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Sunday, October 18, 2015

इस बलात्कारी हत्यारा दुःसमय में राष्ट्र का विवेक कहां है? अब कोई संबंध पवित्र बचा नहीं क्योंकि मुक्त बाजार है। हम दिल्ली के उस मुख्यमंत्री को बलात्कार सुनामी का जिम्मेदार ठहरा रहे हैं,जिसके प्रति न पुलिस जवाबदेह है और न प्रशासन।इस राज्य को बनाने का क्या औचित्य है कि मुख्यमंत्री को जनादेश के मुताबिक राजकाज चलाने का न्यूनतम हकहकूक से भी वंचित कर रहा है केंद्र? इस कयामत के मंजर में इंसानियत का जज्बा कहां है? कहां खो गयी है मुहब्बत? सात सौ साल तक मुसलमान शासकों ने भारत पर राज किया।तो दोसौ साल तक हम अंग्रेजों के गुलाम रहे।फिर भी सनातन हिंदू धर्म सही सलामत है और हिंदुत्व के सिपाहसालार अखंड भारतवर्ष से लेकर नेपाल तक गैरहिंदुओं के सफाये के लिए कुरुक्षेत्र और चक्रव्यूह रच रहे हैं! जोधा अकबर ने मुगलिया सल्तनत के लिए धर्म को देश जोड़ने का माध्यम बना लिया है और हम फासिज्म की राजनीति और सत्ता में धर्म को बंटवारे का हथियार बनाये हुए हैं?फिर फिर बंटवारे का हथियार! यह समाज राष्ट्र पितृसत्ता के मनुस्मति अनुशासन के पर्याय हैं तो स्त्री सेक्स खिलौना है पुरुषतंत्र के नजरिये से।इसके तमाम प्रमाण महाकाव्यो

https://youtu.be/gruOksIyAzM

इस बलात्कारी हत्यारा दुःसमय में राष्ट्र का विवेक कहां है?

अब कोई संबंध पवित्र बचा नहीं क्योंकि मुक्त बाजार है।

हम दिल्ली के उस मुख्यमंत्री को बलात्कार सुनामी का जिम्मेदार ठहरा रहे हैं,जिसके प्रति न पुलिस जवाबदेह है और न प्रशासन।इस राज्य को बनाने का क्या औचित्य है कि मुख्यमंत्री को जनादेश के मुताबिक राजकाज चलाने का न्यूनतम हकहकूक से भी वंचित कर रहा है केंद्र?


इस कयामत के मंजर में इंसानियत का जज्बा कहां है?

कहां खो गयी है मुहब्बत?


सात सौ साल तक मुसलमान शासकों ने भारत पर राज किया।तो दोसौ साल तक हम अंग्रेजों के गुलाम रहे।फिर भी सनातन हिंदू धर्म सही सलामत है और हिंदुत्व के सिपाहसालार अखंड भारतवर्ष से लेकर नेपाल तक गैरहिंदुओं के सफाये के लिए कुरुक्षेत्र और चक्रव्यूह रच रहे हैं!


जोधा अकबर ने मुगलिया सल्तनत के लिए धर्म को देश जोड़ने का माध्यम बना लिया है और हम फासिज्म की राजनीति और सत्ता में धर्म को बंटवारे का हथियार बनाये हुए हैं?फिर फिर बंटवारे का हथियार!


यह समाज राष्ट्र पितृसत्ता के मनुस्मति अनुशासन के पर्याय हैं तो स्त्री सेक्स खिलौना है पुरुषतंत्र के नजरिये से।इसके तमाम प्रमाण महाकाव्यों और वैदिकी साहित्य में हैं,जिसे हिंदुत्व का असली इतिहास बताया जाता है।इस पर तुर्रा यह मुक्त बाजार स्त्री देह का।


कल सविता बाबू की संवेदनाओं के तारों को बेतरह छेड़ते हुए वीडियो में एक और मेरठ की तस्वीर हमने जारी की है,जहां नौचंदी मेला दंगाइयों की ओर से उजाड़ देने के बाद,हाशिमपुरा और मलियाना कत्लेआम को अंजाम देने के बाद लाखों किसानों के आंदोलन में यूपी उत्तराखंड के हिंदू मुसलमान किसानों ने बंगाल और देस भर में आजादी से पहले और बाद में हमेशा जो किया,वही साझा चूल्हा सुलगा दिया।रवींद्र संगीत की पृष्ठभूमि में मनुष्यता की धाराओं के महाविलय के इस भारत तीर्थ की यात्रा भी कर लें।



पलाश विश्वास

सविता बाबू पूछती हैं कि बवंडर क्यों मचा है जबकि सरहदो के आर पार साझा चूल्हा अब भी सुलग रहा है।?


मजहब भले अलग हो,हमारे दिल एक है।बंटवारा हुआ है ,दिलों का बंटवारा नहीं हुआ है।दिलों का बंटवारा नामुमकिन है।


हवा एक है।मिट्टी एक है।आसमान एक है।नदियां एक सी हैं। हिमालय इकलौता है।समुंदर भी एक सा है।


गोमांस को लेकर यह बवंडर क्यों और लोग बंटवारा पर क्यों आमादा है?


मिट्टी का रंग एक सा है।मिट्टी नहीं बदलती कंटीली तारों के बावजूद।पाकिस्तानी ड्रामा में भी फिर वही अखंड भारत।दिलों का बंटवारा हुआ तो कुछ नहीं बचेगा।इंसानियत तबाह हो जायेगी।


मेरठ दंगों के ठीक बाद,नौचंदी मेले के दंगाइयोें के फूंक देने के बाद,मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहारों के बाद  भाईचारा  का माहौल जो किसान आंदोलन में देखा,जो मसुलमान और हिंदू किसानों का साझा चूल्हे से पकी रोटियों और सब्जियों का जायका वे लेती रही हैं,वह जायका हर हर महदेव और अल्लाहो अकबर की धर्मोन्मादी गूंज के आर पार वे सरहद के आर पार सबसे साझा कर रही हैं।


https://youtu.be/SOlq6RFwl3s


Sabita Babu speaks from the Heart of the India,where Dilon kaa Bantwara naa huaa hai naa Hoga.Please share as much as you can to save India!The Real India,the greatest pilgrimage of humanity merging so many streams of humanity!

মন্ত্রহীন,ব্রাত্য,জাতিহারা রবীন্দ্রনাথ,রবীন্দ্র সঙ্গীতঃ দীনহীনে কেহ চাহে না, তুমি তারে রাখিবে জানি গো।

https://youtu.be/SOlq6RFwl3s


Why should the Executive at the Centre become Almighty?

Why should he behave above the constitution,kill the Polity?

Let Me Speak Human!Let Me support Kejriwal for his demand to control Delhi Police!



मन बहुत बेचैन है।इस दुःसमय में राष्ट्र का विवेक कहां है?

इस कयामत के मंजर में इंसानियत का जज्बा कहां है?

कहां खो गयी है मुहब्बत?


सात सौ साल तक मुसलमान शासकों ने भारत पर राज किया।तो दोसौ साल तक हम अंग्रेजों के गुलाम रहे।


अब बताइये कि सोलह मई 2014 के बाद गुजरा अच्छे दिनों का यह हिंदुत्व समय उसके मुकाबले क्या है?


औरंगजेब को हम हिंदू विरोधी मानते हैं।उसने कितने कत्लेआम हिंदू जनाते के किये,हिंदुत्ववादी इतिहासकार यह शोध करें।हो सकता है कि भविष्य में जोधा अकबर भी हिंदुओं के कातिल करार दिये जाये।


2020 तक हिंदू राष्ट्र के एजंडे के मुकाबले,2030 तक हिंदू दुनिया के एजंडे के मुकाबले सातसौ साल के इस्लामी राजकाज और दो सौ साल के ईसाई राजकाज अगर कातिलों का राजकाज रहा होता तो जाहिर है भारत या तो विशुद्ध इस्लामी देश होता या फिर विशुद्ध ईसाई देश।ऐसा लेकिन हुआ नहीं है।


फिर भी सनातन हिंदू धर्म सही सलामत है और हिंदुत्व के सिपाहसालार अखंड भारतवर्ष से लेकर नेपाल तक गैरहिंदुओं के सफाये के लिए कुरुक्षेत्र और चक्रव्यूह रच रहे हैं!


विवेक और मुहब्बत के जो मूर्तियां रही हैं,उन्हें हम रोज तोड़ रहे हैं।गांधी अंबेडकर रवींद्र नेताजी का रोज कत्ल हम कर रहे हैं और फिर अपनी पाशविकता और अपने तमस से उन्हें देशद्रोही गद्दार,राष्ट्रद्रोही तक बताने प्रचारित करने में हमें झिझक नहीं होती क्योंकि हम नया इतिहास भूगोल बनाने चले हैं।


अपने हित साधने के लिए हम मिथ्या देव देवी ,मिथक और धर्म रच रहे हैं।एजंडा बना रहे हैं नया नया फिर फिर नरंसहार का।


इस मजहबी राजनीति के लिए सिखों को जिंदा जलाकर मारना,सलवा जुडुम में आदिवासियों का कत्लेआम,बाबरी विध्वंस के आगे पीछे दंगे,बाबरी विध्वंस,भोपाल गैस त्रासदी,दलितों का कत्लेआम और स्त्रियों से, बच्चों से देशभर में  बलात्कार,परमाणु विकिरण और अनंत डूब काफी नहीं है।


क्योंकि यह राजनीति नरसंहार संस्कृति है और समाज का कत्ल,कृषि की हत्या,धर्म को अधर्म में तब्दील कर देना, मनुष्यता और सभ्यता को मुक्त बाजार में तब्दील करना सुधार और विकास है।हम सारे बंटे हुए लोग धनबल और पशुबल के बंधुआ मजदूर है।न समाज है और न कोई सुधारक है कोई।


जो राष्ट्रनेता रहे हैं इस भारत को बनाने वाले,हम उन्हें अपनी अपनी राजनीति के मुताबिक या ईश्वर या फिर शैतान बना रहे हैं।


हम जोधा अकबर पर सीरियल या फिल्म में स्त्री देह की तलाशी लेते हैं।आंकड़े तौलते हैं।इतिहास में जाने की तकलीफ नहीं करते।


वरना क्या कारण है कि जोधा अकबर ने मुगलिया सल्तनत के लिए धर्म को देश जोड़ने का माध्यम बना लिया है और हम फासिज्म की राजनीति और सत्ता में धर्म को बंटवारे का हथियार बनाये हुए हैं?फिर फिर बंटवारे का हथियार!


वरना क्या कारण है कि लोकतंत्र के लिए, मेहनतकश जनता के लिए,इस देश की मिट्टी के लिए,इस देश में भाईचारे और अमनचैन की मुकम्मल फिजां के लिए,कायनात की बरकतों,रहमतों नियामतों की बहाली के लिए पुरखों की कुर्बानी का तर्पण करते हुए हुए,गाय्ती मंत्र जापते हुए देश दुनिया जोड़ने के लिए हहम बंचवारे की पैदल फौजे या सिपाहसालार मनसबदार जमींदार सूबेदार वगैरह वगैरह बनने के फिराक में हैं?


बलात्कारियों को फांसी की सजा देने से बलात्कार रुकेंगे नहीं ,हम बार बार चेताते रहे।निर्भया बलात्कार हत्याकांड के बाद बने इस कानून के लागू हो जाने के बाद भी बलात्कार सुनामी रुकी नहीं है।


यह समाज राष्ट्र पितृसत्ता के मनुस्मृति अनुशासन के पर्याय हैं तो स्त्री सेक्स खिलौना है पुरुषतंत्र के नजरिये से।इसके तमाम प्रमाण महाकाव्यों और वैदिकी साहित्य में हैं,जिसे हिंदुत्व का असली इतिहास बताया जाता है।इस पर तुर्रा यह मुक्त बाजार स्त्री देह का।


हम बचपन से जानते रहे हैं कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है।

अब हम देख रहे हैं कि मनुष्य सिर्फ राजनीतिक प्राणी है।


राजनीतिक समीकरण के सिवाय किसी को किसी चीज की परवाह नहीं है।न राष्ट्र की,न समाज और संस्कृति की,न प्रकृति और पर्यावरण की।कृषि व्यवस्था में जो संस्कृति,बहुलता और विविधता की विरासत थी,उसे हमने खत्म कर दिया है और उस साझे चूल्हें को तोड़कर पहचान के नाम पर देश को फिर फिर  बांटने का समरस आत्मध्वंस अब विकास दर है।डिजिटल देश है।


धर्म भी राजनीति तक सीमाबद्ध है।

धर्म इंसानियत का मुल्क बनाता रहा है।


सारे धार्मिक लोग अपने अनुयायियों को भाईचारा,अमन चैन और मुहब्बत का पाठ पढ़ाते रहे हैं।वे राजसत्ता के विरुद्ध जनता के हकहकूक केहक में दैवी सत्ता की बात करते रहे हैं।उनके धर्म ने देश को तोड़ा नहीं,जोड़ा है।


विभाजन से पहले पागलदौड़ शुरु हो गयी।

मनुष्य का धर्म भी जल जंगल जमीन नागरिकता नागरिक मानव अधिकारों की तरह,प्रकृति और पर्यावरण की तरह बेदखल हो गया।


धर्म नहीं,अधर्म सर्वव्यापी है।


इस पर धनबल और बाहुबल,सत्ता का संरक्षण।

इस पर तुर्रा यह कि समाज का नामोनिशान है ही नहीं।

जड़ें हैं ही नहीं।


हमारी विरासत को समेटने वाली ,हमारे तमाम पर्व और त्योहार मजहबों के आर पार जो नई फसल की खुशबू और माटी की महक के साथ साथ लोकरस लोकरंग से महामाहते थे,वे सारे के सारे बाजार के दखल में है,जिसके नजरिये से स्त्री उपभोक्ता पदार्थ है और स्त्रीदेह दखलदारी की चीज है।


सारे धार्मिक लोग अब या तो करोड़ों अरबों डालर के अंधियारे का कारोबार करते हैं या सियासत में शामिल होकर मजहब का भी नफरता का कारोबार बना दिया है और सत्ता फासिज्म की है।


कटकटेला काकटेल अंधियारे का कारोबार कार्निवाल है ।

मनुष्य अब सिर्फ बायोलाजिकल मर्द और औरत है।नतीजा यह है कि घर में सबसे ज्यादा उत्पीड़ित है स्त्री।


दफ्तरों में,सत्ता में.जीवन के हर क्षेत्र में मंजिल हासिल करने वाली स्त्री अब भी पितृसत्ता के लिए आखेट में सबसे आसान शिकार है।सार्वजनिक क्षेत्र में भी।


फिर हम किसी मुख्यमंत्री से कानून व्यवस्था सुधारने की उम्मीद करते हैं मंकी बातों के मुताबिक जबकि मुखयमंत्रियों को भी जनादेश मिला है और संविधान रचनेवालों ने फेडरल रिपब्लिक बनाया हुआ है।


संविधान के मुताबिक राज्य पूरी तरह स्वायत्त है और केंद्र के साथ साथ राज्य के नेतृत्व को भी राष्ट्रनिर्माण में जुटना है।राज्यों की अपनी विधानसभाएं हैं।राज्यों के नेतृत्व को भी लैंड स्लाइड बहुमत मिलता है।


जनादेश उन्हें भी मिला है।लेकिन केंद्र को मिला जनादेश चूंकि फासीवाद में तब्दील है और रोज रोज संविधान बदल रहा है, देश में मजहबी सियासत का शिंकजा है तो संघीय लोकतंत्र का ताना बाना भी हमारी खेती की तरह,हमारी मुहब्बत की तरह तबाह है।


हम दिल्ली के उस मुख्यमंत्री को बलात्कार सुनामी का जिम्मेदार ठहरा रहे हैं,जिसके प्रति न पुलिस जवाबदेह है और न प्रशासन।इस राज्य को बनाने का क्या औचित्य है कि मुख्यमंत्री को जनादेश के मुताबिक राजकाज चलाने का न्यूनतम हकहकूक से भी वंचित कर रहा है केंद्र?


मैं राजनीति में नहीं हूं और न राजनीतिक समीकरण साधना मेरा मकसद है लेकिन दिल्ली राज्य,दिल्ली की जनता और दिल्ली की सरकार और उसके मुख्यमंत्री के हकहकूक के हक में हूं।


हमने बचपन में यह सीखा है कि रिश्ते की तो दूर,अड़ोस पड़ोस की गांवों की लड़कियों,अपनी सहपाठिनों  को अपनी बहन मानो और उनकी इज्जत बचाने के लिए जरुरी हुआ तो भी जान दे दो।


वह समाज किसानों का समाज था।पंचायतों का समाज था।अपढ़ था।वैज्ञानिक खोज और तकनीक के बगैर,क्रयशक्ति के बिना जी रहा था।उनकी जिंदगी खेती के सहारे चल रही थी और सारा तानाबाना खेतों और खलिहानों से बुना जाता था।हम यकीनन पिछड़े थे।


अब नकदी प्रवाह,प्लास्टिक मनी और तकनीक से समृद्ध समाज में उन खेतों,उन खलिहानों और उन साझा चूल्हों का कोई मोल नहीं है।


मजहब अब सिर्फ सियासत है और समाज है ही नहीं।पिरवार बी नहीं है।सिर्फ मुक्त बाजार है।दखलदार एकतरफ हैं तो बेदखल होते लोगों का करोड़ों का मजमा,जो नरसंहारों में,आर्थिक सुधारों में मारे जा रहे हैं।उनकी कहीं सुनवाई नहीं है।


हम शुरु से मानते हैं कि रचना कर्म सामाजिक उत्पादन है और इसका कुल मकसद उत्पादकों को समृद्ध करना है,उत्पादन संबंधों को मनुष्यता और प्रकृति के हित में नये सिरे से रचा जाना है।

यही कला है।यही विधा है।यही माध्यम है।


बाकी सौंदर्यशास्त्र बेकार है।

व्याकरण गैरप्रासंगिक है।


भाषा या रक्त की विशुद्धता,जल से बहिष्कार,जाति धर्म की पहचान से ऊपर है मनुष्यता और प्रकृति,और किसी भी विधा,किसी भा माध्यम में जो रचना क्रम करते हैं,वे अराजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।


तमाम आदरणीय जिस तरह सत्ता के बोल बोल रहे हैं और अपनी नफरत का कारोबार मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रकाशित प्रसारित कर रहे हैं,अप्रितष्ठित,असम्मानित,अस्वीकृत बहिस्कृत

रचनाधर्मी होने की हैसियत से यह बेलगाम हैवानियत मुझे बेहद शर्मिदा करता है।


अब कोई संबंध पवित्र बचा नहीं क्योंकि मुक्त बाजार है।

अब पिता पुत्र,भाई बहन और मां बेटे के संबंध भी पवित्र नहीं है क्योंकि इस धर्मोन्मादी राष्ट्र वाद के देश में धर्म बचा नहीं है।


जो है वह अधर्म की राजनीति है और धर्मविरोधी,मनुष्य की आस्था, आंकाक्षाओं,भावनाओं और सपनों केक्तलेआम की मजहबी सियासत का मुक्त बाजार है।


हम अपने पुरखों का फिर फिर कत्ल कर रहे हैं।

हम अपने पुरखों के चेहरे पर फिर फिर कालिख पोत रहे हैं।


फिरभी तर्पण और तिलाजंलि,अंजलि और इबादत,अरदास,प्राथना के बहाने माहे रमजान और पितृपक्ष मातृपक्ष अभूतपूर्व हिंसा और सर्वव्यापी घृणा का उत्सव जापानी तेल और राकेट कैप्सूल,वियाग्रा और यौन शक्तिवर्धक तरकीबों ,मंत्र तंत्र वशीकरण के साथ मनाते हैं और उम्मीद करते हैं कि बलात्कारी को फांसी दे देने से ही बलात्कारी संस्कृति बदल जायेगी।


हम अहमक हैं कि हमें उम्मीद है कि पितृसत्ता का फासीवादी मुक्तबाजार में खेतों खलिहानों,उद्योग धंधे के इस अनंत वधस्थल पर शूद्र दासी सशक्त स्त्री शिकारियों के बाज पंजों से सुरक्षित होंगी जबकि हम रोज बलात्कार रच रहे हैं,रोज शिकारी और बलात्कीरी पैदा कर रहे हैं और धनबल पशुबल ने मनुष्यों के समाज का सर्वनाश कर दिया है।


हमने मेरठ के दंगों का आंखों देखा हाल उनका मिशन के तीन वीडियों जारी किये हैं।हमने अंबेडकर गांधी और रवींद्र के सामाजिक यथार्थ पर बहस शुरु कर दी है और इस सिलसिले में भी वीडियो जारी कर दिये हैं।करते रहेंगे।


हमने हस्तक्षेप को किसी भी भाषा में जनसुनवाई का मुक्त मंच बनाया हुआ है और बेसब्री से हम देश दुनिया जोड़ने के काफिल में आपका इंतजार कर रहे हैं।


हमने मेरठ के दंगों की वीभत्सता का आंखों देखा हाल तीन वीडियो में आधा अधूरा जारी किया है,बाकी हिस्सा जारी करने के लिए हस्तक्षेप पर आपके हस्तक्षेप का इंतजार कर रहे हैं।


कल सविता बाबू की संवेदनाओं के तारों को बेतरह छेड़ते हुए वीडियो में एक और मेरठ की तस्वीर हमने जारी की है,जहां नौचंदी मेला दंगाइयों की ओर से उजाड़ देने के बाद,हाशिमपुरा और मलियाना कत्लेआम को अंजाम देने के बाद लाखों किसानों के आंदोलन में यूपी उत्तराखंड के हिंदू मुसलमान किसानों ने बंगाल और देस भर में आजादी से पहले और बाद में हमेशा जो किया,वही साझा चूल्हा सुलगा दिया।रवींद्र संगीत की पृष्ठभूमि में मनुष्यता की धाराओं के महाविलय के इस भारत तीर्थ की यात्रा भी कर लें।


सविता बाबू ने मुसलमानों के बीच अपना बचपन और छात्र जीवन बीताया है।उनके पिता पौड़ी गढ़वाले के कालागढ़ में बांध परियोजना में काम करते थे,जहां उनके बड़े भाई भी लगे थे।


कालागढ़ बांध परियोजना में आईटीआई पास करके यूपी के शरणार्थी कालोनियों के करीब बीस पच्चीस लोग नौकरी कर रहे थे तो भारतभर के हिंदू,ईसाई,सिखों और मुसलमानों मिनी भारत था कालागढ़ जैसा हमारा तराई इलाका था।


बंगालियों ने वहां दुर्गापूजा शुरु की तो उसके सारे आयोजन में मुसलमानों,सिखों और ईसाइयों की जबरदस्त हिस्सेदारी थी।

वह अपनी सहेलियों के साथ नियमित चर्च पर जाती थी।


पढ़ती वह तराई में कादराबाद में थीं।जहां मुसलमानों के कस्बे अफजलगढ़ की लड़कियां उनकी सहपाठिनें थीं।वह उनके घरों में पवित्र कुरान की आयतें सुनने सर पर दुपट्टा डालकर सलवार कमीज में चली जाती थी।


वह से इंटर पास करके बिजनौर आयी तो  रानी भाग्यवती कालेज में बीए में दाकिला लेते ही भारतीय महिला हाकी की कप्तान रजिया जैदी की कजन निगार जैदी उनकी सहेली बन गयी।


वे गांव से अकेली पढ़ने आती थीं।साईकिल पर।सुनसान गन्ने के खेतों के बीच से असुरक्षित।अकेली।


निगार और रजिया जैदी के परिवार ने उन्हें अपने घर में ठहराना शुरु किया और पहले ही दिन पूरे खानदान ने गोमांस कभी न खाने की कसम ली।


यही नहीं,अफजलगढ़ और बिजनौर में,उनके गांव धर्मनगरी के चारों तरफ बसे मुसलमान गांवों में वे जहां भी आती जाती रही, सबने उन्हें अपनी बेटी माना और उनके हिंदू धर्म के समर्थन में गोमांस छोड़ दिया।


हमने उस परिवार और बिजनौर में अमन चैन की विरासत पर लंबी कहानी `उस शहर का नाम बताओ,जहां दंगे नहीं होंगे' लिखी थी।मशहूर कथाकार छेदीलाल गुप्त तब पश्चिम बंग हिंदी अकादमी की पत्रिका `धूमकेतु' के संपादक थे,उनने यह कहानी छाप दी।वह पत्रिका नहीं मिल रही,मिलेगी तो उसका पाठ भी हम वीडियो पर जारी कर देंगे।


मेरठ के दंगों को मैंने सविता के साथ देखा है।हमने उन दंगों का आंखों देखा हाल,संस्थागत फासीवाद और पूंजी के गठजोड़ के जरिये पूरे उत्तर भारत में देशी उद्योग धंधों से मुसलमानों और हिंदुओं को लड़वाकर उन्हें एकमुश्त बेदखल करने का खेल देखा है।हमने दंगों के इतिहास,भूगोल और अर्थशास्त्र की चीड़ फाड़ अपने लघु उपन्यास `उनका मिशन' में किया है,जैसे हमने देश के डूब में तब्दील होने की कथा `नई टिहरी पुरानी टिहरी' में बांची है।`नई टिहरी पुरानी टिहरी' आदरणीय ज्ञान रंजन संपादित `पहल' में ज्ञानजी ने हमारे सामाजिक कार्यकर्ता परिचय के साथ छापी।


हम इसके लिए आभारी है कि कमसे कम ज्ञानजी ने हमारे वजूद पर अपनी संपादकीय मुहर ठोंंक दी।


यही सही है।हम अपने को समाजिक कार्यकर्ता ही मानते हैं।


अपने समय को संबोधित करने के लिए हम किसी भी भाषा में,बोली में,जनता के मुहावरों में किसी भी विधा और माध्यम में जनता के बुनियादी मुद्दों को संबोधित करेंगे क्योंकि पिता की स्करियता की वजह से आखर पहचानने से लेकर अब तक यही मेरा रोजनामचा है।


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