मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के हाथों जारी घोषणापत्र में मुंबई में चैत्यभूमि के निर्माण के लिए 'विकास प्राधिकरण' बनाने का वादा किया गया है।
मुंबई से एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
बाबा साहब भीमराव अंबेडकर न केवल भारत के शंविधान निर्माता हैं, बल्कि उनके विचार आज भी सामाजिक न्याय के मुद्दे पर जारी
राजनीति की आत्मा है।
पूरे देश में अंबेडकर के नाम पर सत्ता की राजनीति चल रही है, पर अंबेडकरवादियों को अर्थशास्त्री अंबेडकर की विचार धारा से कुछ लेना देना नहीं है।
सत्ता हथियाने की राजनीति को अंबेडकर के मिशन जाति उन्मूलन से कुछ लेना देना नहीं है, बल्कि वोटों के गणित को फोकस में रखकर की जा रही राजनीति और आंदोलन से, तथाकथित सोशल इंजीनियरिंग से जाति आधारित व्वयस्था और मजबूत हो रही है । इससे न सिर्फ अंबेडकर राजनीति दलो और धड़ों में बंटकर दिग्भ्रमित हुई है बल्कि दलितों में आपस में,दलितों और ओबीसी में और इन सबसे अलगाव की स्थिति में फंसे आदिवासियों में शत्रुता का माहोल बन गया है, जिससे अंबेडकर की लड़ाई चैत्यभूमि पर स्मारक बनाने तक में सिमटकर रह गयी है।
उत्तर भारत में खासतौर पर यही स्थिति है। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड के इस अबूज समीकरण को समझने के लिए महाराष्कीट्र की मौजूदा राजनीति की यह झांकी पेश है।
मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के हाथों जारी घोषणापत्र में मुंबई में चैत्यभूमि के निर्माण के लिए 'विकास प्राधिकरण' बनाने का वादा किया गया है। मालूम हो कि इससे पहले इंदू मिल को अंबेडकर स्मारक बनाये जाने की घोषणा की जा चुकी है।इंदु मिल की पूरी जमीन डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के स्मृति स्थल 'चैत्यभूमि' के लिए केंद्र से लेकर मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने एक तरह से 'टेक्टिकल' जीत हासिल की है। शिवसेना-बीजेपी का साथ जा मिले दलित नेता रामदास आठवले का जोर कम करने का यही 'रामबाण उपाय' माना जा रहा है।
चैत्यभूमि दादर रेलवे स्टेशन से करीब दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
चैत्यभूमि वह जगह है जहां छह दिसम्बर 1956 को बाबा साहेब अम्बेडकर का अंतिम संस्कार किया गया था। बाद में इस स्थान को राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया, जहां देशभर के दलित बाबा साहब अम्बेडकर की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए जुटते हैं। यह दिन महापरिनिर्वाण दिवस कहलाता है. महाराष्ट्र में दलित आंदोलन आज भी बहुत मुखर है। भले ही वहां की दलित राजनीति इतने टुकड़ों में बंटी है कि गिनने पर आपकी जुबान में दर्द हो जाए, अच्छी बात यह है कि उसका केंद्र आज भी बाबा साहेब अंबेडकर ही है।दलित नेताओं के बिखरे होने के कारण ही एनसीपी और कांग्रेस, अंबेडकर के नाम को आगे कर अपना हित साधती रही है। एक बार वह इसी फिराक में है।
मुबई दादर में समुद्र के किनारे बाबा साहेब डा. आंबेडकर की चैत्य-भूमि है. यहाँ प्रति-दिन हजारों लोग दर्शन करने आते हैं.बाबा साहेब के अनुयायी गावं-देहात और विभिन्न शहरों से इस चैत्य-भूमि पर अपने मसीहा को नमन करने जाते हैं,दिन-रात तांता लगा रहता हैं. 6 दिस.,जो बाबा साहब का परिनिर्वाण दिवस है, को देश के कोने-कोने से करीब 10-15 लाख लोग प्रति वर्ष आते हैं.
