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Friday, April 4, 2014

बहस तलब,हमें आंबेडकर की जरूरत है, लेकिन किस आंबेडकर की?

बहस तलब,हमें आंबेडकर की जरूरत है, लेकिन किस आंबेडकर की?

पलाश विश्वास

बहस तलबः `इस धरती पर जब तक जाति का वायरस मंडराता रहेगा, आंबेडकर की जरूरत यकीनी तौर पर बनी रहेगी. लेकिन यह आंबेडकर उस पुराने आंबेडकर का फिर से अवतार भर नहीं होंगे, जिनकी ज्यादातर दलित भावुकता के साथ कल्पना करते हैं. वैसे भी नहीं जैसे अरुंधति उन्हें अभी और तुरंत बुलाना चाहेंगी. आंबेडकर को यकीनन ही तब की तुलना में आज के समाज में जातियों की कहीं अधिक जटिल और बिखरी हुई समस्या का सामना करने के लिए फिर से गढ़ा जाना जरूरी होगा.'


इन पंक्तियों पर खुली बहस के लिए यह आलेख है।


जाति उन्मूलन पर बाबासाहेब के लिखे एन्निहिलिशन आफ कास्ट आलेख पर मशहूर लेखिका अरुंधति राय की प्रस्तावना लिखने के अधिकार को चुनौती देते हए जेएनयू के मुक्ताचंल में आल इंडिया बैकवर्ड स्टुडेंट यूनियन के बैनकर के साथ दलितों के प्रवक्ता बने संगठन की ओर से नियमागिरि पर लिखे अरुंधति के आलेख का हवाला दोते हुए कहा गया है कि उन आदिवासियों के लिए जैसे नियमागिरि पहाड़ पवित्र है,उसीतरह दलितों के लिए बाबासाहेब डा. भीमराव अंबेडकर भी पवित्र है,लिहाजा बेहतर हो कि अंबेडकर को दलितों के लिए ही सुरक्षित रख दिया जाये।


जैसे कि हमारे प्रबुद्ध मित्र विद्याभूषण रावत ने हस्तक्षेप में साफ साफ लिखा है कि अरुंधति के लिखे पर तमाम दलित प्रतिक्रयाक्रियाें दरअसल विषयांतर है,हमारा भी मानना है कि अरुंंधति के लिखने से हिंदुत्व के निष्कासन सिद्धांत के तहत बाबासाहेब की पवित्रता भंग नहीं हुई है।


बाबा साहब ने दरअसल जाति तोड़ो सवर्ण संगठन को संबोधित यह वक्तव्य जो दिया ही नहीं जा सका,को आलेख बतौर प्रकाशित किया,जिसपर उनके प्रबल विरोधी और मनुस्मृति के प्रवक्ता गांधी ने तीखी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की।


बाबासाहेब ने उस प्रतिक्रिया का भी समुचित प्रत्युत्तर दिया है। जाहिर है कि बाबासाहेब असहमति और विरोध के बावजूद संवाद से परहेज नहीं करते थे।


रावतभाई ने अपने आलेख का शीर्षक भी मौजूं रखा हैः


Dissent is the essence of Ambedkarism

March 27, 2014 Leave a commentनीला, नील क्रांति

The issue is not whether she can write on Ambedkar or not. No one can stop anyone to write on a public figure and his or her work. A few of them said that none had brought this great work to international people and hence if Navayana is doing so we should complement him.

Read More »

http://www.hastakshep.com/category/english#.Uz71xKiSwnY


विद्याभूषणजी का आलेख गौर से पढ़ना जरुरी है। हालांकि उन्होंने यह जो लिखा कि अंबेडकर के लिखे पर किसी नयी प्रस्तावना की जरुरत नहीं है,इससे हम असहमत है।


जब बाबासाहेब ने यह आलेख लिखा था,तब परिस्थितियां भिन्न थीं, अब लेकिन परिस्थितियां एकदम बदल गयी है और जाति व्यवस्था को मजबूती देने में दलितों और बहुजनों की आत्मघाती भूमिका सवर्ण वर्चस्व के स्थाई बंदोबस्त को ही बहाल करने में लगी है।


इसी बीच आनंद तेलतुंबड़े जो संजोग से दलित भी हैं,अरुंधति के आउटलुक में लिखे आलेख की प्रतिक्रिया में एक आलेख अंग्रेजी में लिखा है,जो दैनिक हिंदू में प्रकाशित भी हो गया।इस आलेख को जाति उन्मूलन संबंधी प्रस्तावना में हो रहे विवाद की पृष्ठभूमि में लिखा गया है,जिसपर हमने आनंद के कहने पर अंग्रेजी में एक मंतव्य भी लिखा है।


अब हमारे मित्र रियाज उल हक ने हिंदी में आनंद का यह आलेख पोस्ट कर दिया है।हिंदी के पाठक इसे पढ़ सकते हैं और कम से कम आनंद के विशेषाधिकार पर दलितयुक्ति से सवाल खड़ा करने की गुंजाइश नहीं है।


आनंद ने अरुंधति को भी बख्शा नहीं है।जैसे रावत ने मुद्दों पर बात की है,उसी बहस को आगे बढ़ाते हुए अंबेडकर को आइकन बतौर पेश करने की सत्तावर्गीय प्रवृत्ति को चिन्हित भी किया है तेलतुंबड़े ने। हमारी उनसे इस आलेख पर इसके हिंदू में प्रकाशन से पहले और बाद में लगातार इन मुद्दों पर  बातचीत होती रही है और इस मंतव्य को लिखने से पहले भी हमने उनसे बात कर ली है।


इस आलेख में जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल आनंद ने उठाया है वह अबंडकर के अंधा अनुकरण के विरुद्ध है,जिसे अरुंधति भी जाने अनजाने गौरवान्वित कर रही हैं।


हम राष्ट्र के वर्तमान चरित्र,बहुआयामी सामाजिक यथार्थ के संदर्भ में कारपोरेट साम्राज्यवाद के उपनिवेश बने भारत में बहुजनों के नरसंहारी आयोजन के ग्लोबीकरण और मुक्तबाजार संबंधी विश्लेषण के लिए अरुंधति के विश्लेषण को महत्वपूर्ण योगदान माना है और इस पर बहस की जरुरत भी बतायी है लेकिन अंबेडकर की प्रासंगिकता पर उनके लिखे से पूरी तरह सहमत हम भी नहीं है।


बेहतर होता कि फारवर्ड प्रेस,एआईबीएसएफ और दूसरे आलोचक रावत की तरह असहमति के बिंदुओ पर बहस को केंद्रित करते।


आनंद ने साफ साफ लिखा हैः


आंबेडकर: वास्तविक और अवास्तविक

हैरानी की बात यह है कि पूरी बहस ने मुख्य मुद्दे को पीछे धकेल दिया है, वो यह है कि अरुंधति से किताब की प्रस्तावना लिखवाने के पीछे बुनियादी वजह प्रकाशक का कारोबारी हिसाब-किताब था. एक बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका होने के रुतबे के कारण, जिसमें बाद में विभिन्न मौकों पर विभिन्न मुद्दों पर जनता की हिमायत में निडरता से खड़े होने से और भी बढ़ोतरी हुई है, किताब को मशहूरियत मिलनी ही थी. इससे भी आगे बढ़कर, यह कल्पना भी की जा सकती थी कि उनके लेखन से विवाद भी जरूर पैदा होगा जैसा कि सचमुच हुआ भी. किसी भी प्रकाशक के लिए यह किताब की बिक्री के लिहाज से मुंहमांगी मुराद है. भले ही नवयाना ने सचेत रूप से इसके बारे में सोचा हो या नहीं, लेकिन कोई व्यक्ति एक प्रकाशक की उत्पाद संबंधी स्थापित रणनीतियों के बारे में कोई शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि जो भी हो उसे इस कारोबार के तौर तरीकों पर ही चलना होता है. खुद को 'जाति विरोधी' बताने के बावजूद नवयाना में इधर गिरावट के रुझान भी दिखे हैं. आंबेडकर को लेकर बेहद प्रशंसा और भक्तिभाव से भरा साहित्य प्रकाशित करना और जातियों के उन्मूलन को समर्थन देना एक ही बात नहीं है. कुछ लोगों द्वारा शुरू किया गया यह विवाद एक बार ठंडा पड़ जाए तो दलितों की व्यापक बहुसंख्या इस पर गर्व करेगी कि अरुंधति रॉय तक उनके देवता की पूजा में शामिल हो गई हैं. आंबेडकर के प्रति ऐसा भक्तिभाव असल में जातीय पहचान को मजबूत करता आया है और जातियों के खात्मे की परियोजना को और भी दूर धकेलता आया है.


इसी भक्तिभाव और अंध श्रद्धा ने बाबासाहेब को या तो बोधिसत्व बना दिया है या फिर उनको मूर्तिबद्ध बना दिया है। गौतम बुद्ध बुनियादी तौर पर विश्व के पहली रक्तहीन क्रांति के जनक हैं जिन्होंने वर्ण व्यवस्था के वैदिकी निरंतरता का अवसान करते हुए सामाजिक न्याय और समता के सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है।


बौद्धमय भारत के अवसान के बाद प्रतिक्रांति बजरिये जातिव्यवस्था के स्थाई बंदोबस्त  से लेकर मुक्त बाजार के क्रोनी पूंजी वर्चस्व वाले एकाधिकारवादी कारपोरेट राज में तब्दील होने के बावजूद भारत और बाकी विश्व में गौतम बुद्ध के धम्म,पंचशील, समता और सामाजिक न्याय के सिद्धांत अप्रासंगिक नहीं हुआ है और न उनका किसी भी सूरत में अवमूल्यन उसी तरह संभव नहीं है जैसे फ्रांसीसी क्रांति,रंगभेद के खिलाफ अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका  के स्वतंत्रता संग्राम, इंग्लैंड की रक्तहीन क्रांति,यूनान में कुलीनतंत्र के खिलाफ गुलामों का विद्रोह,रूस और चीन की क्रांतियां।


दुनिया रोज बनती है और दुनिया रोज बदलती है लेकिन इतिहास और इतिहास बोध भौगोलिक राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक बदलावों के मध्य शाश्वत मूल्य हैं,जिनके बिना हम एक कदम तक आगे नहीं बढ़ सकते।


मसलन मोहनदास करमचंद गांधी के विचारों,दर्शन और उनके धर्म कर्म से हमें घनघोर आपत्ति हो सकती है,लेकिन इस सच से इंकार नही किया जा सकता कि वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक नेतृत्व कर रहे थे।कैसी स्वतंत्रता मिली और सत्ता हस्तांतरण के नतीजे क्या हैं,उन मुद्दों पर हम बहस जरुर कर सकते हैं।


