फर्जी मामले में आठ साल तक बंद रहे आठ किसान
माओवादी होने की कहानी निकली मनगढ़ंत
कोर्ट का कहना था कि पुलिस ने जो माओवादी साहित्य पेश किया है वह ना तो राज्य सरकार द्वारा प्रतिबंधित है और ना ही केन्द्र सरकार द्वारा . लेकिन इस बात को कहने में अदालत ने आठ साल का वक्त लगाया . अगर अम्बानी साहब जेल में बंद हो जाते तो भी जज साहब आठ साल लगा सकते थे क्या..
हिमांशु कुमार
उत्तराखंड में आठ साल पहले पुलिस ने आठ किसानों को माओवादी कह कर पकड़ा जो 14 जून को बाइज्ज़त रिहा हो गए. जेल में उनकी जिंदगी के आठ साल जेल में बर्बाद कर दिये गये . अब कोर्ट ने उन सभी को बाइज्ज़त बरी कर दिया है . इस दौरान एक किसान की मौत हो गयी और एक तो छोटा बच्चा ही था . उस बच्चे को तब बाल सुधार गृह में भेज दिय गया था.
कोर्ट का कहना था कि पुलिस ने जो माओवादी साहित्य पेश किया है वह ना तो राज्य सरकार द्वारा प्रतिबंधित है और ना ही केन्द्र सरकार द्वारा .लेकिन इस बात को कहने में अदालत ने आठ साल का वख्त लगाया . अगर अम्बानी साहब जेल में बंद हो जाते तो भी जज साहब आठ साल लगा सकते थे क्या ?
खैर अगली मज़ेदार बात . पुलिस ने अदालत में कहा कि पुलिस ने इन " माओवादियों " को अगस्त में माओवादी साहित्य के साथ पकड़ा और उसी समय साहित्य को एक अखबार में लपेट कर सील कर दिया . लेकिन अदालत में जब इन किसानो के वकील ने वह पैकेट देखा तो उसने जज को वह अखबार दिखाया कि साहब यह अखबार जिसमे यह सब लपेटा गया है वह तो अक्टूबर का अखबार है .
इसका मतलब है या तो इन किसानो के पास से कुछ मिला ही नहीं था और पुलिस ने तीन महीने बाद कुछ किताब वगैरह लपेट कर जज को दिखा दी . या फिर पुलिस ने सील किये गये पैकेट को फिर से खोला और उसमे फिर से कुछ कागज़ात डाल दिये और नए अखबार में लपेट दिया .
अब इस मामले में अपराधी कौन है . ये किसान तो बिल्कुल भी नहीं . क्योंकि यह तो अदालत ने मान लिया . लेकिन जिन पुलिस अधिकारियों ने ये सारे झूठे सबूत बनाये , इन किसानो को झूठे मामले बना कर फंसाया और इनकी जिंदगी के आठ साल नष्ट कर दिये . उन पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाने का आदेश कोर्ट ने क्यों नहीं दिया ?
एक और मज़ेदार बात . अगर आप हिंदी अख़बार अमर उजाला की रिपोर्टिंग पढ़ें तो वह अभी भी इन्हें माओवादी ही मान रहा है . उसकी पूरी रिपोर्ट यह आभास दे रही है कि जैसे कोई बहुत बड़ा गलत काम हो गाया है और जैसे कि ये माओवादी छूटे जा रहे हैं . जबकि समाचार बनना चाहिये था कि "पुलिस द्वारा फंसाए गये निर्दोष किसान बा-इज्ज़त बरी " .
जानकारी के लिये यह भी जान लीजिए कि सीमा आज़ाद के पास से जब्त तथाकथित "माओवादी" साहित्य के पाकेट की सील भी पुलिस द्वारा बाद में तोडी गयी थी . इसलिये ये बिकुल भी नहीं माना जा सकता कि जो साहित्य पुलिस उनके पास से गिरफ्तारी के समय मिलने का दावा करती है वह बिल्कुल भी यकीन के काबिल नहीं है .
आदिवासी हकों के लिए संघर्षरत हिमांशु कुमार सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
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