Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter
Follow palashbiswaskl on Twitter

Tuesday, June 26, 2012

नीतीश-मोदी विवाद: धर्मनिरपेक्षता पर बहस का सबब -राम पुनियानी

26.06.2012


नीतीश-मोदी विवाद: धर्मनिरपेक्षता पर बहस का सबब


-राम पुनियानी


आने वाले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने के भाजपा के संभावित इरादे के सदंर्भ में, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल में कहा कि एनडीए को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार किसी ऐसे व्यक्ति को बनाना चाहिए जो धर्मनिरपेक्ष हो। इस बीच, भाजपा से कई अलग-अलग स्वर उभरे। एक नेता ने कहा कि वैचारिक दृष्टि से अटलबिहारी वाजपेयी, एल के आडवानी और मोदी में कोई अंतर नहीं है। एक अन्य नेता ने कहा कि चूंकि हिन्दुत्व, धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी है इसलिए कोई कारण नहीं कि मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हो सकते।

नीतीश कुमार दूध के धुले नहीं हैं और न ही धर्मनिरपेक्षता के प्रतिबद्ध सिपाही हैं। सन् 1996 में, जब भाजपा लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी, तब किसी भी पार्टी की उससे गठबंधन करने की हिम्मत नहीं हुई क्योंकि बाबरी मस्जिद कांड और उसके बाद हुई हिंसा लोगों के दिमागों मे ताजा थी और भाजपा की छवि एक घोर साम्प्रदायिक पार्टी की थी। सन् 1998 में जब यही स्थिति एक बार फिर बनी तब कई पार्टियां-जिनमें नीतीश कुमार की जेडीयू शामिल थी - सत्ता का लोभ संवरण नहीं कर सकीं और भाजपा के साथ एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर सत्ता में बैठने को राजी हो गईं।

मोदी के मामले में भाजपा नेताओं के बयानों में काफी सच्चाई है। यह कहना बिलकुल ठीक है कि विचारधारात्मक दृष्टि से वाजपेयी, आडवानी और मोदी में कोई अंतर नहीं है। ये सभी समर्पित स्वयंसेवक हैं जो आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के एजेन्डे की पूर्ति के लिए काम कर रहे हैं। उनमें जो अंतर दिखलाई देते हैं वे मात्र इसलिए हैं क्योंकि उनकी मातृ संस्था ने उन्हें अलग-अलग काम सौंपे हुए हैं। चूंकि बीजेपी को निकट भविष्य में अपने बलबूते पर बहुमत में आने की उम्मीद नहीं थी इसलिए उसे एक उदारवादी चेहरे की जरूरत थी। इस रोल के लिए वाजपेयी को चुना गया और आडवानी, जो साम्प्रदायिकता के रथ को पूरे देश में घुमाकर राम मंदिर के नाम पर खून-खराबा करवाने के लिए जिम्मेदार थे, को वाजपेयी के अधीन काम करने पर मजबूर किया गया।

इस तरह, यद्यपि विचार और विचारधारा के स्तर पर तीनों में कोई अंतर नहीं है परंतु विभिन्न मौकों पर उन्हें विभिन्न भूमिकाएं अदा करनी होती हैं व मात्र इस कारण वे एक-दूसरे से अलग जान पड़ते हैं। जहां तक हिन्दुत्व के धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी होने का तर्क है, वह पूर्णतः हास्यास्पद है। हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म नहीं है। हिन्दू धर्म तो उन सभी धार्मिक धाराओं का संगम है जो दुनिया के विभिन्न भागों से भारत पहुंची और यहां पल्लिवत-पुष्पित हुईं। दूसरी ओर, हिन्दुत्व एक राजनैतिक विचारधारा और अवधारणा है जिसे यह स्वरूप देने में वीडी सावरकर का महत्ववपूर्ण योगदान था। उन्होंने हिन्दुत्व को उन सभी चीजों का संगम बताया जो कि हिन्दू थीं। उनके लिए हिन्दुत्व, आर्य नस्ल, एक संस्कृति विशेष और एक भाषा विशेष का संगम था। हिन्दुत्व, हिन्दू धर्म की ब्राहम्णवादी धारा पर आधारित है और जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच का पोषक है।