हम बार बार भारतीय सांप्रतिक इतिहास के संदर्भ में अटल बिहारी वाजपेयी और इंदिरा गांधी की सकारात्मक भूमिकाओं को आज के राजनीतिक संकट के परिप्रेक्ष्य में तौल रहे हैं,लेकिन उनकी नकारात्मक राजनीति और उनकी भूलों को  भी हम नजरअंदाज नहीं कर सकते।


आपातकाल और आपरेशन ब्लू स्टार का हम कतई समर्थन नही कर सकते।तो गुजरात नरसंहार के बावजूद वाजपेयी की निष्क्रियता और राममंदिर आंदोलन जरिये कमंडल राजनीति में वाजपेयी की भूमिका,आर्थिक सुधार अभियान की निरंतरता बनाये रखने के साथ हिंदुत्वादी राजकाज की वाजपेयी की गृहनीति का भी हम लगातार विरोध करते रहे हैं।


इन आपत्तियों और असहमतियों के बावजूद उनकी भूमिकाओं को हम सिरे से खारिज नहीं कर सकते।


बाबासाहेब अंबेडकर न ईश्वर थे और न हिंदुत्व को जाति व्यवस्था के कारण खारिज करके अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म दीक्षित होने के बावजूद बोधिसत्व भी नहीं थे।


बाबासाहेब अंबेडकर बहुजन मूक भारत की मुक्तिकामी आकांक्षाओं के अब तक की सबसे प्रबल अभिव्यक्ति हैं।


लेकिन मुक्तिप्रसंग पर चर्चा किये बिना हम उनकी भूमिका की जाच पड़ताल कर ही नहीं सकते।


बाबासाहेब अंबेडकर रक्तमांस के जीते जागते इंसान थे।उनके विचार और अवस्थान भी समय समय पर बदलते या विकसित होते रहे हैं।


बाबासाहेब अंबेडकर चेतना के प्रतीक हैं न कि जड़ता के।


अपने समय और समाज को संबोधित करते हुए भिन्न अर्थव्यवस्थाओं के संदर्भ 1947 से पहले और बाद उन्होने जो लिखा,उनके मायने अब बदले हालात में सिरे से बदल गये हैं लेकिन अस्पृश्यता और नस्लीभेदभाव वाले वर्णवर्चस्वी एकाधिकारवादी मनुस्मृति व्यवस्था बदलने के बदले मुक्त बाजार और कारपोरेट राज में और ज्यादा मजबूत हो गयी है।


इसी सदर्भ में अरुंधति के लेखन पर गौर न करके हम सामाजिक और सांप्रतिक यथार्थ से मुंह ही चुरा रहे हैं।


न हम और तेलतुंबड़े अरुंधति का गौरवान्वयन कर रहे हैं और न उनका बचाव।वे बेहतरीन लेखिका हैं और अपना बचाव वे बखूब कर सकते हैं। वे सही हैं या गलत, बहस इस पर भी नहीं केंद्रित होना चाहिए।बहस उन मुद्दों पर जरूर होनी चाहिए जो उन्होंने उठाये हैं।


खास बात तो यह है कि जो लोग दावा यह कर रहे हैं कि दलितों के,माफ कीजिये बहुजनों और गैरदलित आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के भी नही,हैं डा.भीमराव अंबेडकर, उन्हें शायद इस सच का सामना करने की हिम्मत भी नहीं है कि सत्तावर्ग ने उन्हें सिरे से अंबेडकर से बेदखल कर दिया है।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर भी मुक्त बाजार में उतने ही कमोडिटी हैं जितने कारपोरेट हिंदुत्व के सुपरमाडल नरेंद्र मोदी।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर और अंबेडकर के अनुयायी अब पूरी तरह सत्तावर्ग के कब्जे में हैं।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर की भी ब्रांडिंग हो गयी है और हम अंबेडकर नहीं,ब्रांडेड अंबेडकर के अनुयायी बनकर फासिस्ट कारपोरेट राज की पैदल सेनाएं हैं।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर के विचारों के मुताबिक अंबेडकरी आंदोलन का कोई वजूद है ही नहीं है। न जाति उन्मूलन के बेसिक एजंडा के तहत समता और सामाजिक न्याय की किसी परिकल्पना का कोई अस्तित्व है।


कटुसत्य तो यह है कि सौदेबाजी के सिद्धांत के तहत जो सत्ता की चाबी में उलझा अंबेडकरी आंदोलन,वह सौदेबाजी सामाजिक न्याय और समता के साथ अवसरों और संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे के नाम पर वर्णवर्चस्वी फासिस्ट तबके का शरणागत बना रही है भारतीय बहुजनों को।


कटुसत्य तो यह है कि इस अनंत वधस्थल पर हम वध्य हैं और अपनी गरदन बचाने के लिए उस तलवार से याचना कर रहे हैं अपने प्राणों की,जो खून से नहाकर ही अपनी धार तेज करती है और उसके इस चरित्र में कोई परिवर्तन हो नहीं सकता।


कटुसत्य तो यह है कि अंबेडकर के जिस संविधान पर हमें इतना गर्व है, वह वर्णवर्चस्वी बहुमत के संशोधित संविधान है और अंबेडकरी मसविदा का हूबहू अनुकरण नहीं है।


कटुसत्य तो यह है कि जिन मौलिक अधिकारों का प्रावधान है भारतीय संविधान में,उनका भी अस्तित्व खत्म है।


