Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter
Follow palashbiswaskl on Twitter

Friday, October 23, 2015

अतीत की असहजता: जानकी नायर

अतीत की असहजता: जानकी नायर

Posted by Reyaz-ul-haque on 10/20/2015 09:44:00 PM


जेएनयू में इतिहास की प्राध्यापक जानकी नायर ने यह लेख दक्षिणपंथी हिंदुत्व गिरोह द्वारा इतिहास की वैज्ञानिक समझ, इतिहास लेखन और इतिहासकारों पर किए जानेवाले हमले के संदर्भ में लिखा है. द हिंदू में प्रकाशित इस लेख का अनुवाद शुभनीत कौशिक ने किया है.


अकादमिक दुनिया को और ख़ासकर इतिहास विभागों को आज अप्रासंगिक हो जाने का खतरा सता रहा है। सड़कों, वेबसाइटों, समाचार-पत्र के लेखों, सामुदायिक बैठकों, राजनीतिक दलों और विधायिकाओं, एवं भ्रष्ट तथा विकृत दिमागों द्वारा इतिहास को रोज-ब-रोज दी जाने वाली चुनौती, इस विषय के लिए दुर्दिन बनती जा रही हैं। इतिहास के लिए इस आसन्न संकट में अब भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद भी शामिल हो गया है। आज न सिर्फ़ इतिहासकारों की जवाबदेही तय करने की कोशिश की जा रही है, बल्कि उन पर एक 'सुनिश्चित, स्पष्ट और बगैर किसी विरोधाभास वाले' इतिहास को लिखने का दबाव भी बनाया जा रहा है। जाहिर है कि ऐसा 'इतिहास' लिखना इतिहासकार की वर्तमान क्षमता से परे है। 

पिछले कुछ समय से हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथ ने 'उदार लेफ़्ट' की ओर झुकाव रखने वाले इतिहासकारों और विद्वानों पर लगातार हमला बोला है। इन विद्वानों को 'भारतीयता विरोधी, राष्ट्र-विरोधी, और हिन्दू-विरोधी' भी बताया गया। सामाजिक और आर्थिक संरचनाओं को समझने पर ज़ोर देने के लिए, और अतीत के महज़ 'गौरवशाली पक्ष' पर लिखने की बजाय, उसके आलोचनात्मक विश्लेषण और मूल्यांकन करने के कारण भी, इतिहासकारों को आलोचना झेलनी पड़ रही है। उस ऐतिहासिक पद्धति पर भी अब सवाल उठ रहे हैं, जिसमें कम-से-कम पिछले 40 वर्षों में इतिहासकारों ने एकाश्मी इतिहास की सुनिश्चितताओं से परे जाकर, अब तक उपेक्षित रहे क्षेत्रों, समूहों, संप्रदायों और परिप्रेक्ष्यों के अध्ययन की कोशिश की। इन इतिहासकारों के कार्यों की यह कहकर आलोचना की जा रही है कि उनके कामों में 'भारतीय दिमाग पर औपनिवेशिक प्रभाव' की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।

'नए सिरे' से शुरुआत

बक़ौल, यल्लप्रगडा सुदर्शन राव, जो भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के चेयरमैन हैं, इन 'अंतरंग शत्रुओं' यानी ऐसे इतिहासकारों से निबटने के लिए 'नए सिरे' से शुरुआत करनी होगी। इस क्रम में हमें 'सभी पुरानी व्याख्याओं से निजात पानी होगी', और एक ओर जहां विज्ञान की प्रविधि का इस्तेमाल करना होगा, वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे ही अपरिभाषित पद्धतियों का इस्तेमाल करना भी सीखना होगा। इतिहास को पीछे धकेलने की धुन, ताकि वह निष्ठापूर्वक वर्तमान की सेवा कर सके, भले ही एक बेकार का ऐतिहासिक उद्यम लगे, पर सुदर्शन राव की दृष्टि में यह एक महत्त्वपूर्ण 'वैज्ञानिक उद्यम' ज़रूर है। सुदर्शन राव मानते हैं कि विगत '8000 वर्षों' के इतिहास का पुनरुद्धार और डिजिटलीकरण उनका कर्तव्य है और वे इतिहास को इतिहासकारों की पकड़ से निकालकर उसमें वैज्ञानिकों जैसी 'वस्तुनिष्ठता' शामिल करने और बच्चों सरीखी कल्पना का पुट डालने पर ज़ोर देते हैं। इसलिए उनका कहना है कि 'इतिहास-शोध महज पेशेवर इतिहासकारों का ही विषय नहीं है'। बच्चे की कल्पना से प्राप्त होने वाले 'ऐतिहासिक सच' का भी, अब इतिहासकारों को स्वागत करना होगा।

यह कथन इतिहासकारों के लिए असल चुनौती पेश करता है: एक ओर तो यह व्याख्या की प्रक्रिया को बाधित करता है और दूसरी ओर यह अतीत के बच्चों सरीखे, अपेक्षाकृत तथ्यरहित और महज़ दावों से भरे हुए, विश्लेषण को स्वीकृति देता है। बकौल प्रो. राव, शाश्वत सत्य वेदों में निहित है क्योंकि उनके अनुसार, 'हम जानते हैं कि समाज-विज्ञानों में अनुभवजन्य प्रामाणिक अध्ययन वर्तमान और निकट भविष्य के अध्ययन के लिए ही प्रासंगिक हो सकते हैं'। 

अगर 'इतिहासकार का काम' महज़ पूर्व-निर्धारित निष्कर्षों की पुष्टि करने वाली सामग्री को जुटाना भर है तो सभी इतिहास विभागों को बेकार होते देर नहीं लगेगी। पर पेशेवर इतिहासकारों को सिर्फ बेकारी का भय ही नहीं सता रहा है। इस भय में उनके पेशेवर कौशलों पर हो रहे हमले भी शामिल हैं। 'लिबरल लेफ़्ट' के इतिहासकारों ने अतीत में अर्थ ढूँढने, उसके निहितार्थों को समझने और व्याख्याओं पर ज़ोर दिया। अब, अतीत के भूत अपने कब्रों से बाहर निकाल रहे हैं और तथ्य का सम्मान करने वाले इतिहासकारों को चुनौती दे रहे हैं। इतिहासकार का सामना ऐतिहासिक शख़्सियतों, समुदायों, और यहाँ तक कि घटनाओं के बारे में भी सच बताए जाने वाले 'तथ्यों' की बाढ़ से हो रहा है। इन मिथ्या धाराओं पर तथ्यपरक होने की कोई ज़िम्मेवारी नहीं है। इस तरह, जब हम अपने को एक पठनीय और पढ़ाये जाने योग्य एकल इतिहास तैयार करने की दशा में पाते हैं (जिस प्रोजेक्ट में हिन्दू दक्षिणपंथी भी लगे हुए हैं)। तो हम यह भी पाते हैं कि कुछ लोग इस बात पर भी बार-बार ज़ोर दे रहे हैं कि अतीत के उन हिस्सों को जो 'पर्याप्त गौरवपूर्ण' नहीं हैं, उन्हें संपादित करना होगा या उन्हें दबा देना होगा या ज्यादा बेहतर होगा कि उन्हें भूल ही जाएँ।

इतिहास में सुविधाजनक रद्दोबदल

इस तरह भारतीय इतिहास उन बातों की एक लंबी और उबाऊ फेहरिस्त बनता जा रहा है, जिसमें ये बातें शामिल हैं या होंगी: वे बातें जो हम नहीं जान सकते; वे बातें जिन्हें जानने की हमें ज़रूरत ही नहीं है; वे चीजें जो हमें नहीं जाननी चाहिए; और कुछ ऐसी भी बातें, जिनके बारे में पहले से ही निर्धारित कर दिया गया है कि वे बातें हमें ज़रूर जाननी होंगी। जल्द ही, इतिहास का शिक्षक खुद को केवल उन मुद्दों और विषयों को पढ़ता-पढ़ाता हुआ पाएगा, जिन पर विवाद की गुंजाइश न के बराबर हो। या जिन पर उन असंख्य समूहों को कोई आपत्ति नहीं होगी, जिनकी भावनाएं अत्यंत कोमल हैं और आहत हो जाने को आतुर। ऐसे कुछ विषय होंगे: आरंभिक आधुनिक यूरोप में उपभोग के बदलते पैटर्न; चीन में बॉक्सर विद्रोह आदि। 

अब उस मांग का उदाहरण ले लीजिए जिसमें अभिनेता रजनीकान्त को टीपू सुल्तान पर प्रस्तावित फिल्म में मुख्य भूमिका न निभाने के लिए कहा गया और उन्हें 'चेतावनी' भी दी गयी। गौरतलब है कि टीपू सुल्तान के जीवन पर आधारित यह बायोपिक कर्नाटक के अशोक खेनी द्वारा प्रस्तावित थी। 

टीपू सुल्तान पर 'हत्यारा', 'निर्दयी' और यहाँ तक कि 'तमिल-विरोधी' होने तक के मिथ्या आरोप लगाए जा रहे हैं। भारतीय इतिहास का कोई भी जानकार, यह जानता है कि 18वीं सदी के अनेक भारतीय राजाओं ने अपने राज्य के क्षेत्रीय विस्तार पर हमेशा ज़ोर दिया वह भी किसी भाषाई समूह को वरीयता दिये बिना या उनके भय के बिना। एक पेशेवर इतिहासकार के पास टीपू सुल्तान के योगदान को समझने और उसके मूल्यांकन के लिए कई तरीके हो सकते हैं, जिसके आधार पर वह उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री का अध्ययन करेगा। औपनिवेशिक दस्तावेज़ों के अनुसार टीपू सुल्तान एक 'निर्दयी' शासक था, ऐसा इसलिए भी क्योंकि टीपू सुल्तान अंग्रेज़ों का कट्टर शत्रु था। (और जब हम औपनिवेशिक दस्तावेज़ों की बातों को ज्यों-का-त्यों स्वीकार करते हैं, तो हम प्रो. राव के भय को ही स्पष्ट ढंग से जता रहे होते हैं यानि 'इतिहास पर औपनिवेशिक प्रभाव या पकड़' का भय।)

टीपू सुल्तान ने अपने अनेक पत्रों में बंदी बनाए गए और मारे गए लोगों के बारे में या धार्मिक पूर्वाग्रह संबंधी अतिशयोक्तिपूर्ण बातें कही हैं। पर दूसरी ओर, मैसूर के किले में मंदिरों के अवशेष, टीपू सुल्तान द्वारा मंदिरों को दिये गए दानपत्र और टीपू सुल्तान के बनवाए भवनों के स्थापत्य में हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल कुछ और ही कहानी कहता है। इसके साथ ही, लोक-संस्कृति में भी टीपू सुल्तान की वीरता, उसके अदम्य साहस और उसकी स्मृति के किस्से भरे पड़े हैं। कन्नड़, तमिल, मलयालम, मराठी, और तेलुगू भाषा के लोकगीतों में और लावनियों में भी टीपू सुल्तान को समर्पित गीत भरे पड़े हैं। 

इनमें से किस सामग्री को इतिहासकार वरीयता देता है? इसका जवाब है इनमें से किसी को भी नहीं। या यह कि इतिहासकार द्वारा इनमें से सभी का, उनके रचे जाने के समय के आधार पर आलोचनात्मक विश्लेषण और मूल्यांकन किया जाना चाहिए। आधुनिकीकरण की ओर कदम बढ़ा रहे राजाओं वाले युग के एक जटिल, विरोधाभासी और अनोखे प्रतिनिधि, टीपू सुल्तान की स्मृति को कम करके आंकना, असल में, भारतीय इतिहास को ही इसकी संपूर्णता में, और इसकी 'असुविधाजनक' जटिलताओं को, कम करके आंकना होगा।

1940 के दशक के आखिरी वर्षों में जब हमने अपना संविधान तैयार किया था, तब से अब तक काफी समय बीत चुका है। संविधान की मूल प्रति को कलात्मक बनाने और उसे अपने रेखांकन से सजाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी, प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बोस को। नंदलाल बोस ने, टीपू सुल्तान को 18वीं सदी में अंग्रेजों की मुखालफत और अंग्रेज़ी ताकत का प्रतिरोध करने वाली शक्तियों का प्रतिनिधि माना। रजनीकान्त जो स्वयं तीन भाषाई संस्कृतियों, मराठी, तमिल और कन्नड़, के संतान हैं, एक ऐसे ही जटिल नायक यानि टीपू सुल्तान की भूमिका निभाने से नहीं चूकना चाहेंगे। पर इस बात के लिए हमें उन्हीं पेशेवर इतिहासकारों के कौशलों की ज़रूरत होगी, जिन्हें नाहक बदनाम किया रहा है। 

--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors