Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter
Follow palashbiswaskl on Twitter

Wednesday, July 31, 2013

आदिवासी साहित्य पर विस्तृत परिचर्चाओं के साथ संपन्न हुई जेएनयू में दो दिवसीय संगोष्ठी

[LARGE][LINK=/state/delhi/13415-2013-07-30-18-31-33.html]आदिवासी साहित्य पर विस्तृत परिचर्चाओं के साथ संपन्न हुई जेएनयू में दो दिवसीय संगोष्ठी[/LINK] [/LARGE]

[*] [LINK=/state/delhi/13415-2013-07-30-18-31-33.html?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
[*] [LINK=/component/mailto/?tmpl=component&template=gk_twn2&link=ec16d50ada7ff0280d3a4b95a2dc4e90196b74e5][IMG]/templates/gk_twn2/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [/*]
Details Parent Category: [LINK=/state.html]State[/LINK] Category: [LINK=/state/delhi.html]दिल्ली[/LINK] Created on Wednesday, 31 July 2013 08:01 Written by B4M
जेएनयू में आदिवासी साहित्यः स्वरूप और संभावनाएं पर गोष्ठी के दूसरे दिन का पहला सत्र डॉ रमन प्रसाद सिन्हा के संयोजन में शुरू हुआ। इस सत्र का उद्देश्य आदिवासी साहित्य की अवधारणा और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न विधाओं में हो रहे समकालीन लेखन की पड़ताल करना था। जिसमें विभिन्न विश्वविद्यालयों से आए शोधार्थियों ने अपने विचार रखे। पहले सत्र में डॉ. कला जोशी ने भील जाति की संस्कृति उनके गीत, जन्म, मृत्यु परंपराओं के विषय में विस्तार से बात की।

डॉ. सुरेश ने आदिवासी साहित्य की अवधारणा पर विचार करते हुए उसकी विविधता पर रोशनी डाली। उन्होंने यह भी कहा कि साहित्य लिखना उनका अधिकार है। जिन्होंने सहा है उन्हें उसे अभिव्यक्त करने का भी अधिकार है। गणेश माझी ने शिक्षा संस्कृति व मुक्ति के सवाल पर बात रखी। अंशिका शुक्ला, सुमन देवी, वीरेन्द्र ने संजीव के कथा साहित्य में आदिवासी चेतना को दिखाया। वीरेन्द्र कुमार मीणा संजीव के कथा साहित्य में आदिवासी चेतना देखने का प्रयास करते हैं। मुमताज ने आदिवासी साहित्य की अवधारणा पर अपने विचार रखे। सत्र के अंत में रमन प्रसाद सिन्हा जी ने कहा कि आदिवासी साहित्य की अवधारणा को जानने के लिए इतिहास और उसके समकालीन लेखन को समझना होगा। देवेन्द्र चौबे के संयोजन में इसके समांतर सत्र में अजय पूर्ति, राजेश्वर कुमार, गणेश, मंजू कुमारी, डॉ. सुधा निकेतन रंजन, हनुमान सहाय मीणा, डॉ. विनोद विश्वकर्मा आदि ने अपनी बात रखी।

गोष्ठी के दूसरा सत्र डॉ. गोबिन्द प्रसाद के संयोजन में शुरू हुआ। दूसरे सत्र में आदिवासी लेखन के समाजशास्त्र पर विचार किया गया। स्तुति राय ने 'पिछले पन्ने की औरतें'उपन्यास में बेडि़या समुदाय के सांस्कृतिक और आर्थिक स्थितियों पर प्रकाश डाला। अंजु रानी और कविता यादव आदिवासी साहित्य और दलित साहित्य की विषमताओं व समानताओं पर बात रखी। अनिरुद्ध ने 'जंगल के दावेदार'पर विचार रखे और अब्दुर्रहीम ने आदिवासी साहित्य के विकास में उर्दू फिक्शन के योगदान देखने की कोशिश की। उषा किड़ो ने रोज़ केरकट्टा की कहानियों पर अपने विचार रखे। राजकुमार मीणा ने 'युद्धरत आम आदमी' पत्रिका के आदिवासी विमर्श में योगदान के बारे में बात की। प्रीति त्रिपाठी ने तुलसी के साहित्य में आदिवासी समाज को देखने की कोशिश की।

आदिवासी समाज को तुलसी किस प्रकार अपने साहित्य में पेश करते है, इस पर श्रोताओं का ध्यान खींचा। देवयानी भारद्वाज ने भाषा व शिक्षा को महत्व की दृष्टि से देखा और कहा कि आदिवासी बच्चों को उनकी अपनी भाषा में शिक्षा देनी चाहिए। बच्चे का सही विकास करने के लिए उसके मनोविज्ञान को समझना होगा। डॉ. गोबिन्द प्रसाद ने कहा कि भाषा और अस्मिता के अंतर्संबंध को समझना होगा। प्रो. हरिमोहन शर्मा ने कहा कि वर्चस्ववादी ताकतें अस्मिताओं को अपने चश्मे से देखना चाहती हैं। अस्मिताएं इसीलिए संघर्षरत हैं कि हमें हमारे नजरिए से देखिए। समस्याओं को समझने की जरूरत है। साहित्यकार मनुष्य विरोधी चीजों के लिए संघर्ष करता है।

इसी सत्र के समांतर हाल नं. 1 में डॉ. रामचंद्र के संयोजन में प्रतियोगियों ने अपनी अपनी बात रखी। वर्षा वर्मा ने आदिवासी आत्मकथा के द्वारा उनकी समस्याओं और अनुभववादी लेखन शैली की चर्चा की। अभिषेक यादव ने आदिवासियों पर हो रहे भूमण्डलीकरण, वैश्वीकरण द्वारा हो रहे हमलों पर ध्यान दिलाया। भावना बेदी ने आदिवासी साहित्य में स्त्री प्रश्न पर बात की। अभिषेक पांडेय ने झारखंडी समुदाय की परंपराओं और प्रकृति संस्कृति के बारे में बताया। राजवीर सिंह ने बेलगांव के जीवन को आलोचनात्मक रूप से देखने का प्रयास किया। डॉ. माझी ने संथाली भाषा पर बात की। डॉ. भारती ने आदिवासी स्त्री मुक्ति का प्रश्न सामने रखती हैं। डॉ. प्रमोद कुमार मीणा विस्थापन का नासूर झेलते आदिवासियों की स्थिति को महाश्वेता देवी के उपन्यासों देखने की कोशिश की। इस सत्र के अंत में जेएनयू के क्रांतिकारी कवि विद्रोही ने अपनी कविताएं पढ़ीं।

तीसरा सत्र डॉ. ओमप्रकाश के संयोजन में शुरू किया गया, जिसमें डॉ. हर्षिता ने आदिवासी कविता को परिभाषित करने की कोशिश की। लखिमा देवरी बोडो साहित्य में आदिवासी समाज की स्थिति पर बात की। रूबीना सैफी ने आदिवासी हिंदी कविता में इतिहास, वर्तमान और भविष्य को वर्चस्व और प्रतिरोध की संस्कृति के संदर्भ में देखने की कोशिश की। सोनम मौर्य ने 'ग्लोबल गांव के देवता' विस्थापन की समस्या को देखने की कोशिश की। वसुंधरा गौतम ने डायन प्रथा के बारे में विस्तार से बताया और साहित्य में भी उसे देखने की कोशिश की।

निशा सिंह ने हिंदी ब्लॉक में आदिवासी विमर्श पर अपनी बात रखी। भंवर लाल मीणा ने लोकगीतों का समाजशास्त्र स्वरूप प्रस्तुत किया। डॉ. बन्ना राम मीणा ने कहा इस आदिवासी विमर्श में निरंतरता रहे। डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी ने दो विचारणीय प्रस्ताव रखे जैसे-भारतीय आदिवासी लेखन की अधिकारिक भाषा क्या हो? और भारत सरकार दिल्ली में दलित आदिवासी साहित्य अकादमी की स्थापना करे। हरिराम मीणा हम अभी भी आदिवासी समाज को ठीक से नहीं जान पाए हैं। जितना भी आदिवासी साहित्य लिखा गया है वो आदिवासी भाषा में लिखा गया है। उसका अनुवाद हिंदी में आना चाहिए।

इसके अलावा किम उ जो, डॉ. रमेश चंद्र मीणा, डॉ. जनक सिंह, मधुरा केरकेट्टा, अमितेश, नीतिशा खलखो, पल्ली श्री व शमला देवी ने अपना पर्चा पढ़ा। गोष्ठी का समापन संयोजन गंगा सहाय मीणा और भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष प्रो. रामबक्ष  के धन्यवाद ज्ञापन से हुआ। जिससे प्रो. सुधा पई, पद्मश्री प्रो. प्रो. अन्विता अब्बी और दिलीप मंडल उपस्थित थे।

[B]प्रेस विज्ञप्ति[/B]

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors