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Monday, December 29, 2014

मुक्त बाजार में हम बाराती,बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना पलाश विश्वास

मुक्त बाजार में हम बाराती,बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना
पलाश विश्वास
Disclaimer on the eve of New Year!
For whoever concerned!


What ever I share,Every link is what my stand is about.It is for open debate.

Just take care to see the links at least just before rejecting.

I expect you all to be as much as concerned I am and most committed individuals and groups and I share my concern posting these links which happen to be mostly my own write ups which is,of course,my stand ,too.

You have every right for rejection any link whatsoever.
Better you may opt to ban me if you chose.
I would not complain.
I am not a blooddy spammer.
It would be better ,who do not like my links,may please defriend.

I never defriend anyone and believe befriending everyone as I am trying my best to link the people irrespective of their identity and opinion.

It has never been a new year event for us but whoever celebrates the new year,most happy year and many many returns,I wish.
Thanks!

अजीब हमारा लोक है और गजब हमारे लोक मुहावरे।

अब्दुल्ला कोई माहीवाल,रांझा,मजनूं,फरहाद नहीं है,लेकिन दीवाना मशहूर हो गया।

अब्दुल्ला का जिक्र अलीबाबा चालीस चोर की अरब कथा के सिलिसिले में जरुर होता है,लेकिन वहां उसकी दीवानगी का कोई सबूत मिलता नहीं है।बहरहाल अलीबाबा अब एशिया का सबसे संपन्न ब्रांड है और भारत दखल को निकला है।

कमसकम हमें तो अब्दुल्ला के दीवाना होने का सबूत मिला नहीं है।

सेकुलर देश का मुहावरा भी सेकुलर है और आम आदमी का यह प्रतीक लेकिन मुसलमान है।

शत प्रतिशत हिंदू देश होने पर शायद यह मुहावरा भी बदल दिया जायेगा जैसे इतिहास भूगोल बदला जा रहा है।

बहरहाल बेमतलब जश्न के खिलाफ चेतावनी बतर्ज अब्दुल्ला अब भी दीवाना बना हुआ है जो शायद इस कयामत समय में भी बहुतै दीवाना है।

मसलन अपने सोदपुर पानीहाटी मेले में रविवार की रात कविता कृष्णमूर्ति की धूम रही।तृणमूल कांग्रेस ने चालीस साल बाद नगरपालिका पर कब्जा किया है।

नागरिक सुविधाओं का आलम यह है कि लोगों को पानी पीना पड़ता है नकद भुगतान के बदले।जलनिकासी होती नहीं है।

बार बार मौसम बदलने के साथ रास्तों की नये सिरे से मरम्मत क्यों  हो रही है,यह जरुर पहेली है।तमाम सड़कें खुदी पड़ी रहती हैं कि जलापूर्ति के लिए पाइप लाइनें बिछायी जा रही हैं,लेकिन हाल यह है कि पेयजल मयस्सर नहीं है।

तमाम तालाब पोखर और पुश्तैनी मकान अब बहुमंजिली आवासीय परिसर हैं ।

या फिर शामिंग माल हैं या मार्केट हैं।

एजुकेशनल हेल्थ हब हैं।

बीटीरोड के दोनों तरफ के तमाम कल कारखाने बंद हैं लेकिन मजदूर बस्तियां जो जस की तस रही हैं,तेजी से बेदखल होती जा रही हैं।

वहां कारों के शो रूम,ढाबे,रेस्त्रां बार वगैरह वगैरह हैं।

मंजर क्या है समझ लीजिये कि अरसे बाद मछली बाजार गया तो दाम थोड़ा ज्यादा लगा तो एक युवा मछली कारोबारी से पूछ ही लिया मछलियां इतनी महंगी क्यों है।

उसने जो कहा हैरतअंगेज हैं।

बोला वह,मछलीवाले सारे दम तोड़ रहे हैं।इसलिए मछलियां महंगी हैं।

चाचा,आप तो इस बाजार में सबको पहिचानते हैं।

नजऱ उठाकर देख लीजिये कि आपके जानने पहचानने वाले हम मछलीवाले किधर मर खप गये।

मैंने पूछा कि तुम इस तरह बात कर रहे हो,पढ़ लिख गये हो क्या?

बोला आधा तीतर आधा बटेर हूं।अधपड़ रह गया।बीच में छोड़ दिया।

मैंने पूछा,क्यों?

उसने कहा कि पढ़ लिख जाता तो मछली बेचने की हैसियत लेकर जी नहीं पाता और नौकरी तो मिलती नहीं।

फिर आस पास के मछलीवाले भी बर्र के छत्ते में पत्थर मारने के बाद जो होता है,उसी तरह बोलने लगे।

उन्होंने कहा कि हमें बेदखल करने की पूरी तैयारी है साब।

मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि मछली बाजार सब्जी बाजार सब उखाड़े जाने हैं।यहां माल का नक्शा तैयार है।

शापिंग माल में अब मिलेंगी मछलियां और सब्जियां भी।

किसी ने कहा,उनतीस मंजिली इमारत होगी और उसमें बाजार सजेंगे।लेकिन हम न होंगे। हममें से कितने होगे,किसी को नहीं मालूम।

मुझे मालूम है कि वे जो कह रहे हैं,सच कह रहे हैं।

सोदपुर में सब्जियों का जो हाट है,वहां सीमावर्ती इलाकों से भी किसान मछलियां सब्जियां लेकर पहुंचते हैं।तमाम मेहनतकश औरतें आती हैं घरबार संभालकर घर परिवार के लिए आक्सीजन बटोरने।

जबकि माहौल अब भोपाल गैस त्रासदी है।

फिर भी सर छुपाने की जगह है नहीं है और सारा जहां हमारा है।

भोपाल गैस त्रासदी अब सिर्फ औद्योगिक दुर्घटना नहीं है ,मुक्त बाजार में उसका बहुआयामी विस्तार हुआ है।

रेडियोएक्टिव परमाणु ऊर्जा के लिए जनपदों में परमाणुघरों का जाल बिछाया जा रहा है तो ऊर्जा प्रदेशों के लिए गांवों और घाटियों को डूब में शामिल कराया जा रहा है।

छत्तीसगढ़ में नई राजधानी के लिए पुखरौती के पास जो सैकड़ों गांव आदिवासियों के उखाड़े गये हैं,वैसा ही नजारा राजधानी दिल्ली, नये कोलकाता, चेन्नई, नवी मुंबई, कोयंबटूर, अहमदाबाद, गुवाहाटी, भुवनेश्वर,नागपुर, बंगलुर,हैदराबाद से लेकर कच्छ के रण,हिमालय के पर्यटन केंद्रों,धर्मस्थलों,चारों धामों,देश के तमाम तीर्थस्थलों,छोटे बड़े नगरों से लेकर अपने बसंतीपुर की दसों दिशाओं में तेजी से पांव पसार रहे सीमेंट के जंगल में देखता रहा हूं।

मिथाइलआइसोसाइनाइट (मिक) नामक जहरीली गैस बह रही है हवाओं में, पानियों में और स्त्री पुरुष बच्चे बेमौत बेआवाज मर रहे हैं,चारों तरफ लाशों की सड़ांध हैं और इंद्रियों से बदखल हमें कोई अहसास तक नहीं है।

हम फिर वही बेदखल कौम के बेवाज हिंदुस्तानियों के बीच मुक्त बाजार के सांढ़ों नाल मौज कर रहे हैं।बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना का जैसा हाल हो सकता है,वही यह कार्निवाल है।

इसी शत प्रतिशत हिंदुओं के भारत के मध्य प्रदेश राज्य के भोपाल शहर मे 3 दिसम्बर सन् 1984 को एक भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई। इसे भोपाल गैस कांड, या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है।

भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड नामक कंपनी के कारखाने से एक ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ जिससे लगभग 15000 से अधिक लोगो की जान गई तथा बहुत सारे लोग अनेक तरह की शारीरिक अपंगता से लेकर अंधेपन के भी शिकार हुए।

भोपाल गैस काण्ड में मिथाइलआइसोसाइनाइट (मिक) नामक जहरीली गैस का रिसाव हुआ था। जिसका उपयोग कीटनाशक बनाने के लिए किया जाता था।

कहा जाता है कि ऐसे खतरनाक जहरीले रसायनों के उत्पादन पर अमेरिका और पश्चिम में रोक है जहां शून्य प्रतिशत प्रदूषण की रियायत है और इसीलिए यूनियन कार्बाइड और डाउ जैसी कंपनियों के लिए वहां कारखाना लगाना और चलाना मुश्किल है।फिर औद्योगिक दुर्घटनाओं की जिम्मेदारी और मुआवजों की रकम इन कंपनियों के लिए पश्चिम में मौत की घंटी है।

इसके विपरीत जहर पैदा करने वाली बहुरष्ट्रीय कंपनियों को भारत में पूरी छूट है।हमारे यहां कैमिकल हब बनाये जा रहे हैं।

नंदीग्राम में ऐसा ही कैमिकल हब बनाया जाना था।

यूनियन कार्बाइड अब डाउ है जो लंदन ओलंपिक का प्रायोजक रही है।

कार्बाइड का जहरीला मलबा अब भोपाल का वजूद है जो पूरे भरत में फैलता जा रहा है।

यूनियन कार्बाइड के एंडरसन को भारत की सरकारें बचाती रही हैं और उनकी अब तो अमेरिका में सकुशल मौत हो गयी।उनकी आत्मा को शांति मिलेगी कि शत प्रतिशत हिंदुत्व के एजंडे वाली हिंदुत्व की संघ सरकार ने अमेरिकी राष्ट्रपति बाराक ओबामा के भारत आने से पहले तमाम विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को परमाणु औद्योगिक दुर्घटनाओं के उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया है।

भोपाल के गैसपीड़ितों को अभी मुआवजा नहीं मिल पाया है जैसे विकास के नाम पर चलने वाली परियोजनाओं के विस्थापितों का कहीं पुनर्वास हो नहीं पाया है,जैसे नये भूमि सुधार कानून,नये खनन अधिनियम के तहत मुआवजा और रोजगार के प्रावधान खत्म हो रहे हैं।

हालांकि  अकेले भोपाल गैस त्रासदी में मरने वालों के अनुमान पर विभिन्न स्त्रोतों की अपनी-अपनी राय होने से इसमें भिन्नता मिलती है। फिर भी पहले अधिकारिक तौर पर मरने वालों की संख्या 2,259 थी।
मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकार ने 3,787 की गैस से मरने वालों के रुप में पुष्टि की थी। अन्य अनुमान बताते हैं कि ८००० लोगों की मौत तो दो सप्ताहों के अंदर हो गई थी और लगभग अन्य 8000 लोग तो रिसी हुई गैस से फैली संबंधित बीमारियों से मारे गये थे। २००६ में सरकार द्वारा दाखिल एक शपथ पत्र में माना गया था कि रिसाव से करीब 558,125सीधे तौर पर प्रभावित हुए और आंशिक तौर पर प्रभावित होने की संख्या लगभग 38,478 थी। ३९०० तो बुरी तरह प्रभावित हुए एवं पूरी तरह अपंगता के शिकार हो गये।
देश भर में अब जो कीड़े मकोड़े के रुप में भारतीय नागरिक मर रहे हैं और विदेशी पूंजी के हित में हर तरह के कानून बना बिगाड़कर थोक मृत्यु उत्सव की मृत्यु उपत्यका की विकास परियोजना है,विकास गाथा है,वहां से अबाध पूंजी की तरह भोपाल वाली गैस मिथाइलआइसोसाइनाइट (मिक) और दूसरी दीगर गैस जो अबाध निंतर बह रही है,वह हमारी नाक के दायरे से बाहर है।
बेदखल हो रहे लोग लेकिन जान रहे हैं ,जैसे सोदपुर के सब्जीवाले और मछलीवाले जान रहे हैं कि उनके साथ क्या सलूक होने वाला है।

वे रो भी रहे हैं।चिल्ला भी रहे हैं।चीख रहे हैं वे।लेकिन राम के नाम का शोर इतना तेज है,रामलीला के अलावा कहीं कुछ दीख ही नहीं रहा है।

सारा भारत मूक है।आवाजें गुम हो रही हैं।सुनवाई के लिए कहीं कोई कान नहीं है।

मकान कहीं कोई नहीं है दोस्तों, हर कहीं अब दुकान ही दुकान है।

शिक्षा दुकान।दीक्षा दुकान।धर्म दुकान।राजनीति दुकान। चिकित्सा दुकान।समाज दुकान।व्यवस्था दुकान।सरकार दुकान।घर परिवार दुकान।रिश्ते नाते दुकान।

साहित्य संस्कृति सभ्यता लोक और मातृभाषा तक दुकानें।

इन दुकानों में कारोबार है।मनुष्यता लेकिन कहीं नहीं है।


2007- 2008 में अपने मोहल्ले में सात लाख के बदले मुझे तीन कमरे का फ्लैट मिल रहा था और हम सोदपुर में बस जाने का मंसूबा बांध रहे थे।

पीएफ और बैंक लोन के सहारे हम घर सजाने का ख्वाब भी देखने लगे थे। लेकिन प्रोमोटर ने कह दिया कि एक लाख बिना हिसाब यानी कालाधन चाहिए।

हमारे पास कालाधन नहीं था।

हमने सफेद में ही आठ लाख का बंदोबस्त कर देने का वायदा किया लेकिन प्रोमोटर बाबू पसीजे नहीं।

हमारे मोहल्ले में अब भी बारासात रोड के हिंदी भाषी मजदूरों की बची खुची बस्ती है।जिससे सविता की खूब बतकही होती रहती है और वे लोग मुझे भी जानते हैं और बिना नाम की परवाह किये वे तमाम लोग मुझे हिंदी भाषी कहते समझते हैं।

सोदपुर के अनेक बांग्लाभाषी वाशिंदो के नजरिये से हम हिंदुस्तानी हैं,बंगाली नहीं हैं।

इन्हीं हिदी भाषी मजदूर बस्तियों को उखाड़कर तेजी से फ्लैट अपने मोहल्ले में भी बन रहे हैं।

सड़क पार भद्र मोहल्लों में फ्लैट के भाव पचास लाख पार है तो इस पार पैंतीस लाख।

अब हम सपने में भी सोदपुर में अपना घर नहीं बना सकते हैं।

सोदपुर मे डेढ़ सौ शरणार्थी कालोनियां हैं और इनके नेता डा.संपत घोष अब भी अपने चैंबर में रोज मरीज देखते हुए करीब नब्वे साल की उम्र में नागरिक मानवाधिकारों की बंगालभर में सबसे बुलंद आवाज है।

ये कालोनियां अभी भी पंजीकृत नहीं हो पायी हैं और बांगाल(पूर्वी बंगाल मूल के)





सोदपुर के अनेक लोग केसरिया परिभाषा के मुताबिक बेनागरिक हैं और उनकी बस्तियां भी तेजी से बिल्डर प्रोमोटर राज में तब्दील हैं ।

उनके लिए सबसे बेहतर स्थिति है कि उनके बच्चे इन्हीं प्रोमोटरों बिल्डरों के कारिंदे बन जायें और अपने मकान के एवज में किसी बहुमंजिली मकान में रहने के लिए एक अदद फ्लैट या रोजी रोटी के लिए एक अदद दुकान उन्हें मिल जाये।

अब शापिंग माल सोदपुर में सबसे ज्यादा हैं,जहां पहले कल कारखाने हुआ करते थे,वहां तमाम बहुमंजिसली आवासीय परिसर हैं या फिर शापिंग माल या कांप्लेक्स और कोलकता जैसे यही ठहर कर यक ब यक संपन्न हो गया है।

खरीददारी मे तो सारे उपनगरों में सोदपुर सबसे आगे हैं और नौकरीपेशा फ्लैटवालों की महिमा से बाजार के भाव भी सोदपुर में सबसे तेज है।

पानीहाटी नगरपालिका में चैतन्य महाप्रभु, महात्मा गांधी और रवींद्र नाथ टैगोर की स्मृतियां भी हैं।

फुटबाल के अच्छे खिलाड़ी भी पानीहाटी सोदपुर के गर्व हैं,सुब्रत पाल से लेकर आईसीएल फाइनल जिताने वाले मुसलमान खिलाड़ी भी सोदपुर के ही हैं।

बाकी सोदपुर हाईस्कूल 1857 से पहले बना है।

यहां मुक्त बाजार का तांडव समझने के लिए सबसे अनुकूल माहौल है।

सत्तादल में कलाकार अनेक हैं।

जाहिर है कि सत्ता दल के कब्जे में पानीहाटी मेले में स्थानीय कलाकारों को इस बार कोई मौका नहीं है।

ममता दीदी और गिरफ्तार मदन मित्र  को छोड़कर सारे मंत्री संत्री यहां काफिला समेत पधार चुके हैं और रोज रोज बालीवूड टालीवूड का धमाका है।

देर रात तक नाच गाना तो रिहाइशी इलाकों में बार रेस्त्रां की नई फसल रोजगार छिनने के साथ उगते रहने से दस्तूर बन चुका है लेकिन पानीहाटी मेले में मुक्त बाजार का उत्सव है।

और बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना है।

इस मुहावरे में शादी भी एक खास लफ्ज है।

बंगाल में इन दिनों जात पांत शादी व्याह में कमसकम है नहीं और न दहेज उत्पीड़न है तो विधर्मियों के साथ शादी तो आम है।

पढ़े लिखे दलित स्त्री पुरुष तो या ब्राह्मणों की गृहवधू हैं या फिर घर जमाई।यह सारा करिश्मा वाम शासन का है।

अब शादी रजिस्टर्ड कराने का भी रिवाज चल निकला है और प्रेम विवाह हो या नहीं,लोग रजिस्टर्ड कर रहे हैं विवाह।लेकिन सामाजिक अनुष्ठान में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जाती।

बाराती घराती दोनों पक्ष के लिए भोज का खूब इंतजाम होता है जैसे महाभोज का भी।देर रात तक लोग दावतें खाकर घर वापस लौटते रहते हैं और इन दावतों के चलते बेरोजगार पढ़े लिखों का कैटरिंग रोजगार भी चालू आहे।

हमारे गुरुजी जगतविख्यात सहकर्मी जयनारायण कुंवारे हैं।अब्दुल्ला दीवाना तो वे कतई हैं ही नहीं हैं। क्योंकि वे किसी शादी व्याह के मामले से सौ हाथ दूर रहते हैं और शादी व्याह के सख्त खिलाफ हैं।उनकी मानें तो शादी व्याह ही सारे फसाद की जड़ है।सारी समस्यायें शादी से शुरु होती हैं।

किसी के साथ किसी हादसे की खबर होती है और अगर वह स्त्री पुरुष शादी शुदा है तो गुरुजी फौरन साबित कर देंगे कि इसकी वजह शादी है।

कोई स्त्री उन्हें छू न दें ,इसकी हर जुगत लगाते हैं।

उन्हें मित्रों के यहां जाने से डर लगता है कि कोई उन्हें फंसा न दे इस झमेले में।

हमारी किसी समस्या के बारे में मालूम हुआ उन्हें तो फौरन कहेंगे,और कर लो शादी।

पिछले तेईस साल से उनका कहा सुनते सुनते और गृहस्थी के पापड़ बेलते बेलते हम लोग भी कभी कभार मान लेते हैं कि उनसे पहले मुलाकात हो जाती तो हम हर्गिज नहीं करते शादी।

हिंदी पत्रकारिता में आटोमेशन पूरा हो चला है और सारी खबरें,सूचनाएं और मतामत, विमर्श दिल्ली से फीड हैंं बाकी लोगों का पेस्टर पेजमेकर कायाकल्प हो चुका है।

बाहैसियत पत्रकार लेखक हिंदी पत्रकारिता में दिल्ली के बाहर किसी की न पहचान है और न कोई औकात है।हम लोगों की न ब्रांडिंग है और न हमारा बाजार भाव है।

हमने कितनों की ग्रुमिंग की,कितनों के संपादकीय कृतित्व के पीछे हमीं लोग हैं,यह गौण है।हमारी वरिष्ठता तो सुपरसिड कर दिये जाने के निमित्त है।हम लोग निमित्तमात्र हैं।

चूंकि जाति से हम लोग मेहनतकश बंधुआ प्रजाति के हैं,दीगर नस्लवालों को हमारे सर पर हगने मूतने की आजादी है।

ऐसे हैं हिंदी पत्रकारिता के बहुसंख्य लोग।

हम उन महामहिमों की यशोगाथा भी जानते हैं जो प्रशिक्षुस्तर से अपने राजनीतिक संपर्कों की वजह से अब करोड़पति अरबपति जमात में शामिल हैं और अंबानी के सथा कंधे कंधे भिड़ाये हैं।

हमारी पोटली में अभी किस्सों का जखीरा है और अंतिम समय सामने है,हम यह पोटली आहिस्ते आहिस्ते खोलते जायेंगे और इस जन्नत का हकीकत बयां करेंगे।अब हमारा कुछ होना जाना नहीं है।

वेतनमान में भी दिल्ली के मुकाबले बाकी पत्रकार जमात बंधुआ मजदूर हैं।

पदोन्नति ताउम्र मिलनी नहीं है।

रघुकुल रीति भी वही टेली प्रिंटर जमाने की है।

हमें रिपोर्टर इसलिए नहीं बनाया गया क्योंकि हम अंग्रेजी जानते हैं और कामचलाऊ अनुवाद भी कर लेते हैं।डेस्क पर यह काम की चीज है।

बाकी जनता,मसलन जो अंग्रेजी ठीकठाक नहीं जानते और जिनकी भरती किसी न किसी कारणवश अनिवार्यता रही है,उन्हें रिपोर्टिंग में घुसेड़ा जाता रहा है।

बाकी भारतीय भाषाओं में बेहतरीन लिखने वाले लोग ही रिपोर्टर बनाये जाते हैं और अनुवाद के बदले मौलिक सामग्री पर वहां जोर है।

मसलन बांग्ला के अखबारों में।

गौरतलब है कि बांग्ला के महाश्वेता देवी और नवारुण भट्टाचार्य को छोड़कर लगभग हर दिग्गज साहित्यकार किसी न किसी रुप में आनंदबाजार समूह से जुड़े रहे हैं।

उसका कारोबार देख लें और हिंदी अखबारों के जन्नत का हकीकत समझ लें।

हिंदी में जो लिखने वाले संपादक हैं वे बेचारे ज्यादातर उपसंपादक है और हिंदी ब्लागों की बहार भी उन्हीं की देन है।

इंडियन एक्सप्रेस समूह में बड़े संपादकों के अलावा बाकी गैर रिपोर्टर पत्रकारों को छापने का रिवाज नहीं है।हम जागरण और अमर उजाला में लगभग रोजाना लिखते थे।

जनसत्ता में तेइस साल से लिखने का मौका मिला नहीं है।झख मारकर ब्लाग और सोशल मीडिया में अपने वजूद को बहाल रखने की लड़ाई में हम अब्दुल्ला दीवाना हैं।

हमारे गुरुजी भी कुमार भारत अवतार में भारत परिक्रमा कर चुके हैं।लिखते बी रहे हैं खूब।

फिल्मों के मामले वे लगभग एनसाइक्लोपीडिया हैं और पिछले तेइस साल से वे गंगासागर में लाइव हैं।

बेहतरीन लिख सकते हैं।लेकिन वे रिपोर्टर नहीं हैं।संपादकों की कृपा से थोक भाव से स्ट्रिंगर तक रिपोर्टर बना दिये गये हैं लेकिन हमारे गुरुजी नहीं बनाये गये हैं।

हम तो अपनी भड़ास हर संभव भाषा में हर संभव विधा में निकाल ही लेते हैं और यह हमारा सामाजिक क्रिया कर्म भी है।लेकिन गुरुजी तो भीष्म प्रण कर बैठे कि कंप्यूटर नहीं छुयेंगे।

बहरहाल तेइस साल की मेहनत के अंत में  हम उनकी शादी भले ही नहीं करा सके हैं,लेकिन हम आखिरकार पिछले माह से कंप्यूटर पर उनसे नेट ब्राउज करवाने में कामयाब हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि वे किसी भी दिन कंपोज करने लगेंगे तो एक बेहतरीन लेखक से हिंदी समाज को वंचित न रहना होगा।

वे फिल्म निर्देशन का कोर्स भी कर चुके हैं लेकिन वे फिल्म नहीं बनाते हैं।
हमारे सरदर्द का सबब यह है कि पत्रकारिता के उन विरले जीवों में हमारे गुरुजी शामिल हैं,जो मुक्त बाजार संस्कृति के खिलाफ हैं और जमकर लिख भी सकते हैं,फिल्म भी बना सकते हैं।लेकिन वे कुछ भी नहीं करते हुए लगातार बूढे होते जा रहे हैं।

मेरे ताउजी की मृत्यु जब निमोनिया और गिरकर कमर टूटने के बाद हुए आपरेशन की वजह से दिल्ली प्रवास के दौरान हुई जबकि वे हमारे छोटे भाई से,जो उनके इकलौते बेटे हैं, अरुण से लगातार गांव बसंतीपुर लौटने की गुहार लगाते रहे हैं।उनने दिल्ली में भरपूर जवानी में सौ साल की उम्र में दम तोड़ा।उनके बाल अभी पूरे काले नहीं हुए थे और न उनके दांत गिरे थे।

मेरे पिता कैंसर से रीढ़ की हड्डियां गल जाने के बावजूद अपने लोगों के लिए जबतक घर में गिरकर बिस्तर के हवाले न हुए,लगातार दौड़ते रहे और लगभग बिना इलाज की मौत के बावजूद हर पल हर छिन अपनी प्रतिबद्धता और सरोकार के लिए जवान रहे,सक्रिय रहे।वे भी बूढ़े हरगिज नहीं रहे।

मेरे डाक्टर चाचाजी के किस्से तो अजब गजब के हैं,वह सिलसिला जल्द ही शुरु करने वाला हूं।

लेकिन जैसे डीेसबी के जमाने में हमारा ख्वाब था जवानी में शेली कीट्स भगतसिंह सुकांत की तरह मौत कमाने की,आज भी बिन बूढ़ा हुए अपने कामकाज,अपनी सक्रिय जवानी में मरना चाहता हूं।

अपने अति प्रिय गुरुजी जो तेइस साल से हमारे मित्र भी हैं , सहकर्मी भी हैं और संपादकीय में मुड़ी, मिठाई, दही और सलाद के अनंत स्रोत हैं,वे इस तरह बेमतलब बूढ़े हो जाये,यह हमें हरगिज गवारा नहीं है।

हम उनसे रोज रोज की बहस से अघाकर यह सारा किस्सा आज सार्वजनिक कर रहे हैं कि वे कुछ तो अपनी निष्क्रियता के लिए शर्मिंदा हों और हमारे साथ भरपूर जवानी के साथ मजबूती से खड़े हों इस सांढ़ संस्कृति के खिलाफ।

हम चाहते हैं कि वे रोज लिखे हमसे बढ़ चढ़कर।

हम चाहते हैं कि वे फिल्में भी बनायें जो हमारे सबसे अचूक हथियार हैंं।

बाकी लोग उनके किस्से से मजे ले सकते हैं,लेकिन यह हमारे लिए एक अफसोसनाक हादसा है और हमारे प्रतिभा भंडार के अपचय की शोकगाथा है।

पता नहीं कि उनका काम कैसे चलता है।

पूछने पर कहते हैं कि जैसे अटलजी का चलता है,जैसे मोदी जी का चलता है,जैसे लताजी का चलता है,वैसे ही वे काम चला लेते हैं।

हम तो भइये, सविता पर बेहद निर्भर हैं।घर परिवार के सारे फैसले वही करती हैं।घर परिवार और कुनबे के सारे गिले शिकवे वही सुनती हैं और निपटारा भी वहीं करती हैं।

बसंतीपुर से उनका ही हाट लाइन है और वहां वे अपनी सरकार चलाती हैं कोलकाता में बैठे बैठे।

मुझे फालतू का कोई सरदर्द नहीं है।

सोदपुर वालों से भी सारे रिश्ते नाते उनके हैं।

हम तो अतिथि कलाकार भये।

हमारी निजी जिंदगी और दिनचर्या भी उनके ही रिमोट कंट्रोल से चलती है।वे पुस्तकें पढ़ लेती हैं,फिल्में देख लेती हैं और जरुरी समझा तो कहती हैं,पढ़ लो या देख लो।शादी के बाद से ऐसा चल रहा है।

हमें नहीं मालूम कि हमारे परिवार में बच्चों की शादी अब हो पायेगी या नहीं।टुसु और अंकुर दोनों नौकरी नहीं करते और स्वतंत्र पेशा का कोई मोल नहीं है,इसलिए हमारे घर कोई दुल्हन आयेगी भी कि नहीं,कोई पता नहीं।

बेटियां बड़ी हो रही हैं।उनकी चिंता है।

हमारे यहां अभीतक किसी ने दहेज लिया नहीं है लेकिन बेटियों की शादी बिना दहेज हो पायेगी या नहीं ,नहीं जानते।क्योंकि हमारी जमा पूंजी कुछ भी नहीं है।

भविष्य की चिंता है तो सविता की फिक्र है कि हमें कुछ हो गया तो उसके वास्ते हम कुछ भी तो नहीं छोड़ जा रहे हैं।

सारा जहां हमारा घर है ,हमारा कोई घर नहीं है।

बेगानी शादी में हम तो अब्दुल्ला दीवाना हैं।

कल हमने फौरी तौर पर सिनेमा कानून बदलने की सूचना दी थी।देखेंः
सिनेमा और दृश्य माध्यमों पर अंकुश के लिए बन रहा नया कानून

सिनेमा और दृश्य माध्यमों पर अंकुश के लिए बन रहा नया कानून

हिंदू राष्ट्र में फिल्मों पर निशाना साध रहा है संघ परिवार।
Latest status:
Observing that the Cinematograph Act has lost much of its relevance due to advancements like digital technology, proliferation of TV channels and increase in piracy, a Parliamentary panel has asked the government to bring a Bill to replace the existing Act at the earliest.

In its report, presented in the Lok Sabha today, the Standing Committee on Information and Technology, headed by BJPMP Anurag Thakur, said the Cinematograph Act, 1952 is almost a six decades old legislation and has since been amended several times.

It added that in view of many technological advancements in the field of cinema, the proliferation of TV channels, cable network, advent of new digital technology, increase in piracy and copyright violations, etc., the Act has lost much of its relevance.

The panel noted that the government is in the process of replacing it with a new legislation and an Expert Committee under the chairmanship of Justice Mukul Mudgal constituted for this purpose has already submitted its report.

The Mudgal Committee submitted its report on September 28, 2013 and many of the recommendations contained in that Report have been taken into consideration by the Government while drafting the new Cinematography Bill, 2014, the panel said.

Recognising the need to replace the existing Cinematography Act, the Committee desire that all the procedural requirements for introduction of the proposed Bill are completed at the earliest so that the Bill is introduced in the Parliament without any further delay, it added.

The Committee also noted that it is proposed to declare the Film and Television Institute of India, Pune, and Satyajit Ray Film and Television Institute, Kolkata, as institutions of national importance through an Act of Parliament.

According to the Ministry, action is underway for introducing the Bill, the panel said in its report and called for early action be taken for expeditious introduction of the Bill.

मसलन आमिर खान की फिल्म 'पीके' जहां एक ओर बॉक्स ऑफिस धमाल मचा रही है। वहीं कई धर्मगुरु और संगठन इस फिल्म के खिलाफ खड़े हो गए हैं। मुंबई में विहिप ने फिल्म के खिलाफ जमकर प्रदर्शन किया और इसके पोस्टर तक फाड़ दिए। वहीं देश के कई शहरों में विरोध प्रदर्शन जारी है। इलाहाबाद में 'पीके' के खिलाफ बजरंग दल ने मोर्चा खोल दिया है। आज बजरंग दल के कई कार्यकर्ता सिविल लाइंस स्थित सिनेमा हॉल के बाहर पहुंचे और वहा चल रही फिल्म के खिलाफ जमकर नारेबाजी शुरू कर दी। फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे इन लोगों ने सिनेमा हाल के बाहर लगे पोस्टरों पर गुस्सा दिखाते हुए उन्हें फाड़ डाला।
मसलन बीबीसी के मुताबिक लंबे समय से अटकी पड़ी अनुराग कश्यप की फ़िल्म 'अगली' आख़िरकार रिलीज़ हो रही है.
लेकिन अनुराग कश्यप को 'अफ़सोस' यह है कि फ़िल्म रिलीज़ कराने के लिए उन्हें 'समझौता' करना पड़ा.
दरअसल भारत सरकार के दिशा निर्देशों के मुताबिक़ उन्हें फ़िल्म के धूम्रपान वाले दृश्यों में डिसक्लेमर चलाना था कि धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, जिसके लिए अनुराग तैयार ही नहीं थे.

'दखल मंज़ूर नहीं'

अनुराग कश्यप
बीबीसी से ख़ास बात करते हुए अनुराग ने कहा, "सरकार को अपने काम पर ध्यान लगाना चाहिए. क्रिएटिव फ़ील्ड में दखल नहीं देना चाहिए. शराब और सिगरेट हानिकारक हैं तो उसका प्रोडक्शन क्यों बंद नहीं कराया जाता."
अनुराग आगे बोले, "इन प्रोडक्ट्स से सरकार को टैक्स के रूप में आमदनी होती है तो इन्हें वो नियंत्रित कर नहीं सकती. ऐसे में सब कुछ सिनेमा पर ही थोप दिया जाता है."

Mudgal panel submits report on governing cinema

The Mudgal committee was set up earlier this year after the government felt the need to update the 1952 Cinematograph Act in the wake of the controversy over Tamil Nadu’s ban on Vishwaroopam. File Photo
PTI
The Mudgal committee was set up earlier this year after the government felt the need to update the 1952 Cinematograph Act in the wake of the controversy over Tamil Nadu’s ban on Vishwaroopam. File Photo

It has proposed a bill to replace The Cinematograph Act, 1952

In a move that could eventually lead to a new legal framework for governing Indian cinema, with implications for free speech, an empowered committee —headed by Justice Mukul Mudgal, retired Chief Justice of the High Court of Punjab and Haryana — has proposed a model Cinematograph Bill, in a report submitted to the Ministry of Information and Broadcasting.
The Mudgal committee was set up earlier this year after the government felt the need to update The Cinematograph Act, 1952 in the wake of the controversy over Tamil Nadu’s ban on Vishwaroopam. I&B Minister Manish Tewari told The Hindu, “The trigger for the constitution of the committee was the decision of a particular State to invoke the law and order remit to ban the release of a certain movie, notwithstanding that the Supreme Court in the Aarakshan case had said that once a film was certified for viewing, the fig leaf of law and order could not be allowed to stand in the way.”
In a statement, the I&B Ministry said the committee had made recommendations on issues such as “advisory panels; guidelines for certification and issues such as portrayal of women, obscenity, and communal disharmony; classification of films; treatment of piracy; and jurisdiction of the appellate tribunal.”
A source closely involved with the conceptualisation of the report, on the condition of anonymity, told The Hindu: “We have suggested that the screening panel — which actually watches the movies and certifies it — be selected in a better, more careful manner.” There is a tendency to pack the committees with loyalists rather than experts. “There have to be certain minimum requirements.”
The source added: “We have also suggested that if anyone has a complaint against a movie, instead of moving to the court immediately, they should go to the Film Certification Appellate Tribunal (FCAT). Its mandate can be enlarged.”
Another source, familiar with the committee’s workings, said they had recommended making the classification of films “more explicit.”
“The committee also felt that there had to be some legal check on States banning films. While they can’t be barred, such decisions cannot be arbitrary and must be vetted.”
Members of the committee included, among others, FCAT chairperson Lalit Bhasin, Central Board of Film Certification (CBFC) chairperson Leela Samson, and film personalities Sharmila Tagore and Javed Akhtar.
Stakeholders to be consulted
Mr. Tewari said he was happy that not only had the committee finished the report in six months, but it had also come back with a model bill.
“We will apply ourselves to it. There will be consultations, not only at inter-ministerial level but with other stakeholders if necessary. And then we will take it to the Cabinet.”




अब इस खबर पर गौरकरें,बैंकिंग क्षेत्र में रिलायंस कैपिटल की पहल, जापान के SMTB के साथ गठजोड़
बैंकिंग क्षेत्र की अपनी योजना पर आगे बढ़ते हुये अनिल अंबानी समूह की कंपनी रिलायंस कैपिटल ने आज जापान के सुमितोमो मित्सुई ट्रस्ट बैंक (एसएमटीबी) को रणनीतिक भागीदार बनाया (फोटो: रॉयटर्स)
बैंकिंग क्षेत्र की अपनी योजना पर आगे बढ़ते हुये अनिल अंबानी समूह की कंपनी रिलायंस कैपिटल ने आज जापान के सुमितोमो मित्सुई ट्रस्ट बैंक (एसएमटीबी) को रणनीतिक भागीदार बनाया है। रिलायंस समूह के प्रस्तावित बैंकिंग उद्यम समेत दोनों विभिन्न व्यावसायों में सहयोग करेंगे।
जापान के सबसे बड़ी वित्तीय संस्थान, एसएमटीबी की कुल प्रबंधनाधीन संपत्ति 1,800 अरब डॉलर है। दोनों कंपनियों के बीच व्यापक दीर्घकालिक रणनीतिक गठजोड़ की शुरुआत के तौर पर सुमितोमो मित्सुई ट्रस्ट बैंक 371 करोड़ रुपए में रिलायंस कैपिटल की 2.77 प्रतिशत हिस्सेदारी लेगा।
दोनों कंपनियों ने एक संयुक्त बयान में कहा ‘‘रिलायंस कैपिटल की सुमितोमो मित्सुई ट्रस्ट बैंक के रणनीतिक भागीदार के तौर पर समर्थन से भारत में एक नया बैंक स्थापित करना चाहती है। रिजर्व बैंक की नीतियां जब कभी भी इसके लिये इजाजत देंगी बैंक स्थापित किया जायेगा।’’
एसएमटीबी और रिलायंस कैपिटल जो कि विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत रिलायंस समूह की वित्तीय शाखा है, अपने ग्राहकों को समाधान प्रदान करने के लिए भी सहयोग करेंगे जिसमें भारत और जापान में विलय एवं अधिग्रहण के अवसर शामिल हैं। दोनों कंपनियां अपने नेटवर्कों के जरिए संबद्ध वित्तीय उत्पादों के वितरण में एक दूसरे को सहयोग करेंगी।
गठबंधन पर टिप्पणी करते हुए रिलायंस समूह के चेयरमैन अनिल अंबानी ने कहा ‘‘हमारा मानना है कि सुमितोमो मित्सुई ट्रस्ट बैंक हर तरह के समर्थन तथा लंबे अनुभव से हमारी कंपनी के भविष्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। बैंक नये अवसरों का फायदा उठाने तथा हमारे मौजूदा कारोबार का विस्तार करने में भी मदद करेगा।’’
जापानी वित्तीय क्षेत्र में रिलायंस की यह दूसरी बड़ी भागदारी है। इससे पहले रिलायंस कैपिटल ने जापानी वित्तीय कंपनी निप्पॉन लाइफ के साथ अपने जीवन बीमा और म्यूचुअल फंड कंपनियों की हिस्सेदारी बेची है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हाल की जापान यात्रा के बाद सरकार द्वारा जापान के साथ व्यावसायिक रिश्तों को काफी महत्व दिया जा रहा है। रिलायंस समूह की ताजा पहल इस बात को ध्यान में रखते हुये की गई है।
दोनों कंपनियों के बीच हुये समझौते के अनुसार एसएमटीबी शुरू में रिलायंस कैपिटल में 2.77 प्रतिशत हिस्सेदारी 371 करोड़ रुपए में खरीदेगा। जिसमें एक साल की बंधक अवधि होगी और यह हिस्सेदारी तरजीही आवंटन के जरिए दी जाएगी। यह निवेश 530 रुपए प्रति शेयर की दर पर होगा।
एसएमटीबी के अध्यक्ष हितोशी सुनेकजे ने कहा, ‘‘हम रिलायंस केपिटल के साथ रणनीतिक भागीदार बनकर काफी प्रसन्न हैं। रिलायंस कैपिटल भारत का प्रमुख वित्तीय संस्थान है। हम रिलायंस कैपिटल के साथ मिलकर भारत के वित्तीय उद्योग के विकास में योगदान करने को लेकर उत्सुक हैं। हमारा विश्वास है कि यह काफी सफल रहेगा।’’

1979 से हमारे परममित्र रहे उर्मिलेश महान का यह आलेख जरुर पढ़ें।उनने कश्मीर पर जनसत्ता में जो कवरेज दिया है,उस पर हमें बतौर नाचीज दोस्त गर्व है।आज उनने लिखा हैः

झेलम किनारे सत्ता संघर्ष के मायने

Written by जनसत्ता | Posted: December 29, 2014 10:54 am- See more at:

उर्मिलेश

ऐसे खंडित जनादेश के बाद यही होना था। साल 2002 के विधानसभा चुनाव के बाद कुछ ऐसा ही हुआ था। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के बीच खूब खींचतान चली। चुनावी नतीजे के 22 दिनों बाद पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन सरकार बनाने पर सहमति बनी और नए सत्ता समीकरण का फार्मूला निकला। लेकिन तब और अब में बड़ा फर्क है। उस वक्त सूबे की सियासत में भाजपा की कोई खास भूमिका नहीं थी, उसके महज दो विधायक थे।
अब 2014 में उसके पास 25 विधायक हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह 44 से ज्यादा के दावे पर भले खरे न उतरे हों पर उनकी जोड़ी ने सरहदी सूबे की सियासत में अपनी पार्टी को दूसरे नंबर पर ला ही दिया। पार्टी के पास केंद्र में सिर्फ सत्ता ही नहीं है, सक्रिय नेतृत्व का आत्मबल और धनबल भी है। कुछ निर्दलीय सदस्यों को पटाकर वह खुद अपना मुख्यमंत्री चाहती है।
सबसे बड़ी पार्टी के रूप में न उभरने के बावजूद भाजपा आखिर अपनी अगुआई में सरकार बनाने के लिए बेचैन क्यों है? क्या उसमें केरल के माकपा नीत एलडीएफ जैसी राजनीतिक विनम्रता नहीं कि महज दो विधायक कम होने के बावजूद माकपा ने कांग्रेस नीत यूडीएफ सरकार बनाने के रास्ते में रोड़ा बनने से परहेज किया। एकल दल के चुनावी प्रदर्शन के हिसाब से देखें तो 2011 के केरल चुनाव में माकपा की सीटें कांग्रेस से ज्यादा आर्इं थीं। लेकिन माकपा और कांग्रेस, दोनों चुनाव-पूर्व गठबंधन के साथ चुनाव लड़ीं, इसलिए सरकार बनाने के मामले में गठबंधन के आकार और संख्या बल को अहम माना गया। जम्मू कश्मीर में केरल जैसा कोई गठबंधन भी नहीं था।
खंडित जनादेश की तस्वीर साफ है। पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन मुफ्ती सईद भाजपा नेताओं की तरह सरकार बनाने की बेचैनी नहीं दिखा रहे हैं। उनकी खामोशी का कारण है, प्रस्तावित गठबंधनों को लेकर उनका असमंजस। उनके पास दो ही विकल्प हैं-कांग्रेस और निर्दलीय सदस्यों के समर्थन से सरकार बनाएं या भाजपा से कड़ी राजनीतिक सौदेबाजी करें। कांग्रेस से लेकर नेशनल कांफ्रेंस, सभी उन्हें समर्थन की मौखिक पेशकश कर चुके हैं। फिर मुफ्ती किसका इंतजार कर रहे हैं? क्या झेलम किनारे इस बार हरा (पीडीपी के झंडे का रंग) और भगवा, दोनों मिलकर लहराना चाहते हैं?
भाजपा पर संघ का इस बार भारी दबाव है। संघ को लग रहा है कि जम्मू कश्मीर में पार्टी को इतनी सीटें निकट भविष्य में शायद ही आएं। ऐसे में सरकार बनाकर एक बड़े सपने को पूरा किया जा सकता है। भाजपा भी पूरी दुनिया के सामने मोदी की अभूतपूर्व दिग्विजयी-तस्वीर पेश कर सकती है-एक मुसलिम बहुल सूबे में हिंदुत्ववादी राजनीतिक संरचना की अगुआई वाली सरकार! कश्मीर को लेकर संघ का सपना तो बहुत पुराना है। जनसंघ के गठन के समय 1951 में यह सपना देखा गया था।
सूबे में शेख अब्दुल्ला की सरकार ने जब क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू किए तो वहां के पूर्व शासक समूहों, सामंतों, बड़े जमींदारों और दक्षिणपंथी गुटों में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इसी का नतीजा था-शेख के खिलाफ प्रजा परिषद नामक दक्षिणपंथी संगठन का छेड़ा गया आंदोलन। इसमें संघ के वे तमाम नेता-कार्यकर्ता शामिल थे, जो बाद के दिनों में प्रदेश के अंदर जनसंघ के स्तंभ बने। प्रजा परिषद ने नारा दिया, ‘एक देश में दो विधान, एक देश में दो निशान, एक देश में दो प्रधान, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा’।
आंदोलन की असल वजह था, भूमि सुधार। कश्मीर के भारतीय राष्ट्र-राज्य में शामिल होने से पहले सूबे में एक खास वर्ग का सत्ता, संपदा, जमीन, पर्यटन उद्योग, सेब के बगीचों और अफसरशाही पर संपूर्ण वर्चस्व था। नया कश्मीर बनाने के अपने लोकप्रिय नारे के साथ शेख अब्दुल्ला ने एकाएक उस व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया। भारत में बुनियादी भूमि सुधार का पहला कदम कश्मीर में उठाया गया। प्रजा परिषद और जनसंघ जैसे राजनीतिक दल डोगरा जमींदारों और अन्य धनाढ्य तत्त्वों के झंडाबरदार बनकर उभरे। लेकिन अपने आंदोलन के लिए उन्होंने बड़े आकर्षक नारे और मुद्दे उछाले ताकि जम्मू की हिंदू आबादी को शेख सरकार के खिलाफ गोलबंद किया जा सके। माहौल बहुत उत्तेजक था। इसी अभियान के दौरान जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी की माधोपुर के पास गिरफ्तारी हुई।
जेल में उनकी तबीयत खराब चल रही थी और आधिकारिक तौर पर बताया गया कि 23 जून, 1953 को हृदय गति रुकने से उनकी मृत्यु हो गई। माहौल बहुत तनावपूर्ण और उत्तेजक हो गया। केंद्रीय नेतृत्व और कई बड़े कांग्रेसी दिग्गज भी शेख से अन्य कारणों से चिढ़े थे। अंतत: कुछ ही समय बाद सूबे के प्रधानमंत्री शेख को गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी सरकार बर्खास्त कर दी गई। उन पर अलगाववादी मुहिम चलाने का आरोप लगा था। उनकी जगह मंत्रिमंडल के सदस्य रहे बख्शी गुलाम मोहम्मद को नए प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई गई। तब सूबे का मुखिया वजीर-ए-आजम (प्रधानमंत्री) कहलाता था।
उसी दौर से आरएसएस-जनसंघ के नेताओं का ‘कश्मीर-फतह’ एक बड़ा महत्वाकांक्षी सपना रहा है। जनसंघ के एक पूर्व अध्यक्ष बलराज मधोक ने कश्मीर विषयक अपनी पुस्तिका में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। आज की भाजपा कश्मीर के बारे में संघ के उसी सपने को मूर्त करने में लगी है। लेकिन भाजपा नेता अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार की अगुआई की जिम्मेदारी पाना इतना आसान भी नहीं। मुख्यमंत्री पद हासिल करने के लिए भाजपा ने सबसे पहले पीडीपी से नहीं, अपेक्षाकृत छोटे दल के रूप में उभरे नेशनल कांफ्रेंस से संपर्क साधा। नेशनल कांफ्रेंस अटल बिहारी वाजपेयी काल में भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा रह चुकी है।
उन दिनों फारूक अब्दुल्ला सूबे के मुख्यमंत्री और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला वाजपेयी सरकार में विदेश राज्यमंत्री थे। पुराने रिश्तों की टूटी डोर फिर से जोड़ने की कोशिश हुई। बताते हैं, इसके लिए निर्वतमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से बातचीत भी हुई। लेकिन मुख्यमंत्री के सवाल पर उमर साफ मुकर गए। भाजपा नेता शायद इस बात को भूल गया कि वाजपेयी-काल में भी नेशनल कांफ्रेंस का भाजपा से गठबंधन सिर्फ केंद्रीय राजनीति में था, सूबे में फारूक ने भाजपा से किसी तरह का रिश्ता नहीं रखा। उमर अब्दुल्ला क्या अपने पिता से भी आगे जाकर भाजपा के सामने पूरी तरह आत्मसर्मपण करने को राजी होते? उमर के लिए ऐसा करना आसान नहीं। नेकां का नेतृत्व जरूर वंश आधारित है पर पार्टी संगठन के विभिन्न स्तरों पर अब भी लोकतांत्रिक जीवंतता के कुछ तंतु मौजूद हैं। अभी हाल में जिस तरह पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को विश्वास में लिए बगैर उमर के भाजपा के साथ संपर्क साधने की खबरें आर्इं, उसे लेकर घाटी में तीखी प्रतिक्रिया हुई।
ऐसा ही कुछ इस वक्त मुफ्ती मोहम्मद सईद की पार्टी पीडीपी में चल रहा है। माना जा रहा है कि महबूबा मुफ्ती और मुजफ्फर हुसैन बेग जैसे कुछ प्रमुख पीडीपी नेता सरकार बनाने के लिए भाजपा को सबसे बेहतर साझीदार के रूप में देखते हैं। बेग ने तो चुनावी नतीजे के बाद इस आशय का बयान भी दिया, जिसमें घाटी और जम्मू के समुचित प्रतिनिधित्व वाली सरकार का हवाला देते हुए प्रकारांतर से पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार को वक्त की जरूरत बताया गया। उनके बयान का पीडीपी के अंदर विरोध शुरू हो गया। आलोचकों ने यहां तक कहा कि बेग मोदी सरकार में स्वयं कैबिनेट मंत्री बनना चाहते हैं, इसलिए पीडीपी-भाजपा गठबंधन की वकालत कर रहे हैं।
उन्हें लगता है कि राज्य में भाजपा-समर्थन से मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बनेंगे तो केंद्र में भी पीडीपी को हिस्सेदारी मिलेगी। पार्टी के तीनों सांसदों में सबसे वरिष्ठ होने के नाते उन्हें केंद्रीय मंत्री का पद मिल जाएगा। लेकिन श्रीनगर से पार्टी सांसद और मुफ्ती के बेहद करीबी माने जाने वाले तारिक कर्रा ने पार्टी के अंदर बेग की लाइन से अपनी असहमति जता दी। परस्पर विरोधी बयानबाजियों से तंग आकर अब पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती ने सख्त निर्देश जारी किया है कि सरकार गठन के बारे में बयान जारी करने का अधिकार सिर्फ पार्टी प्रवक्ता को होगा, सांसद या विधायक अपने मन से कोई बयान न जारी करें।
पीडीपी में मुफ्ती और ज्यादातर नेता भाजपा के साथ सरकार बनाने के विचार के खतरे से अच्छी तरह वाकिफ हैं। उन्हें मालूम है कि अनुच्छेद-370, सशस्त्र सैन्य बल विशेष अधिकार कानून (अफस्पा) और समान नागरिक संहिता जैसे खास मुद्दों पर भाजपा और पीडीपी के विचारों में जमीन-आसमान का फर्क है। दोनों ही पार्टियां अपने विचारों से पीछे नहीं हट सकतीं। ऐसे में सत्ता-हिस्सेदारी का गठबंधन असहज और बेमेल होगा। और 25 विधायकों वाली भाजपा के समर्थन से सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री के तौर पर मुफ्ती को काम करने की आजादी भी नहीं मिलेगी। समय-समय पर दोनों दलों के बीच अपने परस्पर विरोधी एजंडे को लेकर टकराव होता रहेगा।
ऐसे गठबंधन के पक्ष में पुख्ता दलील दी जा रही है। पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं को लग रहा है कि सरकार अगर कांग्रेस और कुछ निर्दलीय सदस्यों के सहयोग से बनती है तो भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार से सूबाई सरकार को अपेक्षित आर्थिक-प्रशासनिक सहयोग नहीं मिलेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वाजपेयी की तरह उदार भी नहीं हैं। मुफ्ती ने सूबे में कांग्रेस समर्थित अपनी पहली सरकार 2002 में बनाई थी, तब केंद्र की तत्कालीन वाजपेयी सरकार से उन्हें पूरा सहयोग मिला। लेकिन आज का राजनीतिक माहौल अलग है और सूबे में भाजपा की हैसियत भी अलग है। मुफ्ती का असल द्वंद्व यही है। झेलम किनारे जारी इस सत्ता-संघर्ष का पटाक्षेप हर हालत में जनवरी, 2015 के दूसरे हफ्ते से पहले होना है।
सरकार बनाने में ये सियासी दल फिलहाल विफल रहे तो सूबे में कुछ समय के लिए राष्ट्रपति शासन का विकल्प आजमाया जा सकता है। लेकिन यह बेहतर विकल्प नहीं है। सर्वोत्तम विकल्प है निर्वाचित सरकार का गठन। मौजूदा हालात में पीडीपी को ही सरकार गठन का पहला मौका मिलना चाहिए। उसका समर्थन कांग्रेस और निर्दलीय सदस्य करें या नेशनल कांफ्रेंस! जहां तक पीडीपी-भाजपा के बीच संभावित गठबंधन का सवाल है, राजनीतिक-वैचारिक स्तर पर वह बेमेल और अस्वाभाविक होगा। अनुच्छेद-370 जैसे संघी-एजंडे को गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम से दरिकनार किए बगैर अगर पीडीपी ने भाजपा समर्थन से सरकार बनाई तो वह कश्मीर और देश के हक में नहीं होगा। किसी दबाव में मुफ्ती ने ऐसा समझौता किया तो सरकार भले बन जाए लेकिन वह झेलम किनारे पीडीपी की सियासी खुदकुशी जैसा होगा।

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