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Friday, April 4, 2014

दंगों की राजनीति : आतंकवाद का तड़का

दंगों की राजनीति : आतंकवाद का तड़का

Author:  Edition : 

मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत और मेरठ के दंगे जो आमतौर पर मुजफ्फरनगर दंगे के नाम से मशहूर हैं, के बाद हुए विस्थापन और दंगा पीडि़त कैंपों की स्थिति की चर्चा तथा राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का दौर अभी चल ही रहा था कि अचानक अक्टूबर महीने में राजस्थान में एक जनसभा को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने आईएसआई के दंगा पीडि़तों के संपर्क में होने की बात कह कर सबको चौंका दिया। राहुल गांधी का यह कहना था कि दंगा पीडि़त 10-12 युवकों से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई संपर्क साधने का प्रयास कर रही थी। इसकी जानकारी उन्हें खुफिया एजेंसी आईबी के एक अधिकारी से मिली थी। यह सवाल अपने आप में महत्त्वपूर्ण है कि आईबी अधिकारी ने यह जानकारी राहुल गांधी को क्यों और किस हैसियत से दी? उससे अहम बात यह है कि क्या यह जानकारी तथ्यों पर आधारित थी या फर्जी इनकाउंटरों, जाली गिरफ्तारियों और गढ़ी गई आतंकी वारदातों की कहानियों की तरह एक राजनीतिक खेल जैसा कि आतंकवाद के मामले में बार-बार देखा गया है और जिनकी कई अदालती फैसलों से भी पुष्टि हो चुकी है। राहुल गांधी के मुंह से यह बात कहलवाकर आईबी दंगा भड़काने के आरोपी उन सांप्रदायिक तत्त्वों को जिसमें कांग्रेस पार्टी के स्थानीय नेता भी शामिल थे, बचाना चाहती थी। राहुल गांधी ने इसके निहितार्थ को समझते हुए यह बात कही थी या खुफिया एजेंसी ने यह सब उनकी अनुभव की कमी का फायदा उठाते हुए दंगे की गंभीरता की पूर्व सूचना दे पाने में अपनी नाकामी से माथे पर लगे दाग को दर्पण की गंदगी बता कर बच निकलने के प्रयास के तौर पर किया था। क्या उस समय राहुल के आरोप को खारिज करने वाली उत्तर प्रदेश की सरकार ने बाद में खुफिया एजेंसी की इस मुहिम को अपना मूक समर्थन दिया था जिससे दंगा पीडि़तों, कैंप संचालकों और पीडि़तों की मदद करने वालों को भयभीत कर कैंपों को बंद करने की कार्रवाई की जाए ताकि इस नाम पर सरकार की बदनामी का सिलसिला बंद हो?

