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Saturday, March 28, 2015

तेलतुंबड़े का कहना है, अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना आसान, लेकिन बाबासाहेब इस आसान रास्ता के खिलाफ थे। पलाश विश्वास


तेलतुंबड़े का कहना है,
अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना  आसान,
लेकिन बाबासाहेब  इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।
पलाश विश्वास
मित्रों, बेहद शर्मिदा हूं कि वायदे के मुताबिक निरंतर अबाध सूचनाओं का सिलसिला बनाये रखने में शारीरिक तौर पर फिलहाल अक्षम हूं।

सारे दिन सोये रहने के बाद अब जाकर पीसी के मुखातिब हूं।ऐसा अमूमन रोज हो रहा है।

आज का ताजा स्टेटस है,खूब डीहाइड्रेशन हुआ है।डाक्टर ने रोजाना तीन लीटर ओआरएस रोजाना पीने का नूस्खा दिया है।रक्तचाप तेजी से गिरता नजर आ रहा है।आज डाक्टर ने जब देखा,तब 100-60 था।बीच बीच में इससे नीचे रक्तचाप गिर जाता है।जिससे पूरे शरीर में ऐंठन और कंपकंपी का दौर हो जाने से लाचार हूं।

1980 से लगातार पेशेवर पत्रकारिता में हूं।फिल्मों में काम के लिए मैंने महीन महीने भर की छुट्टी ली है।देश में कहीं भी दौड़ने के लिए,पिता की राह पर चलते हुए मेहनतकश सर्वहारा जनता के साथ खड़ा होने के लिए जब तब छुट्टी लेने से हिचकिचिया नहीं है।लेकिन हमेशा कोशिश की है कि वैकल्पिक व्यवस्था जरुर रहे और मेरी वजह से अखबार के कामकाज में असुविधा न हो।बेवजह छुट्टी कभी किसी बहाने ली नहीं है कभी।घर बैठने की कभी कोशिश नहीं की।

मैंने अपने पत्रकारिता के जीवन में सिर्फ एकबार मलेरिया हो जाने से 1997 में सिक लिव लिया है।विडंबना है कि मेरी पत्रकारिता के आखिरी साल मैं इस बार हफ्ते मैं दो बार सिक लिव लेने को मजबूर हूं।

बाकायदा पेशेवर पत्रकार शर्मिदा हूं।मुद्दों को तुरंत संबोधित करने का वायदा निभा नहीं पा रहा हूं।और न भाषा से भाषांतर जा पा रहा हूं।

लेकिन यकीन मानिये,जब तक आंखें दगा न दें और सांसे टूटे नहीं,तब तक कमसकम दिन में एकबार आपके मुखातिब खड़े होकर सच बोलने की बदतमीजी करता रहुंगा।

अब करीब 24 साल से जिस अखबार में काम कर रहा हूं,उस अखबार के प्रबंधन का मैं आभारी हूं कि उसने मेरे निरंतर बागी तेवर को बर्दाश्त किया है।

संपादकों और जीएम तक से भिड़ जाने,सीईओ शेखर गुप्ता ,प्रधान संपादक प्रभाष जोशी और फिलवक्त कार्यकारी संपादक ओम थानवी तक की सार्वजनिक आलोचना करते रहने के बावजूद न मेरे खिलाफ कभी अनुशासनात्मक कोई कार्यवाही हुई है और ने मेरे लेखन या मेरी गतिविधिययों पर कभी अंकुश लगा है।पेशेवर पत्रकारिता में इस आजादी के लिए मेरी सक्रियता में कभी व्यवधान नहीं पड़ा है।

रिटार मैं इसअखबार में काम करते हुए पच्चीस साल पूरे होने के चंद महीने पहले हो जाउंगा।मैं चाहता हूं कि रिटायर होने तक मैं मुश्तैदी से पेशेवर पत्रकारिता के काम निबटाउ।

इस सामयिक व्यवधान की पीड़ा मुझे इसलिए ज्यादा है कि एकस्प्रेस समूह के तमाम कर्मचारी मेरे निजी संकट पर मेरा साथ देते रहे हैं,मेरे गुस्से और मेरी बदतमीजियों को उन्होंने हमेशा नजरअंदाज करके मुझे भरपूर प्यार दिया है तो प्रबंधन ने भी मुझे मुकम्मल आजादी दी है।

मुझे किसी ने कारपोरेट पत्रकार बनने के लिए मजबूर नहीं किया।मुझे किसी ने मेरे मुद्दों के अलावा  लिखने पर मजबूर नहीं किया है।मेरी असहमति और आलोचना का सम्मान किया है।इससे उनका यह हक तो बनता है कि आखिरी वक्त तक मैं पूरी मुश्तैदी से काम करुं।लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है।

आज भी बीमार होने की वजह से छुट्टी लेनी पड़ी कि सविता बाबू को बहुत फिक्र हो गयी है और जोखिम उठाकर उनने मुझे दफ्तर जाने से रोक दिया।

मेरी तरह मेरे अभिन्न मित्र और सहकर्मी डा. मांधाता सिंह भी बीमार चल रहे हैं।वे भी एंटी बायोटिक जी रहे हैं।फ्लू महामारी की तरह कोलकाता और आसपास के इलाके को अपने शिकंजे में ले लिया है।

डाक्टर साहेब बाकायदा बनालरस हिंदू विश्वविद्यालय से इतिहास से पीएचडी करके निकले हैं।प्रोफेसरी के बदले उनने भी पत्रकारिता को पेशा बनाया है।हमसे ज्यादा पढ़े लिखे होने के बावजूद उन्होंने कभी महसूस ही होने नहीं दिया कि हम सिर्फ सहकर्मी हैं।आज डाक्टर साहेब दफ्तर में अकेले हैं।मुझे इसके लिए भी शर्म आ रही है।

हमारे इलाहाबाद के दिनों से मित्र शैलेंद्र से मई में लंबे समय का साथ का अंत हो रहा है ,जब वे रिटायर हो जायेंगे।उनकी संपादकीय क्षमता का केंद्रीयकरण की वजह से परीक्षण हुआ नहीं है।लेकिन करीब एक दशकसे ज्यादा समय तक संपादक रहते हुए उन्होंने किसी मौके पर अपने संपादक के लिए हमें शर्मिंदा होने नहीं दिया और कोलकाता में जैसे व्यापार और उद्योदगजगत की गोद में बैठ जाने की संपादको की रीति है,उसके उलट उन्होंने बाजार से हमेशा अपने को अलग रखा है।

अखबार के कामकाज के सिलसिले में गाहे बगाहे मैंने कभी कभार गुस्से में आकर उन्हें बहुत खरी खोटी भी सुनायी,लेकिन कवि संपादक शैलेंद्र ने इसे कभी दिल से नहीं लिया और न हमारी मित्रता के रिश्ते पर आंच आयी।बतौर मित्र मैं उनके लिए गर्वित हूं।मैं चाहता था कि आखिरी वक्त तक यह साथ न छूटे और कमसकम हमारे रिटायर होने तक उनका एक्सटेंशन हो जाये।लेकिन इसके आसार नहीं लगते।

शैलेंद्र ने फोन पर आज कहा कि थोड़ा आराम भी कर लिया करो और कभी कभार देश दुनिया के मुद्दों के भोज से अपने को रिहा कर लिया करो।यह असंभव है।थोड़ी सी हीलत बेहतर होते ही मोर्चे पर जमने की बुरी आदत से मैं बाज नहीं आ सकता।

अभी हाल में डाक्टर मांधाता सिंह कह रहे थे कि भारत के किसी नागरिक को नैसर्गिक रुप में अब स्वस्थ रहने का अधिकार नहीं है।विदेशी पूंजी के हित में हम सबको बीमार होते जाना है।विदेशी कंपनियां जो मुनाफे के लिए पूंजी लगा रही हैं,वे पहले बीमारियां पैदा कर रही हैं और महंगी दवाइयां बेच रही हैं।

भारत के मौसम और जलवायु के हिसाब से खानपान की जो देशज व्यवस्था थी, पूंजी के फायदे के लिए वह छिन्न भिन्न है।खेती अब कीटनाशक और रासायनिक मिलावट के बिना होती नहीं है।
मनसैंटो राज का करिश्मा यही है।

दूध संपूर्ण आहार है।
उस दूध में क्या क्या मिल जाता है,हम जान नहीं सकते।

जीवन धारण के लिए जो अनाज है,वह मनसैंटो के शिकंजे में हैं।

हरित क्रांति से लेकर दूसरी हरित क्रांति तक का सफर भोपाल गैस त्रासदी का सफर साबित हो चुका है।हवाओं और पानियों में रेडियोएक्टिव हस्तक्षेप है और सारी कायनात जहरीली बना दी गयी है।

अब तक तो कुछ एनजीओ जीएम सीड्स (जेनेटिकली मॉडिफाइड सीड्स) पर सवाल उठाती थीं, अब सुप्रीम कोर्ट भी इन्हें खतरनाक मान रहा है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ने सुनवाई के दौरान जीएम सीड्स को खतरनाक माना हैं।

कारपोरेट दलील लेकिन अलग है जो केसरिया कारपोरेट राजकाज के मुताबिक है।

कारपोरेट दलील है कि हालांकि जीएम सीड्स को लेकर कुछ चिंताएं बनी हुई है लेकिन इनके लिए अच्छी तरह से टैस्ट किए जाने चाहिए। जीएम सीड्स का किसानों, कंपनियों को फायदा है क्योंकि इनके फायदे सामान्य फसल से अलग हैं। जिस तरह से जमीन कम होती जा रही है और जमीन की उर्वर्कता कम हो रही है उसके हिसाब से जीएम सीड्स काफी अच्छा विकल्प साबित हो सकते हैं।

बीमा कानून में संशोधन हो जाने से जो 49 फीसद विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की इजाजत है,उसके तहत अमेरिका की तर्ज पर सारे नागरिक अब अनिवार्य स्वास्थ्य बीमा की जद में जाएंगे।

शून्य जमा बीमा इलाज से जो लूट खसोट का सिलसिला बना है,एकबार आप बीमा लिस्ट के मुताबिक अस्पताल में दाखिल हो जाये,त मामूली से मामूली उपचारके लिए लाखों का न्यारा वारा तय है।बीमा रकम से कई कई गुणा ज्यादा बिल का भुगतान के बाद आप कितने स्वस्थ रह पायेंगे,कहना मुश्किल है।यह डकैती और तेज,और मारक होने वाली है।

बीमा क्षेत्र में एफडीआई सीमा 26 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने का प्रस्ताव है, जिससे इस क्षेत्र में निवेश से संबंधित जटिलताएं दूर होंगी और इससे बीमा क्षेत्र में एफडीआई के जरिये तत्काल 21,805 करोड़ रुपये की नई पूंजी आने का अनुमान है। हालांकि इस क्षेत्र को 44,805 करोड़ रुपये की पूंजी की जरूरत है।

संशोधन के बाद भारत की बड़ी आबादी को स्वास्थ्य बीमा के दायरे में लाने में मदद मिलेगी। बीमा में विदेशी निवेश की सीमा बढऩे का जश्न सरकार के साथ बीमा कंपनियां भी मना रही हैं, लेकिन ग्राहकों के लिए एक बुरी खबर इंतजार कर रही है। अगले महीने से शुरू हो रहे नए वित्त वर्ष में मोटर व स्वास्थ्य बीमा के प्रीमियम में भारी इजाफा होने के आसार हैं।

जीवन रक्षक दवायों की कीमतें भी आसमान चूमने लगी हैं।डाक्टर अब दवा कंपनियों के एजेंट बन गये हैं।बंगाल में कानून जेनेरिक नाम से दवाएं प्रक्राइब करने का प्रावधान है ,जो अभी कहीं लागू नहीं है।

