कमल नयन चौबे जनसत्ता 2 अगस्त, 2013: नियमगिरि में खनन की इजाजत देने की बाबत सर्वोच्च न्यायालय ने अठारह अप्रैल को दिए अपने फैसले में ग्रामसभा की मंजूरी लेने का आदेश दिया था। इस फैसले और इसके बाद के घटनाक्रम ने जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय समुदायों के हक की लड़ाई के कई विरोधाभासों और उपलब्धियों को उजागर किया है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की मनमानी व्याख्या करते हुए ओड़िशा सरकार ने सिर्फ बारह गांवों में पल्ली सभा बुलाने का फैसला किया। इनमें से अब तक जिन चार पल्ली सभाआें की बैठकें हुर्इं, वहां लोगों ने पूरी तरह से नियमगिरि इलाके में खनन के प्रस्ताव को खारिज कर दिया। यहां यह समझने की आवश्यकता है कि आखिर स्थानीय समुदाय खनन का विरोध क्यों कर रहे हैं और राज्य सरकार खनन और उद्योगीकरण का विकास मॉडल थोपने पर क्यों आमादा है। यह भी पूछने की जरूरत है कि क्या ऐसा करते वक्त राज्य ने संसद द्वारा बने कानूनों के प्रावधानों का पालन किया? आखिर वेदांता और उसके खिलाफ स्थानीय कोंध-डोंगरिया आदिवासियों का संघर्ष भारतीय लोकतंत्र की कैसी तस्वीर पेश करता है? ओड़िशा सरकार ने अक्तूबर 2004 को 'वेदांता एलुमिनिया' की एक सहायक कंपनी 'स्टरलाइट इंडस्ट्रीज इंडिया' के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किया। इससे इस कंपनी को 'ओड़िशा माइनिंग कॉरपोरेशन' के साथ मिल कर नियमगिरि के पहाड़ों पर बॉक्साइट के खनन और यहां की जमीन, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का अधिकार मिला। राज्य सरकार ने इसे हर तरह का सहयोग देने का फैसला किया। लेकिन इस समझौते में बहुत सारे पर्यावरणीय और मानवाधिकार के मुद्दों की उपेक्षा की गई। कोंध-डोंगरिया समुदाय के लोग नियमगिरि पहाड़ियों के मूल निवासी हैं। इन पहाड़ियों के बीच बहुत गहन वन और नदी घाटियां हैं। डोंगरिया समुदाय के लोग अपनी जीविका के लिए इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहे हैं। खेती, मछली पकड़ना और छोटा-मोटा शिकार इनकी जीविका का मुख्य साधन रहा है। इनका नियमगिरि जंगल के साथ एक सहजीवी संबंध रहा है। उनकी जीवनशैली, सांस्कृतिक रूपरेखा, प्रकृति और जंगल के साथ संबंध इनकी विशिष्ट विरासत रही है। नियमगिरि की पहाड़ियां पारिस्थितिकी के लिहाज से भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं। यहीं से वसुंधरा नदी और नगावली नदी की प्रमुख सहायक नदियां निकलती हैं। यहां का जंगल विविध पेड़ों से भरा हुआ है। इन पहाड़ियों में बाघ, तेंदुआ, भालू, पेंगोलिन, लंगूर, सांभर आदि जैसे बहुत-से जंगली जानवर भी हैं। इसलिए यहां पर वन्यजीव अभयारण्य और 'ऐलीफेंट रिजर्व' बनाने का प्रस्ताव भी रहा है। ओड़िशा सरकार ने इन सारे पहलुओं की उपेक्षा करके यहां के संसाधनों के दोहन का फैसला किया। इस काम के लिए उसने इस क्षेत्र में जिस कंपनी (वेदांता एलुमिना) को चुना, वह खनन के मामले में एक बदनाम कंपनी रही है। इस कंपनी पर नार्वे में 'पर्यावरण और मानवाधिकार उल्लंघन' और 'बहुत ज्यादा अनैतिक साधन' अपनाने के आरोप लग चुके हैं। चूंकि वेदांता कंपनी की परियोजना सीधे तौर पर स्थानीय समुदायों की जमीन और जीविका के साधनों और नियमगिरि के प्रति उनकी आस्था पर हमला कर रही थी, इसलिए डोंगरिया लोगों ने इसका तीखा प्रतिरोध किया। वन अधिकार कानून की अधिसूचना जारी होने के बाद 2008 से नियमगिरि के संघर्ष को एक नई दिशा मिली। इसमें अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को जंगल की जमीन पर निजी और सामुदायिक वन अधिकार देने का प्रावधान नहीं किया गया, बल्कि कोंध-डोंगरिया जैसी आदिम जनजातियों को