धर्मेंद्र सिंह जनसत्ता 1 फरवरी, 2012 : चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों का चरित्र, चाल और चेहरा उजागर हो जाता है। इस चुनाव में हर पार्टी दूसरी पार्टी को पटखनी देने की हर तरह की जुगत में लगी हुई है। इसके लिए पार्टियां तरह-तरह के हथकंडे अपना रही हैं। मकसद साफ है, हर हाल में सत्ता हासिल होनी चाहिए। समाज को बांटना पडेÞ, धर्म के कार्ड का इस्तेमाल करना पडेÞ, सत्ता हासिल करने के लिए राजनीतिक दलों की नजरों में सब जायज है। पांच सालों तक इन पार्टियों को कुछ नजर नहीं आता, चुनाव के समय ही उनकी नींद टूटती है। नए वायदे करके और प्रलोभन देकर वे चुनाव का समीकरण बिठाती हैं। इनका सोच जाति, धर्म और क्षेत्र पर आकर सिमट जाता है। मुद्दों से हट कर जाति, धर्म, क्षेत्रवाद का खेल खेला जाता है। टिकट का बंटवारा जाति और धर्म के आधार पर किया जाता है। चुनाव के मैदान में भ्रष्टाचारी और आपराधिक छवि के लोग भी आ धमकते हैं। कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में जनता को सपने दिखा रही है। जो काम वह चालीस सालों में नहीं कर पाई उसे अब दस सालों में करने का दावा कर रही है। लेकिन इस चुनाव में सबसे अहम मुद्दा बन गया है मुसलिम वोटरों को लुभाने का। मुसलिम वोट पाने के लिए जहां कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा जीतोड़ कोशिश कर रही हैं वहीं भाजपा ने इस कवायद के खिलाफ ओबीसी और राममंदिर का मुद्दा उछाल दिया है। ओबीसी के सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण में अल्पसंख्यकों को साढ़े चार फीसद आरक्षण दिए जाने के केंद्र सरकार के निर्णय के पीछे मुसलिम मतदाताओं पर पैनी नजर है। कानून मंत्री सलमान खुर्शीद को लगा इतने से काम नहीं बनने वाला है तो आचार संहिता लागू होने के बावजूद उन्होंने साढ़े चार फीसद को बढ़ा कर नौ फीसद करने का वादा कर दिया। हालांकि इस मुद्दे पर सलमान खुर्शीद को चुनाव आयोग से नोटिस मिल चुका है। पर यह जाहिर है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती है। मुसलमानों को आरक्षण देने की बात हो तो भाजपा अपनी गोटी खेलने से कब चूकने वाली है। अल्पसंख्यकों के लिए घोषित किए गए साढ़े चार फीसद आरक्षण के विरोध के पीछे भाजपा की नजर है ओबीसी पर। वह यह अहसास कराना चाहती है कि ओबीसी कोटे से अल्पसंख्यक आरक्षण मिलेगा तो कहीं न कहीं ओबीसी का हक मारा जाएगा। अब तो भाजपा ने अपने घोषणापत्र में यह एलान भी कर दिया है कि अगर भाजपा सत्ता में आती है तो पिछडेÞ वर्ग के सत्ताईस फीसद आरक्षण के तहत दिए गए 4.5 फीसद अल्पसंख्यक आरक्षण को खत्म कर देगी। यही नहीं, अपने परंपरागत समर्थकों को लुभाने के लिए उसने फिर से राम जन्मभूमि का मुद््दा उठा दिया है। चुनाव के दौरान ही भाजपा को राम मंदिर बनाने का सपना आता है। अब वह एक बार फिर कह रही है कि पार्टी सत्ता में आई तो राम मंदिर के निर्माण में आने वाली सभी बाधाओं को दूर करेगी। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मुखर रही भाजपा जाति की राजनीति में फंस गई है। जिस शख्स की कुर्सी भ्रष्टाचार की वजह से गई और जिसे मायावती ने ठुकरा दिया, उस शख्स के जरिए भाजपा उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करने के सपने देखने लगी। उसने बाबूसिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर लिया। नजर थी कुशवाहा जाति के वोटों पर। पार्टी की जब खूब फजीहत हुई तो कुशवाहा से किनारा करने का नाटक रचा गया। राज्य के मुसलिम मतदाताओं पर समाजवादी पार्टी की खासी नजर है। बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद के मुद््दे पर मुलायम सिंह यादव के रुख ने मुसलमानों के बीच उन्हें नायक बना दिया। 'माय' यानी मुसलिम-यादव के गठजोड़ की वजह से वे तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। लेकिन परमाणु समझौते के मुद्दे पर कांग्रेस का साथ देने के कारण मुसलिम मुलायम से बिदक गए, जिसका खमियाजा उन्हें लोकसभा चुनाव में भुगतना पड़ा। उन्होंने मुसलमानों में अपनी पैठ जमाने के क्रम में आजम खान को फिर से अपने साथ जोड़ा है। मुलायम सिंह को पता है कि बिना मुसलिम समर्थन के चौथी बार मुख्यमंत्री बनना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साढ़े चार फीसद की घोषणा और नौ फीसद के वादे को नाकाफी बताते हुए आबादी के आधार पर आरक्षण की बात कर रही है, यह जानते हुए भी कि मुसलिम आरक्षण को लेकर आंध्र प्रदेश में हाईकोर्ट तीन बार राज्य सरकार की कोशिश नाकाम कर चुका है। राजनीतिक दलों को लगता है कि जब मामला कोर्ट में फंसेगा तो देखा जाएगा। पहले मुसलिम मतदाताओं को प्रलोभन देकर वोट तो बटोरा जाए। उत्तर प्रदेश में मुसलिम आबादी करीब अठारह फीसद के करीब है। ये मतदाता जिधर झुक जाएं, उस पार्टी की नैया पार हो जाए। यही वजह है कि कांग्रेस, समाजवादी और बसपा के बीच मुसलिम मतदाताओं को रिझाने की जबर्दस्त होड़ चल रही है। कांग्रेस ने मुसलिम, ब्राह्मण और दलित समीकरण की बदौलत करीब चार दशक तक उत्तर प्रदेश में राज किया। लेकिन समाजवादी और बसपा के प्रभाव में आकर मुसलिम मतदाता कांग्रेस से खिसक गए। खासकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद। लेकिन इस बार कांग्रेस कोई जोखिम मोल लेना नहीं चाहती है। एक सौ तेरह सीटों पर मुसलिम मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। राज्य के रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, सहारनपुर, बरेली, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर, ज्योतिबा फुले नगर, श्रावस्ती, बागपत, बदायूं, लखनऊ, बुलंदशहर और पीलीभीत में उनकी आबादी बीस से उनचास फीसद है। इन इलाकों में जिस पार्टी को मुसलिम वोटों का तीस फीसद मिल जाए तो उसकी किस्मत संवर जाती है। 2009 के लोकसभा चुनाव में इनका साथ मिला तो कांग्रेस की सीटें इक्कीस हो गर्इं। लोकसभा चुनाव के बाद सीएसडीएस द्वारा किए गए सर्वेक्षण के मुताबिक कांग्रेस को पचीस फीसद मुसलमानों ने वोट दिया था, जबकि बसपा को अठारह फीसद और समाजवादी पार्टी को तीस फीसद। सन 2007 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ग्यारह फीसद और 2002 विधानसभा चुनाव के मुकाबले पंद्रह फीसद वोटों का इजाफा हुआ। जबकि बसपा को 2002 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले आठ फीसद और 2007 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले एक फीसद का फायदा हुआ। समाजवादी पार्टी से मुसलिम आधार में दरार पड़ गई थी। यही वजह थी कि 2007 में समाजवादी पार्टी को करारी हार का मुंह देखना पड़ा। सपा को 2002 के विधानसभा चुनाव में मुसलिम मतदाताओं के चौवन फीसद, 2007 के विधानसभा चुनाव में सैंतालीस फीसद और 2009 के लोकसभा चुनाव में महज तीस फीसद वोट मिले। यानी 2002 के मुकाबले 2009 में करीब चौबीस फीसद मुसलिम मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी से मुंह फेर लिया था। न तो भाजपा को मुसलिम वोटों की जरूरत है न ही मुसलिम मतदाता भाजपा को पसंद करते हैं। इसके बावजूद तीन फीसद मुसलिम मतदाताओं ने भाजपा को वोट दिया था। इस बार भाजपा ने सिर्फ एक मुसलिम उम्मीदवार खड़ा किया है। यह भी साफ है कि बिना मुसलिम समर्थन के कांग्रेस अपनी खोई हुई शक्ति फिर से नहीं पा सकती। लोकसभा चुनाव जैसी कामयाबी दोहराने के लिए कांग्रेस ने आरक्षण का दांव तो चला ही, इस बार मुसलिम उम्मीदवार खड़े करने में भी उसने कोई कोताही नहीं की है। पिछली बार कांग्रेस के छप्पन मुसलिम उम्मीदवार थे तो इस बार इकसठ हैं। इस तादाद में वह और भी इजाफा कर सकती थी,लेकिन राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठजोड़ की वजह से ऐसा नहीं कर सकी। अब भला मायावती क्यों पीछे रहतीं। इस बार उन्होंने ब्राह्मणों के बजाय मुसलिम मतदाताओं से अधिक आस लगा रखी है। पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले बसपा के इकसठ मुसलिम उम्मीदवार थे, इस बार पचासी हैं। कांग्रेस के आरक्षण कार्ड खेलने से पहले ही बसपा आरक्षण का यह पासा फेंक चुकी थी। मायावती ने इस आरक्षण की मांग को लेकर केंद्र को चिट्ठी लिखी थी। समाजवादी पार्टी, जो मुसलिम समर्थन के बूते सत्ता में आने का ख्वाब देख रही है, उसने चौरासी मुसलिम उम्मीदवार खड़े किए हैं, बसपा से सिर्फ एक कम। पिछली बार उसने इस समुदाय से सत्तावन उम्मीदवार ही खडेÞ किए थे। 403 विधानसभा सीटों में से सौ से सवा सवा सौ सीटों पर मुसलिम मतदाताओं की अहम भूमिका रहती है। लेकिन पिछले चुनाव में सिर्फ चौवन मुसलिम उम्मीदवार ही जीत पाए। इनमें से उनतीस बसपा से जीते थे, जबकि समाजवादी पार्टी से सिर्फ उन्नीस; छह उम्मीदवार अन्य दलों से। गौर करने की बात है कि कांग्रेस के टिकट पर पिछली बार एक भी मुसलिम उम्मीदवार नहीं जीत पाया था। कांग्रेस चुनावी मौसम में मुसलिम मतदाताओं को खुश करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखती है भले इससे उसे फायदा हो या नहीं। तभी तो सलमान रुश्दी के जयपुर आने के मुद्दे पर कांग्रेस का ढुलमुलपन देश के सामने आ गया। जयपुर साहित्य समारोह में शिरकत करने का रुश्दी का कार्यक्रम जिस तरह रद्द किया गया, उसके पीछे वोट की ही राजनीति है। कांग्रेस डर गई कि मुसलिम संगठनों के विरोध के बावजूद अगर रुश्दी को जयपुर के कार्यक्रम में शामिल होने दिया गया तो मुसलिम मतदाता बिदक जाएंगे। सलमान रुश्दी अपना कार्यक्रम रद्द होने से बेहद आहत हुए। उन्होंने कहा कि यह सब उत्तर प्रदेश के चुनाव में मुसलिम वोट हासिल करने के लिए किया गया है। कांग्रेस की इस मुद्दे पर काफी फजीहत हुई, लेकिन इससे पार्टी को क्या फर्क पड़ता है! यही नहीं, चार साल के बाद एक गडेÞ मुर्दे को उखाड़ा गया। बटला हाउस मुठभेड़ पर भी राजनीति शुरू हो गई। दिग्विजय सिंह अपने बयान पर कायम हैं तो उनकी पार्टी और सरकार ने उनके बयान से किनारा कर लिया है। भाजपा इस मुद्दे पर कांग्रेस और सरकार दोनों को घेरना चाहती है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या अब इस मुद्दे को उछालने से भाजपा और कांग्रेस को उत्तर प्रदेश के चुनाव में फायदा मिलेगा? आरक्षण के अलावा इस चुनाव में और भी कई मुद््दे उछाले गए हैं। बसपा विकास के नाम पर चुनाव के ठीक पहले तुरुप का पत्ता फेंक चुकी है। एक राज्य के गठन में सालों लग जाते हैं। लेकिन मायावती ने एक नहीं बल्कि चार राज्य बनाने का प्रस्ताव विधानसभा से पास करा दिया। मंजूरी के लिए वे यह प्रस्ताव केंद्र के पास भेज चुकी हैं। उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन करके चार राज्य बनें या न बनें, चुनावी मौसम में इस मुद्दे को भुनाने का मौका तो मायावती को मिल ही गया है। चुनावी महादंगल में कोई भी पार्टी पीछे नहीं रहना चाहती है। उनकी घोषणाएं और वादे भले ही अटपटे हों, और उन्हें पूरे करने की राह में चाहे जितनी संवैधानिक अड़चनें हों, पर पार्टियों को इसकी कोई परवाह नहीं है। उनका एक ही मकसद है, किसी तरह से वोट हासिल करना। जहां सब एक ही थैली के चट््टे-बट््टे नजर आएं, वहां यह सवाल उठना लाजिमी है कि वास्तव में चुनने को है क्या! सत्ता परिवर्तन का मतलब विकल्प नहीं है। जबकि जनता विकल्प चाहती है। |
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