Friday, 22 February 2013 11:11 |
शिवदयाल भारत में लोकतांत्रिक राजनीति का प्रसार हुआ है। इसके क्या नतीजे हुए हैं, अच्छे, बुरे या जैसे भी, इसका विश्लेषण करने से रोका नहीं जा सकता, न ही उसकी कसौटी बदली जा सकती है। इसकी जरूरत तो कतई नहीं है। अगर आप दलित, पिछड़ा, अल्पसंख्यक या महिला बन कर चुनाव लड़ते हैं और अपनी इस विशिष्ट पहचान से सत्ता-प्राप्ति में आपको सहूलियत होती है तो इसी आधार पर अपने कार्य-प्रदर्शन या आचरण के मूल्यांकन से परहेज क्यों हो? यहां अभिव्यक्ति का मामला क्योंकर उठना चाहिए? आपको तो जवाब देने के लिए प्रस्तुत होना चाहिए और अपनी बात रखनी चाहिए। याद आता है, संभवत: 1996 में, पटना में आयोजित एक सभा में प्रख्यात समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने कहा था कि यह भारत का दुर्भाग्य है कि राजनीति में जो शूद्र नेतृत्व खड़ा हुआ वह भी भ्रष्ट हो गया, इससे बदलाव की संभावनाएं धूमिल हो गर्इं। आज की स्थिति होती तो शायद किशनजी को भी अपने कथन का फल भुगतना पड़ता। देश भर में उनके खिलाफ मुकदमे दायर होते और उन्हें खलनायक घोषित कर दिया जाता। उनके कथन की गहराई में उतरा जाए तो पता चलेगा कि किस पीड़ा से उन्होंने वह बात कही थी। तब तक राजनीतिक अर्थशास्त्र में भ्रष्टाचार को 'समकारी कारक' मानने के आधुनिक सिद्धांत का प्रवर्तन नहीं हुआ था, उनका कथन तो इस सिद्धांत के ठीक विपरीत पड़ता है। इसी प्रकार सत्तर से नब्बे के दशक तक आंदोलनकारी समूहों में यह सर्वमान्य बात थी कि महिलाओं के समाज और राजनीति की मुख्यधारा में आने से समाज और व्यवस्था मानवीय बनेगी। क्या इस विश्वास पर देश का महिला नेतृत्व खरा उतर सका? चार-पांच राज्यों में महिला नेतृत्व उभरा तो, लेकिन उसने अपने को किसी भी स्तर पर पूर्ववर्तियों से अलग दिखने का प्रयास भी नहीं किया, बल्कि कभी तो अपने को अधिक सख्त और असंवदेनशील ही सिद्ध किया। क्या यह असंगत विश्लेषण और महिला विरोधी है, और ऐसा कहना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग है? राजनीतिक जोड़-घटाव और चुनावी लाभ-हानि के फेर में देश में एक प्रतिबंध की संस्कृति विकसित की गई है। अदालत भी 'प्रतिबंध' की मांग पर अतिशय संवेदनशीलता, बल्कि सदाशयता दिखाती है। यह कौन-सा लोकतंत्र है, जिसमें सरकार कोई फिल्म देख कर बताए कि वह जनता के देखने योग्य है या नहीं? कोई किताब पढ़ कर हमें बताया जाए कि न, यह तुम्हारे पढ़ने योग्य नहीं! क्या सरकार के पास कोई पैमाना है, जिससे यह जाना जा सके कि कोई फिल्म देखने या किताब पढ़ने की इच्छा रखने वाले कितने लोग हैं देश में, और उनकी इच्छा का भी आदर होना चाहिए? कुछ सौ या हजार लोगों के विरोध पर इतने बड़े देश में अभिव्यक्ति का प्रश्न हल किया जाएगा? यह तो नकारात्मकता की हद है! कितनी लज्जाजनक बात है कि 'कामाध्यात्म' के देश में हम नग्नता को अश्लीलता में संकुचित होते देख रहे हैं और स्वयं अश्लीलता की ओर से आंखें फेर रखी हैं। हमारे बच्चे पोर्न साइट्स देखते बड़े हो रहे हैं, स्त्री-पुरुष होने का अर्थ नर-मादा होने में सिमटता जा रहा है और कलाकारों की बनाई नग्न आकृतियों पर कुछ सिरफिरे रंग पोत रहे हैं। वेलेंटाइन डे मनाते युवाओं को कान पकड़वा कर उठक-बैठक करवा रहे हैं। हम इन 'आहत' लोगों की ये सब स्वतंत्रताएं सह रहे हैं। ये स्वतंत्रताएं व्यवस्था, सरकार, सत्ताधारी वर्ग को रास आती हैं। इन्हीं स्वतंत्रताओं की आड़ में एक ओर युवा पीढ़ी को लाइसेंसी दारू में डुबोया जा रहा है, तो दूसरी ओर अखबार मालिकों को सरकारी टेंडरों और विज्ञापनों से मालामाल कर असहमति और विरोध को ढकने की कोशिशें की जा रही हैं। लोकतंत्र का आभास हो तो ठीक, वह वास्तविक न बनने पाए। अभिव्यक्ति को नियंत्रित करने के ये उदाहरण हैं। हमारा यह इतना विशाल देश संवादहीनता में अब तक नहीं जीता रहा। हमारी संस्कृति तो संवाद की संस्कृति रही है। अलग-अलग मत और विचार रखते, अलग आचरण और व्यवहार का पालन करते लोग साथ-साथ रहते आए हैं। हमारे यहां तो आस्तिकों ने ईशनिंदा को भी आदर से देखा। चार्वाक जैसे भोगवादी दर्शन के जनक को भी ऋषि माना। दिगंबरों को हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और उनके प्रति श्रद्धा बरती। आत्मा के सामने देह को नगण्य माना। रति को भी सृजन की अपरिमित संभावनाओं के रूप में देखा, बल्कि उसे देवोपलब्धि का माध्यम बनाया। हम अपने सामुदायिक आचरण में कितना गिर चुके हैं, यह देखने का साहस अपने अंदर जुटाने का समय आ गया है। परस्पर व्यवहार और विचार-विनिमय के लिए एक जागृत समाज अपने को कानून और सरकार के ऊपर नहीं छोड़ सकता। सार्थक संवाद स्वाधीन अभिव्यक्ति से ही संभव है। बहुलतावादी या बहुसांस्कृतिक समाज अभिव्यक्ति पर नियंत्रण से नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक सुनम्यता से ही बच पाएगा। यह सुनम्यता तब बढ़ेगी जब प्रत्येक सामाजिक समूह या समुदाय अपने से बाहर देखने की भी कोशिश करेगा, उसमें आलोचना करने का साहस, आलोचना सहने का धैर्य और शक्ति होगी। जो सचमुच लोकतंत्र और आजादी चाहते हैं उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि अभिव्यक्ति आस्थाओं की बंधक न हो। |
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Saturday, February 23, 2013
आहत आस्थाओं का देश
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/39401-2013-02-22-05-42-44
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