हें बड़ा भाई कहते थे वे आज उनकी तरफ देखना भी नही चाहते थे। आज भारत का यह वीर योद्धा किसी के लिए वोट बैंक नही बन सका। यही कारण रहा कि आजादी के बाद भी चन्द्र सिंह गढ़वाली जी को दर-दर भटकना पड़ा। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म जिला पौड़ी गढ़वाल के चौथान पट्टी के रैणूसेरा गांव में 25 दिसम्बर 1891 में ठाकुर जाथल सिंह के घर हुआ। चन्द्रसिंह बचपन से शरारती तथा तेज स्वभाव के थे इसलिए लोग इन्हें भड़ कहकर पुकारते थे। चन्द्र सिंह ने गांव में ही दर्जा चार तक पढ़ाई की। चन्द्रसिंह गांव में सैनिकों को देखकर सेना में भर्ती होना चाहते थे लेकिन मां-बाप नही चाहते थे कि वे भर्ती हो इसलिए 3 सितम्बर सन् 1914 में घर से भागकर लैन्सड़ौन में सेना में भर्ती हो गये। 15 जून 1915 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चन्द्रसिंह मित्र देशो की सेना के साथ फ्रांस के मोर्चे पर गये थे। 1917 को वे तुर्कों के खिलाफ सीरिया, रमादी तथा तथा बसरा के मोर्चों पर भी लड़ने के लिए गये। सन् 1920 में गढ़वाली जी की कम्पनी को वजीरिस्तान के बार्ड़र पर भी लड़ाई में भेजा गया। देश में तथा देश क बाहर गढ़वाली जी अनेकों बार अपने जौहर दिखा चुके थे। लेकिन इसबीच देश प्रेम का अंकुर भी अन्दर ही अन्दर पलता रहा जो 23 अपै्रल 1930 को पेशावर की सशस्त्र बगावत के रूप में सामने आया। प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स से लगभग 13000 जवानों ने अपनी कुर्वानी दी, दो विक्टोरिया क्रास और बाद में फिर कहीं जाकर 1921 में इसे रॉयल गढ़वाल राइफल्स का खिताब मिला। पेशावर की बगावत के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली अपने सिद्धान्त के लिए हिमालय की तरह अटल थे। आजीवन उन्हौंने अपने सिद्धान्तों से समझौता नही किया। हिमालय का यह अटल सिद्धान्तवादी लौह पुरूष अपने सिद्धान्तों के लिए लड़ते हुए 1 अक्टूबर 1979 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में मानव देह को त्यागकर परमधाम को चला गया लेकिन उनके विचार और सिद्धान्त हमेशा देश और समाज को आगे बढ़ने तथा गरीब और लाचार लोगोें की आवाज बनने की प्रेरणा देते रहेंगे।

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मंडल आयोग व ओबीसी चळवळ

मंडल आयोग व ओबीसी चळवळ

मंडल आयोग म्हणजे काय? याचे सरळ उत्तर द्यायचे झाल्यास, मंडल आयोग हा धर्मामुळे मृतप्राय झालेल्या ओबीसीचा, त्यांची सामाजिक, सांस्कृतिक व राजकीय क्षती बघण्याचा आरसा होय. ओबीसीमध्ये  सामाजिक व राजकीय मागासलेपणाचा प्रतिशोध घेण्याची मानसिकता निर्माण करण्याचे कार्य करण्याबरोबरच जातीव्यवस्था व उच्चवर्णीयांचा सांस्कृतिक दहशतवाद हाच आमच्या मागासलेपणाच्या दुरावस्थेला कारणीभूत असल्याची जाणीव प्रथमताच मंडल आयोगामुळे झाली.


अशा मंडल आयोगाची स्थापना जनता सरकारने १९७८ साली बि.पी.मंडल यांच्या अध्यक्षतेखाली केली होती. मागासवर्गीयाच्या (ओबीसीच्या) हितरक्षनार्थ असलेल्या आयोगाने १९८० मध्ये आपला अहवाल सादर केला होता. परंतु अल्पावधीतच जनता सरकार पडले. त्यानंतर श्रीमती इंदिरा गांधी व राजीव गांधी  प्रधानमंत्री झाले परंतु या दोघाही प्रधानमंत्र्यांनी मंडल आयोगाचा अहवाल थंड्या बासनात बसविला होता. १९८९ साली जनता दलाचे सरकार सत्तेवर आल्यानंतर देवीलाल व भाजपने निर्माण केलेली कोंडी फोडण्यासाठी व त्यावर मात करण्यासाठी  प्रधानमंत्री व्ही.पी.सिंग यांनी राम मनोहर लोहिया व जयप्रकाश नारायण यांची स्वपने पूर्ण करावयाची आहेत असे सांगत संसदेमध्ये मंडल आयोग लागू करण्याची घोषना केली. मंडल आयोग लागू करण्याचे श्रेय जसे व्ही.पी.सिंग यांना द्यावे लागते. तसेच श्रेय बहुजन समाज पक्षाचे अध्यक्ष मा.कांशीराम यांच्याही वाट्याला जाते. मंडल आयोग लागू व्हावा म्हणून देशभर प्रचारसभा, पदयात्रा काढून व्याख्यान देत फिरणारे मा.कांशीराम ही त्या काळातील एकमेव व्यक्ती होती. ते काहीही असो, परंतु आज ओबीसी समाजाला सामाजिक ऐक्यता व राजकिय बळ प्राप्त झाले ते मंडल आयोगामुळेच.
मंडल आयोगाच्या अंमलबजावणी नंतरच विघटीत मागास जाती ह्या "ओबीसी" ह्या एका शब्दाच्या आवरणाखाली एकवटलेल्या दिसतात. परंतु त्याची प्राथमिक सुरुवात भारतीय घटनेमध्ये अंतर्भूत केलेल्या ३४० कलमानव्ये १९५० नंतर झाली. भारतीय संविधानातील ३४० व्या कलमानुसार अनु.जाती व जनजाती व्यतिरिक्त सामाजिक व आर्थिक दृष्ट्या मागास जाती या देशात सहवास करतात. या जातींचा शोध घेणे व त्यांचा दर्जा उंचावण्यासाठी विविध सवलती देण्यात यावे असे त्यात नमूद करण्यात आले होते. हा "इतर मागासवर्ग" कोण? याचा शोध घेण्यासाठी एका आयोगाची नेमणूक करण्याचा सल्ला देण्यात आला होता. बाबासाहेबांनी घटनेत अंतर्भूत केलेले ३४० कलम व त्यानुसार आयोग स्थापण्यास अनेकदा सल्ला देऊनही जवाहरलाल नेहरू कडून होणारी टाळाटाळ बघून आंबेडकरांनी दबावतंत्राचा भाग म्हणून  नेहरू मंत्रिमंडळातून आपल्या मंत्रीपदाचा राजीनामा दिला. बाबासाहेबांच्या ह्या दबावानुसारच १९५३ साली नेहरू सरकारकडून प्रथमच मागास आयोगाची नेमणूक करण्यात आली. ह्या सगळ्या घटनाक्रमानुसार डाक्टर बाबासाहेब आंबेडकर हे "ओबीसी" ह्या शब्दाचे जनक तर ठरतातच परंतु त्याहीपेक्षा ओबीसींचे "उपकारकर्ते" ह्या भूमिकेत अधिक दिसतात.
काका कालेलकर हे त्या इतर मागास आयोगाचे प्रथम अध्यक्ष होते. या आयोगाला अनु.जाती/जमाती वगळता 'अन्य मागास जाती' कोणत्या? याचे निकष ठरवून 'अन्य मागास जातीची' यादी बनविण्याचे काम सोपविण्यात आले होते. कालेलकर आयोगाने १९५५ साली २३९९ जातीची यादी तयार केली. हे जातीघटक एकुण लोकसंख्येच्या ३२% होते. १९६५ मध्ये कालेलकर रिपोर्ट संसदेच्या पटलावर ठेवण्यात आल्यानंतर मागासवर्ग या शब्दाची व्याख्या, समाज, व्यक्ती व जात हे निकष मान्य नसल्याचे कारण दाखवून तो फेटाळण्यात आला. या शिफारसी रद्द होण्याला कालेलकर स्वत:च जबाबदार होते. राष्ट्रपतीला स्वतंत्र पत्र लिहून स्वत:च्याच सिफारसिशी असहमती दाखवून अहवालच नाकारण्याची त्यांनी मागणी केली होती. कालेलकर आयोगाने स्पष्ट म्हटले होते की, स्वत:च्या मागासलेपणासाठी ह्या जातीच जबाबदार आहेत. या जातीना सरकारी नोकऱ्या देणे चूक असून अशा आरक्षणामुळे जातीव्यवस्था अधिक बळकट होईल, असे त्यांनी जोडलेल्या पुरवणी पत्रात म्हटले होते. एकूणच देशाच्या जातीय साच्यात सुधारणा व्हाव्या हे कालेलकराना मान्य नव्हते. उच्चवर्णीयांची वर्चस्ववादी व्यवस्था कायम राहावी हाच त्यांचा अंतस्थ हेतू दिसतो.