कटुसत्य तो यह है कि जिस लोकतंत्र की बुनियाद रखा बाबासाहेब ने,वह अब न सिर्फ मुक्त बाजार है, न सिर्फ छिनाल पूंजी वित्तीय लंपट आवारा अबाध पूंजी की कठपुतली है, न सिर्फ यह मुक्त बाजार है,न सिर्फ कृषि और कृषि समुदाय,प्रकृति और प्रकृति से जुड़े बहुजनों का कत्लगाह है यह, बल्कि जायनवादी कारपोरेट साम्राज्यवाद का उपनिवेश में तब्दील है।


कटुसत्य तो यह है कि जो कानून बनाये बाबासाहेब ने वे बदले जा चुके हैं और जो बाकी हैं,वे बदल दिये जायेंगे,जिस राजस्व प्रबंधन और संसाधन प्रबंधन की प्रस्तावना कर गये बाबा साहेब,उसके उलट सबकुछ हो रहा है, जो संवैधानिक रक्षाकवच बाबासाहेब ने बहुजनों के लिए सुनिश्चित किये,वे छिन्न भिन्न हैं और अस्पृश्य नस्ली भेदभाव के शिकार भूगोल में वह भारतीय संविधान अब सशस्त्र सैन्यबल विशेषाधिकार कानून,आतंक निरोधक कानून,सलवा जुड़ुम जैसी  रंग बिरंगी युद्धक कानूनों और अभियानों में तब्दील है,जहां न बाबासाहेब के लोकतंत्र,न लोक गणराज्य और न संविधान कभी लागू हुआ है।


कटुसत्य तो यह है कि जिस आरक्षण पर भारत में जनादेशनिर्मिति वास्ते वोटबैंक समीकरण है ,ग्लोबीकरण ने उसे सिरे से अप्रासंगिक बना दिया है।


कटुसत्य तो यह है कि निजीकरण और प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश,ठेके पर नियुक्तिययों, अबाध पूंजी प्रवाह और शहरीकरण ने आरक्षण के कफन पर आखिरी कीले ठोंक दी है और हम मरी हुई लाश की राजनीति कर रहे हैं।


कटुसत्य तो यह है कि बाबासाहेब की विचारधारा एटीएम में तब्दील है, जहां से जो जितना निकाल सकता है, निकाल रहा है और इस दौड़ में भी बहुजन कहीं हैं ही नहीं।


कटुसत्य तो यह है कि वह एटीेम भी अब शोषक  शासक तबकों और उनके चर्बीदार सिपाहसालारों के कब्जे में है।


इस बेदखली का एक ब्यौरा आनंद ने भी पेश किया हैः

हालांकि यह अजीब विरोधाभास है कि सबसे दिलचस्प दलील दलितों की तरफ से नहीं बल्कि एक ऊंची जाति के पत्रकार की तरफ से लाइव मिंट के 18 मार्च 2014 अंक में आई ('बीआर आंबेडकर, अरुंधति रॉय एंड द पॉलिटिक्स ऑफ एप्रोप्रिएशन', जी संपत) जिसमें अरुंधति को यह चुनौती दी गई कि अगर वे नियमगिरी पहाड़ियों के नीचे मौजूद बॉक्साइट को आदिवासियों के पास छोड़ देने की मांग करती हैं, तो क्यों नहीं उन्हें आंबेडकर को दलितों के लिए छोड़ देना चाहिए, जो दलितों की अकेली संपत्ति हैं. यह दलील दिलचस्प भले ही हो, इसको लागू किया जाना खतरनाक है क्योंकि जातियों के आधार पर 'अन्य' बता दिए गए लोगों की किसी भी भागीदारी या संवाद को अनुचित बता कर खारिज किया जा सकता है. आंबेडकर दलितों सांस्कृतिक हितों के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन तब भी सिर्फ दलितों के लिए उनकी घेरेबंदी कर दिए जाने का मतलब उनकी तौहीन करना और दलितों के हितों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाना होगा. नियमगिरी को आदिवासियों के लिए छोड़ दिया जाना विकास की प्रचलित अवधारणा को एक प्रगतिशील चुनौती है, जबकि आंबेडकर को सिर्फ दलितों तक सीमित कर देना का मतलब होगा कि यह बाबासाहेब आंबेडकर के जातियों के खात्मे के मकसद को पीछे की ओर खींचते हुए उसे बुरी तरह नुकसान पहुंचाएगा.



बुनियादी मुद्दे को तेलतुंबड़े ने सही सही रेखांकित किया है जो बहसतलब हैलेकिन इसके पहले युवा कवि नित्यानंद गायेन की इनपंक्तियों पर पहले गौर करेंः

चुम्बक जिसके सदा

दो कोन होते हैं

एक कोना

जो सदा आकर्षित करता है

और दूसरा

जो अलग करता है

समान कोने वालों को

मतलब कुछ तो सन्देश देता है

मैगनेट की आकर्षण शक्ति

कि अपने विपरीत विचारधारा वाले का

स्वागत करनी चाहिए हमें


बहुत पहले जान लिया था इस विचार को

संत कबीर ने

जबकि तब कहीं किसी को पता नही था

चुम्बक के बारे में

किन्तु आज ऐसा होता नही

जबकि हम घिरे हुए हैं चुम्बकों से

और करते हैं एक दम उल्टा

चुम्बक के सिद्धांत के विरुद्ध व्यावहार

हम खोजते हैं

अपने जैसे विचारधारा वालों को ......