ब्रांड नाम से मामूली सी मामूली मसलन आइरन,कैल्सियम और विटामिन प्रेसक्राइब किये जाते हैं। एंटीबायोटिक का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है।कोई एंटीबायोटिक एमोक्सिसिलिन से कम नहीं होता।ऊपर से गैर जरुरी आपरेशन निजी अस्पतालों का सबसे बड़ा फंडा है।कोई नियंत्रण है नहीं।नालेज इकानोमी की तरह अस्पताल अब हेल्थ हब है।

इस पर गौर करें कि बेयर के अध्ययन के अनुसार भारत में 7 दिन के इलाज के लिए (14  टेबलेट)  बेयर सिप्रोफ्लेक्सिन की कीमत 3.99 डॉलर है। जबकि इसके जैसी जेनेरिक दवाओं की यही कीमत 1.62 डॉलर है। अध्ययन के मुताबिक इसी दवा की इतनी टेबलेट के लिए बेयर कोलंबिया में 131.47 डॉलर वसूलती है।

अपने डाक्टरसाहेब ठीक ही कह रहे हैं कि अब मेकिंग इन अमेरिका के अबाध पूंजी के केसरिया कारपोरेट राजकाज समय में किसी नागरिक को स्वस्थ रहने का अधिकार नहीं है।


तेलतुंबड़े का कहना है, अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना  आसान,लेकिन बाबासाहेब  इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।

कल  दिन में और रात में भी आनंद तेलतुंबड़े से फोन पर लंबी बाते हुईं।इधर कोलकाता में उनकी क्लास लग रही हैं।लेकिन हमारी उनसे मुलाकात हो नहीं पा रही है।वे खुद क्लास से निबटकर घर आना चाहते है लेकिन शाम होते न होते हमें दफ्तर के लिए निकलाना होता है।हम उनसे निवेदन कर चुके हैं कि कभी खड़गपुर वापसी के रास्त मुंबई रोड स्थित एक्सप्रेस भवन पधारेंतो हमारे सहकर्मियों से उन्हें मिला दूं,जो उनके पाठक और प्रशंसक दोनों हैं।

कल हस्तक्षेप में छपे मेरे आलेख बहुजनों की सक्रिय हिस्सेदारी के बिना असंभव है मुक्तबाजारी कारपोरेट फासीवाद के खिलाफ लड़ाई(http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/ajkal-current-affairs/2015/03/16/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%9F-%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%B8) मोबाइल पर पढ़ते  हुए खड़गपुर वापसी के रास्ते पहले उनने फोन किया और पहली प्रतिक्रिया सहमति दे दी।


पहली प्रतिक्रिया के तहत चलते चलते तेलतुबड़े ने कहा कि मेहनतकश तबके की व्यापक एकता के बिना हम वैचारिक और बौद्धिक बहस से कुछ हासिल नहीं कर सकते।देश के बहुजन जबतक न जागें,तब तक वैचारिक बौद्धिक कवायद बेमतलब है क्योंकि यह बहुसंख्य बहजनों को किसी भी स्तर पर संबोधित नहीं करता।सही माने में यह सारी कवायद सत्ता वर्ग के हित में चली जाती है।

आनंद का कहना है कि अभी हम मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था के फेनामेनन को समझ नहीं पा रहे हैं।यह बेहद जटिल है और इसका सरलीकरण नहीं किया जा सकता।उत्पादन प्रणाली और उत्पादन संबंधों के सिरे से निषेध की वजह से मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था इस तरह निरंकुश है क्योंकि वर्गीय ध्रूवीकरण उत्पादन प्रणाली के जिंदा रहने की हालत में सक्रियउत्पादन संबंधों के जरिये ही संभव है।

आनंद के मुताबिक भारत में सत्ता वर्ग ने उत्रपादन प्राणाली और उत्पादन संबंधों की जो हत्या कर दी है,उससे अस्मिता के आधार पर या धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के आधार पर ही गोलबंदी और ध्रूवीकरण के हालात बने हैं।