राहुल गांधी के बयान के बाद दंगा भड़काने वाली सांप्रदायिक ताकतों ने आईएसआई को इसका जिम्मेदार ठहराने के लिए जोर लगाना शुरू कर दिया था। इस आशय के समाचार भी मीडिया में छपे। दंगे के दौरान फुगाना गांव के 13 लोगों की सामूहिक हत्या कर उनकी लाशें भी गायब कर दी गई थीं। वह लाशें पहले मिमला के जंगल में देखी गईं परंतु बाद में उनमें से दो शव गंग नहर के पास से बरामद हुए। शव न मिल पाने के कारण उन मृतकों में से 11 को सरकारी तौर पर मरा हुआ नहीं माना गया था। समाचार पत्रों में उनके लापता होने की खबरें प्रकाशित हुईं जिसमें इस बात की आशंका जाहिर की गई थी कि जो लोग आईएसआई के संपर्क मे हैं उनमें यह 11 लोग भी शामिल हो सकते हैं। यह भी प्रचारित किया जाने लगा कि कुछ लोग दंगा पीडि़तों की मदद करने के लिए रात के अंधेरे में कैंपों में आए थे। उन्होंने वहां पांच सौ और हजार के नोट बांटे थे। इशारा यह था कि वह आईएसआई के ही लोग थे। आईएसआई और आतंकवाद से जोडऩे की इस उधेड़ बुन में ऊंट किसी करवट नहीं बैठ पा रहा था कि अचानक एक दिन खबर आई कि रोजुद्दीन नामक एक युवक आईएसआई के संपर्क में है। कैंप में रहने वाले एक मुश्ताक के हवाले से समाचारों में यह कहा गया कि वह पिछले दो महीने से लापता है। जब राजीव यादव के नेतृत्व में रिहाई मंच के जांच दल ने इसकी जांच की तो पता चला कि रोजुद्दीन जोगिया खेड़ा कैंप में मौजूद है और वह कभी भी कैंप छोड़ कर कहीं नहीं गया। तहकीकात के दौरान जांच दल को पता चला कि रोजुद्दीन और सीलमुद्दीन ग्राम फुगाना निवासी दो भाई हैं और दंगे के बाद जान बचा कर भागने में वह दोनों बिछड़ गए थे। रोजुद्दीन जोगिया खेड़ा कैंप आ गया और उसके भाई सलीमुद्दीन को लोई कैंप में पनाह मिल गई। जब मुश्ताक से दल ने संपर्क किया तो उसने बताया कि एक दिन एक पत्रकार कुछ लोगों के साथ उसके पास आया था और सलीमुद्दीन तथा रोजुद्दीन के बारे में पूछताछ की थी। उसने यह भी बताया कि सलीमुद्दीन के लोई कैंप में होने की बात उसने पत्रकार से बताई थी और यह भी कहा था कि उसका भाई किसी अन्य कैंप में है। पत्रकार के भेस में खुफिया एजेंसी के अहलकारों ने किसी और जांच पड़ताल की आवश्यक्ता नहीं महसूस की और रोजुद्दीन का नाम आईएसआई से संपर्ककर्ता के बतौर खबरों में आ गया। इस पूरी कसरत से तो यही साबित होता है कि खुफिया एजेंसी के लोग किसी ऐसे दंगा पीडि़त व्यक्ति की तलाश में थे जिसे वह अपनी सविधानुसार पहले से तैयार आईएसआई से संपर्क वाली पटकथा में खाली पड़ी नाम की जगहभर सकें और स्क्रिप्ट पूरी हो जाए। परंतु इस पर मचने वाले बवाल और आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों की रिहाई के मामले को लेकर पहले से घिरी उत्तर प्रदेश सरकार व मुजफ्फनगर प्रशासन ने ऐसी कोई जानकारी होने से इनकार कर दिया। केंद्र सरकार की तरफ से गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह ने भी कहा कि गृह मंत्रालय के पास ऐसी सूचना नहीं है। राहुल गांधी के बयान की पुष्टि करने की यह कोशिश तो नाकाम हो गई। लेकिन थोड़े ही दिनों बाद आईबी की सबसे विश्वास पात्र दिल्ली स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मुजफ्फरनगर दंगों का बदला लेने के लिए दिल्ली व आसपास के इलाकों में आतंकी हमला करने की योजना बना रहे एक युवक को मेवात, हरियाणा से गिरफ्तार कर लिया है और उसके एक अन्य सहयोगी की तलाश की जा रही है। यह दोनों मुजफ्फरनगर के दो अन्य युवकों के संपर्क में थे। हालांकि पूर्व सूचनाओं से उलट इस बार यह कहा गया कि जिन लोगों से इन कथित लश्कर-ए-तोयबा के संदिग्धों ने संपर्क किया था उनका संबंध न तो राहत शिविरों से है और न ही वह दंगा पीडि़त हैं।

मेवात के ग्राम बजीदपुर निवासी 28 वर्षीय मौलाना शाहिद जो अपने गांव से 20 किलोमीटर दूर ग्राम छोटी मेवली की एक मस्जिद का इमाम था, 7 दिसंबर 2014 को गिरफ्तार किया गया था। स्थानीय लोगों का कहना है कि अखबारों में यह खबर छपी कि पुलिस को उसके सहयोगी राशिद की तलाश है। राशिद के घर वालों को दिल्ली पुलिस की तरफ से एक नोटिस भी प्राप्त हुआ था जिसके बाद 16 दिसंबर को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नूहपुर (मेवात का मुख्यालय) की अदालत में राशिद ने समर्पण कर दिया। राशिद खान वाली मस्जिद घघास में इमाम था और वहां से 25 किलोमीटर दूर तैन गांव का रहने वाला था। इन दोनों पर आरोप है कि इनका संबंध पाकिस्तान के आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोयबा से है। इन दोनों ने मुजफ्फरनगर के लियाकत और जमीरुल इस्लाम से मुलाकात की थी। लियाकत सरकारी स्कूल में अध्यापक और जमीर छोटा-मोटा अपराधी है। मौलाना शाहिद और राशिद इन दोनों से मिले थे और मुलाकात में अपहरण की योजना बनाने और इस प्रकार प्राप्त होने वाले फिरौती के पैसे का इस्तेमाल मस्जिद बनवाने के लिए करने की बात उक्त दोनों ने की थी। बाद में उन्हें बताया गया कि फिरौती की रकम को मस्जिद बनाने के लिए नहीं बल्कि आतंकी वारदात को अंजाम देने लिए हथियार की खरीदारी पर खर्च किया जाएगा तो दोनों ने इनकार कर दिया। दिल्ली स्पेशल सेल का यह दावा समझ से परे है क्योंकि एक साधारण मुसलमान भी जानता है कि मस्जिद बनाने के लिए नाजायज तरीके से कमाए गए धन का इस्तेमाल इस्लाम में वर्जित है। ऐसी किसी मस्जिद में नमाज नही अदा की जा सकती। ऐसी सूरत में पहले प्रस्ताव पर ही इनकार हो जाना चाहिए था। यह समझ पाना भी आसान नही है कि एक दो मुलाकात में ही कोई किसी से अपहरण जैसे अपराध की बात कैसे कर सकता है।

दूसरी तरफ पटियाला हाउस कोर्ट में रिमांड प्रार्थना पत्र में स्पेशल सेल ने कहा है कि इमामों की गिरफ्तारी पिछले वर्ष नवंबर में प्राप्त खुफिया जानकारी के आधार पर की गई है। स्थानीय लोगों का कहना है कि शाहिद सीधे और सरल स्वभाव का है। वह मुजफ्फरनगर दंगों के बाद दंगा पीडि़तों के लिए फंड इकट्ठा कर रहा था और उसके वितरण के लिए किसी गैर सरकारी संगठन एवं मुजफ्फरनगर के स्थानीय लोगों से संपर्क किया था। तहलका के 25 जनवरी के अंक में छपी एक रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि लियाकत और जमीर दिल्ली व उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए मुखबिरी का काम करते थे। आतंकवाद के मामले में अबरार अहमद और मुहम्मद नकी जैसी कई मिसालें मौजूद हैं जब मुखबिरों को आतंकवादी घटनाओं से जोड़ कर मासूम युवकों को उनके बयान के आधार पर फंसाया जा चुका है। राहुल गांधी का आईबी अधिकारी द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर दिया गया वक्तव्य, कैंपों में खुफिया एजेंसी के अहलकारों द्वारा पूछताछ, रोजुद्दीन के आईएसआई से संपर्क स्थापित करने का प्रयास और अंत में मौलाना शाहिद और राशिद की खुफिया सूचना के आधार पर गिरफ्तारी और लियाकत तथा जमीर की पृष्ठभूमि और भूमिका को मिलाकर देखा जाए तो चीजों को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। सांप्रदायिक शक्तियों ने खुफिया एवं जांच एजेंसियों में अपने सहयोगियों की सहायता से मुसलमानों को आतंकवाद और आतंकवादियों से जोडऩे का कोई मौका नहीं चूकते चाहे कोई बेगुनाह ही क्यों न हो। गुनहगार होने के बावजूद अगर वह मुसलमान नहीं है तो उसे बचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। पांच बड़ी आतंकी वारदातों का अभियुक्त असीमानंद अंग्रेजी पत्रिका दि कारवां को जेल मे साक्षात्कार देता है और आतंकवादी वारदातों के संबंध में संघ के बड़े नेता इंद्रेश कुमार और संघ प्रमुख मोहन भागवत का नाम लेता है तो उसे न तो कोई कान सुनने को तैयार है और न कोई आंख देखने को। किसी एजेंसी ने उस साक्षात्कार के नौ घंटे की ऑडियो की सत्यता जानने का कोई प्रयास तक नहीं किया। चुनी गई सरकारों से लेकर खुफिया और सुरक्षा एवं जांच एजेंसियां सब मूक हैं। मीडिया में साक्षात्कार के झूठे होने की खबरें हिंदुत्वादियों की तरफ सें लगातार की जा रही हैं परंतु उसके संपादक ने इस तरह की बातों को खारिज किया है और कहा है कि उसके पास प्रमाण है। देश का एक आम नागरिक भी यह महसूस कर सकता है कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में न तो इच्छा है और न ही इतनी इच्छा शक्ति कि इस तरह की चुनौतियों का सामना कर सके। यही कारण है कि आतंक और सांप्रदायिक हिंसा का समूल नाश कभी हो पाएगा इसे लेकर हर नागरिक आशंकित है।

मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा को लेकर एक और सनसनीखेज खुलासा सीपीआई (माले) ने अपनी जांच रिपोर्ट में किया है। दंगे के मूल में किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ नही है यह तो पहले ही स्पष्ट हो चुका था। 27 अगस्त को शहनवाज कुरैशी और सचिन व गौरव की हत्याओं के मामले में दर्ज एफआईआर में झगड़े का कारण मोटर साइकिल और साइकिल टक्कर बताया गया था। परंतु सीपीआई (माले) द्वारा जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि मोटर साइकिल टक्कर भी सचिन और गौरव की तरफ से शहनवाज की हत्या के लिए त्वरित कारण गढऩे की नीयत से की गई थी। इस पूरी घटना के तार एक बड़े सामूहिक अपराध से जुड़े हुए हैं। रिपोर्ट के अनुसार शहनवाज कुरैशी और सचिन की बहन के बीच प्रेम संबंध था। जब इसकी जानकारी घर और समाज के लोगों को हुई तो मामला पंचायत तक पहुंच गया और जिसने सचिन और गौरव को शहनवाज के कत्ल करने का फरमान जारी कर दिया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उक्त लड़की उसके बाद से ही गायब है और इस बात की प्रबल आशंका है कि उसकी भी हत्या हो चुकी है। इस तरह से यह आनर किलिंग का मामला है जो एक गंभीर सामाजिक और कानूनी अपराध है। एक घिनौने अपराध के दोषियों और उनके समर्थकों ने उसे छुपाने के लिए नफरत के सौदागरों के साथ मिलकर इतनी व्यापक तबाही की पृष्ठभूमि तैयार कर दी और हमारे तंत्र को उसकी भनक तक नहीं लगी। कुछ दिखाई दे भी तो कैसे जब आंखों पर सांप्रदायिकता की ऐनक लगी हो।

मुजफ्फरनगर दंगे के बाद से ही जिस प्रकार से दंगा पीडि़तों का रिश्ता आईएसआई और आतंकवाद से जोडऩे का प्रयास किया गया उससे इस आशंका को बल मिलता है कि दंगा भड़काने के आरोपी हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक तत्त्वों के कुकृत्यों की तरफ से ध्यान हटा कर उसका आरोप स्वयं दंगा पीडि़तों पर लगाने का षड्यंत्र रचा गया था। आतंकवादी वारदातों को अंजाम देने के बाद भगवा टोली ने खुफिया और सुरक्षा एवं जांच एजेंसियों में अपने हिमायतियों की मदद से इसी तरह की साजिश को पहले कामयाबी के साथ अंजाम दिया था। देश में होने वाली कुछ बड़ी आतंकी वारदातों में मुंबई एटीएस प्रमुख स्व. हेमंत करकरे ने अपनी विवेचना में इस साजिश का खुलासा कर दिया था। गुजरात में वंजारा एंड कंपनी द्वारा आईबी अधिकारियों के सहयोग से आतंकवाद के नाम पर किए जाने वाले फर्जी इनकाउंटरों का भेद भी खुल चुका है। शायद यही वजह है कि बाद में होने वाले कथित फर्जी इनकाउंटरों में मारे गए युवकों और आतंकी वारदातों में फंसाए गए निर्दोषों के मामले में सांप्रदायिक ताकतों के दबाव के चलते जांच की मांग को खारिज किया जाता रहा है। मुजफ्फरनगर दंगों की सीबीआई जांच को लेकर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने भी ऐसी किसी जांच का विरोध किया है। सच्चाई यह है कि किसी निष्पक्ष जांच में जो खुलासे हो सकते हैं वह न तो दंगाइयों के हित में होंगे और न ही सरकार के और दोनों ने हितों की राजनीति का पाठ एक ही गुरू 'अमेरिका' से सीखा है। करे कोई और भुगते कोई की राजनीति यदि मुजफ्फरनगर दंगों के मामले में भी सफल हो जाती तो इसका सीधा अर्थ यह होता कि किसी भी राहत कैंप को चलाने की कोई हिम्मत नहीं कर पाता, दंगा पीडि़तों की मदद करने वाले हाथ रुक जाते या उन्हें आतंकवादियों के लिए धन देने के आरोप में आसानी से दबोच लिया जाता और पीडि़तों की कानूनी मदद करने का साहस कर पाना आसान नहीं होता। शायद सांप्रदायिक शक्तियां ऐसा ही लोकतंत्र चाहती हैं जहां पूरी व्यवस्था उनकी मर्जी की मोहताज हों। हमें तय करना होगा कि हम कैसा लोकतंत्र चाहते है और हर स्तर पर उसके लिए अपेक्षित प्रयास की करना होगा।

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