जनता सरकारने बि.पी.मंडल यांच्या अध्यक्षतेखालील नेमलेल्या आयोगाने इतर मागास समाजाची यादी तयार करण्यासाठी सामाजिक, शिक्षण व आर्थिक या प्रश्नावर ११ मुद्याची बिंदुवली तयार केली होती. आयोगाने हिंदू धर्मियाबरोबरच इतर धर्मातील मागास, की ज्यांचा परंपरागत व्यवसाय हा हिंदू धर्मियासारखाच आहे अशांचाही विचार केला. हा आधार घेवून आयोगाने ३७४३ जातीना मागास गटात प्रविष्ठ केले. अशा जातीची संख्या एकूण लोकसंख्येच्या ५२ टक्के होती. कालेलकर आयोगाने प्रस्तुत केलेले प्रमाण ३२ टक्के तर राष्ट्रीय नमुना सर्वेक्षणने दिलेले प्रमाण ४० टक्के होते. मंडल आयोगाला ब्राम्हनवाद्यांनी व त्यांच्या समर्थकांनी मुद्दामच वादग्रस्त बनविले होते. देशभरात दौरे करताना आरक्षण विरोधी गटाना मंडल आयोगाने प्रश्न केला की, तुम्ही मागास समाजाच्या आरक्षणाला विरोध करता, मग तुम्ही मैला साफ करणाऱ्या दलितांच्या शंभर टक्के आरक्षणाला का विरोध करीत नाही? तुम्ही दलीतातील विद्वानांना पंडिताचा दर्जा देण्याची मागणी का करीत नाही?.

व्ही.पी.सिंग सरकारने १९९० मध्ये मंडल आयोग लागू करण्याची घोषणा केली. त्यात ओबीसीना २७ टक्के आरक्षण देण्याची तरतूद होती. हे प्रमाण सर्वोच्च न्यायालयाने १९६३ मध्ये बालाजी केस संदर्भात,  आरक्षणाचे एकूण प्रमाण हे ५० टक्के पेक्षा जास्त असता कामा नये या निवाड्याच्या मर्यादेला अनुसरून होते. परंतु देशात ५२ टक्के लोकसंख्या असलेल्या ओबीसींना २७ टक्के आरक्षण हे तुटपुंजेच म्हणावे लागेल.   

मंडल कमिशन लोगु होण्याची घोषणा झाल्याबरोबर देशात विरोधाचा आगडोंब उसळला होता. या विरोधाला देशातील प्रिंट तसेच इलेक्ट्रानिक मिडीयांनी सुध्दा उचलून धरले होते. पोलिसांचाही आंदोलनकर्त्यांना सहयोगच होता. कारण विद्यार्थी संघटनाकडून "अंदर की बात है, दिल्ली पोलीस हमारे साथ है" असे नारे लावण्यात येत असत. या आंदोलनाची विषेशत: म्हणजे आंदोलनकर्त्याकडून केवळ "दलित जातीना" लक्ष्य केल्या जात होते. ज्या ओबीसी जातीना आरक्षण लागू झाले होते त्या जाती ह्या कोसो दूर होत्या. काही ठिकाणी तर ओबीसी तरुणच या आंदोलनात सहभागी झाले होते. मंडलाधारित आरक्षण हे आमच्या साठी नसून ते दलीतासाठीच आहे असी ओबीसी समाज व ओबीसी विद्यार्थ्यांची मनोभूमिका बणली होती. हा एक ओबीसी जातीचा व नेत्यांच्या अज्ञानाचा कळसच होता. मागास जाती ह्या भारतीय जनता पक्ष्याची(भाजप) व्होटबँक असल्यामुळे ते ओबीसी आरक्षणाला विरोध करू शकत नव्हते. म्हणून भाजपाने तिरपी चाल खेळली. मंडल आयोगाचा मुद्दा उपस्थित होताच कारसेवा सुरु करून राम जन्मभूमीचा मुद्दा उचलला व व्ही.पी.सिंग सरकारचा पाठिंबा काढून घेतला.

भारत सरकारने अनु.जाती व जमाती आयोगाप्रमाणे ३४० व्या कलमानुसार "राष्ट्रीय मागास आयोगाची" स्थापना केली आहे. हा आयोग म्हणजे एक प्रकारे न्यायालयच असते. जातीनिवडी मध्ये त्याची भूमिका ही शेवटची असते. १९३१ साली ब्रिटीश सरकारने दूरदृष्टी दाखवीत जातीनिहाय जनगणना केली. परंतु स्वातंत्र्यानंतर मागास जातींची नेमकी टक्केवारी किती? हे माहिती होण्यासाठी जातीगत जनगणनेची गरज आहे. परंतु सरकार ते जातीय जनगणना करू इच्छित नाही. देशांतर्गत दर दहा वर्षांनी होणाऱ्या जनगणनेत जातीचे दोन किंवा तीन रकाने ठेवण्यास सरकार का घाबरते? हा एक गंभीर प्रश्न आहे. जातीनिहाय राष्ट्रीय जणगननेशिवाय जातीनिहाय आरक्षण हे १९३१ च्या जनगणनेच्या आधारावर लागू करने हे गैरलागू असून ते उच्च जातीचे षडयंत्र आहे. राष्ट्रीय मागास आयोगाने ओबीसीच्या यादी मध्ये कोणत्या जातीचा समावेश करावा यासाठी नीती निर्धारित केली आहे. जातीची निवडप्रक्रिया ही कठोर परीक्षणाची असली पाहिजे. अनेक जात समूहांनी आयोगासमोर आमच्या जाती "मागास" असल्याचा दावा केला. आतापर्यंत अर्ज केलेल्या ११२३ जातीपैकी ६७५ जातीना ओबीसीच्या मध्यवर्ती सूचित समाविष्ठ करण्यात आले तर ४४८ जातीचे अर्ज फेटाळण्यात आले.

मंडल कमिशन लागू झाल्यानंतरच्या काळात ओबीसीमध्ये राजकीय जागृती मोठ्या प्रमाणात झाली. अनेक राज्यात "ओबीसी नेते" असे लेबल लागलेले पुढारी निर्माण झाले. ओबीसींचे स्वत:चे पक्षही स्थापन झाले. तामिळनाडू व कर्नाटक हे राज्य मात्र अपवाद आहेत कारण या राज्यांचा ओबीसी राजकारणाचा इतिहास हा मंडलपुर्वीचा आहे. उत्तर भारतात मात्र लालूप्रसाद यादव, मुलायमसिंग, नितीशकुमार, शरद यादव या ओबीसी नेत्यांचा उदय झाला तर महाराष्ट्रात गोपीनाथ मुंडे, कर्मवीर जनार्धन पाटील यांचे नाव घेता येईल.
मंडलचा आवेश उत्तर भारतात जसा राजकारणात व समाजकारणात दिसला तसा तो महाराष्टाच्या कोणत्याही पटलावर दिसला नाही. महाराष्ट्रात ओबीसी राजकारण यशस्वी होत नाही याचे कारण म्हणजे वेगवेगळया जाती समुहाची वर्चस्ववादी जातीय मानसिकता. महाराष्ट्राच्या लोकसंख्येत तीस टक्क्यांहून अधिक वाटा या ओबीसीं जातिसमूहांचा असला तरी तो प्रस्थापित राजकीय वर्चस्वाला आव्हान देवू शकत नाही. महाराष्ट्रात मुख्यत: कुणबी, माळी व तेली ह्या प्रभावशाली जाती ओबीसी घटक आहेत. आंबेडकरी समाजाप्रमाणे सर्वमान्य ओबीसीचे स्वतंत्र नेतृत्व महाराष्ट्रात निर्माण होवू शकले नाही. हा जातीवादी चेहऱ्याचा परंतु पुरोगामी टेंभा मिरविणाऱ्या महाराष्ट्राचा चांगुलपणाच आहे. उच्चवर्णीयांच्या वापरात येणारे छगन भूजबळ व गोपीनाथ मुंडे हे केवळ वर्चस्ववादी जातीसमुहाचे शिलेदार होते. महात्मा फुले, शाहू महाराज व बाबासाहेब आंबेडकर यांचा वारसा चालविण्याची धमक आजच्या कोणत्याही ओबीसी राजकीय नेत्यामध्ये नाही.

जात ही एक महत्त्वाची राजकीय वर्गवारी महाराष्ट्राच्या राजकारणात व समाजकारणात पुढे आलीआहे. त्याचा परिणाम म्हणून जातीच्या आधारे सामाजिक व राजकीय संघटन बांधण्याचे प्रयत्न मोठ्या प्रमाणावर सुरू झाले. काही का असेना, शिक्षित व नोकरदार ओबीसी वर्गाच्या संघटना व विचारवंत फुले-शाहू- आंबेडकरांचा विचार ओबीसीच्या घरात पोहोचवू लागले आहेत. आपल्यावर कोणीतरी बौद्धिक राज्य गाजाविते याची जाणीव झाली मुख्यत्वे मा.म.देशमुख, हनुमंत उपरे (बुद्धवासी), जैमैनि कडू, नागेश चौधरी, श्रावण देवरे, प्रदीप ढोबळे व राजाराम पाटील यांना झाली. आजची ओबीसी तरुण कार्यकर्त्यांची नवी वैचारिक फळी ही भारतातील समाजसुधारनावादी विचारवंताचे विचार वाचते, ऐकते व समजून घेते. जाती प्रथेवर आधारित श्रेष्ठ कनिष्ठत्वाची समाज व्यवस्थाच आपल्या दुरावस्थेस कारणीभूत आहे, हे ओबीसींना कळले आहे. 1985 पर्यंत मंडल आयोगाच्या अंमलबजावणीस ठाम विरोध करणाऱ्या मराठा जात संघटनांनी अचानक आरक्षण मागणे सुरु केले. आपला अभिमान मागे टाकून मराठा व कुणबी एकच कसे आहेतशिवाय सर्व मराठे हे मुळात कुणबीच आहेत त्यामुळे आम्ही ओबीसी आहोत असा युक्तिवाद मराठा जात संघटनां करू लागल्या. परंतु ओबीसी समाजाच्या शिक्षित तरुण पिढीने मराठा समाजाची "ओबीसी समुहात" समाविष्ठ करण्याची केलेली मागणी धुडकावून लावीत विरोधाची आंदोलने केलेली आहेत.

ओबीसी राजकारणाचा परिणाम म्हणून उत्तर भारतात उच्च ब्राम्हण जाती राजकीय पटलावरून ५० टक्क्यांनी खाली घसरल्या. संसदेतील ओबीसी खासदारांची संख्या १९९६ पर्यंत २५ टक्क्यांनी वाढली तर उच्च जातीय खासदारांचे प्रमाण ४७ टक्क्यावरून ३५ टक्केपर्यंत खाली घसरले ( जेफरलाट २००३). उत्तर प्रदेश व बिहारमधील राजकारण हे यादव जातीभोवती फिरत असते. त्याचा परिणाम असा दिसतो की पक्ष कोणताही असो मुख्यमंत्री हा ओबीसीच असने निकड झाले आहे. ही मंडल आयोगाने केलेली सामाजिक क्रांतीच नव्हे काय?. ओबीसींचा निर्माण झालेला हा राजकीय फोर्स उच्च जाती घटकासाठी धोकादायक होता. ओबीसीच्या चेतनेमुळे राजसत्तेची सूत्रे एकेक हातून निसटण्याची प्रक्रिया सुरु असतानाच तिला संसदेतील महिला प्रतिनिधित्वाच्या नावाखाली रोखण्याच्या हालचाली सुरु झाल्या. संसदेमध्ये कधीतरी महिला बिल पास होवून ५० टक्के उच्चवर्णीय महिलांचा संसदेतील मार्ग मोकळा करण्यात येईल. असे होणे म्हणजे मंडल आयोगाने पेरलेले समान समाजव्यवस्था निर्मितीच्या बीजाला जमिनीमध्येच मारून टाकल्यासारखे होईल.


बापू राऊत

९२२४३४३४६४

ধনী দেশে বড় ভূমিকম্প হলেও মানুষ বেঁচে যায়, আর গরিব দেশের ছোট ভূমিকম্পও মানুষকে রেহাই দেয় না।

ভূমিকম্প, শুনেছি, অনেকে নাকি টের পায় না। ভূমিকম্প হয়েছে, আর আমি টের পাইনি, এমন ঘটেনি। টের পাওয়াটা একেক জনের বেলায় একেক রকম। কিছু লোক আছে আবার বেশি টের পায়। ভূমিকম্প না হলেও বলে, ভূমিকম্প। ছোটবেলায় আমার বাবা শিখিয়েছিলেন, ভূমিকম্প হওয়ার সঙ্গে সঙ্গে ঘর থেকে বেরিয়ে যাবে, খোলা জায়গায় গিয়ে দাঁড়াবে, ভূমিকম্প মানুষকে মারে না, মারে ঘরবাড়ির ধ্বস।
বাবার কথাটা প্রতিবারই স্মরণ করি, যখন ভূমিকম্প হয়। কিন্তু দৌড়ে ঘর থেকে একবারও আমার বেরোনো হয় না। ঘরেই হাঁটাহাঁটি করি আর ভাবি, শুধু শুধু দৌড়োদৌড়ির কী দরকার, এই তো কম্পন থেমে যাচ্ছে বা যাবে। ভূমিকম্প কোনও ক্ষতি করতে পারবে না, এমনভাবে দালানকোঠা বানানো হচ্ছে আজকাল। অবশ্য বানানো হচ্ছে ধনী দেশে। গরিব দেশ ওসব নিয়ে মাথা ঘামায় না। যেন তেন ভাবে মাথা গোঁজার ঠাঁই হলেই হলো। সে কারণে ধনী দেশে বড় ভূমিকম্প হলেও মানুষ বেঁচে যায়, আর গরিব দেশের ছোট ভূমিকম্পও মানুষকে রেহাই দেয় না। ঠিক এভাবেই বন্যা হলে গরিব দেশে লোক মরে, ধনী দেশ দিব্যি সামলে নেয়। অর্থনৈতিক দারিদ্রই যে সব কিছুর মূলে, তা নয়। চিন্তার দারিদ্র, সততার দারিদ্রও বড় কারণ। গরিব দেশের মানুষকে গরিব-ধনী কোনও দেশই মূল্যবান বলে মনে করে না! মৃত্যু নিয়ে যারা রাজনীতি করে, তারা মৃত্যু রোধ করতে চায় না।

নাহ, এরপর ভূমিকম্প হলে ঠিক ঠিক ঘর থেকে বেরিয়ে যাবো। খোলা জায়গায় গিয়ে দাঁড়াবো। বাবা যেভাবে শিখিয়েছিলেন। আলসেমি করবো না। অপেক্ষা করবো না। জীবন তো একটাই। জীবনের চেয়ে মূল্যবান আর কী আছে। একে হেলায় হারানোর কোনও মানে নেই। যদি খোলা জায়গায় দাঁড়াবার পর দেখি ভূমিকম্প থেমে গেছে! যাক না। আক্ষেপ করার কী আছে! আমাদের কি খুব বেশি খোলা জায়গায় দাঁড়িয়ে খোলা আকাশ দেখার সুযোগ হয়? মাঝে মাঝে ভূমিকম্প এসে যদি সেই সুযোগটা করে দেয়, মন্দ কী!
( ছোটবেলায় আমরা একতলা বাড়িতে থেকেছি। দরজাগুলো হাট করে খোলাই থাকতো বেশির ভাগ সময়। দৌড়ে বাইরে বেরোতে সময় লাগতো না। আজকাল উঁচু উঁচু দালানে বাস করে মানুষ। লিফট ব্যবহার করা যাবে না। হেঁটে হেঁটে তেইশ তলা বা বারো তলা থেকে নামা চাট্টিখানি কথা নয়। এখন তো বিশেষজ্ঞরা বলেন, ঘরেই মুখ মাথা ঢেকে টেবিলের তলায় চলে যাও, কাচের জিনিসপত্তর থেকে দূরে থাকো। কী জানি, টেবিলের তলায় চলে গেলে কতটুকু শেষ পর্যন্ত প্রাণ রক্ষা হয়! এ অনেকটা উড়োজাহাজের আশ্বাসের মতো, দুর্ঘটনা ঘটলে অক্সিজেন মাস্ক পরো, লাইফ জ্যাকেট পরে লাফ দাও, ওই করে ক'জন লোক আসলে বাঁচে! টেবিলের তলা একা কি কাউকে বাঁচায়, তলায় যেতে হয় মাথায় হেলমেট পরে যাওয়াই হয়তো ভালো, কষ্টে সৃষ্টে মাথাটা বাঁচাতে পারলে, আর খুব অতলে তলিয়ে না গেলে বাঁচার সম্ভাবনাটা হয়তো কিছুটা থাকে। মানুষের জীবন আরশোলাদের জীবনের চেয়েও নড়বড়ে। ভুমিকম্প টুমিকম্প কোনও আরশোলাকে এতটুকু কাঁপাতে পারে না। )

In Bengal,having captured Matua Votebank breaking Harichand Guruchand family vertically,Sangh Pariwar plans to play the refugee card on mass scale to win Bengal. Palash Biswas

In Bengal,having captured Matua Votebank breaking Harichand Guruchand family vertically,Sangh Pariwar plans to play the refugee card on mass scale to win Bengal.

