बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तौर-तरीका लगभग एक-सा है। फर्क सिर्फ यह है कि कहीं वह बहुत अपराधिक है और कहीं बहुत खुला हुआ।
कॉरपोरेट मीडिया संगठन, पाठकों/दर्शकों को धंधे की वस्तु समझकर आकर्षित करते हैं और आखिरकार उन्हें विज्ञापनदाताओं को बेच देते हैं।
- डैलस स्माइथ
एक ऐसा कॉरपोरेट अखबार है द हिंदू जो प्रगतिशील और लोकतांत्रिक ब्रांड बनने में कामयाब रहा है। इसके साथ जाने-माने पत्रकार पी साइनाथ जैसे लोग भी जुड़े हैं। जो विदर्भ के किसानों की आत्महत्या के अलावा और भी कई ऐतिहासिक महत्त्व की खबरें देश के सामने लाए हैं। साइनाथ कहते हैं कि कॉरपोरेट मीडिया के सामने हमेशा मुनाफे के लिए झूठ बोलने की संरचनागत बाध्यता होती है। हाल ही में उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया (टीओआई) का ऐसा ही एक झूठ पकड़ा है। 2008 के आसपास देश में जैव संवर्धित (जैनेटिकली मोडीफाइड) बीजों के खिलाफ जनता में आक्रोश था लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनी मोहिया मॉनसेंटो इन बीजों के पक्ष में लॉबिंग कर रही थी। टीओआई ने विदर्भ के एक गांव का उदाहरण देकर पूरे एक पृष्ठ की खबर छापी कि कपास की खेती करने वाले किसानों की जिंदगी जैव संवर्धित बीटी कॉटन अपनाने के बाद बेहद खुशहाल हो गई है। यह खबर पूरी तरह मनगढ़ंत थी लेकिन टीओआई ने 31 अक्टूबर 2008 को इस खबर को काफी प्रमुखता दी। ताज्जुब की बात यह है कि करीब तीन साल बाद वही खबर 28 अगस्त, 2011 को टीओआई में फिर से एक विज्ञापन के रूप में छापी जाती है। मतलब साफ है कि पहली खबर भी पूरी तरह पेड न्यूज थी लेकिन मॉनसेंटो का कहना है कि उसने उस खबर को कवर करने के लिए सिर्फ पत्रकारों के आने-जाने की व्यवस्था की थी (जैसे, कॉरपोरेट की तरफ से पत्रकारों के आने-जाने-घुमाने-खिलाने-पिलाने की व्यवस्था करना पत्रकारीय नैतिकता में शामिल हो) और बाद में उसी खबर को विज्ञापन के तौर पर छाप लिया। इस घटनाक्रम से समझ में आता है कि किस तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियां और कॉरपोरेट मीडिया मिलकर देश की जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। द हिंदू की टीओआई से व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता है शायद इसीलिए यह खबर बाहर आ पाई वरना ऐसे अनगिनत किस्से हैं जहां कॉरपोरेट और उनका मीडिया एक-दूसरे को बचाने में जुटे रहते हैं या कम से कम चुप्पी साधे रहते हैं। कभी-कभी जब इनके बीच के अंतर्विरोध गहराते हैं तभी कुछ सच्चाइयां बाहर आ पाती हैं। राडिया कांड में भी ओपन और आउटलुक पत्रिका की पर्दाफाश वाली भूमिका को इसी तरह समझा जा सकता है। इस घटनाक्रम के जिक़्र करने का मकसद सिर्फ इतना है कि आज का भारतीय मीडिया पूरी तरह से मुनाफे के हवाले है। टाइम्स ऑफ इंडिया की तरह वह कुछ भी छाप सकता है। एक-दो पत्रकारों की व्यक्तिगत ईमानदारी से इसे ठीक करना मुश्किल है।
पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का तौर-तरीका लगभग एक-सा है। फर्क सिर्फ यह है कि कहीं वह बहुत अपराधिक है और कहीं बहुत खुला हुआ। मई महीने में ही एक और विज्ञापन अचानक कई अखबारों में बहुत प्रमुखता से छपने लगा। यह था टैट्रा ट्रकों का जिसे भारतीय सेना में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। यह बतलाना जरूरी नहीं है कि टैट्रा ट्रक सप्लाई करनेवाली कंपनी इस समय जबर्दस्त विवादों में है और उस पर भारतीय अधिकारियों को घूस देने के आरोप लग रहे हैं जिससे उसकी खासी बदनामी हो रही है। साफ है कि यह विज्ञापन उसी बदनामी को रोकने के लिए है। यह देखना और जांचना दिलचस्प होगा कि विज्ञापन की इस बमबारी के बाद इस कंपनी के खिलाफ कितना छप रहा है।
इसी तरह का एक और उदाहरण वेदांता का है। प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए कुख्यात बहुराष्ट्रीय खनन कंपनी वेदांता का अपनी छवि सुधारने का अभियान जारी है। ओडिशा के नियमगिरी समेत देश के कई इलाकों में उसके खिलाफ जबरदस्त जन आक्रोश है। जब वेदांता के जनविरोधी कामों की पोल खुलना शुरू हुई और मीडिया के एक हिस्से ने भी उसे कटघरे में खड़ा करना शुरू कर दिया तो अचानक वेदांता ने पूरे मीडिया को अपने विज्ञापनों से पाट दिया। इसकी शुरुआत आउटलुक से हुई जिसने वेदांता से संबंधित खासी आलोचनात्मक रिपोर्टें छापीं। उन दिनों विनोद मेहता पत्रिका के संपादक थे। इसके कुछ ही दिन बाद पत्रिका में वेदांता का विज्ञापन छपने लगा था। इसका फायदा उसे मिला, मुख्यधारा के मीडिया पर विज्ञापनों का असर दिखने लगा। इतना ही नहीं तरक्कीपसंद लोगों की तरफ से बराबर हो रही आलोचना का जवाब देने के लिए वेदांता ने शैक्षणिक संस्थानों में जाकर युवाओं के बीच अपने विकास के कामों की जानकारी देनी शुरू कर दी और नए दिमागों को लुभाने के लिए क्रिएटिंग हैप्पीनेस नाम से एक फिल्म प्रतियोगिता भी करवाई। फिल्म बनाने का सारा पैसा वेदांता ने दिया। बाजार के चंगुल में समाती जा रही नई पीढ़ी के लिए यह मुफ्त में मिला शानदार अवसर था। कुछ जगहों पर वेदांता के जन संपर्क अधिकारियों को छात्रों के बीच से खरी-खोटी भी सुननी पड़ी लेकिन वे रणनीतिक तौर पर सब कुछ चुपचाप सुनते रहे। जानेमाने फिल्मकार श्याम बेनेगल भी इन फिल्मों को छांटने वाली जूरी में थे। इस तरह आदिवासियों की जमीन से उन्हें बेदखल करने वाला वेदांता विज्ञापन के माध्यम से खुद को आदिवासियों का सबसे बड़ा हितैषी बनाने की कोशिश में जुटा है।
गत वर्ष के राडिया कांड के बाद टाटा समूह की जो बदनामी हुई। टाटा ने उसकी भरपाई के लिए और खनन के विरुद्ध चल रहे माहौल को देखते हुए अपने सामाजिक तौर पर जिम्मेदार होने और सुधार कार्यों में लगे होने को लेकर एक पूरी श्रंखला चलाई जो कमोबेश अब भी चालू है। पर इस श्रंखला का एक भी विज्ञापन आउटलुक सप्ताहिक में प्रकाशित नहीं हुआ। साफ है कि टाटा समूह ने आउटलुक को प्रतिबंधित कर रखा है। क्या यह असंभव है कि विनोद मेहता को रिटायर करने के पीछे यह भी एक कारण हो - कारपोरेट सेक्टर का उनसे नाराज हो जाना?
विज्ञापन का हथियार ऐसा है जिसे मीडिया को साधने के लिए राजनेता विशेषकर सत्ताधारी खूब इस्तेामल करते हैं।
इधर कई राज्यों की सरकारों ने अपना एक साल पूरा किया है। इन में तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल प्रमुख हैं।
तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने इस अवसर पर आत्म प्रशंसा में जी भर कर सरकारी खजाना लुटा डाला। 16 मई को तमिलनाडु के अखबारों के अलावा दिल्ली में भी वही नजर आ रही थीं। उस दिन दिल्ली के सभी प्रमुख अंग्रेजी अखबार जयललिता के चार पृष्ठ वाले विज्ञापन 'जैकेट' (अखबार को विज्ञापन के पृष्ठों से आवृत करना ) से ढके थे। इनकी कीमत करीब पच्चीस करोड़ बैठती है। इन विज्ञापनों के माध्यम से जयललिता ने राष्ट्रीय प्रचार पाने की कोशिश तो की ही, साथ ही उन्होंने मीडिया पर विज्ञापन का चारा फेंककर उसे अपने पक्ष में करने की कवायद भी की। जयललिता की जैकेट पहनने वालों में टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, इकॉनोमिक टाइम्स, हिंदुस्तान टाइम्स जैसे अखबार प्रमुख थे।
विज्ञापनों में जयलतिता को हिंदुस्तान की महानतम नेता के तौर पर प्रचारित करने की कोशिश की गई। अखबारों में ऊपर से नीचे तक, पूरे पृष्ठ लंबी, जयललिता की एक तस्वीर थी। सामने लिखा था - वन ईयर ऑफ एचीवमेंट, हंड्रेड ईयर्स लीप फॉरवर्ड (एक साल में ही सौ साल जितनी तरक्की) इसी विज्ञापन में उन्हें पुरातची थलाईवी (क्रांतिकारी नेता) घोषित किया गया था। इस विज्ञापन जैकेट को देखना पाठक की मजबूरी थी। जब तक उसे उतारे नहीं, अखबार नहीं पढ़ा जा सकता। जिस तरह से हाल के दौर में विज्ञापन जैकेट छापने का चलन बढ़ा है, यह भारतीय पत्रकारिता के निम्नतम स्तर की ओर जाने का संकेत है। अखबारों की बढ़ती मुनाफाखोरी की वजह से उनमें खबरें कम और विज्ञापन ज्यादा होते जा रहे हैं। हालत यह हो गई है कि टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे कई अखबार अब अक्सर साठ से अस्सी फीसदी तक विज्ञापन और सिर्फ बीस से चालीस फीसदी तक खबर छापते हैं। विज्ञापनों को लेकर कोई प्रभावी नीति न होने के कारण अखबार हमेशा पत्रकारिता के उसूलों को ठेंगा दिखाते रहते हैं तो नेता और व्यावसायिक घराने भी विज्ञापनों का चारा फेंक कर अखबारों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं।
जय ललिता ने भी अपने पद का दुरुपयोग कर सरकारी खजाने को यूं ही लुटाते हुए अखबारों को अपना कृतज्ञ बना दिया है। अब करोड़ों रुपए हजम करने के बाद ये अखबार किस मुंह से जयललिता की आलोचना करने का साहस कर पाएंगे? आलोचना करने पर आगे से विज्ञापन न मिलने का डर क्या मीडिया के प्रबंध संपादकों की नींद नहीं उड़ाए रहेगा?
इस क्रम में अगला नंबर था ममता बनर्जी का। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी यूं तो अपने बड़बोलेपन और अराजकता की वजह से अक्सर चर्चा में बनी ही रहती हैं लेकिन ऊल-जुलूल हरकतों की वजह से मुख्यधारा का मीडिया कुछ हद तक उनकी आलोचना भी करता रहा है। ममता भी अब रूठे मीडिया को मनाने का काम शुरू कर चुकी हैं। 20 मई को जब उनकी सत्ता का भी एक साल पूरा हुआ तो उन्होंने भी विज्ञापनों पर काफी पैसा खर्च किया। यह बात और है कि वे जयललिता का रिकॉर्ड नहीं तोड़ पाईं। लेकिन विज्ञापन पर सरकारी खजाना लुटाने की वजह से उनकी भी आलोचना हुई। ममता ने उस दिन कई अखबारों को दो पृष्ठ का विज्ञापन दिया। जिसमें उनकी तारीफ का शीर्षक था- वन ईयर टुवर्ड्स रे ऑफ होप (उम्मीद की किरण की तरफ एक साल)। ममता भूल गई कि उन्होंने एक साल में लोकतंत्र का कैसा मजाक बनाया है। सीएनएन-आईबीएन के एक शो में वह असुविधाजनक सवाल पूछने वाली छात्रा को माओवादी बताकर वॉकआउट कर गईं। न जाने किन शर्तों के तहत उन्होंने दो ही घंटे बाद सागरिका घोष को फिर से इंटरव्यू देकर अपनी सफाई दी।
ऐसा नहीं है कि इस तरह मीडिया को कृतार्थ करने वालों में जयललिता या ममता बनर्जी पहली नेता हों। अपने शासनकाल में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने राज्य और राजधानी दिल्ली के अखबारों को विज्ञापन देकर पालतू जानवर की तरह साधा हुआ था। उन पर लगे अनगिनत भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी उनके खिलाफ कहीं कुछ नहीं छप पाता था। निशंक को उत्तराखंड की राजनीति में अब मीडिया मैनेजमेंट में माहिर खिलाड़ी के तौर पर भी जाना जाता है। ठीक इसी तरह की दक्षता से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी समाचार-प्रबंधन कर रहे हैं। राज्य की जनता में उनके खिलाफ कितना भी असंतोष क्यों न हो, मुनाफे के लिए निकलने वाले अखबार उनके खिलाफ कुछ नहीं छापते। उनके शासन काल में विज्ञापन पर खर्च कई गुना बढ़ गया है। विज्ञापन न मिलने के डर की वजह से बिहार में समाचार मीडिया की 'आजादी' का असली चेहरा देखा जा सकता है। ऐसे हालात में स्वाभाविक तौर पर सत्ता के खिलाफ संगठन और जन आंदोलन बिके हुए मीडिया के निशाने पर होते हैं जो इधर उत्तराखंड में भी देखने को मिल रहा है।
इसी बीच 21 मई को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बरसी आयी तो केंद्र और राज्यों की कांग्रेस सरकारों ने भी उनकी महानता में सरकारी खजाना पूरी तरह खोल दिया। जहां तक कांग्रेस की सरकारों का सवाल है उनके लिए नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी के जन्म व मृत्यु दिवस किसी राष्ट्रीय पर्व से कम नहीं होते। इन अवसरों पर विज्ञापन दिया जाना एक तरह से लाजमी है। ये विज्ञापन किस तरह से नेहरू-गांधी खानदान को देश के लिए अपरिहार्य बनाते हैं यह बतलाने की जरूरत नहीं है।
मॉनसेंटो के बीटी कॉटन और टीओआई वाले किस्से से साफ है कि धंधेबाज मीडिया को विज्ञापन देकर कृतार्थ करने का काम सिर्फ नेता ही नहीं कर रहे हैं बल्कि राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी उसे धन्य कर रही हैं। जब भी जनता के दबाव में मीडिया को कानून के दायरे में लाने की बात की जाती है तो वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर शोर करने लगता है। हाल ही में भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने जब टेलीविजन चैनलों में एक घंटे के कार्यक्रम के दौरान सिर्फ बारह मिनट के विज्ञापन दिखाने की बात कही तो कॉरपोरेट मीडिया ने अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जमीन-आसमान एक कर दिया। मजबूरन सूचना और प्रसारण मंत्री को कहना पड़ा कि वे मीडिया और विज्ञापनदाताओं के हितों का पूरा ध्यान रखेंगी। ठीक इसी तरह की नूरा कुश्ती मीडिया के नियमन के नाम पर सरकार और कॉरपोरेट मीडिया के बीच लंबे अरसे से चलती आ रही है।
पूरा भारतीय समाचार मीडिया फिलहाल विज्ञापनों पर चल रहा है। अखबार, रेडियो, टेलीविजन और इंटरनेट जैसे माध्यमों में इनकी मौजूदगी बढ़ती जा रही है। कॉरपोरेट मीडिया के प्रवक्ताओं ने ऐसा माहौल बना रखा है कि विज्ञापनी झूठ के खिलाफ बात करने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बता दिया जाता है और ऐसी बात कही जाती है जैसे विज्ञापनों के बिना समाचार मीडिया का अस्तित्व ही संभव नहीं। इस झूठ के सहारे यहां विकल्पों की किसी भी संभावना को पूरी तरह ठुकरा दिया जाता है। विकल्पों के ऐसे निषेध से ही कॉरपोरेट मीडिया अपनी मनमानी को सही साबित करने की कोशिश करता है। असल बात यह है कि इस मीडिया ने दर्शकों को नागरिक के बजाय सिर्फ उपभोक्ता में तब्दील कर उनमें कम कीमत में ज्यादा सूचनाओं तक पहुंचने का नशा पैदा कर दिया है। अस्सी पृष्ठ का अखबार ढाई-तीन रुपए में या सौ रुपए में दो सौ चैनल पाकर वह खुद को धन्य समझता है लेकिन यह हालत ठीक उसी तरह से है जैसे कोई किसी को हर रोज देह और चेतना को नष्ट करने वाले तरह-तरह के नशे मुफ्त में करवाए। सिर्फ मुनाफा कमाने के मकसद से निकल रहे अखबार, टीवी, रेडियो और इंटरनेट का धंधा इस तरह की नशाखोरी को बढ़ाने के कारण ही फल-फूल रहा है।
सीएनएन-आईबीएन चैनल कॉरपोरेट बेईमानी के लिए पहले से ही कुख्यात है। आजकल उसमें पर्यावरण के मनमाने दोहन के लिए जिम्मेदार जेपी समूह के प्रायोजन में इंडिया पॉजिटिव नाम से खबरों की एक सीरीज चल रही है। जिसमें तथाकथित सकारात्मक घटनाओं की तरफ दर्शकों का ध्यान आकर्षित कर यह भ्रम पैदा करने की कोशिश की जाती है जैसे 'इंडिया शाइन' कर रहा हो। लब्बोलुआब सिर्फ इतना है कि यह कार्यक्रम कॉरपोरेट लूट के खिलाफ चलने वाले आंदोलनों को नकारात्मक ठहराता है और इस व्यवस्था को बचाये रखने के लिए सामने आई घटनाओं को सकारात्मक कहानियों (पॉजिटिव स्टोरीज) की तरह पेश करता है। इस प्रायोजित कार्यक्रम के अलावा भी जेपी समूह लगातार बड़े पैमाने पर मीडिया को विज्ञापन बांटता है। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार पर जानेमाने वकील प्रशांत भूषण पर्यावरण के दोहन की अनदेखी करते हुए जेपी के पक्ष में खबर छापने का आरोप खुलेआम लगा चुके हैं। जहां-जहां भी जेपी की परियोजनाएं चल रही हैं उन क्षेत्रों की जनता जानती है कि इस कंपनी ने इनकी जिंदगी को किस तरह से उजाड़ कर रख दिया है। बड़े बांध को लेकर दो बच्चों की मासूमियत की आड़ में कॉरपोरेट लूट का माहौल बनाता विज्ञापन लोगों का ध्यान खींचता है। ऐसे में जेपी के पैसों पर पलने वाले मीडिया से बड़े बांध विरोधी आंदोलनों की खबरें बिना लाग-लपेट प्रस्तुत करने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है?
नव-उदारवादी भारत में कॉरपोरेट ने हर तरह की सार्वजनिक संस्थाओं को खोखला करने का काम किया है। ऐसे में, विज्ञापनों का खबरों पर कोई असर नहीं पड़ता, कहने वाले लोग या तो बिल्कुल ही बेवकूफ हो सकते हैं या फिर बहुत ही धूर्त।
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