-नित्यानन्द गायेन


कौन से आंबेडकर

राज्य के सक्रिय समर्थन के साथ निहित स्वार्थों द्वारा ऐसे प्रतीकों को बढ़ावा दिए जाने के पीछे की साजिशें जो भी हों, आंबेडकर द्वारा जिंदगीभर अपने नजरिए को विकसित करते रहने, और किसी विचारधारा विशेष में उलझे बगैर व्याहारिक प्रयोगों पर जोर देने के कारण आंबेडकर को समझना बेहद मुश्किल हो जाता है. युवा आंबेडकर ने जातियों को एक घेरे में बंद वर्गों के रूप में देखा, जिस घेरेबंदी को अंतर्विवाह और बहिर्विवाह की व्यवस्था के जरिए कायम रखा जाता है. उन्होंने उम्मीद की कि व्यापक हिंदू समाज जागेगा और अंतर्जातीय विवाह जैसे सामाजिक सुधारों को अपनाएगा ताकि जातियों को वर्गों के रूप में खोला जा सके. उनकी यह राय यकीनन ही महाड के बाद के आंबेडकर के उलट है, जिनका सवर्ण हिंदुओं की उन्माद से भरी प्रतिक्रिया के कारण मोहभंग हो गया था और अब उन्होंने अपने मकसद को पूरा करने के लिए राजनीति का रुख कर लिया था. क्या उनकी इस्लाम धर्म कबूल कर लेने की धमकी दलितों की अलग राजनीतिक पहचान हासिल करने के लिए थी या सवर्ण हिंदुओं को सामाजिक सुधारों के बारे में विचार करने पर मजबूर करने के लिए थी? 1930 के दशक के आंबेडकर एक जातिविहीन मजदूर वर्गों के दायरे में जगह बनाने को उत्सुक दिखते हैं, जिन्होंने इंडियन लेबर पार्टी की स्थापना की. यह तर्कसंगत रूप से भारत की पहली वामपंथी पार्टी थी. तब वे कम्युनिस्टों के साथ भी कुछ दूर तक गए लेकिन तभी उन्होंने जातियों से पीछा छुड़ाने के लिए किसी दूसरे धर्म को अपनाने का एलान भी किया. 1940 के दशक के आंबेडकर, जो जातियों की तरफ फिर से लौटे, आईएलपी को भंग किया और शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की. उन्होंने विरोध करने की राजनीति को छोड़ा और श्रम मंत्री के रूप में औपनिवेशिक सरकार में शामिल हुए. या वे आंबेडकर जिन्होंने स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज लिखी, जिसमें आजाद भारत के प्रस्तावित संविधान में एक स्थायी बुनियादी चरित्र के रूप में राजकीय समाजवाद की हिमायत की गई. कांग्रेस के सख्त विरोधी आंबेडकर या वे आंबेडकर जिन्होंने सर्वदलीय सरकार में शामिल होते हुए कांग्रेस के साथ सहयोग किया और संविधान सभा में शामिल होने के लिए जिनका समर्थन हासिल किया. वे आंबेडकर जिन्होंने प्रतिनिधित्व के तर्क को विकसित किया जो आखिरकार आरक्षण के रूप में सामने आया, जिन्होंने उम्मीद की थी कि दलितों के बीच के कुछ आगे बढ़े हुए तत्व पूरे समुदाय की तरक्की में मदद करेंगे या फिर वे आंबेडकर जिन्होंने इस पर सार्वजनिक रूप से अफसोस जाहिर किया कि उन्हें पढ़े लिखे दलितों ने धोखा दिया है. वे आंबेडकर जिन्होंने संविधान की रचना की और दलितों को सलाह दी कि अपनी समस्याओं के समाधान के लिए सिर्फ संवैधानिक पद्धतियों को ही अपनाएं या वे आंबेडकर जिन्होंने संभवत: सबसे कड़े शब्दों में इस संविधान को नकार दिया और कहा कि इसे जलाने वाले वे पहले इंसान होंगे. वे आंबेडकर जो एक तरह से अपने फैसलों की कसौटी के रूप में बार बार मार्क्स का जिक्र करते हैं या वे आंबेडकर जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और, आंबेडकर के विशेषज्ञों में से एक एलियानॉर जेलियट के शब्दों में कहें तो, भारत में कम्युनिज्म के खिलाफ एक किलेबंदी खड़ी कर दी, या वे आंबेडकर जिन्होंने दुनिया को अलविदा कहने के कुछ ही दिन पहले बुद्ध और मार्क्स की सराहना के लहजे में तुलना करते हुए कहा कि इनका मकसद तो एक ही था, लेकिन उसे हासिल करने के तरीके अलग थे. उनके मुताबिक इसमें बुद्ध का रास्ता मार्क्स से बेहतर था. ये महज कुछ ऐसी मिसालें हैं, जो आंबेडकर को एकतरफा तरीके से पेश करने को चुनौती देती हैं. अगर कोई थोड़ी और गहराई में जाए उसका सामना कुछ और भी गंभीर समस्याओं से होगा.



हमें आंबेडकर की जरूरत है, लेकिन किस आंबेडकर की?

Posted by Reyaz-ul-haque on 4/02/2014 07:47:00 PM


बाबासाहेब आंबेडकर की क्रांतिकारी रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट पर अरुंधति रॉय द्वारा लिखी गई हालिया प्रस्तावना द डॉक्टर एंड द सेंट के बारे में छिड़े विवाद पर यह सबसे तर्कसंगत, सटीक और रचनात्मक हस्तक्षेप है, जिसमें आनंद तेलतुंबड़े ने न सिर्फ जातियों के खात्मे के सवाल को केंद्र में रखते हुए पूरे विवाद का विश्लेषण किया है, बल्कि उन्होंने आंबेडकर को एकांगी और सरलीकृत प्रतीक के रूप में पेश किए जाने की राजनीति और इसके खतरों को भी सामने रखा था. अनुवाद: रेयाज उल हक


आउटलुक (10 मार्च 2014) में छपे अपने एक साक्षात्कार में अरुंधति रॉय ने कहा, 'हमें अंबेडकर की जरूरत है-अभी और तुरंत'. यह बात उन्होंने नई दिल्ली के एक प्रकाशक नवयाना से आंबेडकर की रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट के एक नए, व्याख्यात्मक टिप्पणियों वाले संस्करण के प्रकाशन के सिलसिले में कही. अरुंधति ने 'द डॉक्टर एंड द सेंट' के नाम से एक 164 पन्नों का निबंध इस किताब की प्रस्तावना के रूप में लिखा है. इस तरह करीब 100 पन्नों की मूल रचना अब प्रस्तावना और टिप्पणियों समेत 415 पन्नों की मोटी किताब के रूप में हमारे सामने है.

एक अनुचित विवाद

अरुंधति की प्रस्तावना ने दलित हलकों में एक अनुचित विवाद पैदा किया है. इसने 1970 के दशक में शुरुआती दलित साहित्य के दौर में चली बहस की याद दिला दी, कि कौन दलित साहित्य लिख सकता है. दलितों के पक्ष में दलील देनेवालों का जोर इसपर था कि दलित साहित्य लिखने के लिए जन्म से दलित होना जरूरी है. मौजूदा विवाद में भी पहचान को लेकर ऐसी ही सनक की झलक दिखी है, कि आंबेडकर या उनकी किसी रचना की प्रस्तावना लिखने के लिए या उनसे परिचित कराने के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र पेश करना जरूरी है. हालांकि यह बात उलझन में डालने वाली है कि जब अनगिनत गैर दलित पहले ही आंबेडकर और उनके लेखन पर लिख चुके हैं, ऐसा विवाद सिर्फ अरुंधति के मामले में ही क्यों पैदा हुआ? क्या यह उनकी नामी-गिरामी हैसियत की वजह से है या मध्य वर्गीय दलितों की नजर में उनके माओवादी समर्थक होने की बदनामी की वजह से? इस दूसरी बात की गुंजाइश ज्यादा है, और यह उनकी प्रतिक्रिया की मूल वजह हो सकती है. क्योंकि उनके लिए कम्युनिज्म से दूर दूर से भी किसी चीज का जुड़ा होना उससे दूर भागने और उसे खारिज कर देने के लिए काफी है.


इस शोरगुल की जो भी वजह हो, यकीनन यह अनुचित था. सोशल मीडिया पर घटिया फिकरों की बाढ़ को नजरअंदाज कर दें तो इस रचना को लेकर तर्कसंगत स्तर की जो मुख्य आपत्तियां रहीं उनमें ये थीं कि उन्होंने आंबेडकर से परिचय कराने में गांधी को अनुचित रूप से ज्यादा जगह दी है. या यह कहा गया कि क्या इस काम के लायक काबिलियत उनमें थी. या फिर यह कि उनकी प्रस्तावना किताब में शामिल मूल रचना की प्रस्तावना नहीं है. अगर कोई इन नजरियों को जायज मान भी ले तो यह मानना मुश्किल है कि उनको ऐसी शिद्दत के साथ और खारिज कर देने के लहजे में जाहिर करना जरूरी था. वास्तविकता ये है कि अरुंधति के भीतर के रचनात्मक लेखक ने पारंपरिक अर्थों में मूल रचना को नहीं बल्कि मूल पाठ पर गांधी की पत्रिका हरिजन में छपी गांधी की प्रतिक्रिया के संदर्भ में आंबेडकर और गांधी के बीच विवाद को चुना. उन्होंने सोचा कि नीरस, मशीनी तरीके से विषय को उठाने के बजाए अगर वे आंबेडकर और गांधी के बीच विरोधाभास की मदद लेंगी तो वे जातियों की समस्या को कहीं ज्यादा कारगर तरीके से पेश कर पाएंगी क्योंकि गांधी उदार हिंदू समाज का बेहतर प्रतिनिधित्व करते हैं. जहां तक काबिलियत का सवाल है, हालांकि अरुंधति जिस विषय के बारे में लिख रही थीं, उसे समझने के लिए काफी मेहनत की है, लेकिन उनके लेख में उनकी शैली की मांग के मुताबिक, आमफहम समझदारी से परे जाकर किसी विशेषज्ञता की तड़क-भड़क नहीं दिखी है. और शायद इसीलिए, उनका निबंध आम लोगों को ज्यादा आकर्षित करेगा बजाए तथाकथित बुद्धिजीवियों के.