चैत्य-भूमि में जाने के लिए समुद्र के किनारे-किनारे रोड से जाना पड़ता है. यहाँ भी अम्बेडकरी-साहित्य की दुकाने लाइन से लगी रहती है. जगह कम होने के कारण लोग बिना किसी निर्देशन के अपने-आप आते-जाते हैं. कही कोई अव्यवस्था नहीं, कहीं कोई दुर्घटना नहीं.मगर, न महाराष्ट्र की सरकार को और न ही केंद्र में बैठे लोगों को शर्म आ रही थी.जबकि, बाबा साहेब का नाम लिए बगैर कोई भी पार्टी सत्ता की कुर्सी पर बैठ नहीं सकती. चाहे किसी राज्य में हो या केंद्र में.
चुनावी नैय्या पार लगाने के लिए अब खांग्रेस के पास बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर
की शरण लेने के अलावा कोई दूसरा कारगर विकल्प है ही नहीं.कांग्रेस पार्टी ने आगामी जिला परिषद चुनावों के लिए अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया है जबकि महानगरपालिका चुनाव के लिए कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर घोषणा पत्र जारी करने वाली है। जिला परिषद चुनावों के लिए जारी घोषणा पत्र में कांग्रेस ने दलित, मुस्लिम और पिछड़ी जातियों के मतों को रिझाने की रणनीति बनाई है।
दूसरी ओर रिपब्लिकन पार्टी के नेता रामदास आठवले के शिवसेना-बीजेपी से जुड़ जाने के कारण बिगड़ा राजनीतिक गणित बनाने के लिए एनसीपी ने नया दलित कार्ड खोला है। उसने दादर स्टेशन को चैत्यभूमि नाम देने की मांग करने का निर्णय किया है।चैत्य भूमि के बारे में दलित बेहद संवेदनशील हैं। आठवले से उनका जुड़ाव काटने के लिए एनसीपी ने बहुत ही असरकारक कार्ड निकाला है।दादर रेलवे स्टेशन को 'चैत्यभूमि' का नाम देने को लेकर उभरी राजनीति में आरपीआई और मनसे आपस में उलझ गए हैं।
आरपीआई के भगवा खेमें में शामिल होने के बाद बदले सियासी माहौल में दलित वोटों को घेरने को लेकर शुरू हुई यह राजनीति अब जोर पकड़नी लगी है।
इसमें आरपीआई और मनसे आमने-सामने आ गए हैं जबकि तुरुप का पत्ता चलकर पवार सारा खेल चुपचाप देख रहे हैं।
शिवसेना के नेता गजानन कीर्तिकार ने कहा कि अगर दादर रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर चैत्यभूमि करने का प्रस्ताव लाया जाता है तो उनकी पार्टी इसका विरोध नहीं करेगी।
जबकि अठावले का कहना है कि कांग्रेस-राकांपा के पास मुम्बई में दलितों के लिए और कोई मुद्दा नहीं है। उन्होंने पिछले 64 वर्षो में दलितों के लिए कुछ नहीं किया।
इसलिए अब वे दादर रेलवे स्टेशन का नाम बदलने की बात कर रहे हैं। भले ही इसकी घोषणा एनसीपी ने की हो, आरपीआई अब इस मुद्दे को लेकर आक्रामक हो गई है।
राज ठाकरे का विरोध भी इसी का एक हिस्सा है, जो पूरे मामले में अपनी अलग राजनीति चमका रहे हैं। राज ठाकरे ने नाम परिवर्तन पर ऐतराज जताते हुए कहा है कि नाम बदलने से कुछ हासिल नहीं होगा. राज के इस बयान से आरपीआई कार्यकर्ताओं में नाराजगी देखी जा रही है।उन्होंने राज ठाकरे के घर के बाहर भी जमकर हंगामा किया. मराठवाड़ा के कई इलाकों में भी आरपीआई कार्यकर्ताओं द्वारा राज के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किये जाने की खबर है। लेकिन बारीकी से समझने की कोशिश करें तो सारा खेल राजनीतिक है।
