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Wednesday, August 5, 2015

भैंस की सवारी जिसने न गांठी हो,वो चाहे हो सिकंदर या फिर हिटलर,उससे डरना क्या?क्यों? जाहिर है कि मुहावरों की जंग है यह लोकरंग से लबालब जिसे लोक और मुहावरों की तमीज नहीं है वे सारे बदतमीज कला और माध्यमों से बाहर हो जायें तो जिंदड़ी यकीनन बेहतर होगी क्योंकि खेतों की सारी लड़ाई इन्हीं मुहावरों, बेअदब बोलियों औऱ भूले हुए लोक ,बिसरी यादों की लड़ाई है जैसे कोई भैंस की सवारी होती है। इंसानियत की जमीन पर थीं हमारी भैंसें और अब गांवों में वे रंगदार भैंसें नहीं है।वे भैंसे अब सियासती मजहबी भैसें हैं और उनकी सवारी गांठे बिना हम अपने खेत खलिहान बचा ही नहीं सकते। फिरभी उस सिकंदर या हिटलर से कह दें कोई कि हम जीते जी अपने खेत नहीं छोड़ेंगे।मानसून और सुनामियों को रोकने खातिर दादी के पिता का वह सरसों हम आखिर कहीं कहीं उगायेंगे। पलाश विश्वास

भैंस की सवारी जिसने न गांठी हो,वो चाहे हो सिकंदर या फिर हिटलर,उससे डरना क्या?क्यों?


जाहिर है कि मुहावरों की जंग है यह लोकरंग से लबालब जिसे लोक और मुहावरों की तमीज नहीं है वे सारे बदतमीज कला और माध्यमों से बाहर हो जायें तो जिंदड़ी यकीनन बेहतर होगी क्योंकि खेतों की सारी लड़ाई इन्हीं मुहावरों, बेअदब बोलियों औऱ भूले हुए लोक ,बिसरी यादों की लड़ाई है जैसे कोई भैंस की सवारी होती है।


इंसानियत की जमीन पर थीं हमारी भैंसें और अब गांवों में वे रंगदार भैंसें नहीं है।वे भैंसे अब सियासती मजहबी भैसें हैं और उनकी सवारी गांठे बिना हम अपने खेत खलिहान बचा ही नहीं सकते।


फिरभी उस सिकंदर या हिटलर से कह दें कोई कि हम जीते जी अपने खेत नहीं छोड़ेंगे।मानसून और सुनामियों को रोकने खातिर दादी के पिता का वह सरसों हम आखिर कहीं कहीं उगायेंगे।


पलाश विश्वास

भैंस की सवारी जिसने न गांठी हो,वो चाहे हो सिकंदर या फिर हिटलर,उससे डरना क्या?


जिंदड़ी दा किस्सा पिंड दा किस्सा जादू दा किस्सा।

कि मैं झूठ बोल्या?


जनमा तराई के बीहड़ जंगल के बीचोंबीच बसंतीपुर रिफ्यूजी कालोनी में बंगाली और सिख शरणार्थियों के बीच और पढ़ने लिखने के बहाने नैनीताली हो गये तो सीद्धे कमफोर्ट जोन में दाखिला मिल गया।फिर भी खून फिर वहीं खून है।कातिल भी बदले न हैं।


कभी खेत पर खेत हो जाने का मौका ही हाथ नहीं आया।


खेत का हिसाब भाइयों से कभी नहीं मांगा इसलिए कि बंटवारा का जख्म अब भी ताजा है।कि मां बाप से बहुत दूर दूर रहा मैं।वे मां बाप के पास पास थे।उनके खेत वे ही संभाल रहे हैं।


हमारी दादी और हमारी नानी जब किस्सों की पोटलियां खोलकर बैठती थीं तो उनमें खेत की लड़ाइयों के किस्से सबसे ज्यादा थे।


हमने अपन नाना नानी को देखा नहीं है और न हमने ननिहाल देखा है क्योंकि मां कभी बसंतीपुर छोड़कर ओड़ीशा के बारीपदा में अपने बापके वहां लौटी नहीं और मायका भी था नहीं उनका,क्योंकि बिनमां की बेटी को व्याहकर बसंतीपुर बसाया था मेरे बाप ने।


हमारी नानी 1964 के बाद पूर्वी बंगाल के ओड़ीकांदी से आयी थी क्योंकि हमारी ताई उनकी अकेली बेटी थीं।


वे हरिचांद गुरुचांद ठाकुर के परिवार की बेटी थीं और रिश्ते से गुरुचांद ठाकुर की नतनी और पीआर ठाकुर की बहन लगती थीं।