Palash Biswas

BJP and Sangh Pariwar treated Hindu refugees as vote bank and never supported the refugees in their plight.Rather,NDA Home minister LK Adwani had been responsible for citizenship amendment act which deprives Hindu refugees from erstwhile East Bengal of citizenship,civic and human rights.

The act has been amended time and again to include NRI Hindus excluding the Non Arayan and Non Hindu refugees every time.

In Bengal,having captured Matua Votebank breaking Harichand Guruchand family vertically,Sangh Pariwar plans to play the refugee card on mass scale to win Bengal.

BJP government has not changed those provisions which snatch citizenship of those refugees resettled in Minral rich tribal India countrywide where salawa judum continues for ethnic cleansing to get the jal jangal jameen for desi videsi capital.

BJP treats Kashmiri Pundits only refugees and citizenship for Hindus means citizenship for NRI Non Bengali,Aryan and Kshmiri Hinus resettled worldwide.


BJP Promises Indian Citizenship for Bangladeshi Hindu Refugees




















Hindu refugees from Bangladesh will be given Indian citizenship if BJP comes to power in Assam in next year's Assembly poll, party president Amit Shah today said."Some Hindus have come from Bangladesh due to religious disturbances. BJP will give all of them citizenship once we come to power in Assam next year," Shah said at a rally here.Not only in Assam, but the party will work towards giving Indian citizenship to all Bangladeshi Hindu immigrants across the country, he added.

http://www.outlookindia.com/news/article/bjp-promises-indian-citizenship-for-bangladeshi-hindu-refugees/893710,

http://mzamin.com/details.php?mzamin=NzMxMDU%3D&s=MTA%3D
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'প্রধানমন্ত্রীর তহবিলে রানা প্লাজার টাকা নেই, এটি ভয়ঙ্কর খবর': অধ্যাপক আনু মোহাম্মাদ

'প্রধানমন্ত্রীর তহবিলে রানা প্লাজার টাকা নেই, এটি ভয়ঙ্কর খবর': অধ্যাপক আনু মোহাম্মাদ

'প্রধানমন্ত্রীর তহবিলে রানা প্লাজার টাকা নেই, এটি ভয়ঙ্কর খবর'
২৬ এপ্রিল(রেডিও তেহরান): বাংলাদেশের সাভারের রানা প্লাজা দুর্ঘটনার দুই বছর পূর্ণ হয়েছে। ২০১৩ সালের ২৪ এপ্রিল সকাল নয়টায় ঘটে এ দুর্ঘটনা। সরকারি হিসেবেই এ ঘটনায় নিহত হয়েছে ১১৩৬ জন। এ ঘটনা কেবল বাংলাদেশকেই নয়, গোটা বিশ্বকেই স্তম্ভিত করে দিয়েছিল। মানবসৃষ্ট সবচেয়ে ভয়াবহ এই বিপর্যয়ের রেশ এখনো রয়ে গেছে। সরকারি হিসেবেই এখনো পর্যন্ত 'নিশ্চিত নিখোঁজের' তালিকায় রয়েছে ১৩৫জন শ্রমিকের নাম। চিকিৎসাধীন রয়েছেন অসংখ্য আহত শ্রমিক। রানা প্লাজা ধসের দুই বছর পূর্তি উপলক্ষে আমরা কথা বলেছি তেল গ্যাস বিদ্যুৎ বন্দর রক্ষা জাতীয় কমিটির সদস্য সচিব বিশিষ্ট অর্থনীতিবিদ অধ্যাপক আনু মোহাম্মাদের সাথে।

পুরো সাক্ষাৎকারটি উপস্থাপন করা হলো। সাক্ষাৎকারটি গ্রহণ করেছেন গাজী আবদুর রশীদ।

রেডিও তেহরান:  বাংলাদেশের সাভারের রানা প্লাজা ধসের দুই বছর পূর্ণ হয়েছে। দুই বছর পার হলেও ক্ষতিগ্রস্তরা এখনও ন্যায্য ক্ষতিপূরণ পায়নি? পাওয়া যায়নি নিখোঁজদের কোনো সন্ধান? দুই বছর পার হওয়ার পরও কেন এ অবস্থা?

অধ্যাপক আনু মোহাম্মাদ: রানা প্লাজা ধসের ঘটনার মতো ঘটনা বিশ্বে কারখানা ধসের ইতিহাসে আর নেই। আর রানা প্লাজা ধসের একটা পরিপ্রেক্ষিত ছিল। বাংলাদেশে গার্মেন্টস খাত দ্রুত বিকাশ লাভ করছিল। সেটার ভিত্তি যে দুর্বল ছিল বা প্রাতিষ্ঠানিক কাঠামো যে ঠিকমতো দাঁড়ায়নি তারই প্রমাণ এই রানা প্লাজা ধসের ঘটনা।

রানা প্লাজা ধসের ব্যাপারে বলব, এমন  একটি ভবনে এই কারখানাটি স্থাপন করা হয়েছে যেটি আইনগতভাবে অবৈধ ছিল। ভবনের জমি জোর জবরদস্তি করে দখল করে নেয় মালিকপক্ষ। তাছাড়া কারখানাটি যেভাবে বসানো হয়েছিল তাও আইনসম্মত ছিল না। রানা প্লাজার পুরোটাই একটা অবৈধ ভিত্তির ওপর দাঁড়িয়েছিল। আর সেখানে জোর করে শ্রমিকদের ঢুকানো হয়েছিল।

রানা প্লাজা ধসের বিষয়টি যদি আমরা ব্যাখ্যা করি তাহলে পুরো পরিস্থিতির জন্য ৩ টা গ্রুপকে দায়ী করতে পারি।

প্রথম গ্রুপটি হচ্ছে এই ভবন এবং কারখানার মালিক এবং কারখানাগুলো সমন্বয়ের জন্য যেসব প্রতিষ্ঠান আছে যেমন বিজিএমইএ তাদের দায়িত্ব ছিল এগুলো দেখাশুনা করার। তারা প্রথম দায়ী।

দ্বিতীয় দায়ী হিসেবে আমরা বলতে পারি, যারা এসব কারখানায় পোশাকের জন্য অর্ডার দেয় অর্থাৎ আন্তর্জাতিক বায়ার যারা রয়েছেন। তাদের অবশ্যই দেখার দায়িত্ব ছিল যে কোন জায়গা থেকে তাদের এই পোশাকগুলো তৈরি হচ্ছে। সেখানে শ্রমিকদের অবস্থা কি, সেখানে কাজের পরিবেশ কেমন এসব বিষয় অবশ্যই তাদের দেখার দায়িত্ব ছিল।

আর তৃতীয়ত এবং কেন্দ্রীয়ভাবে দায়ী হচ্ছে সরকারি প্রতিষ্ঠানগুলো। তাদের দেখার দায়িত্ব ছিল- ভবন ঠিকমতো হচ্ছে কিনা, আইনসম্মত হচ্ছে কি না, শ্রমিকদের কর্ম পরিবেশ নিরাপদ কি না এবং তারা ঠিকমতো বেতন ভাতা পাচ্ছে কিনা। উল্লেখিত এই তিনটি গ্রুপই মূলত রানা প্লাজা ধসের জন্য দায়ী। এই তিনটি গোষ্ঠীর কোনো ভূমিকা এখানে আমরা দেখি না। আমাদের একটা ক্ষীণ প্রত্যাশা ছিল যে  এত ভয়ঙ্কর এবং মর্মান্তিক একটা ঘটনা ঘটার পর তাদের দৃষ্টিভঙ্গি, মনোভাব বা কাজের ধরণের কিছুটা পরিবর্তন হবে। কিন্তু বাস্তবে দেখা যাচ্ছে এই তিন গোষ্ঠী যাদের কারণে এতবড় একটা ঘটনা ঘটল গত দুই বছরে তাদের অবস্থানের কোনো পরির্বতন হয়নি। তাদের সীমাহীন লোভ এবং উচ্চ মুনাফা লাভের যে দৃষ্টিভঙ্গি পাশাপাশি সরকারি প্রতিষ্ঠানগুলো যে মালিকদের পক্ষে নগ্নভাবে ভূমিকা পালন করে- সেটার কারণে গত দুই বছরে অবস্থার কোনো পরিবর্তন হয়নি।