जिस समय सारा देश स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों के झंडे तले एक हो रहा था उस समय हिन्दुत्ववादी, जिनमें से अधिकांश राजा, जमींदार और उच्च जातियों के हिन्दू थे, ने स्वयं को अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष से दूर रखा। उन्होंने मिलजुलकर हिन्दू महासभा और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संध की स्थापना की। उनकी राजनीति, मुस्लिम लीग की राजनीति के समानांतर परंतु विपरीत थी। मुस्लिम लीग भी उन्हीं तर्कों के आधार पर इस्लामिक राष्ट्र की मांग कर रही थी जिन तर्कों का सहारा लेकर संघ, भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता था। जहां हिन्दू महासभा और आरएसएस प्राचीन भारत का महिमामंडन करने में जुट गए और यह कहने लगे कि भारत तो हमेशा से हिन्दू राष्ट्र था वहीं मुस्लिम लीग ने मुस्लिम बादशाहों की विरासत पर कब्जा कर लिया। महात्मा गांधी के नेतृत्व में चले स्वाधीनता संघर्ष का उद्देश्य हमारे देश को साम्राज्यवादी चंगुल से मुक्त कराना तो था ही, यह आंदोलन देश के जातिगत और लैंगिक रिश्तों में आमूलचूल परिवर्तन का भी हामी था। गांधीजी की राजनीति का लक्ष्य था एक नए राष्ट्र का निर्माण।

उस समय का श्रेष्ठिवर्ग, अपने विशेषाधिकार बचाए रखने की खातिर धर्म का सहारा लेता था। उसे डर था कि समाज में आ रही परिवर्तन की आंधी उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और विशेषाधिकारों को उड़ा ले जाएगी। हिन्दुत्व की राजनीति के सबसे बड़े विचारकों में से एक, एम. एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक "वी अवर नेशनहुड डिफाइंड" में फासीवाद की जबरदस्त सराहना की है और यह तर्क दिया है कि स्वतंत्र भारत में मुसलमानों और ईसाईयों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखा जाना चाहिए। आज न तो आरएसएस इस पुस्तक के अस्तित्व से इंकार कर पा रहा है और न ही गोलवलकर की निहायत गैर-प्रजातांत्रिक और अस्वीकार्य नीतियों से स्वयं को अलग।

दरअसल, आरएसएस और उसके सदस्यों का प्रजातांत्रिक मुखौटा केवल तब तक के लिए है जब तक वे सत्ता में नहीं आ जाते। एक बार सत्ता में आने के बाद, वे अपना यह मुखौटा नोंच फेंकेगे और अपने असली, भयावह, एजेन्डे को देश पर लादने का काम शुरू कर देंगे। इस समय सुप्रशिक्षित स्वयंसेवक राज्यतंत्र के विभिन्न हिस्सों में घुसपैठ कर रहे हैं। उनमें से कई को भाजपा में भी भेजा गया है। भाजपा बार-बार यह कहती है कि वह "सबके लिए न्याय और किसी का तुष्टिकरण नहीं" के सिद्धांत में विश्वास रखती है। यह एक अत्यंत धूर्ततापूर्ण नारा है जिससे यह जाहिर है कि पार्टी उन लोगों के लिए कुछ नहीं करना चाहती जो वर्तमान में भेदभाव-जनित पिछड़ेपन के शिकार हैं।

हिन्दू धर्म और हिन्दुत्व के बीच अंतर हम कैसे समझें? एक मोटी सी बात तो यह है कि महात्मा गांधी हिन्दू थे परंतु हिन्दुत्ववादी नहीं। इसके विपरीत, नाथूराम गोड़से हिन्दुत्ववादी था। उसके जैसे व्यक्ति की राय में गांधी जैसे हिन्दू को जीने का अधिकार नहीं था। यद्यपि गांधी एक बहुत समर्पित व सच्चे हिन्दू थे तथापि चूंकि वे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के हामी थे इसलिए गोड़से के लिए वे उतनी ही घृणा के पात्र थे जितना कि कोई मुसलमान या ईसाई।

नीतीश कुमार का हालिया बयान देश के राजनैतिक यथार्थ के केवल एक छोटे से पहलू तक सीमित है। इस बहस को अधिक व्यापक बनाया जाना जरूरी है(मूल अंगे्रेजी से हिन्दी रूपांतरण: अमरीश हरदेनिया)

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

संपादक महोदय,               

कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।

- एल. एस. हरदेनिया

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors