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Saturday, June 29, 2013

यह सलाह रिलायंस के लिये संजीवनी है, इसे फुकरों के बीच क्‍यों ज़ाया करते हैं?

यह सलाह रिलायंस के लिये संजीवनी है, इसे फुकरों के बीच क्‍यों ज़ाया करते हैं?


बन्द ही कर दें

 अभिषेक श्रीवास्तव

 

अभिषेक श्रीवास्तव, जनसरोकार से वास्ता रखने वाले पत्रकार हैं।

अभिषेक श्रीवास्तव, जनसरोकार से वास्ता रखने वाले पत्रकार हैं।

एसपी सिंह के नाम पर भाई पुष्कर पुष्प बड़े जतन से हर साल कार्यक्रम करवाते हैं, लेकिन हर बार एसपी के समकालीन और उन्‍हें अपना आदर्श मानने वाले संपादक आम दर्शकों और नौजवान पत्रकारों की बची-खुची आस को एक-एक सेंटीमीटर डुबोते जाते हैं। फिलहाल उर्मिलेश जी को छोड़ दें तो विनोद कापड़ी, राहुल देव, नक़वी जी, अजित अंजुम और यहाँ तक कि निशांत जैसे दुर्घटनावश बने चैनल संपादक- सब ने मिलकर मीडिया की खराब हालत के लिये नये लड़कों के "अनपढ़" होने को जिम्‍मेदार ठहरा दिया।

क्या इन जिम्मेदार लोगों को शर्म नहीं आती? नये लड़कों के "अनपढ़" होने का जिम्‍मा किसके सिर पर है? क्‍या आपने कभी न्‍यूज़ रूम में भाषा/ शैली/ खबर/ समाज/ राजनीति पर कोई ट्रेनिंग चलायी? बाल पकने पर तो सियार भी भगत हो जाता है। इन "अनपढ़ोंको कौन रिक्रूट करता रहाक्‍यों रिक्रूट करते रहे आप इन्‍हेंइसीलिये नकि नया लड़का आपको बाबा समझता रहे और आपकी आत्‍ममुग्‍ध समझ को चुनौती न मिल सके?

"पढ़े-लिखे" लोगों को नौकरी देकर देखिये, दो दिन नहीं सह पायेंगे आप। आप ही के बीच से शेष नारायण जी सबसे पहले उठ कर चले गये क्‍योंकि वे पर्याप्‍त "पढ़े-लिखेथे फिर भी आपसे ज्‍यादा उन्‍होंने भोगा है।

उस पर से तुर्रा ये कि चैनल चलाने के लिये पैसा चाहिये और बकौल अंजुम जी, सबकोवैकल्पिक रेवेन्‍यू मॉडल पर सोचना चाहिये। क्‍यों सोचें भाई? विटामिन खाओ हमसे और इश्‍क लड़ाओ शुक्‍ला जी से? हर हफ्ते आप ही की उम्र और साथ के कुछ "असफल"पत्रकार जैसे अनिल चमड़ियाधीरेंद्र झाराजेश वर्मा आदि पिछले डेढ़ साल से कोऑपरेटिव मॉडल पर चैनल लाने की कोशिश कर रहे हैं, प्रेस क्‍लब में नियमित मीटिंग करते हैं, लेकिन आपको तो तब पता हो जब दफ्तर में साधु-तान्त्रिक को घुमाने से आपको फुरसत मिले। बताइये, अच्‍छे-खासे अरुण पांडे जी से प्रणाम करवा दिया था जबरिया… बात करते हैं!

खुल तो गयी पोल पेड न्‍यूज़ पर। सबने एक स्‍वर में मान लिया कि पेड न्‍यूज़ की रिपोर्ट की खबर इन्‍होंने नहीं दिखायी, न दिखा सकते थे। अब क्‍या बचता है बोलने को? कैसे आ जाते हैं आप लोग सार्वजनिक कार्यक्रमों में? आलोक मेहता को देखिये और सीखिये… एक बार हंस की गोष्‍ठी में गाली खाये तो फिर कभी नहीं उपराए। अब भी सोचिये… मौका है। लड़के बहुत गुस्‍से में हैं। बस लिहाज करते हैं और इसलिये आप लोगों को बुलाते हैं कि आपसे ही उन्‍हें सही-गलत जो हो, उम्‍मीद है। वरना जिस माइक से अनुशासन सिखाने के लिये एक हत्‍यारे की कम्पनी के सीईओ रह चुके राहुल जी छटपटाते रहते हैं, किसी दिन वह माइक शर्मिंदा होकर ऑन होने से खुद ही इनकार कर देगा।

पुष्‍कर भाई से अपील, वैसे तो मुझे डॉक्‍टर ने कार्यक्रम में जाने को नहीं कहा था, फिर भी एक गुज़ारिश है। कोई प्रच्‍छन्‍न एजेण्डा ना हो तो एसपी के नाम पर होने वाला काँग्रेस सेवा दल टाइप यह सालाना व्‍यायाम बन्द ही कर दें।

विवेक पर जब प्रतिक्रिया हावी हो जाती है, तो आप खतरनाक निष्‍कर्षों पर पहुँच जाते हैं। कल राहुल देव के साथ एसपी सिंह वाले जुटान में ऐसा ही हुआ, जब उन्‍होंने कहा कि अमेरिका का मार्केट इतना मैच्‍योर है, फिर भी वहाँ 2-4 चैनल हैं और यहाँ दस गुना ज्‍यादा। और ऐसा कहते हुये विजयी मुद्रा में वे कुकुरमुत्‍ते की तरह उग आये नये टीवी चैनलों के खिलाफ खड़े हो गये।

अब ज़रा गौर करिए : अमेरिका का मार्केट मैच्‍योर है, सैचुरेटेड है, इसीलिये वहाँ मीडिया स्‍वामित्‍व की प्रकृति एकाधिकारी है। मार्केट का मैच्‍योर होना ही कम प्रतिस्‍पर्धा और मोनोपली का कारण है। भारत में अब भी मार्केट मैच्‍योर नहीं है, इसीलिये यहाँ इतने सारे चैनल हैं। राहुल जी चाहते हैं कि भारत का मार्केट एकाधिकारवादी हो जाये, दो-चार खिलाड़ी बचे रहें। वे चाहते हैं कि भारत, अमेरिका हो जाये। तो ये भी बता दीजिये कि क्‍या आपकी सदिच्‍छा के कारण जिन हज़ारों लड़के-लड़कियों की नौकरी जायेगी, उनकी रोटी चलाने की जिम्‍मेदारी आप लेंगे? आप क्‍यों नहीं मुकेश भाई के सलाहकार बन जाते? 23 चैनलों में उनके निवेश को 80 चैनलों तक बढ़वा देते? आपकी सलाह रिलायंस के लिये संजीवनी है, इसे फुकरों के बीच क्‍यों ज़ाया करते हैं?

अभिषेक श्रीवास्तव की फेसबुक वॉल से

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