Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter
Follow palashbiswaskl on Twitter

Friday, June 7, 2013

महिला उत्पीडऩ : देश का शासक कौन है जनप्रतिनिधि या सेना

महिला उत्पीडऩ : देश का शासक कौन है जनप्रतिनिधि या सेना

वाल्टर फर्नांडीस

AFSPAआखिर एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ने आधिकारिक रूप से वही कहा जिसे बहुत सारे लोग पहले से जानते थे। यहां तक कि सरकार सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) को कुछ मानवीय भी नहीं बना सकती क्योंकि सेना नहीं चाहती कि इसे लचीला बनाया जाए, निरस्त करने की बात तो भूल जाओ। छह फरवरी 2013 को रक्षा अध्ययन संस्थान में के. सुब्रमण्यम स्मारक व्याख्यान में पी. चिदंबरम ने कहा, "हम आगे नहीं बढ़ सकते क्योंकि इस पर आम सहमति नहीं है। वर्तमान और पूर्व सेना प्रमुखों ने कड़ा रुख अख्तियार कर रखा है कि कानून को संशोधित नहीं किया जाना चाहिए और वे नहीं चाहते कि सरकारी अध्यादेश वापस लिया जाए। सरकार एएफएसपीए को अधिक मानवीय कानून कैसे बना सकता है?" (द हिंदू, 7 फरवरी 2013)।

पहला सवाल जो इससे पैदा होता है : "भारत पर कौन शासन कर रहा है : चुने हुए प्रतिनिधि या सेना?" दूसरा सवाल यह है, "इस कानून को अधिक मानवीय बनाने के लिए इसमें बदलाव करने का सेना क्यों विरोध कर रही है?" जस्टिस वर्मा आयोग ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि वे सुरक्षा कर्मी जो किसी महिला का बलात्कार करते हैं उन पर वही कानून लागू होना चाहिए जो कि किसी अन्य नागरिक पर लागू होता है। दूसरों ने भी यही पक्ष रखा। सन् 2005 में जीवन रेड्डी आयोग ने कहा कि एएफएसपीए को निरस्त किया जाना चाहिए और जो जरूरी धाराएं हैं उन्हें अन्य कानूनों में शामिल किया जाना चाहिए। पूर्वोत्तर के लिए खुफिया ब्यूरो के पूर्व प्रमुख आरएन रवि ने प्रमाणिक तौर पर कहा कि क्षेत्र में शांति के लिए एएफएसपीए सबसे बड़ा अवरोधक है। पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई तो खुलेआम इस कानून के खिलाफ सामने आए थे। ये वक्तव्य भावनात्मक विस्फोट नहीं हैं। ये उन लोगों के बयान हैं जो व्यवस्था का हिस्सा रह चुके हैं और कानून की गति तथा सरकार के संचालन को जानते हैं।

लेकिन सेना इस बदलाव का भी विरोध कर रही है। उनकी इस सोच का क्या तार्किक आधार है कि सुरक्षाकर्मी जो मासूम महिलाओं का बलात्कार करते हैं वो देश की सुरक्षा के नाम पर दंड से मुक्त रहें? ये कानून किसकी सुरक्षा के लिए बनाया गया है, देश के लिए या वर्दी में अपराधियों के लिए? जब भी कानून में कुछ बदलाव का सुझाव दिया जाता है तो सेना इसका विरोध करती प्रतीत होती है और नागरिक सरकार उसके दबाव में झुक जाती है। उदाहरण के लिए, मणिपुर में इंफाल की रहने वाली 30 वर्षीय मनोरमा देवी की हत्या और कथित बलात्कार के मामले की जांच के लिए जीवन रेड्डी आयोग गठित किया गया था। मनोरमा देवी को असम राइफल्स ने गिरफ्तार किया था। आयोग ने सुझाव दिया कि कानून को निरस्त कर दिया जाना चाहिए और जो धाराएं जरूरी हैं उन्हें अन्य अखिल भारतीय कानूनों के साथ जोड़ दिया जाना चाहिए। सरकार ने रिपोर्ट प्रकाशित ही नहीं की। द हिंदू अखबार ने इसे 'अवैध' रूप से प्राप्त किया और अपनी वेबसाइट पर अपलोड कर दिया। वर्मा आयोग की रिपोर्ट के बाद, जिसमें कहा गया है कि जिन सुरक्षाकर्मियों ने महिलाओं का बलात्कार किया है उन पर नागरिक कानून के तहत मुकदमा चलाया जाना चाहिए, केंद्रीय कानून मंत्री ने एनडीटीवी से एक साक्षात्कार में कहा कि इन सुझावों को लागू करने में दिक्कतें हैं। टीवी पर एक बहस के दौरान एक अन्य केंद्रीय मंत्री ने कहा कि इसकी धीमी कानूनी प्रक्रिया के कारण जनता नहीं जान पाती कि सेना द्वारा क्या सजा दी गई है। वे लगाए गए प्रतिबंधों या उठाए गए कानूनी कदम को स्पष्ट नहीं करते। रिकॉर्डों की छानबीन से पता चला है कि चंद ही मामलों की सुनवाई हुई है, किसी प्रकार की सजा तो बहुत दूर की बात है। उदाहरण के लिए, मनोरमा देवी के केस में कोई कदम नहीं उठाया गया। कोकराझार, असम में 23 दिसंबर 2005 को विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का एक दल एक ट्रेन के कंपार्टमेंट में चढ़ गया। उन्हें मालूम नहीं था कि इसमें हरियाणा के सशस्त्र सुरक्षा जवान यात्रा कर रहे थे। जवानों ने दरवाजा बंद किया और छेड़छाड़ करने की कोशिश की। विद्यार्थियों के शोर मचाने के कारण सतर्क हुए बोडो छात्र संघ ने रेलगाड़ी रुकवा दी और जवानों के खिलाफ कार्रवाई करने की कोशिश की। पुलिस ने छात्रों पर फायरिंग शुरू कर दी और चार छात्रों की मृत्यु हो गई। आज तक इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की गई। ऐसी कितनी ही घटनाओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनमें या तो रिपोर्ट ही दर्ज नहीं हुई या फिर मामला रफा-दफा कर दिया गया। असम में हाल में हुए एक मामले में स्थानीय लोगों ने एक जवान को पकड़ा और सेना ने वादा किया कि उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। उसे तीन महीने जेल में डाला गया। जम्मू -कश्मीर में लोग बहुत-सी महिलाओं के विषय में बताते हैं जिन्हें सशस्त्र बलों ने शीलभंग किया, किंतु किसी को सजा नहीं मिली। इसलिए वे महिलाएं शर्मिंदगी के भाव के साथ जी रही हैं। उनमें से कुछ ने वर्मा आयोग के सम्मुख प्रमाण प्रस्तुत किए। वर्मा आयोग के सुझाव उनके प्रमाणों पर ही आधारित हैं। यह भी बताया गया कि इसमें सेना का सम्मान शामिल है और देश की सुरक्षा को इस कानून की आवश्यकता है। बलात्कार के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं करना सेना के सम्मान को कैसे बचा सकता है?

