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Thursday, December 12, 2013

दलित आंदोलन के बुनियादी सिद्धांत - एक नजरिया


भारत की उत्पीड़ित जनता के संघर्ष आज जिस मुकाम पर खड़े हैं, यहां से समाज एक बड़े, स्थायी और क्रांतिकारी बदलाव की तरफ जा सकता है या फिर साम्राज्यवाद परस्त, ब्राह्मणवादी शासक वर्ग अपने संकट को अपने आजमाए हुए तरीकों से टाल कर अपने शोषणकारी अस्तित्व को बनाए रख सकता है, जैसा यह करता आया है. हालात कौन से रुख लेंगे, इसको आखिरी रूप से तय करने वाली बात यह है कि उत्पीड़ित जनता का संघर्षरत हिस्सा कैसे और कितनी कुशलता से व्यापक, उत्पीड़ित जनता को अपने साथ ले आ पाता है, कैसे वह अपने दोस्तों और दुश्मनों की सही पहचान कर पाता है और उनके साथ इस आधार पर अपने संबंध और व्यवहार को तय कर पाता है. उत्पीड़ित जनता के इस संघर्षरत तबके में आदिवासी हैं, दलित हैं, पिछड़े हैं, स्त्रियां हैं. लेकिन इससे बाहर भी, इन्हीं समुदायों से आनेवाली उत्पीड़ित जनता की एक विशाल आबादी है, जो अभी इस संघर्ष का हिस्सा नहीं बनी है. इनमें से दलित एक मुख्य तबका हैं और भारतीय समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन की कोई भी योजना दलितों की सीधी और नेतृत्वकारी भूमिका के बगैर संभव नहीं है. जैसा कि अक्सर कहा गया है, बिना क्रांति के दलितों की मुक्ति नहीं होगी और बिना दलितों की भागीदारी के क्रांति नहीं होगी. आज दलित और पिछड़े वर्गों के मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, निजीकरण वगैरह के पक्ष में दलीलें देते हुए कह रहा है दलितों की मुक्ति इन्हीं में निहित है. बाबासाहेब के जाति के उन्मूलन के एजेंडे को भुला दिया गया है. ऐसे में आनंद तेलतुंबड़े का यह लंबा लेख, दलित आंदोलन की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए, दलित आंदोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन के आपसी रिश्तों पर, उनकी कमियों और उपलब्धियों पर और उनकी भावी एकता की संभावनाओं पर बात करता है. अनुवाद सुधीर कुमार कटियार का है.हाशिया पर इस बहस को आगे बढ़ाते हुए और भी लेख पोस्ट किए जाएंगे. आपकी टिप्पणियों और विचारों का स्वागत है. मूल अंग्रेजी लेख के लिए यहां जाएं
 

प्रस्तावना 

अछूत समझी जाने वाली जातियों द्वारा संगठित विरोध को हम दलित आंदोलन के तौर पर पहचानते हैं। इस अर्थ में यह आंदोलन औपनिवेशिक शासन के दौरान पनपा। लेकिन यदि इसे ब्राह्मणवादी विचारधारा के प्रभुत्व के खिलाफ कथित निचली जातियों के संघर्ष के रूप में देखा जाए तो इसका इतिहास जाति व्यवस्था जितना ही पुराना है। भारतीय सामाजिक ढांचे में जाति के बरकरार रहने के चलते, दलित आंदोलन को भी उसके पुराने रूपों की ऐतिहासिक निरंतरता के रूप में देखा जा सकता है। कहा जा सकता है कि दलित आंदोलन का वर्तमान स्वरूप सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़े गये गुमनाम संघर्षों का साकार रूप है। किसी भी लिहाज से देखें तो आंदोलन ने अपने दोस्तों और दुश्मनों को पहचानने में, अपनी रणनीतियों को स्थापित करने में तथा सबसे अहम बात यह कि हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है। औपनिवेशिक शासन के दौरान आंदोलन सामाजिक-राजनैतिक बदलावों के साथ तालमेल बिठाने में सफल रहा और इसने महत्वपूर्ण सबक हासिल किए। लेकिन आजादी के बाद जब उपलब्धियों को मजबूत करने का समय था, यह महत्वपूर्ण बदलावों के साथ तालमेल नहीं बैठा पाया।

ऐसा लगता है कि इस अवधि में दलित आंदोलन की पहले की उपलब्धियों को ग्रहण लग गया। यह लेख इसे स्थापित करता है कि वर्तमान दलित आंदोलन की खासियतें उन सब परिस्थितियों को जाहिर करती हैं जिन्होंने इसे जन्म दिया। दूसरे अर्थों में कहा जाए तो आंदोलन ने आजादी के बाद आए परिस्थितियों में बदलावों पर गंभीरता से विचार नहीं किया। फलस्वरूप आंदोलन का पतन हुआ और इसे उन्हीं ताकतों ने कब्जे में कर लिया जिनसे लड़ने के लिए इसका जन्म हुआ था। उन सामाजिक वास्तविकताओं पर रोशनी डालते हुए, जिनसे यह आंदोलन घिरा हुआ है, यह दस्तावेज उन मुद्दों को रेखांकित करेगा जिन पर साफ नजरिया आंदोलन की सफलता के लिए जरूरी है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

भारत के प्रचलित इतिहास में शोषित जनता द्वारा दमन के प्रतिरोध की बहुत सारी मिसालें नहीं मिलतीं। लेकिन यह मुमकिन नहीं है कि 2000 वर्षों के दमनकारी इतिहास के दौरान ऐसे विद्रोह न हुए हों। जाति व्यवस्था की सफलता के पीछे न केवल इसको मिली दैवीय स्वीकृति थी, बल्कि वह ढांचा था, जिसने शोषित तबकों को एकजुट नहीं होने दिया। सामाजिक वर्गीकरण की इस व्यवस्था की अभूतपूर्व सफलता न केवल इसकी बनावट में निहित है जिसने शोषित जातियों को संगठित नही होने दिया और उनके ऊपर वैचारिक प्रभुत्व कायम किया बल्कि इसकी दैवीय स्वीकृति में भी निहित है। विद्रोह का अर्थ था दैवीय प्रकोप को बुलावा देना और अगले जन्म में मुक्ति न मिलना। भौतिक तौर पर इसने प्रत्येक जाति के लिए निश्चित काम निर्धारित कर भौतिक सुरक्षा प्रदान की तथा मनोवैज्ञानिक तौर पर इसने प्रत्येक जाति को (यहां तक कि तथाकथित अछूतों को भी) किसी दूसरी जाति से ऊपर होने का संतोष प्रदान किया। चूंकि यह पूरा ढांचा धर्म की बुनियाद पर आधारित था, इसके विरोधियों ने भी धर्म का सहारा लिया। बुद्व तथा जैन धर्मों से लेकर भक्ति आंदोलन तक - जाति व्यवस्था का विरोध धार्मिक शब्दावली में ही सामने आया। यह चलन अब तक जारी है। इस प्रकार जाति विरोधी सभी आंदोलन-पुराने समय से लेकर अब तक-ब्राह्मणवाद के साथ धार्मिक आधारों पर बहस करते नजर आते हैं।

इस प्रकार सभी जाति विरोधी आंदोलनों में धार्मिकता का पुट हैं। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में चमार जाति का सतनामी आंदोलन एक अलग धार्मिक संप्रदाय बन गया (रसेल 1916)। पेरियार के द्रविड़ मुनेत्र कषगम ने राम का पुतला जलाकर और रावण की तारीफ कर सार्वजनिक सनसनी पैदा कर दी। तमिलनाडु में नाडार महासभा व केरल में नारायण गुरु के ऐझवा आंदोलन के नतीजे में श्री नारायण धर्म प्रतिपालन योगम के नाम से एक नया धार्मिक पंथ बना। (थामस 1965, ऐवप्पन 1944, सैमुएल 1973)। यहां तक कि बाबासाहेब अंबेडकर के नेतृत्व वाले सबसे बड़े दलित आंदोलन की परिणति भी बौद्ध धर्म में सामूहिक धर्म परिवर्तन के साथ हुई (जीलियट 1969)। ये सभी आंदोलन मनु के सिद्धांतों के प्रति तीखी नफरत जाहिर करते हुए अपने अनुयायियों के लिए एक अलग मत की स्थापना करते हैं। ये ब्राह्मणवाद को अपने दुखों की मूल वजह मान कर इसको ठुकराते हैं। अंबेडकर ने अपने विश्लेषण में इसको सबसे सटीक तरीके से समझाया है, जहां उन्होंने हिंदू धार्मिक विचारधारा के प्रभुत्व को खत्म करने को दलितों की मुक्ति के लिए जरूरी बताया है (ओमवेट 1994)। 

हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि जाति व्यवस्था कठोर नहीं थी तथा इसमें जातियों के बीच आवाजाही पर पाबंदी नहीं थी, लेकिन यह तथ्य है कि जाति व्यवस्था के चलते उत्पादन की ताकतों और उत्पादन संबंधों में ब्रिटिश राज के आने तक कोई बदलाव नहीं हुआ। अर्धस्वायत्त गांवों की व्यवस्था ने समाज को सदियों तक एक ही स्तर पर बनाए रखा। भारतीय समाज की इसी व्यवस्था के चलते मार्क्स ने कहा कि भारत में इतिहास नहीं है और भारतीय समाज में व्याप्त जड़ता को तोड़ने और इसे पश्चिम की आधुनिकता से जोड़ने के लिए ब्रिटिश शासन की तारीफ की। भारतीय समाज को पहला सांस्कृतिक धक्का मुस्लिम हमलावरों ने दिया। भारतीयों का सामना पहली बार एक दूसरी धार्मिक व्यवस्था से हुआ। समानतावादी इस्लाम ने शुरू में सभी भारतीयों के साथ एक जैसा व्यवहार किया। लेकिन जल्दी ही राजनीतिक रणनीतियों ने उन्हें न केवल भारतीय समाज में व्याप्त अंदरूनी विभाजन का इस्तेमाल करना सिखा दिया बल्कि उनकी अपनी सामाजिक व्यवस्था में जातिवाद का जहर दाखिल हो गया। 

भगवान दास (1983) महमूद गजनवी के साथ आए एक मुस्लिम अध्ययनकर्ता इब्न बतूता के हवाले से कहते हैं कि मुस्लिम हमलावरों ने पहले सभी भारतीयों के साथ एक जैसा व्यवहार किया लेकिन बाद में सामाजिक विभाजन का फायदा उठाया। राजनीतिक जरूरतें धार्मिक सिद्धांतों पर भारी पड़ीं। इसके नतीजे में, मुस्लिम शासन के दौरान ब्राह्मणवाद पर आधारित जाति व्यवस्था में न केवल कोई बदलाव नहीं आया बल्कि धर्म बदलने वाले हिंदुओं के जरिए इसने नए उभरते मुस्लिम समाज पर भी असर डाला। फिर भी इस प्रक्रिया ने गांवों और शहरों के बाहर रह रहे अछूतों को एक भारी मौका मुहैया किया। मुस्लिम शासकों ने पहली बार शहरों के दरवाजे अछूतों के लिए खोले। बहुत सी अछूत और तथाकथित नीची जातियों ने उत्पीड़न से बचने तथा बेहतर जीवन की आकांक्षा में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। जो लोग इस्लाम धर्म स्वीकार कर मुस्लिम हमलावरों की फौज में शामिल हुए, उन्होंने अपने नए मालिकों के रीति रिवाजों की नकल की। अपनी इच्छा से या दबाव में औपचारिक रूप से इस्लाम स्वीकार करने वालों के अलावा बुनकर, राजगीर, बढ़ई, लोहार, जूता बनाने वाली, टोकरी बनानेवाली, कुम्हार, रंगरेज़ वगैरह कारीगर जातियों के दसियों लाख लोग धीरे-धीरे मुसलमान बन गए। 

अलग अलग कारणों से कुछ ऊंची जातियों के लोग भी मुसलमान बने। अलग अलग जातियों से मुसलमान बने लोग नए उभरते मुस्लिम समाज में अपनी सांस्कृतिक परंपराएं तथा जातिगत विभाजन लेकर गए। इस तरह धर्म परिवर्तन से अछूतों को अपनी जातिगत स्थिति से पूरा छुटकारा तो नहीं मिला लेकिन फिर भी उत्पीड़न की तीव्रता कम हुई और इससे यकीनन उन्हें भारी राहत महसूस हुई होगी। सबसे पहले तो धर्म परिवर्तन से उनके लिए अपने जातिगत पेशे को बदलना मुमकिन हो गया। यही उनकी निम्न सामाजिक स्थिति का आधार था। दूसरे धर्म को छोड़ते हुए उन्हें अपने ऊपर किए गए अपमानों का बदला लिए जाने का एहसास हुआ तथा मोटे तौर पर शासक वर्ग से जुड़ने का अहसास भी आया। तीसरा, हथियार रखने व चलाने की इजाजत मिलने से उनकी जातीय स्थिति में इजाफा हुआ। वे अछूत से क्षत्रिय की स्थिति में आ गए जो कि जाति पायदान की दूसरी सीढ़ी है। इससे पहली बार उनमें इंसान होने का भाव जगा, जिसका मतलब है कि उनमें विश्वास कायम हुआ और सबसे अहम बात यह हुई कि इसका मतलब था आर्थिक बेहतरी का आना।

यह कहना मुश्किल है कि इन धर्म परिवर्तनों को सामाजिक आंदोलन कहा जा सकता है। क्योंकि तकनीकी रूप से सामाजिक आंदोलन एक ऐसे संगठन पर जोर देता है जो सामाजिक बदलाव के सामूहिक उद्देश्य को हासिल करने की कोशिश करे। धर्म परिवर्तन निश्चित रूप से निजी स्तर पर जातिगत नियमों को तोड़ने और भिन्न आस्था अपनाने के लिए विद्रोह की भावना को दर्शाता है। चूंकि तब तक जातीय समाज में जातियों के बुनियादी संगठन रहे थे, जो जातियों के व्यवहार को निर्धारित करते थे और जातीय ढांचे के भीतर सामुदायिक जीवन की देखरेख करते थे, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि यह विद्रोह बिना सांगठनिक मदद के संभव हुआ था। जातीय समाज में अपने जातीय आदेशों के पार जाने के लिहाज से व्यक्ति एक बहुत छोटी इकाई है। सारी संभावना ये है कि धर्म परिवर्तन, विशेषकर बड़ी संख्या में हुए धर्म परिवर्तन, सिर्फ सामाजिक स्वीकृति के साथ ही हुए होंगे। जैसा कि बाद के (तमिलनाडु में मीनाक्षीपुरम में तथा दलितों के बौद्व मत में) धर्म परिवर्तन दिखलाते हैं, बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तनों के पीछे हमेशा सामाजिक आंदोलन का योगदान रहा है। हम अछूत जातियों के इस्लाम धर्म स्वीकारने के पीछे भी ऐसे ही किसी आंदोलन की उपस्थिति मान सकते हैं। 
 

ऊपर जो जायजा लिया गया है उसके मुख्य बिंदु हैं: 
  • भारतीय समाज ने कभी भी सीढ़ीदार विभाजन को एक मूल्य के रूप में आत्मसात नहीं किया।
  • जाति विरोधी आंदोलन मूल रूप से अन्यायी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने वाले ब्राह्मणवाद के खिलाफ था।
  • ये आंदोलन हिंदू धर्म के दमनकारी पक्ष के विरोधी सिद्धांत के रूप में व्यक्त हुए।
  • इन्होंने हिंदू धर्म के दमनकारी पक्षों की आलोचना की तथा एक दूसरे विश्वास/धर्म का प्रतिपादन किया।
  • ये आंदोलन बाहरी सहायता विशेषकर सहायक राजनैतिक वातावरण में फलीभूत हुए।

एक स्वायत्त दलित आंदोलन का जन्म

मुस्लिम शासकों ने भारत पर अपने विकसित सामंतवाद के दम पर राज किया जो कि भारत की पुरोहिती-जजमानी आधारित व्यवस्था से बहुत बेहतर था। लेकिन अंग्रेज़ों की भारत पर विजय उत्पादन की बेहतर तकनीक और सामाजिक स्वरूप (बुर्जुआ) पर आधारित थी जो सामंतवाद की तकनीकों से ज्यादा सक्षम थी। एक बुर्जुआ उदारवादी विचारधारा तथा शासन करने की जरूरतों के साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने अब तक दबी हुई निचली पहचानों को उभरने के लिए जगह प्रदान की, खासकर जाति और धर्म के स्तर पर। संस्थागत बदलाव (न्याय तंत्र, नागरिक प्रशासन, माल बाजार), सांस्कृतिक परिवर्तन (आधुनिकता, पश्चिमी तरीके का रहन सहन, अंग्रेजी शिक्षा, पश्चिमी ज्ञान भंडार के साथ संपर्क), आर्थिक बदलाव (जजमानी, बलूतेदारी प्रथा के स्थान पर जमींदारी, रैयतवाड़ी व्यवस्था) और उभरते सामाजिक बदलावों ने निचली जातियों की आकांक्षाओं को बल दिया। इन बदलावों के फलस्वरूप विकास के जो अवसर पैदा हुए उनका जाति व्यवस्था में जकड़े पारंपरिक सामाजिक संबंधों से टकराव पैदा हुआ।

किसी भी समुदाय में सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत के लिए एक निश्चित स्तर के संसाधनों की आवश्यकता होती है। औपनिवेशिक शासन व्यवस्था ने वंचित समुदायों को विभिन्न अवसर प्रदान कर उन्हें इस स्तर तक पहुचने में मदद की। यह स्वाभाविक था कि सामाजिक विरोध के आंदोलन शूद्र जातियों में पहले प्रारंभ हुए। ये मेहनतकश जातियां जाति पायदान में ऊपर की परजीवी जातियों के एक दम नीचे आती हैं और इनके पास शोषित अछूतों से बेहतर साधन थे। शूद्र जातियों के आंदोलन ने मुख्यतः धर्म के नाम पर ब्राह्मणों द्वारा रचे गए पाखंड का भंडाफोड़ किया। इन्होंने अपने ऊपर हो रहे शोषण की भर्त्सना की और दुश्मन का दुश्मन होने की वजह से ब्रिटिश राज की तारीफ की। दलित जातियों को भी शोषित होने की वजह से साथी घोषित किया गया। लेकिन शीघ्र ही दलित अछूत जातियों के साथ अंतरविरोधों के चलते इन आंदोलनों की ब्राह्मणवाद विरोधी चेतना कुंद हो गई। हालांकि दलित आंदोलन पिछड़ी जातियों के ब्राह्मण विरोधी आंदोलन से काफी प्रभावित हुआ, लेकिन यह धीरे धीरे इससे अलग हो गया। अंबेडकर के आगमन के साथ यह राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आया।

लगभग इसी समय रूस की 1917 बोल्शेविक क्रांति के चलते पूरी दुनिया में क्रांतिकारी भावनाओं का ज्वार था। यह आंदोलन कार्ल मार्क्स द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांतों पर आधारित था। रूसी क्रांति ने वंचित व शोषित तबकों में मुक्ति की आशा भर दी। भारत में भी इस आंदोलन ने जड़ें पकड़ीं और यह एक राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो गया। खास कर शहरी क्षेत्रों के फैक्टरी मजदूरों में। इस कम्युनिस्ट आंदोलन का नेतृत्व शहरी मध्यमवर्ग के तबके का था, जो ऐतिहासिक कारणों से मुख्यतः ऊपर की जातियों से आया था। इनमे भी सर्वाधिक ब्राह्मण थे। इस तबके की साम्यवाद के क्रांतिकारी सिद्धांतों की समझ कुछ तो व्यवस्थित राजनैतिक शिक्षण के अभाव में और कुछ इसकी वर्गीय व जातिगत चेतना के चलते सीमित रही। वर्ग संघर्ष, सर्वहारा की तानाशाही, आधार व ऊपरी संरचना जैसे क्रांतिकारी सिद्धांतों की समझ बिना अंदरूनी द्वंद्वों की पहचान के अधूरी थी। यह आंदोलन मुख्यतः ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध में था जिसके चलते यह राष्ट्रवादी आंदोलन के करीब आया। इसमें जाति को ऊपरी ढांचे का हिस्सा मानकर ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई। कम्युनिस्ट आंदोलन के नए उभरते स्वायत्त दलित आंदोलन के साथ संबंध असहज रहे। साम्यवादियों का मानना था कि दलित आंदोलन मजदूरों में विभाजन पैदा करता है, उपनिवेश विरोधी संघर्ष को कमजोर करता है, और वैज्ञानिक नहीं है। दूसरी तरफ दलित आंदोलन को कम्युनिस्ट आंदोलन में न केवल विशिष्ट जातीय शोषण का हल नजर नहीं आया बल्कि एक तरह की दूरी व उदासीनता नजर आई। उनकी रणनीति से कम्युनिस्ट आंदोलन का राज्य विरोधी रुख भी मेल नहीं खाया।

जैसा कि गेल ओमवेट ने साफ तौर से आकलन किया है, उपनिवेशवादी समाज में दलित आंदोलन को तीन ताकतों से मुकाबला करना थाः

  1. समाज में ऐतहासिक रूप से गहरी पैठ जमाए ब्राह्मणवादी हिंदुत्व के प्रभुत्व के विरोध में
  2. राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रभुत्व से, जो कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में दलित शोषित जनता के बहुत से आंदोलनों का अपने में समावेश कर इनके प्रजातांत्रिक तथा समतावादी एजेंडा को कुंद करने का प्रयास कर रहा था
  3. कम्युनिस्ट आंदोलन से, जिसे प्राकृतिक रूप से इसका साथी होना चाहिए था लेकिन जिससे इसके संबंध असहज थे

ब्राह्मणवादी प्रभुत्व का विरोध

ब्राह्मणवादी प्रभुत्व का विरोध करते हुए दलित आंदोलन ने पिछड़ी जातियों को स्वाभाविक सहयोगी के रूप में देखा। कई मायनों में दलित आंदोलन महाराष्ट्र में महात्मा फुले के ब्राह्मण विरोधी आंदोलन से प्रेरित था (उदाहरण के लिए दलित आंदोलन के शुरुआती जनक शिवराम जनाबा कांबले फुले के अनुयायी थे)। फुले और अंबेडकर में समय की भिन्नता तथा सामाजिक पृष्ठभूमि में फर्क के बावजूद दोनों द्वारा शुरू किए गए आंदोलनों द्वारा किए गए सामाजिक ढांचे के विश्लेषण में समानताएं हैं। दोनों ने मृतप्राय भारतीय समाज में आधुनिकता का प्रवेश कराने के लिए ब्रिटिश शासन की सराहना तो की लेकिन दोनों ने सामाजिक ढांचे के आमूलचूल परिवर्तन में इसकी सीमाओं को भी पहचाना। दोनों ने राष्ट्रवादियों के इस दावे को नकारा कि भारत एक राष्ट्र है, दोनों का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में विश्वास नहीं था तथा दोनों ने इसका समान चित्रण तथा विरोध किया। दोनों ने ब्राह्मणवाद का कड़ा विरोध किया लेकिन ब्राह्मणों से घृणा नहीं की। दोनों तर्कवाद में यकीन रखते थे। दोनों ने परजीवी पुरोहितों, सूदखोरों, जमीदारों और पूंजीपतियों का विरोध कर इनके द्वारा उत्पीड़ित तबकों को संगठित किया। दोनों ने दलितों और पिछड़े वर्ग की मुक्ति में शिक्षा की भूमिका पर जोर दिया। फुले और कुछ हद तक अंबेडकर की योजना अछूतों और शूद्र जातियों को ब्राह्मणवाद के विरोध में एक साथ लाने की थी। लेकिन इन्होंने पिछड़ी शूद्र जातियों और अछूत जातियों के अंतर्विरोधों का पूरा आकलन नहीं किया। खासकर ग्रामीण इलाकों में, जहां जाति व्यवस्था ज्यादा मजबूत है, शूद्र जातियां अछूतों के लिए ब्राह्मणवाद का बाना ओढ़ लेती हैं। यह अंतर्विरोध आर्थिक कारणों से पनपता हैं जहां शूद्र जातियां किसान हैं और भूमिहीन अछूतों को उनकी जमीन पर मजदूरी करनी है। मनु की इस परंपरा को न तो फुले का शक्तिशाली ब्राह्मण विरोधी आंदोलन तोड़ पाया और न ही अंबेडकर का दलित आंदोलन। महात्मा फुले की मृत्यु के तुरंत बाद उनका सत्य शोधक आंदोलन जाति विरोधी धारा खो बैठा। कोल्हापुर के शाहूजी महाराज द्वारा 1920 में इसके पुनरुत्थान के प्रयास भी निष्फल साबित हुए और यह शासक वर्ग की राजनीतिक व्यवस्था का अंग बन गया।

जजमानी-बलुतेदारी व्यवस्था में शूद्र जातियों का बहुमत लघु, सीमांत कृषक है या कारीगर है और इनका कई प्रकार से शोषण होता हैं। इनमें से कुछ जो बड़े और मध्यम किसान है, संपन्न हैं। ये लोग पारंपरिक रूप से गांव की व्यवस्था भी संभालते थे। गांवों में ये लोग शोषण की भूमिका में हैं। आजादी के बाद चुनावी राजनीति के चलते मध्यम जातियों का ध्रुवीकरण हुआ। इन लोगों ने आजादी के बाद के सरकारी विकास कार्यक्रमों से भरपूर फायदा उठाया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण थे, भूमि सुधार जिसके तहत बंटाईदारों को जमीन का मालिकाना हक प्राप्त हुआ। और फिर हरित क्रांति जिसके तहत गांवों में भारी निवेश हुआ और खेती की उत्पादकता में सुधार हुआ। भूमि सुधारों का वास्तविक जमीन जोतने वालों को फायदा नहीं हुआ क्योंकि ये अक्सर ही दलित होते थे। सरकारी मशीनरी को यह मालूम नहीं था कि बंटाईदारों को भी श्रेणियां हैं। दलित जोतदारों का भू स्वामियों से सीधा सम्बन्ध नहीं था। अतः सरकार ने बिचैलियों को असली बंटाईदार माना जो कि मुख्यतः मध्यम जातियों से थे। ज्यादातर बेनामी हस्तांतरण भी इन्हीं के नाम हुआ क्योंकि ये पुराने जमींदारों के विश्वास पात्र थे। हरित क्रांति का ज्यादा फायदा बड़े किसानों को ही पहुंचा।

शूद्र जातियों के एक हिस्से के सशक्तीकरण से इस वर्ग ने पूंजीपति वर्ग के साथ मिलकर एक सशक्त पक्ष का निर्माण किया और राजनैतिक सत्ता में हिस्सा बांटा। उनके और ब्राह्मणों के बीच जो अंतर्विरोध थे जिन्होंने अंग्रेजी शासन के दौरान ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलनों को जन्म दिया, वे इस दौरान छिप गए और गांवों में यह वर्ग प्रभुत्वशाली भूमिका अदा करने लगा।

शूद्र वर्ग में आने वाली सब जातियां आर्थिक रूप से संपन्न नहीं थीं और न ही उनकी सामाजिक स्थिति एक जैसी थी। इनमें से कई कारीगर और सेवा करने वाली जातियां दलित जितनी ही गरीब थीं और जाति व्यवस्था के अलग-अलग पायदानों पर थीं। सीढ़ीदार जातिगत ढांचे में ये समकक्ष थीं। दलितों के मुकाबले ये सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप में एकदम भिन्न थीं। दलितों के मुकाबले इनकी श्रेष्ठता की भावना को गांव के शासक वर्ग द्वारा शह दी गई। शासक वर्ग यह नहीं चाहता था कि यह तबका दलितों के साथ मिल जाए। इस प्रकार सभी शूद्र जातियां दलितों के मुकाबले के लिए दो कारणों से एकजुट हुईं। प्रथम तो जातिगत श्रेष्ठता के चलते वे दलितों का आसानी से आर्थिक शोषण कर सकती थीं और द्वितीय दलित जातियों में दलित आंदोलन के चलते आई राजनैतिक चेतना और आरक्षण से मिली आर्थिक उन्नति से इन जातियों को खतरा महसूस हुआ। इस प्रक्रिया से ग्रामीण संपन्न शासक वर्ग को दो फायदे हुए। उनका अपनी जाति के साथ शोषण का व्यवहार छिपा और उन्हें राजनैतिक सत्ता के लिए जनाधार उपलब्ध हुआ। 

जहां एक तरफ जातिगत पहचान का उपयोग मध्यम जातियों का एक मजबूत गठजोड़ खड़ा करने के काम आया, दूसरी तरफ इसी जातिगत पहचान का उपयोग दलितों को विभिन्न जातियों में बांटने के लिए किया गया। ऐतिहासिक रूप से सभी दलित जातियां आर्थिक रूप से एक समान नहीं थीं। सभी के अपने जाति विशेष व्यवसाय थे। लेकिन एक जाति ऐसी थी जो गांव के छोटे मोटे कार्य करती थी। वहां विशेष दक्षता की जरूरत नहीं होती। यह संख्या में बड़ी हो गई और आर्थिक रूप से कमजोर। ये लोग गांव और शहर के बीच पुल का काम करते थे और इसी कारण से ब्रिटिश राज्य में इन्हें अपनी हैसियत का अहसास हुआ। सबसे पहले इन्होंने जाति व्यवसाय के खिलाफ विद्रोह किया। इस बात के सबूत हैं कि शुरू में अन्य दलित जातियों ने जाति विरोधी आंदोलन का साथ दिया। लेकिन संसदीय चुनावी राजनीति के चलते शासक वर्ग ने इनको दलित आंदोलन की मुख्यधारा से अलग कर दिया। बाद में मध्य जातियों के प्रभुत्व और दलित संघर्ष के अंतर्विरोधों ने इस मुखालिफत को हवा दी और दलित एकता की संभावनाओं को खत्म किया।

इस घटना ने वर्ग बनाम जाति की बहस को जन्म दिया। प्रश्न यह है कि कैसे वर्ग संघर्ष के साथ जाति को भी खत्म किया जाए। जहां तक भारत में मजदूर वर्ग प्रमुखतः दलित और शूद्र जाति से आते हैं, यह जरूरी है कि ये दोनों मिल कर एक वर्ग बनें। इसी प्रकार जाति का विनाश तभी संभव है जब दलित और निचले स्तर की शूद्र जातियां मिलकर सत्ता के सभी क्षेत्रों में उच्च जातियों के प्रभुत्व को चुनौती दें। वर्ग की धारणा आर्थिक शोषण पर आधारित है जिसे भारतीय गांवों की अर्धसामंती व्यवस्था में सामाजिक श्रेणियों में अलग नहीं किया जा सकता, अतः यह जाति की अवधारणा से गुंथी हुई है। लेकिन वर्ग संघर्ष के पक्षकारों ने वर्ग को सीमित नजरों से देखा और वे जाति को पकड़ नहीं पाए जो भारतीय सर्वहारा की जिंदा हकीकत है। उन्होंने इसकी लगातार उपेक्षा की जब तक कि सच्चाई के थपेड़ों ने उन्हें मजबूर नहीं कर दिया। फुले और अंबेडकर के पक्ष में कहा जाना चाहिए कि उन्होंने समस्या की जड़ को पहचाना, जाति को शोषण की धुरी के तौर पर पहचान कर आंदोलन के केंद्र में स्थापित किया और भारतीय समाज के जनवादीकरण के लिए एक स्थानीय एजेंडा निर्धारित किया। 

अफसोसजनक रूप से यह वर्ग विरोधी, जाति विरोधी एजेंडा साम्यवादियों के वर्ग विश्लेषण के मुकाबले में आ गया और इसने जाति बनाम वर्ग की एक फिजूल बहस को जन्म दिया जो आज भी जारी है। यदि देश में जारी वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था को खत्म करना है तो जाति और वर्ग दोनों ही श्रेणियों को अपनी सीमाओं को फैलाना होगा। यह प्रक्रिया इन दोनों को पास लाएगी। लेकिन यह जाति और वर्ग चेतना पर आधारित जमीनी संघर्षों द्वारा ही संभव है, न कि किसी बुद्धिजीवी के दिमाग में उपजे विचारों से।

शूद्र जातियां दलितों के साथ मिलकर वंचित वर्ग बनाती हैं। लेकिन साथ ही ब्राह्मणवाद का प्रतिनिधित्व भी करती हैं और शोषणकारी भी हैं। अतः इन पर वर्गीय पैमाना लागू करना जरूरी है। इसी प्रकार जहां तक दलित जातियों में भी वर्ग निर्माण हुआ है, यहां पर भी वर्गीय पैमाना लागू करना होगा। यह समझने की आवश्यकता है कि मात्र जातीय पहचान न केवल नाकाफी है बल्कि नुकसानदायक भी। जाति के इस्तेमाल से चुनावी राजनीति में कोई फायदा तो हो सकता है, लेकिन क्रांतिकारियों द्वारा चाहा गया सामाजिक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। इसके लिए जरूरत है एक ऐसे मजबूत दलित आंदोलन की जो ब्राह्मणवाद के अवशेषों से लड़ते हुए दूसरी सभी जातियों के मेहनतकश और शोषित वर्गों को भी साथ ले सके। दूसरी तरफ जरूरत है एक ऐसे कम्युनिस्ट आंदोलन की जो वर्गीय संघर्ष में सामाजिक व सांस्कृतिक भेदभाव के खिलाफ संघर्ष को शामिल करे। शोषण की दोनों ही धुरियों के खिलाफ एक साथ संघर्ष की आवश्यकता है। सबसे ज्यादा शोषित होने के कारण दलितों को इन दोनों तरह के संघर्षों में अगुवा होना पड़ेगा। ब्राह्मणवादी हिंदुत्व का विरोध कर दलितों ने इसे त्यागा लेकिन धर्म को नहीं। उल्टे दलितों में अभी भी, जब धर्म की सामाजिक आचार विचार में मुख्य भूमिका नहीं रही, धर्म के प्रति एक आकर्षण बरकरार है।