22 हजार करोड़ रुपये सालाना बजट वाली मुंबई महानगर पालिका की सत्ता पर कब्जे के लिए घमासान की सीटी बज चुकी है।महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे ने एक बार फिर जता दिया है कि वे उत्तर भारतीयों को दोयम दर्जे का समझते हैं। मुंबई और ठाणे महानगर पालिका के चुनाव के लिए जारी पहली सूची में उन्होंने किसी भी उत्तर भारतीय को अपनी पार्टी से नगर सेवक का उम्मीदवार नहीं बनाया है। वागीश सारस्वत, अखिलेश चौबे और वेद तिवारी जैसे मनसे नेताओं पर भी राज ठाकरे ने भरोसा नहीं किया है जो उनकी पार्टी से पहले दिन से जुड़े हैं और उपाध्यक्ष जैसे बड़े पद पर विराजमान हैं।
गौरतलब है कि राज ठाकरे उत्तर भारतीयों के खिलाफ अक्सर ही आग उगलते रहे हैं, इसके बावजूद बहुत से उत्तर भारतीय नेता उनसे जुड़े हुए हैं। असल में मनसे प्रमुख उत्तर भारतीयों को टिकट देकर अपनी मराठा राजनीति को कमजोर नहीं करना चाहते हैं। उनकी रणनीति यही है कि भले ही मनसे को उत्तर भारतीयों के वोट न मिलें, लेकिन मराठी मतों का ध्रुवीकरण न हो। हां, मनसे की ओर से आठ मुसलिमों को जरूर टिकट दिए गए हैं।
बहरहाल कांग्रेस की ओर से मौलाना अबुल कलाम आजाद वित्तीय महामंडल को 500 करोड़ रुपये देने और मुस्लिम यूनिवर्सिटी के लिए 100 से 200 एकड़ जमीन देने का आश्वासन मुस्लिम वोटों को ध्यान में रखकर किए जाने की चर्चा है। वहीं, पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित सभी पद भरने और मुंबई में अण्णासाहेब साठे स्मारक बनाने की भी जनप्रिय घोषणाएं इसमें शामिल हैं।
सप्ताह भर के मंथन और आपसी खींचतान के बाद मुंबई महानगरपालिका के लिए कांग्रेस के 169 उम्मीदवारों की पूरी सूची बुधवार को जारी कर दी गई। पुराने स्थापित नगरसेवकों को इस बार झटका देते हुए कांग्रेस पार्टी ने 75 में से सिर्फ 22 मौजूदा पार्टी नगरसेवकों को ही टिकट दिया है। 11 अन्य सीटों में मौजूदा नगरसेवक के पति, पत्नी, बेटे, बेटी, भाई, बहू को टिकट दिया है।
बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बी.एम.सी.) मुम्बई महानगर की मुख्य नगर पालिका है। इसका पूर्व नाम बंबई नगर निगमथा और इसकी स्थापना १८८९ में हुई थी।
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की आक्रामक रणनीति ने महाराष्ट्र के कांग्रेसी दिग्गजों की तिलमिलाहट बढ़ा दी है। राज्य सरकार में साझीदार इन दोनों दलों में बढ़ती कड़वाहट कारण महानगरपालिका एवं जिला परिषद चुनावों में कांग्रेस को राकांपा से मिल रही तगड़ी चुनौती है।
केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख ने कोल्हापुर की एक चुनावी सभा में साफ कहा कि राज्य के ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस की असली लड़ाई राकांपा से है तो दूसरी ओर कोकण के कांग्रेसी दिग्गज नारायण राणे ने भी राकांपा नेताओं के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है, लेकिन इस लड़ाई में कांग्रेसी नेताओं के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण की सौम्यता अखर रही है । क्योंकि प्रदेश की राजनीति में राकांपा के मुख्य रणनीतिकार उपमुख्यमंत्री राकांपा के अजीत पवार हर मोर्चे पर पृथ्वीराज से 20 साबित हो रहे हैं।