उनके किस्से भी हरिचांद ठाकुर और गुरुचांद ठाकुर के किस्से थे और बंगाल का आदिवासी किसान आंदोलनों की मुकम्मल जमीन कोई उन्होंने हमारे घर तोड़कर लायी थीं।उनके भी किस्से सारे के सारे खेतों के हकहकूक के थे।


हमारी दादी शांतिदेवी और नानी प्रभा देवी में फर्क यही था कि नानी कुछ नफीस किस्म की थीं और चूंकि ठाकुर बाड़ी की बेटी थीं,सो पढ़ी लिखी भी खूब थीं और मजा यह कि उन्हें हमें देखकर अपना मरहूम शौहर की याद आती थी।


पूरे घर में वे मेरे पढ़ने लिखने की सबसे ज्यादा कद्र करती थीं तो काला अक्षर भैंस बराबर हमारी दादी से उनकी कभी पटती न थी।


दोनों औरतों को पूर्वी बंगाल बसंतीपुर को बना देने की तमन्ना थीं और दोनों जबतक जिंदा रहीं,वे अने मकसद में काफी हद तक कामयाब थीं।


नानी घर को घर नहीं कहती थी,ठेठ फरीदपुर के लहजे में बाहांद कहती थीं यानी घरों का सिलसिला जहां सारा का सारा कुनबे का साझा चूल्हा हो।


शेख मुजीब को उनने नजदीक से देखा था बचपन में और आजाद बांग्लादेश के होने पर उन्हें सबसे ज्यादा खुशी मुजीब के लिए थी।


बांग्लादेश आजाद होने से सालभर पहले जब मैं आठवीं में हाईस्कूल का लीडर बनकर हड़ताल करा चुका था और पिताजी से बोलचाल बंद थी मेरी ,तब 1970 में दादी शांति देवी चल बसीं।


मुझे और मेरे भाई सुभाष को लेने जब स्कूल पहुंचे पिता,तब वे हमें खबर करते हुए फुट फुटकर रो पड़े और सुबाष तो मुझसे ज्यादा समझदार रहा है हमेशा ,वह संजीदा हो गया लेकिन अपने दबंग पिता को रोते देखकर मुझे हंसी आ गयीं।


खैर दादी और नानी में एक बात बेहद कामन थीं और हमारे लिए यह पता लगाना मुश्किल था कि कौन असली मधुमती हैं,जो हमारे दरम्यान जैशोर और फरीदपुर के सरहद की तरह बह रही हैं।


नानी ठेठ फरीदपुर की ओड़ाकांदी ब्रांडिंग थीं,जिनसे मिलने माता वीणापानी देवी अपने बेटे कपिल कृष्ण ठाकुर के साथ बसंतीपुर भी चली गयीं और बसंतीपुर तब तराई का मतुआ केंद्र था क्योंकि हमारे चाचा के मुंहबोले बेटे ललित गुसाई मतुआ महोत्सव करते थे हर साल।वह सबसे बड़ा उत्सव था।


दादी खालिस जैशोर की नड़ाल वर्सन थीं।

नानी फरीदपुर के किस्से कह सुनाती थीं तो दादी जैशोर की जमीन पर खड़ी थीं।


उन दनों के बीच मधुमती बहती थी।


खास बात यह कि दोनों नलके पर नहाती न थीं जो पहाड़ी नदी तब भी अनबंधी बहती थी बसंतीपुर और सिखों के गांव अर्जुनपुर के दरम्यान उसी को उनने मधुमती मान लिया था।


हालांकि तब भी जंगल था टुकड़ा टुकड़ा और बाघ भी दीख जाता था उस नदी के आसपास,वे दोनों मुकम्मल मधुमती थीं।


दादी अपेन पिता के किस्से हरिचांद ठाकुर और गुरुचांद ठाकुर करिश्मे के मुकाबले खड़े करके अपनी समधन को जोर मात जब देती थीं,तब हमें समझ आती थी रवींद्र,नजरुल और जीवनानंद की कविताएं। वे कविताें जो हम कभी लिख न सके हैं।


हमने तेभागा की लड़ाई जो बाद में माणिक बंद्योपाध्याय की जुबानी जिया ,वह हमने दादी की जुबानी सुन लिया था बचपन में जब बंगाल की किसान औरतें घर को मोर्चा बना लेती थीं और चाहे पुलिस हो या जमींदार के कारिंदे,किसी की कोई औकात न थी कि उस मोर्चा को तोड़ पाये।


ये किस्से हमने ढिमरी ब्लाग किसान विद्रोह के दमन के बाद नक्सल दमन की खबरों के साथ साथ सुने तो ताज्जुब था बहुत कि खेत पर कैसे खेत हुआ जाता है।


फिरभी सच तो यही है कि भैंस की सवारी जिसने न गांठी हो,वो चाहे हो सिकंदर या फिर हिटलर,उससे डरना क्या?