जैसा कि हम जानते हैं, धर्मों का उदय विशेष सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों में कुछ विशेष समस्याओं का उस समय मौजूद ज्ञान के आधार पर हल करने के लिए हुआ। ज्यादातर धर्मों ने मनुष्य की भावनाओं को दबा कर अगले जन्म में बेहतर जीवन का आश्वासन दिया। मार्क्स ने धर्म को अंधविश्वास बता कर खारिज किया था, कि इसका आम जनता को गुलाम बनाने के लिए सामाजिक नियंत्रण के औजार के रूप में इस्तेमाल होता है। मार्क्स के अनुसार धर्म सहारा नहीं देता बल्कि वह नियंत्रण करता है। यह जनता के लिए अफीम की तरह है जो शोषण की जंजीरों को तोड़ने की उनकी इच्छा को कुंद करता है। जब दलितों ने हिंदू धर्म का त्याग किया तो इससे उपजे खालीपन को भरने के लिए कुछ जरूरी था। लेकिन यह जरूरी नहीं था कि यह भरपाई एक और संगठित धर्म से की जाए। बुद्ध धर्म अपने प्राचीन अवतार में कितना भी क्रांतिकारी रहा हो लेकिन धीरे धीरे इसमें आख्यान, कर्मकाड, तंत्र मंत्र शामिल होते गए और यह अन्य धर्मों से भिन्न नहीं रह गया। अब यह दलितों को अपनी समस्याओं का हल भौतिक जगत में ढूंढ़ने की जगह उन्हें भ्रमित करता है।

राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभुत्व के मुद्दे

यह लग सकता है कि राष्ट्रीय आंदोलन अब बीती हुई बात है, जो कि अतीत के एक बीते हुए पल से जुड़ा हुआ है। लेकिन यह प्रसंग कुछ ऐसे वैचारिक प्रश्नों को सामने लाता है, जो भारत में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए अभी भी प्रासंगिक हैं।

राष्ट्र

सबसे पहला प्रश्न है राष्ट्र का। दलित आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन की इस प्रस्थापना को खारिज किया कि भारत एक राष्ट्र है। मिसाल के लिए अंबेडकर ने जातीय समाज में राष्ट्र के विचार को खारिज कर दिया और कहा कि प्रत्येक जाति एक राष्ट्र है। फुले ने कहा कि बलिस्थान (भारत के लिए फुले द्वारा प्रयोग किया जाने वाला शब्द) में जब तक शूद्र, अति शूद्र, भील, कोली आदि शिक्षित होकर एक नहीं होते, वे एक राष्ट्र नहीं बन सकते। अंबेडकर ने लिखा है कि यह मान कर कि हम एक राष्ट्र हैं, हम अपने आपको भुलावा दे रहे है। उन्होंने कहा कि जब हम हजारों जातियों में विभाजित हैं, तो हम एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं। जाति राष्ट्र विरोधी है। एक दूसरी जगह पर उन्होंने कहा जब तक तुम अपनी सामाजिक व्यवस्था को नहीं बदलोगे, तुम तरक्की नहीं कर सकते। आप समुदाय को न रक्षा के लिए प्रेरित कर सकते हैं और न आक्रमण के लिए। न आप एक राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं और न नैतिकता का। जाति की नींव पर आप जो भी निर्माण करेंगे उसमें दरार आ जाएगी और वह पूरा नहीं होगा। इन चेतावनियों के बावजूद और राष्ट्रीयताओं के खूनी आंदोलन के बावजूद शासक वर्ग अभी भी भारत के बहुराष्ट्रीय स्वरूप को स्वीकार नहीं कर रहा है। वह अभी भी भोली जनता को राष्ट्र के लिए कुरबानियां देने को उकसाता है और जनता के वास्तविक संघर्षों को राष्ट्र विरोधी करार देता है। विरोधाभास यह है कि इसके बावजूद पूंजीवादी विकास में मजबूत होती असमानताओं के चलते भारत में राष्ट्रीयताओं का प्रश्न और जटिल हो रहा है।

राष्ट्र की अवधारणा पूंजीवादी विकास से उपजी है, पूंजीवाद से पूर्व की जाति राष्ट्र की अवधारणा के विरोध में है। दलित आंदोलन ने इस प्रश्न को उठाकर भारत के राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को बल दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसने आजादी के राष्ट्रीय संघर्ष को नेतृत्व दिया, उभरते हुए बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि थी, जो राजनैतिक व आर्थिक नियंत्रण करने का प्रयास कर रहा था। अंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन ने समाज के संबसे वंचित तबकों को मजबूत कर राष्ट्र के अंदरूनी सृदृढ़ीकरण की प्रक्रिया शुरू की।

अंबेडकर के संविधान निर्माण में मुख्य भूमिका में आने और नेहरू के मंत्रीमंडल में शामिल होने से वे ऊंचे सिद्धांत जो दलित आंदोलन के आधार बनते, पृष्ठभूमि में चले गए। हालांकि अंबेडकर का अपने लोगों के प्रति समर्पण कम नहीं हुआ, लेकिन उद्देश्यों की प्राप्ति में समझौता करना पड़ा। अंबेडकर के सारे विरोधों के बावजूद दलित आंदोलन शासक वर्ग की संसदीय राजनीति के भंवर में फंस कर कमजोर हो गया। शुरू के दौर की कानून व्यवस्था का पालन करने की रणनीति संविधानवाद में बदल गई जिसने दलित आंदोलन को सीमाओं में जकड़ दिया। इस प्रकार अंबेडकर के जाति के विनाश (annihilation of caste) के कार्यक्रम को शासक वर्ग ने पूरी तरह राह से भटका दिया।

राष्ट्र के संदर्भ में यहां प्रश्न यह है कि दलित आंदोलन और राष्ट्रीयताओं के आंदोलन में क्या संबंध हो? राष्ट्रीयता आंदोलन अपनी विशिष्टता साबित करने के लिए पुरानी जातीय पहचानों का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन इसपर जोर डालने के लिए बुनियादी रूप से एक तबके के शोषण के अनुभव का इस्तेमाल किया जाता है। अंबेडकर का तर्क था कि दलित आंदोलन में राष्ट्रीयता के संघर्ष के सभी चरित्र मौजूद थे। इस प्रकार यह पूरी दुनिया की वंचित राष्ट्रीयताओं के संघर्ष के साथ जुड़ जाता है। लेकिन राष्ट्रीयता के विचार का इस्तेमाल शासक वर्ग द्वारा एक दूसरे के खिलाफ हिसाब बराबर करने के लिए किया जाता है। अतः यह आवश्यक है कि संघर्ष को जन्म देने वाले मूल मुद्दों का विश्लेषण किया जाए। दलित आंदोलनों का दूसरे वंचित समुदायों के संघर्षों के साथ जुड़ाव इसको सांस्कृतिक समृद्धता देगा और मजबूत करेगा।

साम्राज्यवाद

दूसरा प्रश्न ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ संघर्ष को लेकर है। जाति विरोधी आंदोलनों ने स्वतंत्रता संघर्ष का समर्थन नहीं किया बल्कि कुछ हद तक साम्राज्यवादी शासन को जातीय अत्याचारों को समाप्त करने और सत्ता में भागीदारी हासिल करने के उद्देश्यों में सहायक की तरह देखा। यह एक तथ्य है कि दलित और दूसरी पिछड़ी जातियों ने बिना किसी सकारात्मक अपेक्षा के दमनकारी ब्राह्मणवादी शासक के मुकाबले विदेशी शासन को पसंद किया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद को देश में स्थापित करने के लिए जो निर्णायक लड़ाइयां हुईं उनमें दलित सिपाही बहादुरी से लड़े। कोरेगांव के निर्णायक युद्ध में पेशवा की पराजय के बाद जब ब्राह्मण शोक मना रहे थे, दूसरी जातियों ने पुणे में मिठाइयां बांट कर जश्न मनाया। यह शोषक के पतन पर शोषित द्वारा स्वाभाविक हर्षोल्लास था। अंग्रेजों ने दलितों के पक्ष में कई सकारात्मक कदम उठाए। दलितों को फौज में भर्ती किया, उनको शिक्षा दी, एक आधुनिक कानूनी व्यवस्था लागू की जिसमें कम से कम सैद्धांतिक रूप में जाति को न्याय के आधार के रूप में मान्यता नहीं दी। यूरोपीय परिवारों में, फैक्टरियों में, रेलवे में रोजगार के नए अवसर प्रदान किए, और बाद में राजनीतिक आरक्षण दिया। इन सब कदमों से अछूतों की जिंदगी में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। (एलिनवुड 1978, गैलेंटर 1972, कनानाइकिल 1981)। फुले ने इन भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहा, 'हमें अंग्रेजों का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने मनु के कानून का पालन नहीं किया' (कीर 1968)। 

ऐसा नहीं था कि साम्राज्यवादी शासकों ने दलितों के प्रति प्रेम के चलते ये कदम उठाए। ये कदम उनकी रणनीतिक आवश्यकताओं और विजेता के रूप में श्रेष्ठ होने की भावनाओं से प्रेरित थे। अगर कहीं इन सुधारों से उनको साम्राज्यवादी हितों को नुकसान होता नजर आया तो उन्होंने कदम वापस खींचे। जहां तक जाति विरोधी आंदोलनों का सवाल है, ऐसा नहीं था कि ये साम्राज्यवादी शासन के जारी रहने के पक्ष में थे। फुले, जिन्होंने आधुनिकता से परिचित कराने और कानून का राज स्थापित करने के लिए अंग्रेज शासन की तारीफ की, वहीं यह भी रेखांकित किया कि साम्राज्यवादी राज्य में वंचितों के उत्थान की पूरी कोशिश नहीं की जा रही है। उनको विदेशी शासन की सीमाओं का एहसास था। अंबेडकर ने साम्राज्यवादी व्यवस्था के शोषणकारी चरित्र को न केवल अपने अध्ययन ग्रंथों में बल्कि सार्वजनिक रूप से उजागर किया। उदाहरण के लिए दलितों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, 'आप बेहतर सड़कों, रेलवे, सिंचाई की नहरों, स्थायी प्रशासन देने और अंदरूनी शांति स्थापित करने के लिए बैठ कर अंग्रेजी नौकरशाही की तारीफ के पुल बांधते नहीं रह सकते...मैं इस बात पर सहमत होने वाला पहला व्यक्ति होऊंगा कि अंग्रेजों की यह तारीफ फौरन दूर हो जाएगी, अगर हम जमीदारों और पूंजीपतियों द्वारा इस देश के गरीबों और आम जनता से मुनाफे की जबरन वसूली को देखें' (अंबेडकर 1930)। एक दूसरे स्थान पर उन्होंने कहा, 'हमें शासन में ऐसे लोग चाहिए जो विरोध की परवाह किए बगैर समाज के सामाजिक आर्थिक नियमों में ऐसे बदलाव लाएं जो न्याय और औचित्य के लिहाज से अनिवार्य हैं। अंग्रेजी शासन कभी भी यह भूमिका नहीं अदा करेगा' (क्षीरसागर 1992)।

इस प्रकार जाति विरोधी आंदोलनों और विशेष कर दलित आंदोलनों ने अंग्रेजी शासन के सकारात्मक पक्ष को स्वीकारते हुए बुर्जुआ राष्ट्रवादी नेतृत्व के साथ अपने अंतर्विरोधों के मद्देनजर सामाजिक सुधार और सत्ता में निचले तबकों की हिस्सेदारी के लिए दबाव बनाया। लेकिन इनको इस बात का पूरा एहसास था कि इनका भी हित साम्राज्यवादी शासन के समाप्त होने में है।

आज अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक द्वारा प्रोत्साहित वैश्वीकरण के नाम पर साम्राज्यवाद के खतरे ने पूरी दुनिया को अपनी आगोश में ले लिया है। इनके कार्यक्रमों के आर्थिक दर्शन की जड़ में है बाजार की ताकतों पर निर्भरता, नियंत्रण को समाप्त करना, राज्य की भूमिका को कम करना और सार्वजनिक क्षेत्र की जगह निजी क्षेत्र को लाना। इन कार्यक्रमों के परिणाम होंगे सरकारी इकाइयों का निजीकरण, अतिरिक्त श्रम शक्ति को हटाना, अर्थव्यवस्था में निर्यात आधारित विकास को बढ़ावा देने के लिए ढांचागत बदलाव, विदेशी पूंजी व तकनीक का बेरोकटोक आगमन, वित्तीय तथा सेवा प्रदाता विदेशी इकाइयों के आने व जाने की स्वतंत्रता, पूंजी व दूसरी राशियों का राष्ट्रीय सीमाओं के पार आना जाना, बौद्धिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानूनी बदलाव, कानूनी अनुबंधों को लागू करने के लिए समुचित कानूनी वातावरण तैयार करना, निजी संपत्ति का अधिकार, और जनता को संगठित होने और विरोध करने के अधिकारों में कटौती। पूरी दुनिया का अनुभव है कि ये कार्यक्रम जन विरोधी हैं और वंचितों को और वंचित करते हैं। सबसे वंचित समुदाय होने के नाते दलितों के आंदोलन का इस कार्यक्रम से सीधा संबंध है। यह मानते हुए कि वैश्वीकरण का गरीब लोगों पर खराब असर होता है, कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि इससे दलितों की सामाजिक अक्षमता दूर करने में मदद मिल सकती है। हालांकि यह तर्क पूरी तरह गलत नहीं है लेकिन यह देश में पूंजीवाद के पिछले एक सदी के अनुभवों के सही सबक पर आधारित नहीं है। जिस प्रकार से पूंजीवाद ने कुशलता के साथ जाति का इस्तेमाल किया है, वैश्वीकरण जो वर्तमान सूचना संचार के युग में पूंजीवाद का ही स्वरूप है, इस पर कोई सकारात्मक असर नहीं डालने वाला है। बल्कि जब आम लोगों की तकलीफें बढ़ रही है, नौकरियां कम हो रही हैं, महंगाई बढ़ रही है, उपभोक्तावाद असंतोष पैदा कर रहा है, सार्वजनिक सेवाओं में कमी हो रही है, होड़ बढ़ रही है, शासक वर्ग लोगों को बांटने और उनके असंतोष को दबाने के लिए जाति का इस्तेमाल करेगा। दलितों के लिए इस मुक्त बाजार आधारित विकास के कुछ विशेष निहितार्थ हैं।

एक तो तुलनात्मक फायदे के आधार पर किया गया निवेश खेती और खेती पर आधारित व्यापार का कॉरपोरेटीकरण करेगा। इसके नतीजे में कृषि के क्षेत्र में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का खेतों पर कब्जा मजबूत होगा जो भूमि सुधारों की संभावना को खत्म कर देगा। दूसरे, सार्वजनिक सेवाओं के निजीकरण और वैश्वीकरण द्वारा फैलाए जा रहे न्यूनतम सरकार के सिद्धांत से होने वाली सरकारी नौकरियों में कमी दलितों के रोजगार के अवसर कम करेगी। अभी भी इन नीतियों द्वारा प्रायोजित मुक्त व्यापार वातावरण, जिसका ऊंची जाति के नौकरशाहों द्वारा भरपूर समर्थन किया जा रहा है, से दलित हितों को नुकसान पहुंच रहा है। इससे दलित महिलाओं, दलित संस्कृति तथा सबसे महत्वपूर्ण अपनी आजादी के लिए होने वाले संघर्ष पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे। दलित आंदोलन को साम्राज्यवादी एजेंडे और अपने बीच के भारी अंतर्विरोधों को समझना होगा और अपने आंदोलन में इसका मुकाबला करने की रणनीति बनानी होगी।

राज्य

दलित आंदोलन के संबंध में तीसरा महत्वपूर्ण प्रश्न राज्य से इसका संबंध है। दलित आंदोलन का रवैया ऐसा रहा है कि यह राज्य को जाति और वर्ग के झगड़ों में एक निष्पक्ष निर्णायक की भूमिका अदा करने वाले के रूप में देखता है। कई बार राज्य को पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए ईमानदार, परोपकार करनेवाली इकाई की तरह देखा गया है। राज्य के प्रति यह सहृदय नजरिया समझा जा सकता है, क्योंकि दलित, आंदोलन का उदय ही राज्य द्वारा निर्मित वातावरण से हुआ। यदि औपनिवेशिक राज्य ने सबके लिए समान न्याय व्यवस्था और समान शिक्षा अवसर नहीं प्रदान किए होते, दलित आंदोलन का उदय मुश्किल था। महाड में सार्वजनिक तालाब में दलितों के अधिकार का संघर्ष राज्य के नियम कानून लागू करने के लिए ही था। बाद के संघर्ष भी कानूनी दायरे में ही किए गए ताकि राज्य का समर्थन मिलता रहे।

एक तरफ राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन के आधिपत्य और दूसरी तरफ ब्राह्मणवादी आधिपत्य का विरोध करते हुए दलित आंदोलन को परिस्थितिजन्य संभावनाओं और साधनों का इस्तेमाल करना था। महाड सत्याग्रह के समय अंबेडकर ने अपनी रणनीति स्पष्ट की कि मजबूत दुश्मन के साथ कई मोर्चों पर नहीं लड़ा जा सकता। उन्होंने लोगों का आह्वान किया कि वे कानून का उल्लंघन नहीं करें। यह राज्य ही है जिसने लोगों को अपने मानव अधिकारों के हनन के विरोध में आवाज उठाने के लिए मौका दिया है। आंदोलन की रणनीति थी राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों का इस्तेमाल कर दलित अधिकारों की रक्षा की जाए और नए कानून बनाए जाएं।

बाद के राजनीतिक सुधारों के साथ दलित आंदोलन ने जन संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया और राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए चुनावी रास्ता पकड़ा। लेकिन राजनीतिक सत्ता की सीमाएं राज्य के ढांचे के तहत सीमित थीं। यह एक सोची समझी रणनीति थी कि राज्य द्वारा हासिल संरक्षण का इस्तेमाल करते हुए प्रतिद्वंद्वी गुटों से दलितों के लिए फायदे प्राप्त किए जाएं। लेकिन यह तथ्य है कि दलित आंदोलन का संचालन करने वाली उदार लोकतांत्रिक सोच के पास न तो कोई वैकल्पिक रणनीति थी और न ही सत्ता की कोई वैकल्पिक समझ। नतीजे में दलित आंदोलन, जिसे शुरुआत में अपनी मजबूरियों का एहसास था, शासक वर्ग के जाल में फंस गया। इसने औपनिवेशिक शासन के हाथों से देशी बुर्जुआ और भूस्वामी गठजोड़ के हाथों में सत्ता के संक्रमण को भुला दिया। बराबरी के संघर्ष में औपनिवेशिक राज्य को निर्णायक की भूमिका में देखना एक रणनीति हो सकती है, लेकिन जब खुद राजसत्ता ही विरोधी पक्ष का प्रतिनिधित्व करती हो तब अपने पुराने रवैए पर बने रहने को उचित तो नहीं ही ठहराया जा सकता, यह खुद को हार की तरफ ले जाने वाला है।

दलित आंदोलन ने राज्य की ताकत की अवधारणा को इसके बराबरी के दावे के साथ जोड़ा। आरक्षण की असल में शुरुआत यहीं से हुई। यह माना गया कि यदि दलितों को राज्य की नौकरियों में उनकी आबादी के बराबर का हिस्सा मिल जाए तो यह माना जा सकता है कि सत्ता में उनकी बराबर हिस्सेदारी है। लेकिन इस योजना में खामी राज्य के चरित्र को लेकर है। राज्य कैसा भी हो, कल्याणकारी हो या किसी और किस्म का, निर्विवाद रूप से यह शासन करने वाले वर्ग के हाथ में शासित वर्गों का दमन करने का औजार है। अतः यदि शासित वर्ग अपनी मर्जी से इस औजार का हिस्सा होना स्वीकार करते हैं तो इससे शासक वर्ग का ही फायदा होगा। आमतौर पर शासक वर्ग यदि किसी विरोधी वर्ग को सीधे टकराव में काबू में नहीं कर पाते हैं तो वे हमेशा समायोजित करने की रणनीति अपनाते हैं। यह मानी हुई बात है कि समायोजित किए गए लोग बहुसंख्यकों द्वारा दबा दिए जाएंगे। साफ शब्दों में यह संभावित विरोधियों को एक तरह की रिश्वत है। इस तरह अंतिम तौर पर अपनी मर्जी से इस शोषणकारी व्यवस्था का हिस्सा बनने की दलित रणनीति, शासक वर्गों के हित में है।

इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि राज्य सत्ता में भागीदारी की रणनीति से दलितों को उल्लेखनीय फायदे हुए। शिक्षा, रोज़गार व राजनीति में आरक्षण के चलते बहुत से दलित ऐसे पदों पर पहुंचे जहां वे पहुंचने की सोच भी नहीं सकते। लेकिन इन उपलब्धियों के साथ हमेशा समझौता भी जुड़ा हुआ था। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता कि इस प्रक्रिया से दलित राजनैतिक रूप से शक्तिहीन हुए और उनमें लाभार्थियों के एक ऐसे अलग वर्ग का उदय हुआ जिसका सामान्य दलित जनता से बहुत कमजोर रिश्ता था। इस वर्ग ने दलित मुक्ति की विचारधारा को पूरी तरह से तोड़-मरोड़ दिया। स्थानीय सर्वहारा वर्ग के तौर पर दलितों का उत्थान जेल में कुछ उपहार बांट कर नहीं किया जा सकता। यह आजादी तभी संभव है जब इस जेल को ही बारूद से उड़ा दिया जाए और इसकी जगह उनकी जरूरत के मुताबिक एक नए आसरे का निर्माण किया जाए। 

आजादी के बाद किए गए समझौतों के कारण आए बदलावों के बावजूद आज भी एक आम दलित व्यक्ति अनपढ़ कुपोषित भूमिहीन मजदूर है जो जीविकोपार्जन के लिए कई तरह के शोषकों के जाल में फंसा है। वह सैकड़ों सालों से विकसित तंत्र का शिकार है। दलित आंदोलन ने शुरू में फौरी रणनीति के तहत राज्य का सहारा जरूर लिया लेकिन लंबी रणनीति इस राज्य को खत्म कर इसकी जगह दलित मजदूर राज्य स्थापित करने की होनी चाहिए।

कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ संबंध

तीसरा कारक है दलित आंदोलन के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ असहज संबंध। यह कारक आधुनिक भारतीय इतिहास का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण विरोधाभास है। यह विरोधाभास सैद्धांतिक मतभेदों से उतना पैदा नहीं हुआ, हालांकि दलित आंदोलन के जनक अंबेडकर के दिमाग में कुछ अस्पष्ट सैद्धांतिक साम्यवाद विरोधी धारणाएं थीं, जितना कि कम्युनिस्ट नेताओं के दलित आंदोलन के प्रति रुख से पैदा हुआ। बंबई के श्रम संगठनों में कार्यरत इन नेताओं ने रूढ़िवादी नजरिए से जाति के प्रश्न को ऊपरी ढांचे का एक मसला माना जो क्रांति के साथ अपने आप दूर हो जाएगा। दलित आंदोलन ने इस पर जवाब दिया कि जाति के रहते क्रांति ही कैसे होगी। इन श्रम संगठनों के कम्युनिस्ट नेता बंबई की कपड़ा मिलों में दलितों के साथ हो रहे भेदभाव या ज्यादा कमाने वाले विभागों जैसे बुनाई में दलितों को काम नहीं दिए जाने पर खामोश रहे। दलित मजदूरों की आर्थिक स्थिति उनके सवर्ण साथियों से बहुत ज्यादा खराब थी। अंबेडकर का मानना था कि कम्युनिस्टों ने श्रम संगठनों का उपयोग राजनैतिक उद्देश्यों के लिए किया न कि कामगार वर्ग के कल्याण के लिए। जब भी उन्होंने हड़ताल जैसे कदम उठाए, दलित मजदूरों का ज्यादा नुकसान हुआ, क्योंकि वे ज्यादा गरीब थे। 

श्रम संगठनों के इस गैर जिम्मेदाराना व्यवहार पर अंबेडकर को दो कारणों से आपत्ति थीः (1) मजदूर वर्ग की राजनैतिक चेतना बढ़ाने के स्थान पर संकीर्ण आर्थिक फायदे प्राप्त करना (2) अपने राजनैतिक मंसूबों की प्राप्ति के लिए कामगार वर्ग का इस्तेमाल करना। मार्क्सवाद पर अंबेडकर का लेखन बंबइया कम्युनिस्टों के प्रति उनकी नाराजगी से प्रभावित है। मार्क्सवाद को इसके कुछ स्वयंभू अनुयायियों से पहचानने की ये विरासत दलितों में अभी भी है। वे मार्क्सवाद की कमियां दिखाने के लिए संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों का उदाहरण देते हैं। उनको यह समझना होगा कि मार्क्सवादी विचारधारा खुद अपनी आलोचना की मांग करती है लेकिन सावधानीपूर्ण अध्ययन के बाद।

बहुत सारी गलतफहमियां दलित आंदोलन के पेटी बुर्जुआकरण (निम्न मध्यमवर्गीय नियंत्रण) से पैदा हुई हैं। निहित स्वार्थों ने अंबेडकर के इधर उधर बिखरे विचारों का इस्तेमाल कम्युनिज़्म को नीचा दिखाने के लिए किया। यह जान बूझ कर अर्थ का अनर्थ करने वाली बात है। हालांकि अंबेडकर ने कम्युनिस्ट सिद्धांत की इतने विस्तार से चर्चा नहीं की जितनी जरूरत थी, लेकिन वे इसके विरोध में नहीं थे। बल्कि उन्होंने कम्युनिस्ट सिद्धांत की सराहना की और इसे खुद के करीब बताया। दलित मुक्ति में व्यस्त रहते हुए उन्होंने मार्क्स के तर्क पर कहा कि किसी भी दर्शन की सफलता इसको अमली जामा पहनाने में ही साबित होती है। उनका विचार था कि यदि कम्युनिस्ट इस नजरिए से काम करें तो रूस से पहले भारत में सफलता मिल सकती है (जनता, 15 जनवरी 1938)। उनके लिए कम्युनिज्म उनके सबसे उंचे आदर्श बौद्ध मत के लिए एक कसौटी था। कम्युनिस्टों के कट्टरवाद से हुए कड़वे अनुभवों के चलते उन्होंने कम्युनिज्म के विरोध में भी तर्क दिए और इसकी असफलता की भविष्यवाणी भी की। लेकिन यह कम्युनिस्टों के क्रियाकलापों में व्याप्त कट्टरवाद की प्रतिक्रिया थी। सोवियत यूनियन और पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्टों के पतन के बाद कुछ लोग उनके कम्युनिस्ट विरोधी विचारों का खुशी हवाला देकर कहते हैं कि अंबेडकर सही थे। हां वह सही थे, लेकिन इस परिघटना पर खुशी जाहिर करना दुर्भाग्यपूर्ण हैं। यह सिर्फ अंबेडकर और कम्युनिज्म, दोनों के प्रति अज्ञानता को ही उजागर करता है। साथ ही इस तरह का नजरिया दलितों को उस विचारधारा से दूर ले जाता है जो पूरी दुनिया के वंचितों के प्रति समर्पित है। दलित आंदोलन को अपने सबसे महत्वपूर्ण संभावित सहयोगी के साथ अपने संबंधों पर पुनर्विचार करना होगा।

निष्कर्ष

दलित आंदोलन को राज्य, धर्म, शोषण के दूसरे तरीकों और संस्कृति पर अपनी राय पर दोबारा विचार करना होगा। इसे अपने उद्देश्यों को दोबारा परिभाषित करना होगा - क्या उद्देश्य स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे पर आधारित एक नया समाज बनाता है या फिर शोषणकारी समीकरणों में पक्षों को पलट भर देता है। इस परिप्रेक्ष्य में इसे अपने दोस्तों और दुश्मनों के बारे में पुनर्विचार करना होगा। वैश्वीकरण का युग यह मांग करता है कि विभिन्न वर्ग अपने पक्ष स्पष्ट करें। ऐसा लगता है कि आंदोलन में उर्जा कम हो गई है और यह अतीत में बंधा हुआ है। इस पतन से दलित जनता को नुकसान हुआ है। अब इसे अपनी आलोचना करनी चाहिए।

जहां दलित आंदोलन में सख्त स्वयं आलोचना की जरूरत है, इसके सकारात्मक पहलुओं को भी ध्यान में रखना होगा। ये बहुत सारे हैं। दलित आंदोलन ने स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के मूल्यों की स्थापना की, शोषण और अन्याय के खिलाफ संघर्ष में राजनीतिक चेतना विकसित की, वैज्ञानिक तर्कवाद को प्रोत्साहन दिया और किसी भी प्रकार के आडंबर और ढकोसले का विरोध किया। यदि उपलब्धियों की बात करें तो इससे शिक्षा, सांगठनिक क्षमता और प्रतिरोधी ढांचे के साथ काम करने की क्षमता के क्षेत्र में एक आधार खड़ा किया हैं। इतने छोटे समय में यह उपलब्धि हासिल करना आसान नहीं है। दुख की बात यह है कि आंदोलन इन उपलब्धियों पर पकड़ खो रहा है और दुश्मन के बनाए रास्ते पर भटक रहा है। यह अपनी उपलब्धियों को मजबूत करने और लंबे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अपने सभी सहयोगियों को एकजुट नहीं रख पाया। यह तभी संभव है जब यह निम्न मध्यवर्गीय प्रभुत्व से आजाद हो और दलित जनता की तरफ रुख करे। इसके लिए कुछ नियम बनाए जा सकते हैं - जैसे कि उन मुद्दों को पहले लेना जो बहुसंख्यक दलित वर्ग को छूते हैं, फैसला लेने की प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी के लिए संरचनात्मक स्पेस पैदा करना, जनता में क्रांतिकारी संस्कृति को प्रोत्साहन देना, किसी भी तरफ के अन्याय के खिलाफ संघर्ष के मूल्य को स्थापित करना, और किसी भी प्रकार की संकीर्णता के परे जाकर संपूर्ण मानव जाति की स्वतंत्रता के लिए काम करना। इसके लिए एक संपूर्ण बदलाव जरूरी है। ऐसा लगता है कि दलित आंदोलन की चेतना और नजरिया इसके जन्म के समय से ही वैसे ही बने हुए हैं। इसको यह अहसास करना होगा कि स्वतंत्रता के बाद की स्थिति औपनिवेशिक समय से ज्यादा उलझी हुई है। 

अनुवादकीय टिप्पणी:


1. भौतिकवाद: वह विचारधारा जिसके अनुसार सामाजिक घटनाओं का कारण वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा पता करना चाहिए। यह विचारधारा किसी भी स्वरूप में ईश्वर के अस्तित्व को नकारती है।
2. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद: प्रकृति में (तथा इसी प्रकार समाज में) परस्पर विरोधी प्रक्रियाएं चलती रहती हैं और एक नए स्तर पर उसके विकास को मुमकिन बनाती हैं। उदाहरण के लिए शरीर में विकास तथा क्षरण दोनों प्रक्रियाएं एक साथ चलती हैं।
3. बुर्जुआ: मध्यम वर्ग, वह वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों जैसे मशीनों, कारखानों, जमीन आदि पर कब्जा होता है और जो जीवन यापन करने के लिए शारीरिक श्रम नहीं करता है।
4. राष्ट्रीयता: एक क्षेत्र विशेष में रहने वाली एक बड़ी जाति जिसकी भाषा, खानपान एक जैसा है। एक राष्ट्र में बहुत सारी राष्ट्रीयताएं संभव हैं, जैसे भारत में नागा, गोरखा, तमिल आदि।
5. वैज्ञानिक समाजवाद: वैज्ञानिक सिद्धांतों पर टिका समाजवाद।
6. साम्राज्यवाद: एक राष्ट्र द्वारा दूसरे देशों का आर्थिक शोषण करने की प्रवृत्ति। वर्तमान में अमेरिका एक साम्राज्यवादी राष्ट्र है।
7. आधार व ऊपरी संरचना: मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार किसी भी समाज की आर्थिक गतिविधियां (अर्थतंत्र) उसका आधार है। इसी आधार पर सामाजिक ढांचा (वर्ग/जाति आदि) और संस्कृति आदि खड़े होते हैं। अतः बदलाव के लिए जरूरी है कि आधार (अर्थतंत्र) पर प्रहार किया जाए न कि ऊपरी संरचना पर। 
8. सर्वहारा की तानाशाही: बदलाव लाने के लिए मजदूरों (सर्वहारा) की तानाशाही जरूरी है। इसका अर्थ है कि एक पार्टी का शासन जैसा रूस, चीन आदि समाजवादी देशों में हुआ।
9. उपनिवेशवाद: उन्नीसवीं व बीसवीं सदी की वह व्यवस्था जिसमें पश्चिमी यूरोप के देशों ने तीसरी दुनिया के देशों को अपने अधीन कर उनका आर्थिक शोषण किया।

संदर्भ

 
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