विकास नारायण राय जनसत्ता 2 मई, 2013: क्या महिलाओं को अपने दैनिक जीवन में हिंसा से मुक्ति मिल सकती है? संसद, मीडिया, पुलिस, न्यायपालिका की लगातार घोर सक्रियता के बावजूद, दुर्भाग्य से, जबाव 'नहीं' में ही बनता है। 'नहीं' अकारण नहीं है। मुख्य कारण यह है कि उपर्युक्त सक्रियता महज यौनिक हिंसा रोकने पर केंद्रित रही है। लैंगिक हिंसा, जो यौनिक हिंसा की जड़ है, से सभी ने कन्नी काट रखी है। विफलता का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है कि यौनिक हिंसा से निपटने के नाम पर उन्हीं आजमाए हुए उपायों को मजबूत किया गया है जो पहले भी अप्रभावी या अल्पप्रभावी रहे हैं। सोलह दिसंबर के दिल्ली सामूहिक बलात्कार कांड के शोर और धिक्कार के बीच राज्य ने वर्मा समिति को आधार बना कर सजाएं और प्रक्रियाएं कठोर बना अपनी दंड-शक्ति में वृद्धि की है; पुलिस और न्यायपालिका के बीच मुकदमे दर्ज करने और सजाएं देने की पेशेवर होड़ देखी जा सकती है; इस मोर्चे पर अधिक से अधिक पुलिस बल झोंकने पर जोर बना है, और अपराध-न्याय व्यवस्था के विभिन्न अंगों को, विशेषकर पुलिस को, उनकी कोताही के लिए अधिक जवाबदेह किया गया है। नतीजा? न सामूहिक बलात्कार कांड कम हुए न अन्य यौनिक हिंसा। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राज्य की शक्तियों में वृद्धि का मतलब होता है शक्तियों के दुरुपयोग में भी वृद्धि, जिससे कभी समाज का दूरगामी भला नहीं होता। ले-देकर ये तमाम उपाय ऐसे 'स्टेरॉयड' की तरह हैं जो अधिक से अधिक एक तात्कालिक खुशफहमी दे सकते हैं। महिलाओं को लैंगिक और यौनिक, दोनों वजहों से शोषण का सामना करना पड़ता है। दरअसल, लैंगिक पक्ष कमजोर होने के कारण ही महिला को यौन उत्पीड़न भी सहना पड़ता है। लिहाजा, बिना लैंगिक हिंसा पर चोट किए यौनिक हिंसा पर प्रभावी चोट की ही नहीं जा सकती। उदाहरण के लिए, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न संबंधी कानून को लीजिए। ये प्रावधान पिछले पंद्रह वर्षों से 'विशाखा' मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के आधार पर लागू हैं। मगर कार्यस्थलों पर यौन-उत्पीड़न बदस्तूर है। इन प्रावधानों ने पीड़ित की उस लैंगिक निरीहता को दूर नहीं किया, जिसके चलते संभावित शिकारी से उसके संबंध बस दब्बू मोल-भाव वाले बने रहते हैं। अगर यही नियम-कानून बनाए गए होते कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए, तो स्थिति भिन्न होती। क्योंकि तब महिला कार्मिकों को मुख्यधारा के कार्य देना और महत्त्व के निर्णयों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना अनिवार्य होता। यानी मोल-भाव में तब उन्हें दबाया नहीं जा सकता। तब ऐसे तमाम रोजमर्रा के मुद््दे भी, जिन्हें उनके अपमान और भयादोहन का साधन बनाया जाता है, महिलाओं की पारिवारिक-सामाजिक सुविधानुसार भी तय होते, न कि किसी की व्यक्तिगत कृपा से। जैसे, अनुकूल पाली, आवास प्राथमिकता, छुट््टी की गारंटी, सुरक्षित आवागमन, स्वास्थ्य जांच, प्रसाधन कक्ष, निजी कक्ष, लैंगिक शिष्टाचार आदि। न तब दबने की जरूरत होती और न यौन-उत्पीड़न की जमीन बन पाती। क्या हमने कभी सोचा है कि समाज में यौनिक हिंसा की तरह ही स्त्री के प्रति होने वाली आमहिंसा को लेकर हंगामा क्यों नहीं होता? क्योंकि इसहिंसा में हम सभी शामिल हैं। लिहाजा, 'चुप्पी' का षड्यंत्र हम सभी पर हावी है। बेटियों को मां-बाप की संपत्ति से वंचित रखना और पत्नियों की कमाई पर पति का हक जमाना आम है। घरेलू हिंसा के व्यापक तांडव को स्वीकार करने में ही स्वतंत्र भारत को छह दशक लग गए और वर्ष 2006 में जाकर इस पर बने कानून की पेचीदगियों ने उसे महिलाओं के किसी काम का नहीं छोड़ा है। आज भी अधिकतर स्त्रियां शिक्षा, नौकरी, जीवन-साथी आदि मनमर्जी का नहीं चुन सकतीं, और उन्हें कठोरतम लैंगिक पूर्वग्रहों से लेकर तेजाबी हमलों और पारिवारिक 'सम्मान-हत्याओं' का निशाना बनाया जाता है। तरह-तरह की विधियों, परंपराओं, रीति-रिवाजों आदि के नाम पर औरत की मर्द-आश्रित छवि को बढ़ावा देने में सभी सक्रिय योगदान देते हैं। सौंदर्य के विरूपित व्यवसायीकरण और स्त्री देह के वस्तुकरण का निर्बाध लाइसेंस है मीडिया के पास। इस लैंगिक हिंसा से पाली-पोसी गई निरुपायता ही स्त्री को यौनिक हिंसा के लिए तैयार करने की भूमिका बनती है। यौनिक हिंसा की तस्वीर की भयावहता और व्यापकता तो फिर भी आंकड़ों में समेटी जा सकती है, पर लैंगिक हिंसा में तो लगभग शत-प्रतिशत मर्द और पुरुषप्रधान सामाजिक संरचना शामिल है। दरअसल, लैंगिक अभय से भरे मर्द के लिए लैंगिक हिंसा से यौनिक हिंसा पर पहुंचने में एक पतली-सी मनोवैज्ञानिक रेखा ही पार करने को रह जाती है। वह लैंगिक अपराधी तो होता ही है, यौन-अपराधी होना इसी क्रम में अगली कड़ी जैसा हो जाता है। लिहाजा, हर मर्द संभावित यौन-अपराधी है और हर औरत संभावित यौन-शिकार। कुछ हद तक उनका व्यवहार इस बात से भी संचालित होता है कि यौनिकता से उनका परिचय किस रूप में हुआ है। इसीलिए यौन-अपराधियों या पीड़ितों का कोई परिभाषित रेखाचित्र (प्रोफाइल) नहीं बनाया जा सकता, जैसा कि अन्य गंभीर अपराधों की रोकथाम के लिए पुलिस कर सकती है। घर, बाहर, यात्रा, कार्यस्थल, क्रीड़ांगन, होटल, स्कूल, अस्पताल- सोते-जागते, सुबह-शाम-रात, अंधेरे-उजाले, गली-सड़क, मुहल्ले-गांव, एकांत-पार्टी, बस-ट्रेन-टैक्सी-जहाज, कहीं भी और कभी भी हो सकती है यौन हिंसा। किसी के भी साथ हो सकती है- बच्ची, जवान, अधेड़, बूढ़ी, घूंघटवाली, घरेलू, कामकाजी, पेशेवर, खिलाड़ी। और कोई भी कर सकता है- पिता, भाई, ससुर, अभिभावक, रिश्तेदार, परिचित-मित्र, दुश्मन-अपरिचित,सहपाठी, सहयोगी, सहकर्मी, नेता, डॉक्टर, उद्यमी, अध्यापक, कोच, वैज्ञानिक, धर्माचार्य, पुलिस, वकील, जज, जेलर, पत्रकार, प्रगतिशील, परोपकारी, शिष्ट-अशिष्ट, शिक्षित-अशिक्षित, गंवई-कस्बाई, नगरी-महानगरी, नाबालिग, बालिग, प्रौढ़, बूढ़ा, स्वस्थ, मनोरोगी। जब यौनिक हिंसा के ऐसे सर्वव्यापी आयाम हैं तो उनसे महज राज्य-शक्ति और पुलिस-उपस्थिति बढ़ा कर और उन्हें जवाबदेह बना कर ही नहीं निपटा जा सकता। इनके अनुपस्थित पूरकों पर भी काम करना होगा। ये पूरक हैं- 'संवेदी पुलिस' और 'सशक्त समाज'। इस संदर्भ में पहले देखें कि सोलह दिसंबर के सामूहिक बलात्कार कांड से उठे तूफान के दौरान किन गंभीर व्यवस्थागत कमियों का खुलासा हुआ था, जिन पर ध्यान देना अनिवार्य है- एक, यौनिक अपराधों की जमीन तैयार करने वाले लैंगिक अपराधों की प्रभावी रोकथाम पर चुप्पी रही। परिणामस्वरूप सुझाए या लागू किए गए प्रशासनिक और विधिक उपाय यौन अपराधों की रोकथाम पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए हैं। दो, परिवार, समाज, मीडिया, राज्य की भूमिका, जो पुरुष की ऐंठ-भरी अभय की स्थिति और स्त्री की समर्पण भरी निरुपायता को मजबूती देती है, विमर्शों के केंद्र में नहीं लाई गई। सारी पहल दंड और जवाबदेही के दायरे में सीमित रखने से शोर तो खूब मचा, पर असल में कोई नई पहल नहीं हुई। तीन, यौन संबंधी अपराधों को आधुनिकता के मानदंडों और युवाओं के 'डेमोक्रेटिक स्पेस' के मुताबिक नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत काफी समय से है। फिलहाल उनकी भूलों-चूकों को अपराध के दायरे में रखा जा रहा है। लिहाजा, पुलिस और न्याय-व्यवस्था की काफी क्षमता उन यौनिक मसलों को अपराध बनाने पर खर्च हो रही है, जिनका निदान यौन-शिक्षा और काउंसलिंग के माध्यम से होना चाहिए। चार, यौन अपराधों के व्यक्ति और समाज पर पड़ने वाले असर के निदान की पहल नहीं की गई। मानो इन मामलों में पीड़ित को हर्जाना और दोषी को कारावास या फांसी के अलावा कोई और आयाम हो ही नहीं सकता। जैसे अपने नागरिकों का यौनिकता से स्वस्थ परिचय कराना राज्य की प्राथमिकता में नहीं आता। जबकि समाज का दूरगामी भला इसमें है कि गंभीर यौन अपराधों में पीड़ित पक्ष और दोषी, दोनों का, उनकी अलग-अलग जरूरत के मुताबिक मनोवैज्ञानिक पुनर्वास हो। अन्यथा पीड़ित का जीवन एक बोझ जैसा रहेगा और दोषी भी समाज के लिए खतरा बना रहेगा। पीड़ित को सदमे से पूरी तरह उबर आने तक और भावी जीवन में भी अगर आवश्यक हो तो यह सुविधा राज्य द्वारा दी जानी चाहिए। इसी तरह दोषी को जेल से रिहा करने की एक पूर्व-शर्त यह भी होनी चाहिए कि वह मनोवैज्ञानिक रूप से समाज में रहने योग्य हो गया है। पांच, महिलाओं की सुरक्षा और सुविधा के नाम पर कई सतही कदम नजर आए। महिला थाना, महिला बैंक, महिला डाकघर, महिला बस, महिला बाजार आदि। इसी संदर्भ में यौन-स्वीकृति की उम्र बढ़ा कर सारा दोष युवाओं के सिर पर डाल दिया गया, जैसे स्वस्थ यौनिकता से उनका परिचय अभिभावकों की जिम्मेदारी या राज्य की भूमिका में शामिल नहीं। यौन अपराधों के हौए से मुक्ति पाने की कुंजी है महिला सशक्तीकरण। यह उनके लैंगिक पक्ष को मजबूत करने के ठोस उपायों से ही संभव होगा। जैसे, पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा न दिए/ लिए जाने पर वह भाग राज्य द्वारा जब्त किया जाए। जैसे, घरेलू हिंसा के आरोपियों को तब तक जेल में रखा जाए जब तक पीड़ित की भावी सुरक्षा की गारंटी न हो जाए; परिवार या कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव को भी दंडनीय बनाया जाए; महिला वस्तुकरण और उन्हें मर्द-आश्रित बनाने वाली प्रथाओं/ चित्रणों पर रोक लगे। छह, नागरिकों के सामाजिक, कानूनी, जनतांत्रिक अधिकारों के साथ खड़ा रहने में प्रशासन अक्षम दिखा। याद रहे कि एक सशक्त समाज ही अपने कानूनों का सम्मान करता है। कमजोर समाज कानून लागू करने वालों के प्रति अविश्वास से भरा होगा और उनकी विधिवत आज्ञाओं का भी अनादर करेगा। न्यायालय और मीडिया इस बारे में सजग दिखे, पर राज्य की कानून-व्यवस्था की एजेंसियों विशेषकर पुलिस को अभी काफी सफर तय करना है। दरअसल 'सशक्त समाज' के मसले पर सारा तंत्र ही दिशाहीन नजर आता है। सात, एक जनतांत्रिक व्यवस्था में पुलिस की क्षमता उसके पेशेवर कार्य-कौशल से ही नहीं आंकी जा सकती। उसे नागरिक संवेदी भी होना होगा। इसके लिए पुलिसकर्मी का पेशेवर पक्ष ही नहीं, सामाजिक और व्यक्तिगत पक्ष भी मजबूत करना आवश्यक है। स्त्रियों के प्रति संवेदीकरण नजरिए से ही नहीं, समूचे जनतांत्रिक प्रशासन के संदर्भ में। सोलह दिसंबर के सामूहिक बलात्कार कांड में दिल्ली पुलिस की भूमिका की अगर विवेचना करें तो मामला दर्ज करने, अनजान दोषियों का पता लगाने, उन्हें पकड़ने, जांच पूरी करने, सबूत जुटाने और दोषियों का चालान करने में उन्होंने चुस्ती दिखाई, पर नागरिक-संवेदी दिखने में वे विफल रहे। यह एक अलग तरह के प्रशिक्षण की मांग करता है। 'संवेदी पुलिस' और 'सशक्त समाज' को उन अनिवार्य पूरकों के रूप में लिया जाना चाहिए जिनके बिना महिला-विरुद्ध हिंसा का हौआ दूर नहीं किया जा सकता। 'संवेदी पुलिस' का दो-टूक मतलब है- संविधान अनुकूलित पुलिस। 'सशक्त समाज' का मतलब है ऐसा समाज, जिसके सामाजिक, वैधानिक, जनतांत्रिक अधिकारों का सम्मान सुनिश्चित हो। स्त्री-विरोधी हिंसा से लोहा लेने में यह संवेदी पुलिस की भूमिका के अनुरूप होगा, अगर उनके कार्यक्षेत्र में 'सशक्त समाज' की कवायद भी शामिल कर दी जाए। संवेदी पुलिस और सशक्त समाज एक योजनाबद्ध पहल से ही संभव है। |
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