बयानों से साफ दिख रहा है कि शिकायत निवारण का मसला कोई व्यावहारिक सवाल या सैद्धांतिक मुद्दा न होकर अब अण्णा समूह के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है और इस मामले में अब वे व्यावहारिक होने के बजाय पूर्वाग्रही बनते नजर आ रहे हैं। शिकायत निवारण कानून को लेकर अण्णा समूह के भीतर बार-बार बयानों का बदल जाना या अलग-अलग राय का सामने आना उनकी इस बाबत कमजोरी और अस्पष्टता को रेखांकित करता है।
ऐसा नहीं है कि सरकार जो मसविदा पेश करने वाली है, उसमें कोई कमी नहीं हो सकती, या उसकी ओर से जो मसविदा जनता के समक्ष चर्चा के लिए रखा गया था, उसमें कुछ कमजोरियां नहीं थीं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इन कमियों और चिंताओं को लेकर सरकार के पास लोगों के सुझाव नहीं पहुंचे हैं और सरकार इनसे अवगत नहीं है। पिछले दिनों शिकायत निवारण के मुद्दे पर ही 'सूचना के अधिकार का राष्ट्रीय अभियान' (एनसीपीआरआई) द्वारा दिल्ली में आयोजित किए गए एक राष्ट्रीय सम्मेलन में लोगों ने अपनी चिंताएं रखीं और इस कानून के संभावित स्वरूप को लेकर सरकार के सामने कई सुझाव भी रखे। विभिन्न राजनीतिक दलों और संसदीय स्थायी समिति के सदस्यों के समक्ष भी ये सुझाव रखे गए हैं और सरकार इन बातों को दरकिनार कर कानून नहीं बना सकती है।
अगर सरकार इस तरह की कोई कोशिश करती भी है तो ऐसी स्थिति में जन शिकायत निवारण कानून के लिए एक मजबूत आंदोलन खड़ा करके सरकार को बाध्य किया जाना चाहिए कि वह एक ऐसा कानून लागू करे जो व्यावहारिक हो और साथ ही प्रभावी भी। इस कानून में लोगों की जरूरतों को समझते हुए नियम-कायदे बनाए गए हों। दरअसल, जरूरत इस बात की है कि हम एक मजबूत शिकायत निवारण अधिकार कानून के लिए संघर्ष करें, न कि उसे लोकपाल के गले का फंदा बनाएं, जिसके कारण न तो शिकायत निवारण की व्यवस्था सुचारु रूप से लागू हो सकेगी और न ही लोकपाल भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों पर पूरी तरह से गौर कर सकेगा।
एक और संकट यह है कि अण्णा समूह की ओर से शिकायत निवारण की जो व्यवस्था लोकपाल के तहत बनाने की बात कही जा रही है, वह किसी भी तरह की व्यापकता और दूरदर्शिता से परे है। शिकायत निवारण की आईएसी द्वारा प्रस्तावित व्यवस्था सिटिजन चार्टर के आगे नहीं बढ़ती। अब यह समझना जरूरी है कि क्या केवल सिटिजन चार्टर बना कर शिकायत निवारण की पूरी समस्या का हल निकाला जा सकेगा। ऐसा इसलिए संभव नहीं है क्योंकि सिटिजन चार्टर में नागरिकों के अधिकारों को दर्ज करने के बाद भी कई ऐसे मामले और शिकायतें बाकी रह जाएंगी जो इसका हिस्सा नहीं होंगी। ऐसे में सिटिजन चार्टर नागरिक अधिकारों को सीमित करने का काम करेगा। फिर, सभी तरह की समस्याओं को कलमबद्ध कर पाना असंभव है।
ऐसे में जरूरी है कि सिटिजन चार्टर के बरक्स ही सरकारी विभागों और अधिकारियों के दायित्वों, कर्तव्यों (स्टेटमेंट आॅफ आॅब्लिगेशंस) को भी रेखांकित किया जाए। इससे सीधा फायदा यह होगा कि दायित्वों के तहत सभी तरह की शिकायतों को सुनने की व्यवस्था बन सकेगी।
सूचना अधिकार कानून की धारा-4 में कहा गया है कि सभी विभागों को 'स्टेटमेंट आॅफ आॅब्लिगेशन' यानी कर्तव्यों-दायित्वों की एक सूची तैयार करनी होगी और इसे सबसे आधारभूत दस्तावेज मानते हुए इसकी किसी भी अवहेलना को शिकायत माना जाएगा। अगर हम इसे प्रभावी ढंग से लागू करा सकें तो सिटिजन चार्टर की कमियों को शिकायतों की एक व्यापक व्याख्या से जोड़ा जा सकेगा। साथ ही, शिकायतों के निवारण के लिए जिला स्तर पर स्वतंत्र प्राधिकरणों का गठन करके और ब्लॉक या वार्ड स्तर पर स्वतंत्र नागरिक सहायता केंद्रों की स्थापना करके हम देश के अधिकतम लोगों के लिए एक सुलभ और व्यावहारिक कानून बना सकेंगे।
एक और अहम बात यह है कि जन लोकपाल का मसविदा निजी क्षेत्र या अर्ध-सरकारी क्षेत्र को, कॉरपोरेट जगत को अपने दायरे से बाहर रख कर चल रहा है। सरकार की ओर से शिकायत निवारण कानून का जो मसविदा लोगों के बीच चर्चा के लिए रखा गया था, उसमें ऐसे निजी और कॉरपोरेट क्षेत्र में भी इसे लागू करने की पैरवी की गई है जिसकी सेवाएं सरकारी महकमे के अधीन हैं या रही हैं।
इस तरह से हम पाते हैं कि जन लोकपाल से बाहर निकल कर एक व्यापक और व्यावहारिक शिकायत निवारण कानून की गुंजाइश पैदा हुई है। जरूरत इस बात की है कि शिकायत निवारण की व्यवस्था को एक व्यापक, स्वतंत्र और व्यावहारिक कानून बनवाने की दिशा में एकजुट हुआ जाए, न कि इसे निजी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना कर किसी पूर्वाग्रह से बंधे रहा जाए, क्योंकि अंत में ये चीजें लोगों के लिए ही लागू होनी हैं और उन्हें ही इनका इस्तेमाल करना है।
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