अजीत पवार की आक्रामण रणनीति का ही कमाल है कि चंद दिनों पहले वह शिवसेना केसांसद आनंद परांजपे को परोक्षतया राकांपा में लाने में सफल रहे। उसके बाद हिंगोली के कांग्रेस जिला अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद शिवाजीराव माने को भी राकांपा में ले आए। भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे के बड़े भाई पंडित अन्ना मुंडे भी राकांपा में आ चुकेहैं, लेकिन इसके बाद जब कोकण क्षेत्र में नारायण राणे के समर्थक माने जानेवाले पूर्व विधायक शंकर कांबली एवं पुष्पसेन सावंत भी जब कांग्रेस का दामन छोड़ राकांपा में चले गए तो राणे के सब्र का बांध टूट गया। राणे ने अजीत पवार के खिलाफ आग उगलते हुए उन्हें विक्षिप्त तककह डाला। बदले में यही उपाधि अजीत पवार ने भी राणे को दे दी।
राज्य के गृहमंत्री आरआर पाटिल तो इससे आगे बढ़कर नारायण राणे के कुछ पुराने आपराधिक रिकॉर्डो की ओर भी उंगली उठाते हुए इशारों-इशारों में राणे को तड़ीपार करने की जरूरत बता चुके हैं। हाल ही में एक बार फिर पाटिल ने सांगली एवं पुणे की सभाओं में राणे पर यह कहकर कटाक्ष किया कि कम से कम इन जिलों में कोई मंत्री हत्या का आरोपी नहीं है। राकांपा हाल ही में हुए नगर परिषद चुनावों में कांग्रेस की काफी जमीन हथिया चुकी है।
अब अजीत पवार 10 महानगरपालिकाओं एवं 27 जिला परिषदों के चुनाव में भी कांग्रेस को पीछे छोड़कर 2014 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को पछाड़ने की रणनीति बनाकर चल रहे हैं । कांग्रेसियों को अजीत की यही आक्रामकता खल रही है।
मुंबई मनपा चुनाव में कांग्रेस ने चार विधायकों के बेटों और एक विधायक की पत्नी को टिकट देकर परिवारवाद को बढ़ावा देने की परंपरा जारी रखा है। कांग्रेस की बुधवार को जारी तिसरी सूची में सागर सिंह, नितेश सिंह, प्रथमेश कोलंबकर और समीर चव्हाण जैसे विधायक पुत्रों को उम्मीदवारी दी गई है।
मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह द्वारा जारी उम्मीदवारों की तिसरी सूची में विधायक रमेश सिंह के बेटे सागर सिंह को वार्ड क्र. 26 से, विधायक राजहंस सिंह के बेटे नितेश को वार्ड क्र. 159 से उम्मीदवारी दी गई है। इसी तरह विधायक चंद्रकांत हंडोरे की पत्नी संगीता हंडोरे को भी उम्मीदवारी देकर कृपाशंकर सिंह ने नाराज चल रहे गुरुदास कामत को खुश करने का काम किया है।
महत्वपूर्ण है कि उद्योग मंत्री नारायण राणो के साथ शिवसेना छोड़ कर कांग्रेस में आये कालिदास कोलंबकर के बेटे प्रथमेश को कांग्रेस ने वार्ड क्र. 184 से टिकट दिया है। बताया जा रहा है कि प्रथमेश को कांग्रेस ने स्वाभिमान संगठन के कोटे से उम्मीदवारी दी है। इसी फेहरिस्त में केंद्रीय मंत्री मिलिंद देवड़ा गुट के विधायक मधु चव्हाण के बेटे समीर चव्हाण को भी कांग्रेस ने टिकट दिया है।
राजनीति के शिकार बने निरुपम