यस,हमने भैस की सवारी गांठी हैं और भैंसोलाजी की डिग्री किसी इकलौते लालू प्रसाद यादव की हरगिज नहीं है।


वातानुकूलित ट्रेन हो या कार या फिर हवाई जहाज,उसमें फिर कहां है वह भैंसों की सवारी का रोमांस।


खेतों के कामकाज इतने घनघोर थे कि पढ़ने लिखने के जुनून के जुर्म में जब देखो,जिसे देखो,कान उमेठ देता था।


पढ़ने लिखने की सबसे बेहतरीन जगह भैंस की पीठ थी,जहां कमसकम कोई हमारे कान उमेठ नहीं सकता था।


बशर्ते की आप भैंसो की जुबान और उनका जंगी मिजाज बूझते हों।


उनके लिए कोई आपरेटिंग सिस्टम तो होता नहीं है और यकीन मानें कि जंगी तेवर और खतरनाक सींग के बावजूद पढ़ने लिखने की उतनी बेहतरीन जगह फिर हमें कहीं नहीं मिली है।


भैंस की सवारी के लिए कलेजा भी तनिक लागे हो क्योंकि भैसों की लड़ाई बहुत खतरनाक होती है और खासतौर पर जब वह लडाई तब हो ,जब आप उसकी सवारी गांठे हों।


तब गणित में मैं खूब मशगुल हुआ करता था और भैंस की पीठ पर समीकरण साध लेता था वो अब किसी कोचिंग वोचिंग में कोई करके दिखायें तो समझें हमारी भौंसोलाजी बेकार है।


हम कुछ आत्ममुग्ध से प्राणी भी रहे हैं।

खुदगर्ज किस्म के भी,कह लें तो कोई गलत न होगा।

पढाई लिखाई में हम हमेशा ऐसे डूबे रहे कि दुनिया जहां का होश कभी रहा ही नहीं।फरहाजान अपनी अभी इसीपर गुस्सा हैं।


मसलन हम जैसे भैंस की पीठ पर हो तो भैंसों में आपस में जंग छिड़ गयी तो कोई बात नहीं।लेकिन अपनी मधुमती के पार सिखों के गन्ने के खेत में भैंस हमारी समाधिमग्नता का फायदा उठाये भरपूर तो मामला बहुत संगीन हो जाता था।


कोई सिख दा पुत्तर इस संगीन जुर्म का नोटिस न लें तो यह करिश्मा ही था।ऐसा करिश्मा होता न था।


वे लाठी उठाकर जबतक हमें दो चारकर देते तबतक भैंस बिना रिमोट नौ दो ग्यारह होकर अपने सरहद में।


फिर कोई सिख सरहद पार बंगाली सरहद में दाखिल हो तो समझिये फिर हिंदुस्तान पाकिस्तान जंग है।


पिता हों आसपास तो हमारी कसकर धुनाई होती थी और जंग टल जाती थी।वे पूरी तराई के नेता थे।किसी बसंतीपुर के नहीं थे सिर्फ वे अर्जुन पुर के भी उतने ही थे,जितने बसंतीपुर के।


पिता न हो और मामला तब हो,तो मंदारबाबू,यानी बसंतीपुर के प्रेसीडेंट,मेरे पिता के दोस्त और हमारे दोस्त कृष्ण के पिता तब साक्षात मुजीबुररहमान।


भले हममें से किसी की धुनाई से उन्हें भी खास परहेज न था और बसंतीपुर के बच्चे उन्हीं से सबसे डरते थे लेकिन क्या मजाल कि बसंतीपुर की बच्चोें से बाहर वाले ऊंची आवाज में बात भी कर लें!


तब उनका किरदार धृतराष्ट्र हो जाता था।


यह कोई संजोग शायद नहीं है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय और जेएनयू की दहलीज से हम बैरंग लौट आये और जिंदगी धतकरम हो गयी।


हमने गणित छोड़ा साहित्य के लिए।


हमने खेलना कूदना छोड़ा साहित्य के लिए।


हम नैनीताल गये साहित्य के लिए वरना हमें सव्तंत्रता सेनानी बनर्जी परिवार के जिम्मे हो जाना था बनारस में।क्योंकि बसंत कुमार बनर्जी पिता के खास दोस्त थे जो मुझे बानारस ले जाने पर आमादा थे।


हम तो बस उस झील की मुहब्बत में कैद थे और आज भी जिंदगी उसी झील के नाम जीता हूं।


मजा यह है कि ससुरी जिंदड़ी ने ऐसी ट्विस्ट ले ली है कि खेत खलिहान छूट गया, बसंतीपुर छूट गया,गणित छूट गया तो साहित्य भी छूट गया और फिर भैंस की सवारी की नौबत न आयी।