রানা প্লাজা ধসের পর যেটি হওয়া উচিত ছিল সেটি হচ্ছে- সাথে সাথে একটি কমিটি গঠন করে ক্ষতিপূরণ নীতিমালা নির্ধারণ করা। আর ক্ষতিপূরণ দেয়ার জন্য কারখানা মালিক, বিজিএমইএ এবং আন্তর্জাতিক যেসব বায়ার আছেন তাদের কাছ থেকে টাকাটা সংগ্রহ করে সমন্বিতভাবে সবাইকে ক্ষতিপূরণ দেয়া। সরকার সেই কাজটি করেনি। এ ব্যাপারে সরকার কোনো কাজ না করার ফলে ক্ষতিগ্রস্তদের ক্ষতিপূরণের ব্যাপারটি এখনও পর্যন্ত ঝুলে আছে।

এখন যেটা হচ্ছে বিচ্ছিন্নভাবে কিছু অনুদান দেয়া হচ্ছে কিন্তু সনির্দিষ্ট নীতিমালার অধীনে ক্ষতিপূরণ দেয়া হয়নি। বেশিরভাগ শ্রমিক ঠিকমতো কোনো অনুদান পায়নি। মাঝখানে দেখা যাচ্ছে কিছু মধ্যস্বত্ত্বভোগী টাউট বাটপার তৈরি হয়েছে। তারা ক্ষতিপূরণ দেয়ার কথা বলে শ্রমিকদের জীবন আরো দুর্বিষহ করে তুলেছে। গত দুই বছরে রানা প্লাজার শ্রমিকদের জীবনের ক্ষতটা তো দূর হয়নি উপরন্তু নতুন নতুন দুর্ভোগের মধ্য দিয়ে তারা দিন কাটাচ্ছে।

রেডিও তেহরান: রানা প্লাজায় ক্ষতিগ্রস্তদের ক্ষতিপূরণ নিয়ে গত কয়েকদিন মিডিয়াগুলোতে নানা খবর এসেছে। সেসব খবরে বলা হয়েছে প্রধানমন্ত্রীর ত্রাণ তহবিলে শতাধিক কোটি টাকা জমা রয়েছে। তো এতগুলো টাকা জমা থাকার পরও কেন রানা প্লাজা ধসের ক্ষতিগ্রস্তরা ক্ষতিপূরণ পাচ্ছে না। আপনি এ ব্যাপারে কি বলবেন।

অধ্যাপক আনু মোহাম্মাদ: দেখুন এ প্রশ্ন আমার নিজেরও। একবছরপূর্তি উপলক্ষ্যে আমি এই একই প্রশ্ন উত্থাপন করেছিলাম। তার আগেও আমি বলেছিলাম প্রধানমন্ত্রীর তহবিলে শতাধিক কোটি টাকা জমা রয়েছে এগুলো যদি ক্ষতিগ্রস্তদের  দেয়া হয় তাহলে ক্ষতিগ্রস্ত প্রতিটি পরিবার প্রায় ১০ লাখ টাকা করে পেত। আর যদি তাৎক্ষণিকভাবে তাদেরকে এ সহযোগিতা করা হতো তাহলে তারা একটা শ্বাস নেয়ার একটা জায়গা পেত। প্রাথমিক যে ধাক্কা সেটা হয়তো কিছুটা সামলে নিতে পারত। তারপর ক্ষতিপূরণ নীতিমালা করে তবে বাকিটা দিতে পারতো। কিন্তু সেটা না করে দুই বছরে বিভিন্ন জায়গায়  মাত্র ২২ কোটি টাকার মতো বিতরণ করেছে। তারপরও এসব বিতরণ তাদের সিলেকটিভ কিছু বিতরণ। কিন্তু বাকি ১০৭/১০৮ কোটি টাকার মতো এখন পর্যন্ত তারা ব্যবহারই করেনি।

বর্তমানে পরিস্থিতি আরো ভয়ঙ্কর এই কারণে যে  প্রধানমন্ত্রীর কার্যালয় থেকে বলা হলো যে রানা প্লাজা তহবিল নামে প্রধানমন্ত্রীর কাছে কোনো তহবিল নেই। এ কথা শোনার পর আমি যারপরনাই স্তম্ভিত হলাম। কি নামে টাকা রাখা হয়েছে সেটা তো আর আমরা জানিনা কিন্তু রানা প্লাজা ধসের পর বিভিন্ন জন ক্ষতিগ্রস্তদের জন্য যে চাঁদা দিয়েছে সেই টাকার কথা সরকারি তথ্য বিবরণীতে তখন ছিল। আর সর্বমোট টাকার অংকটাও এ ঘটনার একবছরপূর্তিতেও বলা হয়েছে। তখন বলা হয়েছিল এই পরিমাণ টাকা বিতরণ করা হয়েছে এবং এই টাকাটা জমা আছে। অথচ এ বছর বলছে এই নামে কোনো টাকা নেই। হয়তো রানা প্লাজা নামে কোনো তহবিল না থাকতে পারে তবে শ্রমিকদের জন্য যে টাকা জমা হয়েছে সেটি প্রকাশিত সত্য। অথচ এখন বলা হচ্ছে কোনো টাকা নেই। তারমানে কি, তারমানে শ্রমিকরা কি এই টাকাটা আর পাবে না। তার মানে এই টাকাটা কি গায়েব হয়ে যাচ্ছে! এটা তো আরো ভয়ঙ্কর একটা বিষয়।

রেডিও তেহরান: সরকারি হিসেবেই বলা হচ্ছে, এখন পর্যন্ত ১৩৫ জন নিখোঁজ রয়েছে। বেসরকারি হিসেবে এ সংখ্যা আরও বেশি। একটি দুর্ঘটনায় এত বেশি সংখ্যক শ্রমিক নিখোঁজ থাকার কারণ কী? উদ্ধার কার্যক্রম ও লাশ হস্তান্তর ব্যবস্থায় কি ত্রুটি ছিল?

অধ্যাপক আনু মোহাম্মাদ: উদ্ধার কার্যক্রমের মধ্যে তো একটা বড় দুর্বলতা ছিল। বহু বেআইনি ভবন তৈরি হচ্ছে যেগুলোর স্ট্রাকচারাল সমস্যা আছে, ভবন নির্মাণের মিনিমাম যেসব শর্ত রয়েছে সেগুলোও তারা পূরণ করে না। ফলে সেসব কারখানা ভবনে যদি দুর্ঘটনা ঘটে তখন প্রাতিষ্ঠানিকভাবে তা মোকাবেলা করার জন্য যে প্রাতিষ্ঠানিক দক্ষতা তৈরি করতে হয় সেটা বাংলাদেশে কখনও তৈরি করা হয়নি। হাজার হাজার কোটি টাকা নানা কাজে অপচয় করা হয় কিন্তু প্রয়োজনীয় এসব কাজে কখনও টাকা ব্যয় করা হয় না। আর সেটার প্রমাণ পেলাম প্রথমে তাজরীন ফ্যাশনে এবং দ্বিতীয় রানা প্লাজা ধসের ঘটনায়।

আপনারা খেয়াল করলে দেখবেন রানা প্লাজা ধসের পর রাষ্ট্রীয় প্রতিষ্ঠানের চেয়ে অনেক বড় ও ব্যাপক আকারে কার্যকর ভূমিকা পালন করেছে সেই অঞ্চলের সাধারণ মানুষ। আশেপাশের বিভিন্ন শিক্ষা প্রতিষ্ঠানের ছাত্রছাত্রীরা, ঢাকাসহ বিভিন্ন স্থান থেকে যাওয়া সাধারণ মানুষ এবং আশপাশের কর্মজীবী মানুষ তারাই মিলে প্রাথমিক স্তরে অনেকটা অতি সাধারণ মানুষের যন্ত্রপাতি যেমন হাতুড়ি-বাটালি ইত্যাদি দিয়ে উদ্ধার কাজ চালিয়েছে।তারফলে পুরো উদ্ধার প্রক্রিয়ার মধ্যে প্রথম থেকেই একটা দুর্বলতা ছিল। দেখা গেছে যে অনেক লাশ সেখান থেকে নিয়ে যাওয়া হয়েছে অথচ কোনো হিসাব ঠিকমতো রাখা হয়নি। একইসাথে আরেকটি সমস্যা সেখানে ছিল আসলে কতজন শ্রমিক সেখানে কাজ করতো তার কোনো তালিকা  কারখানা মালিক  ও বিজিএমইএ দেয়নি। অথচ ওখানকার শ্রমিকদের নামের তালিকা অবশ্যই তাদের কাছে থাকার কথা এবং বিজিএমইএর কাছেও থাকার কথা। সেই নামের তালিকাটা দিলে সঙ্গে সঙ্গে মিলিয়ে দেখা যেত। অথচ এসব না পাওয়ার কারণে এবং অনেক জনের কাজের কারণে অনেক লাশ পাওয়া যাচ্ছে না। তারপরও সবাই মিলে যে তালিকা করেছিল সেটা আছে বলেই আমরা মোটামুটি একটা কিছু পাচ্ছি যে আসলে কারা নিখোঁজ ছিল। তা নাহলে তো নিখোঁজের সংখ্যা আরো বেশি থাকত। তাছাড়া আরো একটি বিষয় এখানে আছে। সেটি হচ্ছে মালিক পক্ষ সবসময় যে কোনো দুর্ঘটনা ঘটলে লাশ কমানোর চেষ্টা করে। ফলে লাশ গায়েব হলে তো তাদেরই ভালো।

রেডিও তেহরান: বাংলাদেশে শ্রমিকদের বর্তমান নিরাপত্তা পরিস্থিতি কেমন? রাজা প্লাজা ধসের ঘটনা থেকে সরকার কি যথাযথ শিক্ষা নিয়ে এ ধরনের ঘটনার পুণরাবৃত্তির ঠেকানোর পদক্ষেপ নিয়েছে?

অধ্যাপক আনু মোহাম্মাদ: দেখুন শ্রমিকদের নিরাপত্তা পরিস্থিতি নিয়ে সরকারের পক্ষ থেকে তো আমি তেমন কোনো পদক্ষেপ দেখিনি। তবে আন্তর্জাতিকভাবে যেহেতু বিষয়টি ব্যাপক আলোড়ন সৃষ্টি করেছিল ফলে আন্তর্জাতিকভাবে উদ্যোগ নিয়ে দুটো প্রতিষ্ঠান তৈরি হয়েছে। অ্যাকর্ড এবং অ্যালায়ন্স। আন্তর্জাতিক চাপের কারণে তারা বাংলাদেশে এসে কিছু ভবন সিকিউরিটি সিসটেম ও সেফটির ব্যাপারে কিছু জরিপ করেছে। তারা কিছু কিছু ভবন ঠিক করেছে এবং কিছু কিছু ভবনের ব্যাপারে তারা অবজেকশন দিয়েছে যে এখানে কারখানা করা যাবে না। আর রানা প্লাজার মতো কিছু ভবন ছিলো যেগুলোতে একইরকম ঘটনা ঘটতে পারতো- সেসব ভবনকে ঠিকঠাক করেছে।

এ ব্যাপারে আমি মনে করি, সরকারের প্রথমেই উচিত ছিল দুটো কমিটি গঠন করা। একটি হলো ক্ষতিপূরণ নীতিমালা প্রণয়ন কমিটি এবং অন্যটি হলো ভবনগুলোর নিরাপত্তা ব্যবস্থা দেখা ও নির্ধারণ বিষয়ক কমিটি। তবে সেটা সরকারের পক্ষ থেকে হয়নি। অ্যাকর্ড এবং অ্যালায়ন্স যে কাজ করছে তাদের কিছু সীমাবদ্ধতা রয়েছে। এই ধরণের অসমন্বিত কিছু কাজ হয়েছে। কিন্তু কেন্দ্রীয়ভাবে এবং সামাজিকভাবে সরকারের যে দায়িত্ব যথাযথভাবে পূরণ না করার কারণে ঝুঁকিটা থেকেই যাচ্ছে।

পরিদর্শক থেকে শুরু করে যন্ত্রপাতি সবকিছুর ক্ষেত্রে একটা বড় ধরণের পরিবর্তনের দরকার ছিল। অথচ গত দুই বছরে তার লক্ষ্যণীয় কোনো পরিবর্তন আমরা দেখিনি।

রেডিও তেহরান: রানা প্লাজা ধসের সঙ্গে জড়িতদের বিচারের সর্বশেষ অবস্থা কি?

অধ্যাপক আনু মোহাম্মাদ: সর্বশেষ অবস্থা  হচ্ছে সে সময়কার চাপের কারণে যে কয়েকজনকে গ্রেফতার করা হয়েছিল। তবে তাদের একটি গ্রুপ সরকারি কর্মকর্তা এবং অন্য গ্রুপটি ভবন মালিক। তারা তো সরকারি দলের লোক। তো সরকার গ্রেফতার করার পর সবার ধারণা হয়েছিল যে বিচারটা খুব দ্রুত হবে। কিন্তু গত দুই বছরেও বিচার প্রক্রিয়ার মধ্যে তেমন কোনো অগ্রগতি হয়নি। যারা গ্রেফতার অবস্থায় আছে তারা সেভাবেই আছে। মাঝেমধ্যে তাদের জামিনের কথা শোনা যায়। তবে বিচারপ্রক্রিয়া যদি যথাযথভাবে যথাযথ আইনে করা হয় তাহলে তাদের আসলে হত্যার বিচার হওয়া উচিত। কারণ তারা জোর করে শ্রমিকদের সেখানে নিয়ে গেছে। তাদের বিরুদ্ধে সহস্রাধিক শ্রমিক হত্যার বিচার হওয়া উচিত। সেইভাবে এই বিচারটাকে দাঁড় করানোর কোনো চেষ্টা করা হয়নি।

আমরা দেখলাম শ্রম বিষয়ক সংসদীয় কমিটির সভাপতি বলেছেন- রানা প্লাজ ধসে গ্রেফতারকৃতদের বিচার হবে কি না সন্দেহ রয়েছে। অর্থাৎ শ্রম বিষয়ক সংসদীয় কমিটির সভাপতিও বিচার নিয়ে সন্দেহপোষণ করেছেন যে আদৌ বিচার হবে কি না! তিনি এমনও মন্তব্য করেছেন যে তারা খুবই শক্তিশালী।

তো সার্বভৌম ক্ষমতার অধিকারী হিসেবে সরকারের রয়েছে কেন্দ্রীয় এখতিয়ার। সরকার কেন এখানে অন্য ক্ষমতা প্রয়োগ করবে? সরকারের তো একটি সার্বভৌম দায়িত্ব ও কর্তব্য আছে। আর সেই কর্তব্য পালন করতে গেলে তে এদের বিচার খুব দ্রুতগতিতে করা উচিত। এটা নিয়ে একটা দৃষ্টান্তস্থাপন করা উচিত ছিল যে এভাবে যারা হত্যাকাণ্ড ঘটায় তাদের বিচার করতে সরকার প্রস্তুত। কিন্তু গত দুবছরে সেটা আমরা দেখলাম না। এটা খুবই বিপদজনক পরিস্থিতি। এরবার্তাটা হচ্ছে এধরণের অপরাধ করেও পার পাওয়া যায়।#
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ধামাচাপা দেয়ার নীতি এবং মানুষের ঘৃণা -গোলাম মোর্তোজা

ধামাচাপা দেয়ার নীতি এবং মানুষের ঘৃণা -গোলাম মোর্তোজা   









রহস্যটা কী? তদন্ত কেন হয় না?

কেন নির্যাতিতের বিপক্ষে দাঁড়িয়ে অপরাধীদের পক্ষ নেয় প্রশাসন?

নারীরা বিশ্ববিদ্যালয়ে শারীরিকভাবে নির্যাতিত হচ্ছেন, প্রশাসন কোনো কোনো ক্ষেত্রে নির্বিকার থেকে অপরাধীদের পক্ষে থাকছে। কোনো কোনো ক্ষেত্রে কৌশলে অপরাধীকে নিরাপত্তা দিচ্ছে। অতীতের প্রায় সব কয়টি ঘটনার উদাহরণ যদি এখানে আনা হয়, তার প্রমাণ পাওয়া যাবে। এবারের পহেলা বৈশাখ উদযাপনের সময় ঢাকা বিশ্ববিদ্যালয় এলাকায় নারীরা নির্যাতিত হলেন যৌন সন্ত্রাসীদের দ্বারা, বিস্ময়করভাবে দোষীদের বিরুদ্ধে ব্যবস্থা নেয়ার চেয়ে সবাই ব্যস্ত ঘটনা ধামাচাপা দিতে। কেন এই ধামাচাপা দেয়ার প্রবণতা আমাদের সংস্কৃতির অংশ করে ফেলছি? প্রশ্ন করলেই তারা সবাই বলেন, দোষীদের বিরুদ্ধে কঠোর ব্যবস্থা নেয়া হবে। তাদের কার্যক্রম এবং বক্তব্য যে পরস্পর স্ববিরোধী, দু'একটি প্রসঙ্গ উল্লেখ করলেই তা পরিষ্কার হবে।
১. ঢাকার পুলিশ কমিশনার মোঃ আছাদুজ্জামান পহেলা বৈশাখের আগে বলেছিলেন, তিন স্তরের নিরাপত্তা ব্যবস্থা নেয়া হয়েছে। পুরো এলাকা সিসিটিভি ক্যামেরার আওতায়। মানুষ আশ্বস্ত হয়েছিল পুলিশের এই বক্তব্যে।
২. নিরাপত্তার জন্যে বিভিন্ন জায়গায় ক্যামেরা লাগানো হয়। এক বা একাধিক জায়গায় বসে তা মনিটর করা হয়। এক ঘণ্টারও বেশি সময় ধরে যৌন সন্ত্রাসীদের নির্যাতন চলল, ক্যামেরা মনিটরিংয়ের দায়িত্বে যে পুলিশ ছিল তারা কিছুই দেখল না! আসলে হয় মনিটরিংয়ের দায়িত্বে কেউ ছিল না অথবা যে বা যারা ছিল তারা দায়িত্ব পালন করেনি।
৩. ছাত্র ইউনিয়নের ঢাকা বিশ্ববিদ্যালয় শাখার সভাপতি লিটন নন্দীরা প্রতিরোধ করার চেষ্টা করে আহত হয়েছেন। নিজের পাঞ্জাবি খুলে একজনের সম্মান বাঁচানোর চেষ্টা করেছেন। প্রক্টর আমজাদ আলীকে খবর দিয়েছেন, তিনি কর্ণপাত করেননি। পুলিশকে বলেছেন, পুলিশ নির্বিকার থেকেছে। আবার প্রক্টরের রুমে গেছেন, তখন তিনি কম্পিউটারে দাবা খেলছিলেন। কেন কোনো ব্যবস্থা নিচ্ছেন না, কেন ঘটনাস্থলে গেলেন না? এমন প্রশ্নের উত্তরে প্রক্টর বলেন, 'আমি ওখানে গিয়েই বা কী করতাম।'
তাই তো, দাবা খেলা বাদ দিয়ে তিনি সেখানে যাবেন কেন!
৪. ঘটনার পরের দিন ভিসি আ আ ম স আরেফিন সিদ্দিক বললেন, 'যারা এই ঘটনা ঘটিয়েছে তারা সবাই বহিরাগত...।'
এই কথা যখন তিনি বলছেন, তখন পর্যন্ত ভিডিও ফুটেজ প্রকাশিত হয়নি। কোনো তদন্ত তো হয়-ইনি। ভিসি জেনে গেলেন সবাই বহিরাগত!
৫. ছাত্র ইউনিয়নের পক্ষ থেকে আহ্বান জানানো হয়েছিল, কারও কাছে যদি তথ্যপ্রমাণ থাকে তা সরবরাহ করার জন্যে। একজন ছাত্র সাড়া দিয়েছিলেন, তার কাছে দু'টি ছবি ছিল। লিটন নন্দীরা তার কাছে ছবি চাইলে তিনি ফেসবুকে লেখেন, 'ভিসি স্যার বলেছেন, এই ছবি প্রকাশিত হলে বিশ্ববিদ্যালয়ের সম্মানহানি হবে। স্যার ছবি দিতে নিষেধ করেছেন। তাই ছবি দিতে পারছি না।'
এটা ভিডিও ফুটেজ প্রকাশিত হওয়ার আগের ঘটনা।
৬. ঘটনার পাঁচ দিন পরেও ঢাকা বিশ্ববিদ্যালয় শিক্ষক সমিতি নির্বিকার আচরণ করছে। নারী নিপীড়নের প্রতিবাদে বা বিচারের দাবিতে তারা একটি বিবৃতি পর্যন্ত দেয়নি। যেসব শিক্ষক রাজনৈতিক ইস্যুতে গরম গরম কথা বলেন, তারাও নিশ্চুপ।
ক্যাম্পাসের একক ইজারাদার ছাত্রলীগ সম্পূর্ণ নিশ্চুপ, যা রীতিমতো রহস্যজনক।
ঢাকা বিশ্ববিদ্যালয়ের কোষাধ্যক্ষ চ্যানেল ২৪-এর একটি অনুষ্ঠানে বলেছেন, 'মেয়েদের রাত নয়টার পরে বাইরে থাকার দরকার কী?' যদিও এই ঘটনাটি ঘটেছে সন্ধ্যা সাতটার মধ্যে।
৭. পুলিশ দু'টি তদন্ত কমিটি গঠন করেছে। তার আগেই পুলিশের ডিসি জাহাঙ্গীর আলম বলে দিয়েছেন, 'এ পর্যন্ত কোনো নারীর বস্ত্র হরণের চিত্র পাওয়া যায়নি।' আবার বলা হচ্ছে, ৪ জন বা ৮ জনকে শনাক্ত করা হয়েছে ভিডিও ফুটেজ দেখে। পুলিশের সরবরাহ করা ভিডিও ফুটেজে নিপীড়নের দৃশ্য স্পষ্টভাবে বোঝা যাচ্ছে, দেখা যাচ্ছে। দেখা যাচ্ছে শারীরিকভাবে লাঞ্ছিত করার দৃশ্য। আর ডিসি বলছেন 'বস্ত্রহরণের' চিত্র দেখা যায়নি! ডিসি সাহেব কী পুরো বস্ত্রহরণ দেখার প্রত্যাশা করছিলেন? এতটুকুতে কি তার কাছে, পুলিশের কাছে মনে হচ্ছে না যে, এটা নিপীড়ন-নির্যাতন? লিটন নন্দী যে পাঞ্জাবি খুলে একজনের সম্মান বাঁচানোর উদ্যোগ নিলেন, এটা কি পুলিশ বিশ্বাস করছে না?
৮. ওপরের এই বক্তব্য- ঘটনাক্রম বিশ্লেষণ করলে কিছু সিদ্ধান্তে উপনীত হওয়া যায়Ñ
ক. সবাই সবাইকে বাঁচিয়ে নিজেরা রক্ষা পেতে চাইছেন।
খ. তদন্ত ছাড়া সবাইকে 'বহিরাগত' বলে ভিসি নিজে বাঁচতে চাইছেন। দলীয় প্রক্টরকে বাঁচাতে চাইছেন। প্রক্টর বাঁচাতে চাইছেন ভিসিকে।
গ. একই সময়ে জগন্নাথ এবং জাহাঙ্গীরনগরে ছাত্রী লাঞ্ছিত করেছে ছাত্রলীগ। ঢাকা বিশ্ববিদ্যালয়ের এই নিপীড়নের ঘটনায়ও ছাত্রলীগের নেতাকর্মীদের নাম সামনে চলে আসতে পারে, এমন আশঙ্কায় পুরো ঘটনা চাপা দেয়ায় সহায়তা করার নীতি নিয়েছে ছাত্রলীগ।
ঘ. এমন কিছু সামনে চলে এলে বিব্রত হবে সরকার। সামনে সিটি করপোরেশন নির্বাচন। তার ওপর প্রভাব পড়তে পারে। সুতরাং ঘটনা চাপা দেয়াই সবচেয়ে উত্তম। শিক্ষক সমিতির নজিরবিহীন নীরবতার নেপথ্য কারণ এটাই।
ঙ. ভিসি, প্রক্টর, শিক্ষক সমিতি, ছাত্রলীগ 'সম্মানহানি' বাঁচানোর চেষ্টায় ধামাচাপার নীতি অনুসরণ করছেন।
চ. পুলিশও ঘটনার মোড় অন্যদিকে ঘুরিয়ে বা ধামাচাপা দিয়ে দিতে তৎপর। কারণ প্রকৃত তদন্ত হলে তাদের ওপর ব্যর্থতার বড় দায় পড়বে।
ছ. বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন এবং পুলিশের কাজে ঝামেলা তৈরি করছে ছাত্র ইউনিয়ন এবং গণমাধ্যম, বিশেষ করে ফেসবুক। 'বাড়াবাড়ি' না করার চাপে ছাত্র ইউনিয়ন ইতিমধ্যে পড়েছে। সারা দেশে তাদের বিক্ষোভ কর্মসূচি করতে দিচ্ছে না সরকার।
৯. এত কিছুর পর এখন বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন এবং পুলিশ তদন্ত করে ব্যবস্থা নিতে চাইছে। পুলিশের তদন্তের মূলভিত্তি সিসিটিভি ক্যামেরার ভিডিও ফুটেজ। যেহেতু 'বস্ত্র হরণের' চিত্র পুলিশ পায়নি, সুতরাং তদন্ত কী হবে, অনুমান করতে কারোরই কষ্ট হওয়ার কথা নয়। বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন আহ্বান করেছে যার কাছে যে তথ্য আছে, তা দিয়ে তদন্তে সহায়তা করতে। যারা নিপীড়নের শিকার হয়েছেন, সেই সব নারী বিশ্ববিদ্যালয়ের তদন্ত কমিটির কাছে এসে সাক্ষী দেবেন, এমনটাই প্রত্যাশা করছেন তদন্ত কমিটির কর্তারা!
নিজেদের এমন প্রশ্নবোধক ধামাচাপা দেয়ার, অস্বীকার করার ইমেজ তৈরি করে এমন প্রত্যাশা করা, বেশ মজার কৌতুকই বটে।
১০. তাহলে তদন্তের অবস্থা কী হবে? তদন্তে সেই সব তথ্যই পাওয়া যাবে, সবাই মিলে যা পেতে চাইছে। অর্থাৎ তদন্তে প্রায় কোনো নতুন তথ্য পাওয়া যাবে না। কোনো নিপীড়নের শিকার নারী অবিশ্বস্ত তদন্ত কমিটির সামনে আসবেন না, নির্যাতনের কাহিনী বলবেন না।
তদন্ত কমিটির কাজ অনেক সহজ হয়ে যাবে। তারা বলবে, প্রকৃত সাক্ষী পাওয়া যায়নি। নির্যাতিত কেউ তাদের কাছে এসে নির্যাতনের কাহিনী অর্থাৎ শরীরের কোথায়, কীভাবে, কয়জন হাত দিয়েছে, সেসব কথা বলেননি। তদন্তে আরও সময় লাগবে।
১১. পুলিশের তদন্তে কয়েকজনকে চিহ্নিত করা হবে। আবিষ্কার হতে পারে বাঙালি সংস্কৃতিবিরোধী মৌলবাদী-জঙ্গিগোষ্ঠীর অস্তিত্ব। ধরাও পড়তে পারে কয়েকজন। আর একটি ঘটনা সামনে এলে পুলিশের তদন্ত, বিশ্ববিদ্যালয়ের তদন্ত সবই চাপা পড়ে যাবে। যেভাবে চাপা পড়ে গিয়েছিল জাহাঙ্গীরনগরের ছাত্রলীগের ধর্ষণের 'সেঞ্চুরি' মানিকের ঘটনা। কয়েকদিন আগের শহীদুল্লাহ হলের পুকুর পাড়ের সেই নির্যাতনের ঘটনাও তো আমরা মনে রাখিনি। যেখানে ছাত্রলীগ কর্মীরা কানাডা থেকে আসা সাবেক ছাত্রীকে নিপীড়ন করল। ছাত্রলীগের ঘটানো এবারের জাহাঙ্গীরনগর, জগন্নাথের ছাত্রী নিপীড়নের বিষয়ও আমরা মনে রাখব  না।
কুমিল্লায় ছাত্রলীগ কর্তৃক ছাত্রলীগ নেতা হত্যা, হাজী দানেশে ছাত্রলীগের দুই হত্যাকাণ্ড, আওয়ামী লীগ এমপি কর্তৃক রাজশাহী বিশ্ববিদ্যালয়ের ভিসিকে লাঞ্ছনা... কোনো কিছুই আমাদের মনে থাকবে না। আমরা ব্যস্ত থাকব প্রতিনিয়ত ঘটা নতুন নতুন ঘটনা নিয়ে।
প্রশ্ন করলে ছাত্রলীগ বাহাদুরি নিয়ে বলে, আমরা সংগঠন থেকে বহিষ্কার করেছি, ব্যবস্থা নিয়েছি। বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন 'সাময়িক' বহিষ্কার করে। আসলে সংগঠন থেকে বহিষ্কারের পরও তারা ছাত্রলীগেই থাকে। সাময়িক বহিষ্কারের পরও তারা বিশ্ববিদ্যালয়ের ছাত্রই থাকে, পরীক্ষা দেয়Ñ কোনো কিছুতেই কোনো সমস্যা হয় না।
১২. যারা পহেলা বৈশাখ উদযাপনের বিরুদ্ধে, বাঙালি সংস্কৃতিবিরোধী, মৌলবাদী-জঙ্গি, তারাই ঘটিয়েছে এই ঘটনা। ঢাকা বিশ্ববিদ্যালয়ের ঘটনার প্রেক্ষিতে অনেকেরই এমন মন্তব্য দেখছি, শুনছি। তর্কের খাতিরে ধরে নিলাম, এরাই এই অপকর্ম করেছে।
প্রশ্ন হলো, ভিসি, প্রক্টর, শিক্ষক সমিতি, পুলিশ সবাই মিলে ঘটনা ধামাচাপা দিতে চাইছে কেন? কেন ছাত্র ইউনিয়নের প্রতিবাদে বাধা দেয়া হচ্ছে? রাত নয়টার পরে মেয়েদের বাইরে না থাকার কথা তো হেফাজত-জঙ্গি-মৌলবাদীরা বলে। ঢাবির দলান্ধ কোষাধ্যক্ষ এমন কথা বলছেন কেন? বিশ্ববিদ্যালয় প্রশাসন, রাষ্ট্রীয় প্রশাসন সবাই কি তাহলে এই অপশক্তির পৃষ্ঠপোষক?
১৩. সেই পুরনো কথা। হাতি জঙ্গলে মুখ লুকিয়ে ভাবে, তাকে কেউ দেখছে না। আসলে হাতির পুরো উলঙ্গ শরীর দেখা যায়। ধামাচাপা দেয়ার এবারের কৌশল বড় বেশি রকমের স্পষ্ট হয়ে গেছে জনমানুষের সামনে।
১৪. পুলিশের সরবরাহ করা ভিডিও ফুটেজ একাত্তর টেলিভিশনে তার অনুষ্ঠানে প্রচার করেছে ফারজানা রূপা। এর প্রেক্ষিতে 'আনসারুল্লাহ বাংলা' তাকে এবং তার পরিবারকে হত্যার হুমকি দিয়েছে। হুমকিকে হালকাভাবে নেয়ার সুযোগ নেই। তাদের নিরাপত্তা অবশ্যই নিশ্চিত করতে হবে। আর তদন্ত হওয়া দরকার নির্মোহভাবে। প্রকৃত ঘটনা অন্যদিকে ঘুরিয়ে দেয়ার কৌশল কি না, সেটা গুরুত্ব দিয়ে অনুসন্ধান হওয়া দরকার। আদৌ 'আনসারুল্লাহ বাংলা' হুমকি দিল কি না, নাকি অন্য কেউ, অন্য কোনো শক্তি এই নাম ব্যবহার করল, সেটা নিশ্চিত হওয়া জরুরি। কাজটি করতে হবে সরকারকে। প্রকৃত-বিশ্বাসযোগ্য তদন্ত না হলে 'অবিশ্বাস্য' 'অদৃশ্য' 'বায়বীয় অস্তিত্বহীন' কোনো শক্তির ওপর দায় চাপানো যাবে, চাপানোর চেষ্টা করা যাবে। মানুষকে বিশ্বাস করানো যাবে না। আইনের থেকে নিজেরা বাঁচা যাবে, প্রকৃত অপরাধীকে বাঁচানোও যাবে। মানুষের ঘৃণা থেকে বাঁচা যাবে না।

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