कांग्रेस सांसद संजय निरुपम और पार्टी की मुंबई इकाई के अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह मुंबई महानगरपालिका चुनाव में टिकट बेचने के विवाद में फंस गए हैं। पार्टी के वरिष्ठ नगरसेवक विद्यार्थी सिंह ने कहा कि निरुपम और कृपाशंकर ने 35 से 40 लाख रुपए में पार्टी के टिकट बेचे। इस कारण पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं को चुनाव में मौका नहीं मिल सका। लगातार तीन बार नगरसेवक रह चुके सिंह ने आरोप लगाया कि चुनाव में मूल कार्यकर्ताओं के साथ नाइंसाफी हुई है। उन्होंने कहा कि 35 से 40 लाख रुपए में उम्मीदवारी के टिकट बेचे जा रहे हैं। मसलन वार्ड नंबर 12 से नैना शाह को पार्टी का टिकट मिलना था। पर अचानक दीपिका पांचाल को उम्मीदवारी दे दी गई। सिंह ने तैश में आकर पार्टी से इस्तीफा भी दे दिया और निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चा भर चुकी नैना को समर्थन देने की घोषणा कर दी दूसरी ओर निरुपम ने उनके आरोपों से इंकार किया है।
उन्होंने सिंह के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की चेतावनी भी दी। निरुपम ने कहा कि पार्टी की संसदीय बोर्ड की बैठक में इस सीट पर उम्मीदवारी को लेकर विवाद हुआ था और उसे लंबित रखा गया था। फिर एकाएक दीपिका पांचाल का नाम कैसे आ गया, मुझे खुद इस पर हैरानी है। निरुपम ने कहा कि मैं भी नैना को उम्मीदवारी देने के पक्ष में हूं। मेरे खिलाफ लगाए गए सारे आरोप गलत और बेबुनियाद हैं।
मुंबई कांग्रेस द्वारा बुधवार को जारी उम्मीदवारों की तिसरी सूची में सांसद संजय निरुपम समर्थकों का लगभग सफाया कर दिया गया है। बताया जाता है कि निरुपम वार्ड क्र. २६ से अपने कट्टर समर्थक बंधु राय को उम्मीदवारी दिलाना चाहते थे। मगर अंतिम क्षणों में स्थानीय विधायक रमेश सिंह द्वारा अपने बेटे सागर को टिकट देने की जिद करने की वजह से राय का पत्ता कट गया है।
इसी तरह उत्तर मुंबई में कई अन्य सीटों पर भी सांसद निरुपम समर्थकों को उम्मीदवारी नहीं दी गई है। हालांकि वार्ड क्र. १ से उनके समर्थक राजेंद्र प्रसाद चौबे को कांग्रेस ने उम्मीदवारी देकर निरुपम की नाराजगी को कुछ कम करने की कोशिश की है।
बता दें कि चौबे को उम्मीदवारी न मिले इसके लिए कांग्रेस के कुछ नेता दिल्ली में डेरा डाले हुए थे। मगर सांसद निरुपम द्वारा चौबे को टिकट दिये जाने के लिए अड जाने पर मुंबई में चुनाव कार्यक्रम के निरीक्षक एवं केंद्रीय राज्यमंत्री भरत सिंह सोलंकी ने चौबे का नाम कटने नहीं दिया।
महायुति- (शिवसेना, बीजेपी, रिपब्लिकन-आठवले)
वॉर्ड स्तर पर मजबूत संगठन रखने वाली शिवसेना ने बार-बार साबित किया है कि जहां तक 'शाखा' (वार्ड स्तर के संगठन) का सवाल है, वह काफी मजबूत है। मराठी भाषी इलाकों में इसकी पकड़ 1966 में इसकी स्थापना के समय से मजबूत रही है। 1973 में मुंबई के महापौर पद पर शिवसेना ने पहली बार कब्जा किया। सुधीर जोशी शिवसेना के पहले महापौर बने। एक अप्रैल 1972 को पार्टी के पहले महापौर का शिवाजी पार्क पर किया गया, तो उस जमाने के सुपर स्टार राजेश खन्ना उनका सम्मान करने के लिए मंच पर मौजूद थे। इसके बाद मनोहर जोशी, दत्ताजी नलावडे जैसे दिग्गज महापौर बने।
बीजेपी से युति