हम अंग्रेजी साहित्य,भाषा और भाषा विज्ञान में पीेचडी का मंसूबा बांधे हुए थे जो झारखंड के आदिवासी भूगोल में दाखिल होकर हकीकत की जमीन पर किरचियों में बिखरा ख्वाब हो गया और यकीन मानिये, तब से हकीकत का सामना करना रोजनामचा हो गया।इसी में असल में भैंस की सवारी अब भी हो जाती है।


धनबाद में ही मिली थी महाश्वेता दी हमें और उन्हें पढ़कर हमें लगा कि हम तो अपनी दादी और नानी के किस्से पढ़ रहे हैं।


महाश्वेतादी से जबसे मिला तबसे कला और माध्यम के बारे में दृष्टि बदल गयी है।


अब हमारा मानना है कि जब देश जल रहा हो, सुनामियां हों प्रलयंकर और हिमालय लगातार टूट रहा हो और नदियों में खून लबालब हो तो न कोई कला विशुद्ध कला होती है और न कोई माध्यम विशुद्ध होता है।


तब वक्त की मांग निरपेक्षता नहीं, जनपक्षधरता की होती है।


अब हमारा मानना है कि सबसे बड़ा भाषा विज्ञान भाषाओं, अस्मिताओं,सरहदों  के आर पार पारदर्शी हो जाना है और दीवारों को ढहाना तब किसी भैंस की सवारी से कम नहीं है।


इंसानियत की जमीन पर थीं हमारी भैंसें और अब गांवों में वे रंगदार भैंसें नहीं हैं।वे भैंसे अब सियासती मजहबी भैसें हैं और उनकी सवारी गांठे बिना हम अपने खेत खलिहान बचा ही नहीं सकते।


जाहिर है कि मुहावरों की जंग है यह लोकरंग से लबालब जिसे लोक और मुहावरों की तमीज नहीं है वे सारे बदतमीज कला और माध्यमों से बाहर हो जायें तो जिंदड़ी यकीनन बेहतर होगी क्योंकि खेतों की सारी लड़ाई इन्हीं मुहावरों, बेअदब बोलियों औऱ भूले हुए लोक ,बिसरी यादों की लड़ाई है जैसे कोई भैंस की सवारी होती है।


हमारी दादी कहा करती थी कि उनके पिता उमड़ते घुमड़ते मानसून और दिशाओं को तोड़कर आ रहे साइक्लोन के चेहरे पर सरसों उठाकर मार देते थे और फिजां फिर बहार हो जाती थीं।


दादी ने हमें हमेशा मुझे अपने बाप पर गया समझा था तो हमारी नानी हमें अपने शौहर के मुकाबिल समझती थीं और हम उस जुड़वां मधुमती के गुनाहगार हैं कि हमने न जमीन की कोई जंग लड़ी है और न खेत पर खेत होने की शहादत हमारे नाम है और अब हम कभी भैंस की सवारी भी गांठ नहीं सकते।


अनंत बेदखली में पूरा देश डूब है।


नई दिल्ली बेहद पास है।

इतना पास कि सीकरी से संतन को कोई काम नहीं और इस मुआं बाजार में किसी कबीर दास का भी काम तमाम है।


बसंतीपुर दरअसल कहीं नहीं है क्योंकि तेभागा की गूंज नहीं है कहीं भी और भूमि सुधार के बजाय जमीन डकैती है।


बसंतीपुर में भी वे रंगीन भैंसे नहीं हैं अब और न अर्जुनपुर और न बसंतीपुर के दरम्यान कोई मधुमती बहती है और यकीन यह भी नहीं है कि सचमुच कोई मधुमती जैशोर और फरीदपुर के दरम्यान सरहद बनकर बहती होगी।


अब कोई दादी भी नहीं हैं कहीं,जो मानसून और सुनामियों को सरसों मारकर रोक देने के किस्से कहेंगी।


वह नानी भी कहीं नहीं है कि किसी तेभागे के लड़ाके शौहर की तस्वीर किसी भविष्य के चेहरे पर चस्पां कर देंगी या फिर बतायेंगी कि मतुआ न मजहब है और न सियासत का नाम है मतुआ,वह खेत खलिहान बचाने और किसानों का हक हकूक बचाने के लिए हरिचांद ठाकुर के हाथों सुलगा साझा चूल्हा है,जिसका सौदा होता नहीं है।


और तो और वे जंगबाज सिख भी नहीं है इस मुल्क में कहीं जो एक लड़ै है सवा लाख से ,सारे के सारे अकाली हैं।


फिरभी उस सिकंदर या हिटलर से कह दें कोई कि हम जीते जी अपने खेत नहीं छोड़ेंगे।मानसून और सुनामियों को रोकने खातिर दादी के पिता का वह सरसों हम आखिर कहीं कहीं उगायेंगे।



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