यहां तक कि सुरक्षा के दृष्टिकोण से भी एएफएसपीए पर सवाल किया जा सकता है। इस कानून को पूर्वोत्तर में 'आतंकवादी' समूहों के खिलाफ उपाय के तौर पर छह महीनों के लिए प्रयोगात्मक रूप में 1958 में बनाया गया था। सबसे पहले इसे नागालैंड में लागू किया गया। सन् 1980 में मणिपुर में, इसके बाद जम्मू-कश्मीर में और इन दशकों के दौरान पूर्वोत्तर के बहुत सारे क्षेत्रों में। जिसे छह महीनों के लिए बनाया गया था वह पांच दशकों से भी अधिक समय से बना हुआ है। सन् 1958 में पूर्वोत्तर में एक 'आतंकवादी' समूह था। मणिपुर में दो समूह थे जब राज्य को इस कानून के तहत लाया गया। आज मणिपुर में इस तरह के बीस समूह हैं। असम में पंद्रह से कम नहीं हैं। मेघालय में पांच हैं और अन्य राज्यों में बहुत सारे समूह हैं। कानून के बावजूद उग्रवादी समूहों के इस प्रसार की सेना क्या सफाई देगी? क्या उसने अपने उद्देश्य को पूरा किया?

यह भी बताया गया कि अगर इस कानून को निरस्त किया गया तो सेना पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर में नहीं रह पाएगी। यह एक झूठ है। सेना पूरे भारत में इस कानून के बिना ही तैनात है। जो इस कानून को रद्द करना चाहते हैं वे सेना को किसी क्षेत्र को छोडऩे के लिए नहीं कह रहे हैं। वे बस इतना चाहते हैं कि सशस्त्र बल देश की सेवा इस कानून के बिना, जो कि दुव्र्यवहार को बिना दंड के अनुमति प्रदान करता है, संविधान के तहत रहकर करें। यह कोई कारण तो नहीं है कि एक बलात्कारी या खूनी के लिए मात्र इस वजह से अलग कानून होना चाहिए क्योंकि वह सशस्त्र बलों से है। एक क्षण को मान लीजिए कि उन्होंने जितनी भी महिलाओं का बलात्कार किया है वे सब आतंकवादी हैं, तो उनका बलात्कार क्यों होना चाहिए? उनके साथ देश के कानून के तहत व्यवहार क्यों नहीं किया जा सकता? यह बर्ताव किसी भी प्रकार से सशस्त्र बलों के सम्मान या भारत की सुरक्षा में कोई इजाफा नहीं करता। वे केवल लोगों के सम्मान से जीने के अधिकार को खत्म करते हैं और इनको (ऐसे बर्तावों को) एक लोकतांत्रिक देश में किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

देश के शासन के लिए नागरिकों का चुनाव किया जाता है। यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे यह सुनिश्चित करें कि सुरक्षा बल संविधान के तहत काम करें। पूर्वोत्तर और कश्मीर में जो समस्याएं हैं उनका समाधान राजनीतिक प्रक्रिया के जरिए ढूंढा जाना चाहिए, न कि एक ऐसे कानून के जरिए जो कि लोगों के जीवन और सम्मान के अधिकार का हनन करता है और फिर भी दंड से बचा रहता है। उन्हें विश्वास बहाली के उपायों (सीबीएम) को अपनाने की आवश्यकता है ताकि शांति और न्याय की ओर बढ़ा जा सके। और एएफएसपीए को निरस्त करने से अधिक उत्तम कौन-सा विश्वास बहाली का उपाय हो सकता है?

अनु.: उषा चौहान

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors