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Saturday, July 6, 2013

क्या अल्पसंख्यकों को मोदी एण्ड कम्पनी के जाल में फँसना चाहिये?

क्या अल्पसंख्यकों को मोदी एण्ड कम्पनी के जाल में फँसना चाहिये?


दुश्मन से यारी

-राम पुनियानी

Ram Puniyani,राम पुनियानी

राम पुनियानी, लेखक आई.आई.टी. मुम्बई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।

सन् 2002 के कत्लेआम के बाद, भारत, और विशेषकर गुजरात की राजनीति में एक नए सितारे का उदय हुआ-नरेन्द्र मोदी का। उनके प्रचार तन्त्र के अथक प्रयासों से उनकी छवि एक ऐसे नेता की बना दी गयी जो आर्थिक विकास का पुरोधा है, जिसे भ्रष्टाचार छू तक नहीं गया है और जो कड़े कदम उठाने से डरता नहीं है।

समाज के एक बड़े हिस्से ने इस प्रचार को आँख मूँदकर निगल लिया है। मोदी ने भाजपा के अन्दर भी दादागिरी कर, स्वयं को सन् 2014 के चुनाव के लिये गठित चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित करवा लिया और अब वे इशारों ही इशारों में यह कह रहे हैं कि वे भाजपा-एनडीए के प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार हैं। इसी सिलसिले में वे मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये सम्मेलनों का आयोजन कर रहे हैं। वे भाजपा के नेताओं को भी यह सलाह दे रहे हैं कि वे अल्पसंख्यकों को स्वयं को जोड़ें।

इसी सिलसिले में, अहमदाबाद में विभिन्न समुदायों के लगभग 200 सामाजिक कार्यकर्ताओं और विद्वानों का सम्मेलन, हाल (जून 2013) में आयोजित किया गया। प्रतिभागियों में से 30 मुसलमान थे। कई मुस्लिम नेताओं, कार्यकर्ताओं और विद्वानों ने आयोजकों द्वारा बहुत जोर दिये जाने पर भी, सम्मेलन में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया। उनका तर्क था कि मुसलमान नेताओं को अपने सम्मेलन में बुलाकर, मोदी अपनी साख बढ़ाना चाहते हैं। परन्तु किसी भी समुदाय या समूह के सभी लोगों के विचार एक से नहीं होते। कुछ मुस्लिम नेताओं ने सम्मेलन में भाग लेना स्वीकार कर लिया। उनमें से एक, सैयद जफर महमूद ने सम्मेलन में एक विस्तृत प्रस्तुतिकरण दिया। सम्मेलन से पहले महमूद से पूछा गया कि मोदी की नीतियों के कटु आलोचक होने के बावजूद, वे बैठक में हिस्सा क्योंकि ले रहे हैं। इस पर उनका उत्तर था कि उनसे यह प्रश्न तब पूछा जाये जब वे बैठक में अपनी बात रख चुकें। महमूद, सच्चर समिति में विशेष कर्तव्यस्थ अधिकारी थे और वर्तमान में 'ज़कात फाउण्डेशन ऑफ इंडिया' के अध्यक्ष हैं।

शायद उन्होंने सम्मेलन में भागीदारी करना इसलिये उचित समझा होगा क्योंकि इससे उन्हें अपने समुदाय की बदहाली से मोदी को परिचित करवाने का मौका मिलता और वे मुसलमानों की समस्याओं को सामने ला पाते। महमूद ने अपने प्रस्तुतिकरण में मुस्लिम समुदाय की वर्तमान हालत पर विस्तार से प्रकाश डाला और भाजपा की उसकी नीतियों के आधार पर कड़ी आलोचना की। उनका प्रस्तुतिकरण शोधपूर्ण था। उन्होंने भाजपा को यह सलाह भी दी कि आने वाले समय में उसे क्या करना चाहिये। उनके प्रस्तुतिकरण का सार-संक्षेपयह था कि भाजपाविचारधारात्मक स्तर पर ही मुस्लिम-विरोधी है। महमूद ने केवल देश के वंचित मुसलमानों के लिये न्याय और संवैधानिक अधिकारों की माँग ही नहीं की; उन्होंने भाजपा की अधिकृत वेबसाइट पर उपलब्ध सामग्री के आधार पर यह दर्शाया कि भाजपा, मुसलमानों से किस हद तक नफरत करती है। जैसे, उन्होंने कहा कि भाजपा की वेबसाइटपर उपलब्ध एक लेख, जिसका शीर्षक है, ''हिन्दुत्व: महान राष्ट्रीयतावादी विचारधारा'',मुसलमानों के प्रति नफरत और उनके बारे में भड़काऊ बातों से भरपूर हैं। एक अन्य लेख, जिसका शीर्षक है ''गिव अज़ दिस डे अवर सेंस ऑफ मिशन' व जिसे एमव्ही कामथ ने लिखा है, में 'मुसलमानों से आह्वान किया गया है कि वे हिन्दू नाम रखें और मुस्लिम महिलाओं को कहा गया है कि वे मंगलसूत्र पहनें।' जिस तीसरे लेख से उन्होंने उद्धृण प्रस्तुत किये उसका शीर्षक है ''सेमिटिक मोनो थिएजम'' (यहूदी एकेश्वरवाद)। इस लेख में मुसलमानों और इस्लाम को पूरी दुनिया के लिये समस्या बताया गया है। लेख कहता है, ''हम सबको यह समझना होगा कि परंपरावादी और परिवर्तन-विरोधी इस्लामिक समाज, भारत के लिये एक बड़ी समस्या है। इस्लाम के इस चरित्र को समाप्त कर समावेशी हिन्दुत्व की स्थापना की जानी आवश्यक है।''

यहाँ तक तो सब ठीक है। ये सारी बातें सही हैं और बिना किसी शक-शुब्हे के मुस्लिम-विरोधी हैं। मुस्लिम समुदाय की हालत का बयान करते हुये महमूद ने यह माँग की कि उनकी बेहतरी के लिये नई योजनाएं लागू की जायें और प्रभावी कदम उठाये जायें। उन्होंने मोदी से माँग की कि सच्चर समिति की रपट को लागू किया जाये। गुजरात उन चंद राज्यों में से एक है जो मुस्लिम विद्यार्थियों को वजीफा देने के लिये केन्द्र द्वारा उपलबध करवाई गयी धनराशि को उपयोग किये बिना वापस लौटाता आ रहा है। यहाँ यह भी बताते चलें कि एक अन्य भाजपा मुख्यमन्त्री ने भी यह घोषणा की है कि वे सच्चर समिति की सिफारिशों को लागू नहीं करेंगे। महमूद ने अहमदाबाद में मुस्लिम समुदाय के बुरे हाल का भी वर्णन किया।

हम सबको यह सहर्ष स्वीकार है कि महमूद ने जो-जो बातें कहीं, वे अक्षरशः सही हैं। परन्तु असली मुद्दा कुछ ओर है। जो कुछ उन्होंने कहा, वह कोई नई जानकारी नहीं है। कई सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे हैं कि गुजरात में मुसलमानों की हालत दिन- प्रतिदिन बदतर होती जा रही है। मुस्लिम अपने मोहल्लों में सिमट गये हैं, उन्हें बैंकिंग व शैक्षणिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं और वे समाज की मुख्यधारा से कट गये हैं-ये सभी बातें कई बार, अलग-अलग मंचों से कही जा चुकी हैं। इस विषय पर कई रपटें, लेख और किताबें उपलब्ध हैं। समाज और राजनीतिक नेता उन पर ध्यान नहीं दे रहे हैं, यह एक अलग मुद्दा है। मोदी इन सब तथ्यों से अच्छी तरह से वाकिफ हैं। उनके सद्भावना उपवास से यह स्पष्ट हो गया है कि उन्हें भारत की विविधता स्वीकार्य नहीं है। जहाँ उन्होंने अन्य लोगों द्वारा भेंट की गयी रंग बिरंगी टोपियों को पहन लिया वहीं एक मुस्लिम मौलवी द्वारा दी गयी टोपी को पहनने से इंकार कर दिया। वे मुसलमानों के साथ भेदभाव करते हैं, यह सारा देश जानता है।

यह दावा किया जाता है कि गुजरात के मुसलमान, देश के अन्य राज्यों के मुसलमानों से बेहतर स्थिति में हैं। तथ्य यह है कि गुजरात के मुसलमानों का जीवन स्तर हमेशा से भारत के अन्य हिस्सों में रहने वाले मुसलमानों से अच्छा रहा है, परन्तु यहाँ मुद्दा यह है कि मोदी की ताकत बढ़ने के साथ-साथ, मुसलमानों, और कुछ हद तक ईसाईयों, की हालत में गिरावट आई है।

गुजरात के मुसलमान पिछले बारह सालों में मोदी को अच्छी तरह से पहचान गये हैं। वे मोदी की फासीवादी और साम्प्रदायिक नीतियों से परिचित हैं। मोदी ने मुसलमानों के खिलाफ सन् 2002 के कत्लेआम का नेतृत्व किया था। तब फिर, मोदी को वे बातें बताकर, जो वे पहले से जानते हैं, और मुसलमानों को वह बताकर, जो वे भोग रहे हैं, महमूद आखिर क्या हासिल करना चाहते हैं। ऐसा बताया जा रहा है कि मोदी ने महमूद को आश्वासन दिया कि वे उनके द्वारा उठाये गये मुद्दों पर विचार करेंगे। परन्तु साथ ही, महमूद के भाषण को ब्लेक आउट कर दिया गया। इसके विपरीत, मुस्लिम नेतृत्व के एक तबके की स्वीकार्यता हासिल करने के अपने प्रयास में मोदी सफल रहे। गुजरात के जानेमानेमानवाधिकार कार्यकर्ता डा. बंदूकवाला, जो कि गुजरात के कत्लेआम के स्वयं भी शिकार रहे हैं, कहते हैं, ''इस समय मोदी को केवल प्रधानमन्त्री की कुर्सी दिख रही है और मुसलमानों के कड़े विरोध के चलते, उनके लिये इस कुर्सी को हासिल करना सम्भव नहीं है। इसलिये वे मजबूरी में कुछ प्रमुख मुस्लिम नेताओं के साथ सार्वजनिक मंचों पर आकर यह दिखाना चाहते हैं कि वे सभी मुसलमानों को स्वीकार्य हैं''। दुख की बात यह है कि हमारे नेताओं ने मोदी को ऐसा करने का सुनहरा मौका दे दिया, वह भी इस बचकानी मान्यता के कारण कि वे मोदी को मुस्लिम समुदाय की भावनाओं से अवगत करना चाहते हैं! क्या जफर महमूद को यह नहीं पता कि इन मुद्दों पर पिछले ग्यारह सालों में गुजरात के मुसलमानों ने असंख्य मौकों पर प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बात की है?

मोदी ने सम्मेलनों के आयोजन के लिये जो समय चुना, उससे भी महमूद और उनके जैसे अन्य नेताओं को सावधान हो जाना चाहिये था। वे भले ही ऐसा मानते रहें कि सम्मेलनों में भाग लेने से उन्हें समुदाय की माँगों को प्रस्तुत करने का मौका मिलेगा परन्तु तथ्य यह है कि वे मोदी की एक सोची-समझी चाल में फँस रहे हैं, जिसका उद्देश्य है अपनी साख बढ़ाना और मुस्लिम समुदाय के सदस्यों को अपना अनुयायी बनाना। ठीक उसी तरह, जैसे उन्होंने एक बड़े व्यावसायी ज़फर सरेसवाला को अपने जाल में फँसा लिया है और अब जफर पूरी वफादारी से मोदी की सेवा में जुटे हुये हैं। यह सही है कि महमूद ने भाजपा की वेबसाइट को खंगालकर उसमें से मुस्लिम विरोधी साम्रगी को काफी मेहनत से छाँटकर निकाला। परन्तु वे और उम्मीद भी क्या कर सकते थे? भाजपा, आरएसएस की राजनैतिक शाखा है और अपने पूरे जीवनकाल में इस पार्टी ने जो भी मुद्दे उठाये हैं, उनसे इसका मुस्लिम-विरोध झलकता रहा है-फिर चाहे वह राममन्दिर आन्दोलन हो, जिसका अन्त बाबरी मस्जिद के ध्वंस से हुआ या गौहत्या का मुद्दा हो या धारा 370 का। हमें यह समझना होगा कि भाजपा स्वतन्त्र नहीं है। वह आरएसएस के अधीन काम करती है और संघ के स्वयंसेवक, भाजपा का संचालन करते हैं। ऐसे ही स्वयंसेवकों में से एक मोदी हैं। आरएसएस का लक्ष्य है हिन्दू राष्ट्र का निर्माण। स्वाधीनता आंदोलन में आरएसएस का क्या योगदान था? उसने स्वाधीनता आन्दोलन का विरोध किया और कहा कि ''वह आन्दोलन केवल ब्रिटिश विरोधी क्यों है!'' आरएसएस किस तरह का संविधान चाहता है? भाजपा और एनडीए ने केन्द्र में अपने शासन के दौरान, संविधान का पुनर्वलोकन करने का प्रयास क्यों किया था।

इन सभी प्रश्नों के उत्तर आरएसएस और उसके बाल-बच्चों के एजेण्डे पर केन्द्रित पुस्तकों और लेखों में सहर्ष उपलब्ध हैं। मोदी ने मुस्लिम समुदाय को अपने साथ लाने के लिये अस्थाई रूप से एक मुखौटा लगा लिया है। उन्होंने गिरगिट की तरह, केवल अपनी त्वचा का रंग बदला है। उनका दिलोदिमाग वही है। सन् 2014 के चुनाव के मद्देनजर मोदी अपने मुखौटे के बल पर वोट हासिल करना चाहते हैं। इन प्रयासों को महत्व देने और मोदी द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेने से मुस्लिम नेताओं को कुछ क्षणों की प्रसिद्धि मिल सकती है-शायद कुछ टी.वी. इन्टरव्यूह भी। उन्हें यह संतोष भी हो सकता है कि उन्होंने अपनी बात रख दी। परन्तु सच यह है कि मुस्लिम समुदाय के लिये यह एक घोर प्रतिगामी कदम है। यह ऐसा ही है मानो यहूदियों के नेता हिटलर से मिलते और उन्हें बताते कि किस तरह यहूदियों को गैस चेम्बरों में मारा जा रहा है। और यह सोचकर खुश होते की उन्होंने अपनी बात रख दी है।

अब समय आ गया है कि अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य और उनके नेता, जो सामने दिख रहा है उसके पीछे झाँककर देखें। वे इस प्रश्न पर विचार करें कि आरएसएस का एजेण्डा क्या है और आरएसएस क्यों अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य वंचित वर्गों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना चाहता है। कुछ पुस्तकों का अध्ययन भी उन लोगों की आंखे खोल सकता है, जो यह मानते हैं कि भाजपा अपना दूरगामी एजेण्डा बदल सकती है या यह कि मोदी के सम्मेलन में जाकर भाषण देने से भाजपा की अल्पसंख्यकों के प्रति नीतियां बदल जायेंगी। इनमें से कुछ पुस्तकें हैं 'व्ही. ऑर नेशनहुड डिफाइण्ड' जो अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिटलर द्वारा की गयी कार्यवाहियों की प्रशंसा करती है और 'ए बंच ऑफ थौट्स'जो मुसलमानों, ईसाईयों और कम्युनिस्टों को हिन्दू राष्ट्र के लिये आन्तरिक खतरा बताती है। इन दोनों पुस्तकों के लेखक आरएसएस के पूर्व प्रमुख एमएस गोलवलकर हैं।

(हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) 


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