आनंद ने कहा कि हमें यह समझ लेना चाहिए कि सत्ता वर्ग और राज्यतंत्र ने वर्गीय ध्रूवीकरण के सारे रास्ते बंद कर दिये हैं,जिन्हें खोलने के लिए सबसे पहले बहुजनों को धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और अस्मिता के मुक्ताबाजारी तिलिस्म से रिहा करना जरुरी है।हमारे प्रतिबद्ध जनपक्षधर लोग इसकी जरुरत जितनी तेजी से महसूस करेंगे और इसे वास्तव बनाने की दिशा में सक्रिय होंगे,उतना हम जनमोर्चा बनाने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।विरोध और प्रतिरोध की हालत तो फिलहाल है ही नहीं।

रात को आनंद ने खुलकर आराम से बात की।मैंने जो लिखा है कि बाबासाहेब संगठक नहीं थे,उसपर ऐतराज जताते हुए उन्होंने साफ तौर पर कहा कि बाबासाहेब चाहते तो राष्ट्रव्यापी संगठन वे बना सकते थे और सत्ता हासिल करना उनका मकसद होता तो वे उसके रास्ते भी निकाल सकते थे।

बाबासाहेब की सर्वोच्च प्राथमिकता जाति उन्मूलन की रही है।

आनंद के मुताबिक बाबासाहेब के विचार,बाबासाहेब के वक्तव्य और बाबासाहेब के कामकाज सबकुछ हम भूल जायें तो चलेगा लेकिन हमें उनके जाति उन्मूलन के एजंडे को भूलना नहीं चाहिए।उनकी जाति उन्मूलन की परिकल्पना रही है या नहीं रही है,इसका कोई मतलब नहीं है।क्योंकि जाति उन्मूलन के बिना भारत में वर्गीय ध्रूवीकरण के रास्ते खुलेंगे नहीं।

वर्गीय ध्रूवीकरण न हुआ तो यह देश उपनिवेश ही बना रहेगा और वध संस्कृति जारी रहेगी।

अर्थव्यवस्था के बाहर ही रहेंगे बहुसंख्य बहुजन।

मुक्त बाजार का तिलिस्म और पूंजी का वर्चस्व जीवनयापन असंभव बना देगा।

नागरिक कोई नहीं रहेगा।सिर्फ उपभोक्ता रहेंगे। उपभोक्ता न विरोध करते हैं और न प्रतिरोध। उपभोग भोग के लिए हर समझौता मंजूर है।देश बेचना भी राष्ट्रवादी उत्सव है।

आनंद के इस वक्तव्य से हिंदू साम्राज्यवाद और अमेरिका इजराइल नीत साम्राज्यवादी पारमानविक रेडियोएक्टिव मुक्तबाजारी विश्वव्यवस्था के चोली दामन रिश्ते की चीरफाड़ जरुरी है।जिस उत्पादन प्रणाली और उत्पादन संबंधों के साथ साथ उत्पादक वर्ग के सफाये की नींव पर बनी है मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था,धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद एकदम उसीके माफिक है।फासीवाद उसका आधार है।

गौर तलब है कि संघ परिवार का केसरिया कारपोरेट बिजनेस फ्रेंडली सरकार न सिर्फ मेड इन खारिज करके मेकिंग इन गुजरात और मेकिंग इन अमेरिका के पीपीपी माडल को गुजरात नरसंहार की तर्ज पर धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के दंगाई राजीनीति के तहत अमल में ला रही है,बल्कि पूरी हुकूमत अब मुकम्मल मनसैंटो और डाउ कैमिकल्स है।

पूरा देश ड्रोन की निगरानी में है। नागरिकता अब सिर्फ आधार नंबर है।हालत यह है कि संघ परिवार के ही प्राचीन वकील राम जेठमलानी तक को देश के वित्तमंत्री अरुण जेटली को ट्रेटर कहना पड़ रहा है।

हालत यह है कि तमाम सरकारी उपक्रमों की हत्या की तैयारी है गयी है।सरकार ने अगले वित्त वर्ष के लिए करीब 70,000 करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य तय किया है। हालांकि विनिवेश विभाग को पूरा भरोसा है कि ये टारगेट हासिल कर लिया जाएगा। विभाग ने विनिवेश करने वाली कंपनियों को दो हिस्सों में बांटा है। इनमें 41,000 करोड़ रुपये पीएसयू में माइनॉरिटी हिस्सा बेचकर जुटाए जाएंगे, जबकि 28,500 करोड़ रुपये सरकारी कंपनियों में बड़ा हिस्सा बेचकर जुटाने की योजना है।

माना जा रहा है कि नाल्को, एनएमडीसी, एनएचपीसी, भेल, नेवेली लिग्नाइट, इंडियन ऑयल, ड्रेजिंग कॉर्प, कंटेनर कॉरपोरेशन, राष्ट्रीय केमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स, हिंदुस्तान कॉपर और ओएनजीसी वो कंपनियां हैं जिनमें विनिवेश किया जाएगा। दरअसल, ये वो कंपनियां हैं जिनमें सरकार की हिस्सेदारी 75 फीसदी से ज्यादा है और सेबी के नियम के मुताबिक सरकार को इसे 2017 तक कम करना है। हालांकि ओएनजीसी में हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया केंद्र और कंपनियों के बीच सब्सिडी-शेयरिंग मैकेनिज्म तय होने के बाद ही शुरू की जाएगी।



बाबासाहेब का अंतिम लक्ष्य लेकिन समता और सामाजिक न्याय है,जिसके लिए बाबासाहेब ने राजनीति कामयाबी कुर्बान कर दी।

सत्ता हासिल करना चूंकि उनका अंतिम लक्ष्य नहीं था,इसलिए संगठन बनाने में उनकी खास दिलचस्पी नहीं थी।

समता और सामाजिक न्याय के लिए जो कमसकम वे कर सकते थे,उन्होंने सारा फोकस उसी पर केंद्रित किया।

तेलतुंबड़े का कहना है, अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना  आसान,लेकिन बाबासाहेब  इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।

उन्होंने कहा कि जाति पहचान और अस्मिता के आधार पर भाववादी मुद्दों पर केंद्रित जो बहुजन समाज का संगठन बनाया कांशीराम जी ने,जो बामसेफ और बाद में बहुजन समाजवादी पार्टी बनायी कंशीराम जी ने,बाबा साहेब चाहते तो वे भी बना सकते थे।

क्योंकि जाति और पहचान,भावनाओं के आधार पर जनता को मोबिलाइज करना सबसे आसान होता है और यही सत्ता तक बहुंचने की चाबी है।जिस व्यक्ति का एजंडा जाति उन्मूलन का रहा हो,जिनने जति व्यवस्था तोड़ने के लिए भारत को फिर बौद्धमय बानाने का संकल्प लिया, वे जाति और पहचान के आदार पर भाववादी मुद्दों पर संगठन कैसे बना सकते थे,हमें इस पर जरुर गौर करना चाहिए।

आनंद ने जो कहा,उसका आशय मुझे तो यह समझ आया कि बाबासाहेब के जीवन और उनके विचार,उनकी अखंड प्रतिबद्धता पर गौर करें तो वे सही मायने में राजनेता थे भी नहीं।उन्होंने बड़ी राजनीतिक कामयाबी हासिल करने की गरज से कुछ भी नहीं किया।

बाबासाहेब राजनीति में वे जरुर थे,लेकिन उसका मकसद उनका भारत के वंचित वर्ग के लिए, सिर्फ वंचित जातियों या अछूत जातियों के लिए नहीं,अल्पसंख्यकों,आदिवासियों और महिलाओं, कामगारों और कर्मचारियों के हक हकूक सुनिश्चित करना था।

इसमें उन्हें कितनी कामयबी मिली या उनकी परिकल्पनाओं में या उनके विचारों में क्या कमियां रहीं,इस पर हम समीक्षा और बहस कर सकते हैं और चाहे तो बाबासाहेब के व्यक्तित्व और कृतित्व का पुनर्मूल्यांकन कर सकते हैं,लेकिन उनकी प्रतिबद्धता में खोट नहीं निकाल सकते हैं।

जो लोग बाबासाहेब को भारत में जात पांत की राजनीति का जनक मानते हैं, वे इस ऐतिहासिक सच को नजरअंदाज करते हैं कि जाति व्यवस्था का खात्मा ही बाबासाहेब की जिंदगी का मकसद था और यही उनकी कुल जमा राजनीति थी।

ऐतिहासिक सच है कि बहुजनों को जाति के आधार पर संगठित करने की कोई कोशिश बाबासाहेब ने नहीं की और वे उन्हें वर्गीय नजरिेये से देखते रहे हैं।

विडंबना यह है कि हर साल बाबासाहेब के जन्मदिन,उलके दीक्षादिवस और उनके निर्वाण दिवस और संविधान दिवस धूमधाम से मनाने वाले उनके करोड़ों अंध अनुयायियों को इस ऐतिहासिक सच से कोई लेना देना नहीं है कि बाबासाहेब बहुजनों को डीप्रेस्ड क्लास मानते थे,जाति अस्मिताओं का इंद्र धनुष नहीं।

मान्यवर कांशीराम की कामयाबी बड़ी है,लेकिन वे बाबासाहेब की परंपरा का निर्वाह नही कर रहे थे और न उनका संगठन और न उनकी राजनीति बाबासाहेब के विचारों के मुताबिक है।

मान्यवर कांशीराम ने उस जाति पहचान के आधार पर बहुजनों को संगठित किया,जिसे सिरे से मिटाने के लिए बाबासाहेब जिये और मरे।



तेलतुंबड़े का कहना है, अस्मिता और भावना के आधार पर संगठन बनाना  आसान,लेकिन बाबासाहेब  इस आसान रास्ता के खिलाफ थे।

इसके विपरीत संघपरिवार के संगठन का आधारःमस्जिद कोई धार्मिक स्थल नहीं, कभी भी तोड़ी जा सकती हैः स्वामी

सुब्रमण्यन स्वामी ने एक बार फिर देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहरीले बोल बोले हैं। इस बार सारी हदें लांघ गए हैं स्वामी...
पढ़ें स्टोरी...
बीजेपी नेता सुब्रमण्यन स्वामी के मुताबिक मस्जिद कोई धार्मिक स्थल नहीं है, इसलिए उसे कभी भी...


इसी बीच भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में कांग्रेस पार्टी दिल्ली के जंतर मंतर से संसद तक मार्च और विरोध प्रदर्शन कर रही है। संसद भवन तक मार्च करते इन कांग्रेस कार्यकर्ताओं को रोकने के लिए पुलिस ने लाठीचार्ज किया और वॉटर कैनन का इस्तेमाल भी किया। इस मार्च के जरिए कांग्रेस मोदी सरकार को घेरने की कोशिश कर रही है।

इस विरोध मार्च में कांग्रेस के तमाम बड़े नेता शामिल हुए हैं, हालांकि बाहर होने की वजह से राहुल गांधी और तबियत खराब होने की वजह से सोनिया गांधी मार्च में शामिल नहीं थीं। पानी की बौछार और लाठीचार्ज में कई कांग्रेस कार्यकर्ता घायल भी हुए हैं। कांग्रेस के इस विरोध मार्च में सैकड़ों यूथ कांग्रेस कार्यकर्ता और किसान शामिल हुए हैं। कांग्रेस केंद्र सरकार के जमीन अधिग्रहण बिल को किसान विरोधी बताते हुए इसका विरोध कर रही है। इस भारी विरोध के बीच सरकार कल राज्यसभा में भूमि अधिग्रहण बिल पेश करने वाली है।

इधर इंडस्ट्री को भी लग रहा है कि जमीन अधिग्रहण बिल को पास करवा पाना सरकार के लिए मुश्किल होगा।बजाज ग्रुप के चेयरमैन राहुल बजाज ने सीएनबीसी आवाज के साथ एक्सक्लूसिव बातचीत में कहा है कि जमीन अधिग्रहण बिल को लेकर पूरा विपक्ष एक जुट है। ऐसे में राज्य सभा इस बिल के पास होने की संभवना नहीं है।

दूसरी तरफ सीएनबीसी आवाज के साथ एक्सक्लूसिव बातचीत में पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि सरकार को अब भी उम्मीद है कि जमीन अधिग्रहण बिल पर आम राय बना ली जाएगी।

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