80 के दशक में बीजेपी के साथ शिवसेना के गठबंधन ने चुनावी समीकरण हमेशा के लिए बदल दिए। बीच में 90 के दशक में चार साल की सत्ता के अलावा कांग्रेस को मुंबई का महापौर पद इन तीन दशकों से नसीब नहीं हुआ है। छगन भुजबल, दिवाकर रावते, मिलिंद वैद्य, महादेव देवले, नंदू कदम, हरेश्वर पाटील, शुभा राउल, दत्ता दलवी और मौजूदा महापौर श्रद्धा जाधव जैसे नेता नेता महापौर बनाए गए। बीजेपी ने चुपचाप छोटे भैया की भूमिका स्वीकार ली और उपमहापौर या एकाध छोटी-मोटी के समिति अध्यक्ष पद पर संतुष्ट रही।
मिली महाराष्ट्र की सत्ता: शिवसेना-बीजेपी ने 90 के दशक में बीजेपी की सहायता से महाराष्ट्र की सत्ता पर 'भगवा' ध्वज लहराया। ये काल सिर्फ पांच साल चला। मुंबई में पहली बार फ्लाइओवरों की श्रृंखला और मुंबई-पुणे एक्सप्रेस-वे साकार करने की शिवसेना-बीजेपी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि को भी वोटरों ने नकार दिया। महाराष्ट्र में तो पराजय मिली है, मुंबई में विधानसभा चुनावों में फिर उस तरह की जीत हासिल नहीं कर पाई।
उद्धव का उदय
80 के दशक में छगन भुजबल और 90 के दशक में नारायण राणे के शिवसेना छोड़ने का असर विधायकों में दिखामगर शाखा स्तर के उसके संगठन पर लगभग कोई असर नहीं पड़ा। मौजूदा शताब्दी में राज ठाकरे का पार्टीत्याग शिवसेना के लिए सबसे बड़ा झटका था। मगर संगठन पर मजबूत पकड़ बना चुके उद्धव ठाकरे पर इसकाखास असर नहीं पड़ा। इनके बावजूद उद्धव के नेतृत्व में शिवसेना - बीजेपी मुंबई महानगरपालिका चुनाव मेंबाजी मारती रही है।
इस बार है चुनौती
सभी वर्गों को साथ लेकर चलने का राज ठाकरे का फंडा उनकी नई पार्टी ' मनसे ' के लिए खास फायदेमंद नहींरहा। पिछले चुनाव में वह शिवसेना के मुकाबले बेहद कमजोर साबित हुई है। कुछ वर्षों पहले आक्रामक उत्तरभारतीय विरोधी आंदोलन की वजह से उनकी पार्टी मनसे को मुंबई में अच्छा जन - समर्थन मिला है। पिछलेलोकसभा और विधानसभा चुनाव में मनसे को मिली सफलता शिवसेना के लिए घातक साबित हुई है। मराठीवोट बैंक दो लगभग बराबर के हिस्सों में बंटने से शिवसेना कमजोर दिखाई दी है। राज की देखादेखी उद्धव ने भीसभी भाषा समुदायों को जोड़ने वाले अपने ' मी मुंबईकर ' अभियान को लगभग तिलांजलि दे दी है।
आठवले फैक्टर
90 के दशक में एकीकृत कांग्रेस ( एनसीपी तब बनी नहीं थी ) ने रामदास आठवले की रिपब्लिकन पार्टी कोगठबंधन में बराबर का पार्टनर बनकर प्रॉजेक्ट किया था। जीत के बाद कांग्रेस ने पहला रिपब्लिकन महापौर भीबनाया था। ये चंद्रकांत हंडोरे आजकल कांग्रेस के विधायक हैं। पहले केंद्र में मंत्री पद न पाने और इसके बादकांग्रेस की ' गद्दारी ' से लोकसभा चुनाव हार चुके आठवले बदला लेने के मूड में हैं। इस बार शिवसेना ने आठवलेको उसी तरह पार्टनर के तौर पर प्रॉजेक्ट किया है। शिवसेना - बीजेपी की ' युति ' को सेना - बीजेपी -रिपब्लिकन ' महायुति ' के तौर पर प्रस्तुत किया है।
आठवले बनाम राज
राज ठाकरे के कारण होने वाले नुकसान की पूूर्ति नए साथी आठवले की आगमन से हो सकेगी या नहीं ?शिवसेना के लिहाज से ये बेहद महत्वपूर्ण सवाल है। इसी पर ये मदार टिकी हुई है कि शिवसेना का भगवा मुंबईमहानगरपालिका पर लहराता रहेगा या नहीं !
आघाडी ( कांग्रेस - एनसीपी और छोटी पार्टियां )
पिछले बीएमसी चुनाव में एनसीपी ने चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस से चुनावी समझौता तोड़ दिया था। इसकानुकसान दोनों पार्टियों को उठाना पड़ा। 227 में कांग्रेस को सिर्फ 71 सीटों पर संतोष करना पड़ा। एनसीपी कोकेवल 14 सीटें मिलीं। 84 सीटें पाकर शिवसेना और 28 सीटें पाकर बीजेपी एक बार फिर आसानी से सत्ता परकाबिज हो गईं। एनसीपी तो सभी सीटों के लिए एक अदद उम्मीदवार तक तलाश नहीं पाई और जिन दो सीटोंके लिए उसने गठबंधन तोड़ा , उन दोनों पर कांग्रेस उम्मीदवार विजयी हुए।
इस बीच नागपुर में जिला परिषद और मनपा चुनाव में आरक्षित प्रभागों से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों द्वारा आवेदनों के साथ जोड़े गए जाति प्रमाणपत्रों की वैधता पर मुंबई हाईकोर्ट ने सवालिया निशान लगा दिया था। जिसके बाद सैकड़ों उम्मीदवारों के राजनीतिक भविष्य पर संकट मंडरा रहा है।
हाईकोर्ट के फैसले के बाद राज्य निर्वाचन आयोग ने नामांकन वापसी की अवधि एक दिन और बढ़ा दी है। पहले 3 फरवरी तक नामांकन वापस ले सकते थे। अब 4 फरवरी तक नामांकन वापस लिये जा सकते है। इस दौरान निर्वाचन अधिकारी, जाति प्रमाणपत्रों की वैधता पर कोई ठोस निर्णय ले सकते हैं, जिससे नागपुर में 450 से अधिक आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों का नामांकन खारिज होने की आशंका जताई जा रही है।
मुंबई उच्च न्यायालय में चुनाव के वक्त बांटे जा रहे जाति वैधता प्रमाणपत्रों को लेकर याचिका दायर की गई है। उच्च न्यायालय को बताया गया कि चुनाव के दौरान उम्मीदवारों को सात दिन में जाति वैधता प्रमाणपत्र दिए जा रहे हंै। जबकि जाति की जांच-पड़ताल में काफी लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
संबंधित व्यक्ति के जन्म स्थल से लेकर स्कूल तक की जांच करनी होती है। कम से कम तीन महीने का समय इसे लगता है। किन्तु चुनावी माहौल में उम्मीदवारों को आनन-फानन में जाति वैधता प्रमाणपत्र बांटे जा रहे हैं। जिस पर संदेह निर्माण होता है। इस दौरान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा माधुरी पाटील प्रकरण में दिए गए फैसले का भी हवाला दिया गया।
बताया जाता है कि इस पर उच्च न्यायालय ने सख्त टिप्पणी की है। इस टिप्पणी के बाद आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों के जाति वैधता प्रमाणपत्र रद्द होने की संभावना जताई जा रही है। ऐसे में उनका नामांकन पत्र भी रद्द हो सकता है। उच्च न्यायालय की टिप्पणी को देखते हुए नामांकन वापसी की एक दिन अवधि बढ़ाए जाने की जानकारी है।
Palash Biswas
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