हालांकि यह अजीब विरोधाभास है कि सबसे दिलचस्प दलील दलितों की तरफ से नहीं बल्कि एक ऊंची जाति के पत्रकार की तरफ से लाइव मिंट के 18 मार्च 2014 अंक में आई ('बीआर आंबेडकर, अरुंधति रॉय एंड द पॉलिटिक्स ऑफ एप्रोप्रिएशन', जी संपत) जिसमें अरुंधति को यह चुनौती दी गई कि अगर वे नियमगिरी पहाड़ियों के नीचे मौजूद बॉक्साइट को आदिवासियों के पास छोड़ देने की मांग करती हैं, तो क्यों नहीं उन्हें आंबेडकर को दलितों के लिए छोड़ देना चाहिए, जो दलितों की अकेली संपत्ति हैं. यह दलील दिलचस्प भले ही हो, इसको लागू किया जाना खतरनाक है क्योंकि जातियों के आधार पर 'अन्य' बता दिए गए लोगों की किसी भी भागीदारी या संवाद को अनुचित बता कर खारिज किया जा सकता है. आंबेडकर दलितों सांस्कृतिक हितों के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन तब भी सिर्फ दलितों के लिए उनकी घेरेबंदी कर दिए जाने का मतलब उनकी तौहीन करना और दलितों के हितों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाना होगा. नियमगिरी को आदिवासियों के लिए छोड़ दिया जाना विकास की प्रचलित अवधारणा को एक प्रगतिशील चुनौती है, जबकि आंबेडकर को सिर्फ दलितों तक सीमित कर देना का मतलब होगा कि यह बाबासाहेब आंबेडकर के जातियों के खात्मे के मकसद को पीछे की ओर खींचते हुए उसे बुरी तरह नुकसान पहुंचाएगा.

आंबेडकर: वास्तविक और अवास्तविक

हैरानी की बात यह है कि पूरी बहस ने मुख्य मुद्दे को पीछे धकेल दिया है, वो यह है कि अरुंधति से किताब की प्रस्तावना लिखवाने के पीछे बुनियादी वजह प्रकाशक का कारोबारी हिसाब-किताब था. एक बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका होने के रुतबे के कारण, जिसमें बाद में विभिन्न मौकों पर विभिन्न मुद्दों पर जनता की हिमायत में निडरता से खड़े होने से और भी बढ़ोतरी हुई है, किताब को मशहूरियत मिलनी ही थी. इससे भी आगे बढ़कर, यह कल्पना भी की जा सकती थी कि उनके लेखन से विवाद भी जरूर पैदा होगा जैसा कि सचमुच हुआ भी. किसी भी प्रकाशक के लिए यह किताब की बिक्री के लिहाज से मुंहमांगी मुराद है. भले ही नवयाना ने सचेत रूप से इसके बारे में सोचा हो या नहीं, लेकिन कोई व्यक्ति एक प्रकाशक की उत्पाद संबंधी स्थापित रणनीतियों के बारे में कोई शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि जो भी हो उसे इस कारोबार के तौर तरीकों पर ही चलना होता है. खुद को 'जाति विरोधी' बताने के बावजूद नवयाना में इधर गिरावट के रुझान भी दिखे हैं. आंबेडकर को लेकर बेहद प्रशंसा और भक्तिभाव से भरा साहित्य प्रकाशित करना और जातियों के उन्मूलन को समर्थन देना एक ही बात नहीं है. कुछ लोगों द्वारा शुरू किया गया यह विवाद एक बार ठंडा पड़ जाए तो दलितों की व्यापक बहुसंख्या इस पर गर्व करेगी कि अरुंधति रॉय तक उनके देवता की पूजा में शामिल हो गई हैं. आंबेडकर के प्रति ऐसा भक्तिभाव असल में जातीय पहचान को मजबूत करता आया है और जातियों के खात्मे की परियोजना को और भी दूर धकेलता आया है.


आंबेडकर की स्वीकार्यता बढ़ रही है तो इससे लाजिमी तौर पर यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि जाति-विरोधी सदाचार भी बढ़ रहा है. आज आंबेडकर आम स्वीकार्यता के मामले में किसी भी दूसरे नेता से यकीनन कहीं आगे निकल गए हैं. कोई भी दूसरा नेता प्रतिमाओं, तस्वीरों, सभाओं, किताबों, शोध, संगठनों, गीतों या लोकप्रियता की दूसरी सभी निशानियों के मामले में आंबेडकर का मुकाबला नहीं कर सकता. दिलचस्प बात यह है कि फिल्मों और टीवी धारावाहिकों तक में उनकी तस्वीर स्थायी जगह पाने लगी है. हालांकि जातीय भेदभाव, जातीय उत्पीड़न, जातीय संगठनों और जातीय विमर्श आदि से जो बात साफ होती है, ये है कि आंबेडकर की स्वीकार्यता के समांतर जातिवाद का हमला भी बढ़ता गया है. इस अजीब रूप से विरोधाभासी परिघटना को केवल तभी समझा जा सकता है, जब वास्तविक आंबेडकर को अवास्तविक आंबेडकर से जुदा किया जाए. उस अवास्तविक आंबेडकर को, जिसे निहित स्वार्थों ने प्रतीकों में बदल दिया है, ताकि दलित जनता में पैदा होने वाली क्रांतिकारी बदलाव की चेतना को कुंद किया जा सके. ये प्रतीक वास्तविक और गूढ़ आंबेडकर को एक सरलीकृत प्रतीक में बदल देते हैं: संविधान का निर्माता, महान राष्ट्रवादी, आरक्षण का जन्मदाता, एक कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी, एक उदारवादी जनवादी, संसदीय व्यवस्था का एक महान हिमायती, दलितों का मसीहा, एक बोधिसत्व आदि. एक हानिरहित, यथास्थितिवादी आंबेडकर के ये प्रतीक हर जगह छा गए हैं और इन्होंने वास्तविक आंबेडकर को क्रांतिकारी तरीके से देखने की संभावनाओं की राह में रुकावट खड़ी कर दी है.

कौन से आंबेडकर

राज्य के सक्रिय समर्थन के साथ निहित स्वार्थों द्वारा ऐसे प्रतीकों को बढ़ावा दिए जाने के पीछे की साजिशें जो भी हों, आंबेडकर द्वारा जिंदगीभर अपने नजरिए को विकसित करते रहने, और किसी विचारधारा विशेष में उलझे बगैर व्याहारिक प्रयोगों पर जोर देने के कारण आंबेडकर को समझना बेहद मुश्किल हो जाता है. युवा आंबेडकर ने जातियों को एक घेरे में बंद वर्गों के रूप में देखा, जिस घेरेबंदी को अंतर्विवाह और बहिर्विवाह की व्यवस्था के जरिए कायम रखा जाता है. उन्होंने उम्मीद की कि व्यापक हिंदू समाज जागेगा और अंतर्जातीय विवाह जैसे सामाजिक सुधारों को अपनाएगा ताकि जातियों को वर्गों के रूप में खोला जा सके. उनकी यह राय यकीनन ही महाड के बाद के आंबेडकर के उलट है, जिनका सवर्ण हिंदुओं की उन्माद से भरी प्रतिक्रिया के कारण मोहभंग हो गया था और अब उन्होंने अपने मकसद को पूरा करने के लिए राजनीति का रुख कर लिया था. क्या उनकी इस्लाम धर्म कबूल कर लेने की धमकी दलितों की अलग राजनीतिक पहचान हासिल करने के लिए थी या सवर्ण हिंदुओं को सामाजिक सुधारों के बारे में विचार करने पर मजबूर करने के लिए थी? 1930 के दशक के आंबेडकर एक जातिविहीन मजदूर वर्गों के दायरे में जगह बनाने को उत्सुक दिखते हैं, जिन्होंने इंडियन लेबर पार्टी की स्थापना की. यह तर्कसंगत रूप से भारत की पहली वामपंथी पार्टी थी. तब वे कम्युनिस्टों के साथ भी कुछ दूर तक गए लेकिन तभी उन्होंने जातियों से पीछा छुड़ाने के लिए किसी दूसरे धर्म को अपनाने का एलान भी किया. 1940 के दशक के आंबेडकर, जो जातियों की तरफ फिर से लौटे, आईएलपी को भंग किया और शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की. उन्होंने विरोध करने की राजनीति को छोड़ा और श्रम मंत्री के रूप में औपनिवेशिक सरकार में शामिल हुए. या वे आंबेडकर जिन्होंने स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज लिखी, जिसमें आजाद भारत के प्रस्तावित संविधान में एक स्थायी बुनियादी चरित्र के रूप में राजकीय समाजवाद की हिमायत की गई. कांग्रेस के सख्त विरोधी आंबेडकर या वे आंबेडकर जिन्होंने सर्वदलीय सरकार में शामिल होते हुए कांग्रेस के साथ सहयोग किया और संविधान सभा में शामिल होने के लिए जिनका समर्थन हासिल किया. वे आंबेडकर जिन्होंने प्रतिनिधित्व के तर्क को विकसित किया जो आखिरकार आरक्षण के रूप में सामने आया, जिन्होंने उम्मीद की थी कि दलितों के बीच के कुछ आगे बढ़े हुए तत्व पूरे समुदाय की तरक्की में मदद करेंगे या फिर वे आंबेडकर जिन्होंने इस पर सार्वजनिक रूप से अफसोस जाहिर किया कि उन्हें पढ़े लिखे दलितों ने धोखा दिया है. वे आंबेडकर जिन्होंने संविधान की रचना की और दलितों को सलाह दी कि अपनी समस्याओं के समाधान के लिए सिर्फ संवैधानिक पद्धतियों को ही अपनाएं या वे आंबेडकर जिन्होंने संभवत: सबसे कड़े शब्दों में इस संविधान को नकार दिया और कहा कि इसे जलाने वाले वे पहले इंसान होंगे. वे आंबेडकर जो एक तरह से अपने फैसलों की कसौटी के रूप में बार बार मार्क्स का जिक्र करते हैं या वे आंबेडकर जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और, आंबेडकर के विशेषज्ञों में से एक एलियानॉर जेलियट के शब्दों में कहें तो, भारत में कम्युनिज्म के खिलाफ एक किलेबंदी खड़ी कर दी, या वे आंबेडकर जिन्होंने दुनिया को अलविदा कहने के कुछ ही दिन पहले बुद्ध और मार्क्स की सराहना के लहजे में तुलना करते हुए कहा कि इनका मकसद तो एक ही था, लेकिन उसे हासिल करने के तरीके अलग थे. उनके मुताबिक इसमें बुद्ध का रास्ता मार्क्स से बेहतर था. ये महज कुछ ऐसी मिसालें हैं, जो आंबेडकर को एकतरफा तरीके से पेश करने को चुनौती देती हैं. अगर कोई थोड़ी और गहराई में जाए उसका सामना कुछ और भी गंभीर समस्याओं से होगा.


इस धरती पर जब तक जाति का वायरस मंडराता रहेगा, आंबेडकर की जरूरत यकीनी तौर पर बनी रहेगी. लेकिन यह आंबेडकर उस पुराने आंबेडकर का फिर से अवतार भर नहीं होंगे, जिनकी ज्यादातर दलित भावुकता के साथ कल्पना करते हैं. वैसे भी नहीं जैसे अरुंधति उन्हें अभी और तुरंत बुलाना चाहेंगी. आंबेडकर को यकीनन ही तब की तुलना में आज के समाज में जातियों की कहीं अधिक जटिल और बिखरी हुई समस्या का सामना करने के लिए फिर से गढ़ा जाना जरूरी होगा.


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