उनके रहवास का अधिकार भी दिया गया है। इसके अलावा, इसमें ग्रामसभा को जंगल की जमीन के संरक्षण के बारे में फैसला करने का हक है। पेसा कानून भी इनके पक्ष में था, जो गांव की परंपरागत जमीन के उपयोग के बारे में ग्राम सभाओं से सलाह लेने का प्रावधान करता है। बहरहाल, ओड़िशा सरकार ने वेदांता के किसी भी विरोध को 'विकास' का विरोध माना और उसका दमन किया। अपने विरोध के दौरान स्थानीय लोगों ने लगातार इस बात पर जोर दिया कि वेदांता परियोजना उनके शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक और आर्थिक हितों के खिलाफ है। संघर्ष कर रहे आदिवासियों ने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई कि वह इस क्षेत्र के आदिवासियों के अधिकारों और नियमगिरि पहाड़ के वन संसाधनों की हिफाजत करे। सर्वोच्च न्यायालय की 'सेंट्रल इंपावर्ड कमिटी' (सीइसी) ने यह पाया कि राज्य में स्टरलाइट कंपनी की बाक्साइट परियोजना को मंजूरी देने में केंद्र सरकार ने अवैध तरीके से काम किया है। इस समिति ने सर्वोच्च न्यायालय से इस मामले में वनभूमि के 'डायवर्जन' (बदलाव) को रोकने के लिए कहा। इसके अलावा, सीइसी ने यह तर्क दिया कि जो जमीन कंपनी को आबंटित की गई है, वह संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आती है। इस अनुसूची की किसी भी जमीन को गैर-अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति को स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। लिहाजा, 23 सितंबर 2007 को सर्वोच्च न्यायालय ने वेदांता कंपनी को नियमगिरि की पहाड़ियों में खनन करने से रोक दिया। लेकिन यह आदिवासियों के लिए अस्थायी राहत ही थी। नवंबर 2007 और अगस्त 2008 में सर्वोच्च न्यायालय ने जमीन के 'डायवर्जन' के संबंध में दो फैसले दिए। इन दोनों ही फैसलों में इसने टिकाऊ विकास की अपनी अवधारणा लागू की। इसने इस आधार पर परियोजना को मंजूरी दी कि वेदांता अपने फायदे का पांच प्रतिशत या दस करोड़ रुपए इस क्षेत्र में सिंचाई, खेती आदि के विकास पर खर्च करेगी। लेकिन स्थानीय लोग वन अधिकार कानून के प्रावधानों के आधार पर वेदांता का विरोध करते रहे। इनके विरोध के कारण यह मुद््दा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन चुका था। अगस्त 2009 में ओड़िशा सरकार ने वेदांता के लिए जमीन के 'डायवर्जन' के संबंध में आखिरी मंजूरी मांगी। उस समय जयराम रमेश पर्यावरण और वनमंत्री थे। उन्होंने वेदांता के मसले को पूरी तरह से समझने के लिए एनसी सक्सेना समिति का गठन किया। चार सदस्यीय इस समिति की रिपोर्ट ने राज्य सरकार और वेदांता कंपनी द्वारा बहुत-से कानूनों के उल्लंघन को रेखांकित किया। रिपोर्ट के अनुसार, वेदांता कंपनी ने वन संरक्षण अधिनियम, पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, पेसा और वन अधिकार कानून का उल्लंघन किया है। इस समिति की रिपोर्ट आने के बाद, स्थानीय लोगों के दबाव के कारण अगस्त 2010 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने वेदांता परियोजना को दी गई मंजूरी रद््द कर दी। ओड़िशा खनन निगम ने पर्यावरण मंत्रालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस पर अठारह अप्रैल को अपना फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने आदेश दिया कि आदिवासी पल्ली सभाएं (ग्राम सभाएं) इस बात का फैसला करें कि क्या खनन के लिए प्रस्तावित क्षेत्र किसी भी तरह से उनके देवता नियम राजा को प्रभावित करेगा। फैसले के मुताबिक अगर पल्ली सभाएं यह मानती हैं कि खनन से ऐसा हो सकता है, तो फिर यहां के लोगों के अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। अदालत का आदेश कुल मिला कर वनाधिकार कानून का पालन सुनिश्चित करने का है। गौरतलब है कि जहां खनन होने वाला है, उसके नजदीकी क्षेत्र में तकरीबन सौ छोटे गांव हैं। लेकिन ओड़िशा सरकार ने कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों की सिर्फ बारह पल्ली सभाओं की बैठक बुलाने का फैसला किया। यह अदालत के फैसले की मनमानी व्याख्या है, जो कि सरकार की मंशा पर संदेह खड़े करती है। कई पल्ली सभाओं की बैठक हो चुकी है। इन सभी ने खनन के प्रस्ताव को पूरी तरह नकार दिया है। अगर सभी बारह पल्ली सभाएं खनन को नामंजूर कर देती हैं तो यह भारत ही नहीं, विश्व में संसाधनों के बेतहाशा दोहन के खिलाफ साधनहीन समुदायों की ऐतिहासिक जीत होगी। असल में, नियमगिरि में आदिवासियों का अंतहीन संघर्ष हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी गहरे सवाल खड़े करता है। इस संदर्भ में कुछ बातें खासतौर पर गौर करने की हैं। पेसा और वन अधिकार कानून, दोनों में ही ग्राम सभाओं को यह अधिकार दिया गया है कि खनन आदि के प्रस्ताव उनकी रजामंदी से ही लागू किए जा सकेंगे। इसके बावजूद ओड़िशा और केंद्र सरकार, दोनों ने जान-बूझ कर इस प्रावधान की अनदेखी की। दूसरे, यह सैद्धांतिक सवाल भी जुड़ गया है कि अगर कार्यपालिका जान-बूझ कर विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों का उल्लंघन करे, तो उसकी जवाबदेही तय करने का क्या रास्ता हो सकता है? तीसरे, नियमगिरि का संघर्ष यह भी दिखाता है कि हमारी व्यवस्था जमीनी स्तर के संघर्ष के प्रति कितनी दमनकारी हो चुकी है। समाजवादी जनपरिषद जैसे इस क्षेत्र में सक्रिय संगठनों ने लंबे समय से सिर्फ कानूनी प्रक्रिया के पारदर्शी पालन के लिए संघर्ष किया। लेकिन इन्हें लगातार दमन का सामना करना पड़ा और इसके नेताओं पर माओवादी होने के आरोप लगाए गए।चौथा, नियमगिरि कॉरपोरेट पूंजीवाद के दबाव के आगे व्यवस्था के घुटने टेकने का प्रमाण भी है। इसी कारण, बिल्कुल वैध आधार पर इस क्षेत्र में खनन पर रोक होने के बावजूद ओड़िशा सरकार ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। फिर, न्यायालय के फैसले की मनमानी व्याख्या करते हुए उसने इस क्षेत्र में सिर्फ पल्ली सभाओं की बैठक बुलाने का फैसला किया। इस बैठक के पहले वेदांता के एजेंटों को पुलिस ने स्थानीय लोगों को प्रभावित करने से नहीं रोका। लेकिन जनसंगठनों के लोगों ने आदिवासियों को प्रस्तावित बैठकों के महत्त्व के बारे में बताने की कोशिश की, तो उन्हें जबरन रोका गया। इस सबके बावजूद लोग बड़ी संख्या में पल्ली सभाओं में आए और उन्होंने खनन योजना को नकार दिया। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को ही विकास मानने वाले लोगों के लिए यह बुरी खबर है। लेकिन यह उन लोगों के लिए खुशखबरी है, जो विकास के नाम पर जारी जल, जंगल, जमीन की लूट के खिलाफ चल रहे जन-संघर्ष को आशा की निगाह से देखते हैं। नियमगिरि का घटनाक्रम पेसा और वन अधिकार कानून जैसे प्रगतिशील कानूनों में निहित संभावनाओं को भी दर्शाता है। लेकिन नियमगिरि का सबसे आकर्षक पहलू यह है कि यह आदिवासियों के लंबे और अथक संघर्ष का प्रतीक है। पिछले कई वर्षों से स्थानीय संगठनों की मदद से संघर्ष करते हुए यहां के आदिवासियों ने वेदांता परियोजना का लगातार विरोध किया है, जिसके कारण सरकारी तंत्र के पूरे समर्थन के बावजूद यह परियोजना लागू नहीं हो पाई है। नियमगिरि का संघर्ष पूरे देश और दुनिया के दूसरे भागों में भी, अपने हक की खातिर लड़ते समुदायों के लिए एक अनुपम मिसाल है। फेसबुक पेज को लाइक करने के क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta |
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