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Thursday, October 23, 2014

तस्‍लीमा नसरीन : कुछ विचार बिन्‍दु:कात्‍यायनी

तस्‍लीमा नसरीन : कुछ विचार बिन्‍दु
October 23, 2014 at 11:38am
कात्‍यायनी


तस्‍लीमा नसरीन धर्म के विरुद्ध और पुरुष वर्चस्‍ववाद के विरुद्ध लगातार प्रखरता से लिखती रहती हैं, लेकिन गाजा में जियनवादियों द्वारा नरसंहार की विभीषिका हो, या समूचे मध्‍यपूर्व में अमेरिकी साम्राज्‍यवाद की विनाशलीला हो, या फिर साम्राज्‍यवाद-पूँजीवाद के तमाम कुकर्मों और नवउदारवादी नीतियों के परिणामस्‍वरूप पूरी दुनिया में बरपा हो रहा तबाहियों का कहर हो, तस्‍लीमा की आवाज कहीं भी सुनायी नहीं देती।

जो व्‍यक्ति वास्‍तव में अन्‍याय और प्रतिगामिता का विरोधी होगा, वह जीवन के हर क्षेत्र में उनका विरोध करेगा, कुछ चुनिन्‍दा क्षेत्रों में नहीं। तस्‍लीमा में अंधी विद्रोह की आग है, पर सामाजिक विश्‍लेषण की कोई वैज्ञानिक-ऐतिहासिक दृष्टि नहीं है। पुरुष-वर्चस्‍वाद अपने आप में समाजिक संरचना से विच्छिन्‍न कोई स्‍वतंत्र सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिघटना नहीं है। यह वर्ग समाज के उद्भव के ठोस वस्‍तुगत समाजिक-आर्थिक कारणों से पैदा हुआ और अलग-अलग वर्ग समाजों में अपनी प्रकृति बदलता हुआ आज पूँजीवाद के युग में भी अपनी सर्वोन्‍नत सैद्धान्तिकी और नये-पुराने बर्बर और बारीक रूपों में मौजूद है। स्त्रियों की पराधीनता का मूल धर्म में नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक संरचना में मौजूद है। धर्म (अपने नये रूप में) और पूँजीवाद की पण्‍य संस्‍कृति उसे मजबूत और सर्वव्‍याप्‍त बनाने का काम करते हैं। तस्‍लीमा का अराजक विद्रोही नारीवाद स्‍त्री समुदाय की सामाजिक मुक्ति के मार्ग पर विचार करने के बजाय व्‍यक्तिगत रूढि़भंजक विद्रोह की सीमाओं में कैद रह जाता है और कहीं-कहीं यौन मुक्तिवाद के गड्ढे में भी जा गिरता है। स्‍त्री मुक्ति के प्रश्‍न को ऐतिहासिक वर्गीय परिप्रेक्ष्‍य में न देख पाने वाली हर अराजक वर्गीय दृष्टि अन्‍ततोगत्‍वा या तो लैगिक नियतत्‍ववाद का शिकार हो जाती है, या फिर भाषाशास्‍त्रीय नियतत्‍ववाद का, या फिर विशुद्ध व्‍यक्तिगत अराजकतावाद का।

धर्म के प्रश्‍न पर भी यह समझ सबसे पहले जरूरी हो जाता है कि धर्म एक प्राक् पूँजीवादी अधिरचना के रूप में अस्तित्‍व में आने के बाद अपना स्‍वरूप-परिवर्तन करके पूँजीवाद के युग में भी क्‍यों और कैसे एक शक्तिशाली प्रतिगामी शक्ति के रूप में जीवित बचा हुआ है, सामंतवाद पर विजय के बाद पूँजीवाद ने क्‍यों और किसप्रकार चर्च (धर्म) के साथ ''पवित्र गठबंधन'' बना लिया था और आज धर्म किसप्रकार पूँजी की चाकरी बजा रहा है। जैसाकि मार्क्‍सवादी विश्‍लेषण बताता है, मात्र नास्तिकता और वैज्ञानिक दृष्टि के प्रचार से धर्म का उन्‍मूलन सम्‍भव नहीं। जबतक हमारा जीवन माल-उत्‍पादन की अदृश्‍य सत्‍ता के वशीभूत बना रहेगा, तबतक सामाजिक चेतना पर धर्म की दृश्‍य-अदृश्‍य जकड़बंदी भी बनी रहेगी। धर्म-विरोधी प्रचार पूँजीवाद के विनाश की पूरी परियोजना का एक दूरगामी कार्यभार ही हो सकता है।

जो लोग केवल कुछ सामाजिक-सांस्‍कृतिक बुराइयों को या पूँजीवाद-साम्राज्‍यवाद के कुछ दुष्‍परिणामों को हमलों का निशाना बनाते हैं, लेकिन उनके मूल स्रोत या मूल कारण की शिनाख्‍त नहीं कर पाते उन्‍हें विश्‍व पूँजीवाद और देशी पूँजीवाद के 'थिंक टैंक' भी मसीहा और प्रतीक-पुरुष/स्‍त्री बना लेते हैं। ऐसे लोग जाने-अनजाने जनता को मिथ्‍या समाधान सुझाने और मिथ्‍या चेतना देने का ही काम करते हैं और पूँजीवाद की ही सेवा करते हैं। पूँजी की स्‍वतंत्र गति से और पूँजीवादी सत्‍ताओं के आचरण से जो अनियंत्रित असंतुलन,अतिरेकी प्रभाव और अराजकताऍं पैदा होती हैं, उन्‍हें पूँजीवादी व्‍यवस्‍था स्‍वयं नियंत्रित करना चाहती है। आई.एल.ओ. और तमाम अन्‍तरराष्‍ट्रीय राहत संस्‍थाऍं, तमाम एन.जी.ओ. और 'वर्ल्‍ड सोशल फोरम' जैसी संस्‍थाऍं, तमाम विखण्डित आन्‍दोलन, तमाम सुधारवादी लोग और तमाम बुर्जुआ सलाहकार-विचारक यही काम करते हैं। वे इसप्रकार भ्रम पैदा करने वाली धुँआ छोड़ने की मशीन, सेफ्टी वॉल्‍व, स्‍पीड ब्रेकर और जनाक्रोशों के प्रहारों को सोखने वाले कुशन का काम करते हैं। पूँजीवाद को पूँजीवादी आलोचना न सिर्फ स्‍वीकार्य होती है, बल्कि उसकी जरूरत होती है और वह उसका स्‍वागत करता है। डरता है वह साम्‍यवादी आलोचना से, और हर कीमत पर उसे दबा देना चाहता है। जो पूँजीवाद की वास्‍तविक, वैज्ञानिक समाजवादी आलोचना होती है, वह शब्‍दों से भी होती है और भौतिक बल के द्वारा भी।

पूँजी अपनी स्‍वतंत्र आंतरिक गति से असमानता, भुखमरी, बाल श्रम, स्‍त्री दासता के बर्बर एवं बारीक रूपों और पर्यावरण विनाश को जन्‍म देती रहती है। ये चीजें अनियंत्रित होकर पूरे समाज को अराजकता के गर्त में न धकेल दे और स्‍वयं पूँजी-निर्माण की सतत् प्रक्रिया को ही खतरे में न डाल दे, इसके लिए कुछ पैबन्‍दसाजियों की, कुछ सुधार कार्रवाइयों की, कुछ सन्‍तुलनकारी कदमों की जरूरत होती है। एन.जी.ओ. राजनीति यही करती है और इसीलिए सालाना इस मद में दुनिया के पूँजीपति अरबों डालर खर्चते हैं। इसी मकसद से मैगासेसे पुरस्‍कार और नोवेल शान्ति पुरस्‍कार दिये जाते हैं और कैलाश सत्‍यार्थी जैसों को मसीहा बनाया जाता है। एक दूसरी श्रेणी उन अराजकतावादी उग्र विद्रोही और उत्‍तर-मार्क्‍सवादी, अस्मितावादी आदि-आदि टाइप के बुद्धिजीवियों की है, जो बुनियादी अन्‍तरविरोधों की शिनाख्‍त किये बिना सामाजिक-राजनीतिक प्रश्‍नों पर उग्र अकर्मक विमर्श करते हैं, खण्‍ड को समग्र के रूप में या प्रतीतिगत यथार्थ को सारभूत यथार्थ के रूप में प्रस्‍तुत करते हैं, रोग के लक्षणों को ही रोग बताते हैं, या फिर समाज के गैर बुनियादी अन्‍तरविरोधों को मुख्‍य मुद्दा बनाने का काम करते हैं। ये सभी लोग किसी न किसी रूप में मूल लक्ष्‍य को दृष्टिओझल कर देते हैं। विभ्रमग्रस्‍त और दिशाहीन लोग इन्‍हें अपना नायक मान लेते हैं और शासक वर्ग भी इन्‍हें समादृत-पुरस्‍कृत करता है।

पि‍छड़े देशों में व्‍याप्‍त धार्मिक कट्टरपन और स्‍त्री-विराेधी बर्बरता की आलोचना करते हुए तस्‍लीमा नसरीन प्रकारान्‍तर से बुर्जुआ जनवाद का आदर्शीकरण करती हैं और खासकर पश्चिमी बुर्जुआ समाजों का भी आदर्शीकरण करती हैं। उनका तर्कणावाद कुलीन बुर्जुआ तर्कणावाद है और उनका नारीवाद अकर्मक विमर्शी, अराजकतावादी, व्‍यक्तिवादी, अग्निमुखी बुर्जुआ नारीवाद ही है, भले ही यहॉं-वहॉं वह समाजवाद की प्रशंसा करती या मार्क्‍सवाद को उद्धृत करती दीख जाती हों।

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