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Friday, July 5, 2013

पारदर्शी शासन का अधिकार - अरुणा राय, निखिल डे

पारदर्शी शासन का अधिकार - अरुणा राय, निखिल डे


भारत में पिछले कुछ वर्षों में अधिकारों के लिए रचनात्मक सामाजिक आंदोलनों में तेजी आई है। जैसे कि काम का अधिकार, वन अधिकार, विस्थापित न किए जाने का अधिकार, भोजन का अधिकार तथा शिक्षा का अधिकार। इस लेख में भारत में सूचना का अधिकार तथा अन्य आंदोलनों से इसके संबंध के बारे में संक्षिप्त लेखा-जोखा पेश किया जा रहा है। इसमें पारदर्शी शासन और लोकतंत्र में भागीदारी के व्यापक सर्ंञ्ष के संदर्भ में इस प्रक्रिया से सीखे गए सबक पर भी चर्चा की जाएगी।
संदर्भ
भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की एकमात्र महत्वपूर्ण उपलब्धि यह राष्ट्रीय सहमति थी कि सम्प्रभु सत्ता आम जन के पास रहे। मॉडल को अपने अनुसार ढालने के बजाय वेस्टमिंस्टर को लगभग मूल स्वरूप में ही लागू कर दिया गया। अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से अपने पर शासन करने की लोकतांत्रिक धारणा को दो विरोधी ताकतों का सामना करना पड़ रहा था, जिनका शिकंजा पहले से ही समाज और शासन के ताने-बाने पर कसा हुआ था। पहली थी औपनिवेशिक नौकरशाही जिसने केवल अपना नाम बदला, लेकिन वसूली, नियंत्रण तथा लोगों पर शासन का जरिया उसी तरह बनी रही। दूसरी थी सामंती सामाजिक व्यवस्था, जिसमें अंग्रेजों ने जानबूझ कर जाति नियंत्रण को जस का तस रहने दिया और जो आज भी समाज के ञ्ृणित वर्गीकरण का आधार बना हुआ है। भारत में, जैसा कि डा. आम्बेडकर ने कहा कि जब हमने अपना संविधान बनाया तब हमने सबसे अधिक परस्पर विरोधी स्थिति पैदा की मसलन कानून के सामने सभी नागरिकों को समानता दी जबकि समाज में जन्म के आधार पर वर्गों और श्रेणियों में बंटे होने की परम्परा कायम थी। यह दोहरापन सभी समुदायों के बीच समानता की समानांतर समस्या में भी उतना ही स्पष्ट था, जो अब भी खतरा बना हुआ है। इस संदर्भ में यह एक उपलब्धि ही है कि भारत में पिछले 60 वर्षों से लोकतंत्र कायम है।
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लोकतंत्र के लिए ताजा खतरा नव-उदार आर्थिक वैश्वीकरण से सम्बद्ञ् कानूनों और नीतियों से भी है, जिसने गरीबों का जीना मुहाल कर दिया है। देश भर में लोग सार्वजनिक बहस के बिना पारित कानूनों के खिलाफ लड़ रहे हैं, जिन्होंने एक झटके में जमीन, जल, प्राकृतिक संसाधन से सम्बद्ञ् लोगों के अधिकार छीन लिए और इस तरह उन्हें जीविका और जीने के अधिकार से महरूम कर दिया। इस नयी अर्थव्यवस्था के हिमायती यह नहीं देख पा रहे हैं कि अपने ही लोगों को बड़ी संख्या में उनके ही संसाधनों से विस्थापित करना न केवल उनके जीवन बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं और शांति के लिए भी खतरा है।
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अपनी स्पष्ट खामियों के बावजूद लोकतंत्र गरीब और सीमांत (कमजोर) लोगों को परिवर्तन की प्रक्रिया में शामिल करता है। हालांकि उनके लिए काम हुए और वे लाभान्वित भी हुए हैं, लेकिन उन्हें सत्ता में भागीदारी नहीं दी गई। अधिकतर सभी सरकारों ने गरीबों को केवल आश्वासन ही दिए हैं तथा हाल तक ये दावे किए जाते रहे कि विकास योजनाओं के केंद्र में वे ही हैं।
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लोकतांत्रिक तरीके से कामकाज के लिए पंचायत जैसी स्थानीय संस्थाएं स्थापित की गईं तथा गरीबों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सिद्ञंतत: कई गरीबी-विरोधी कार्यक्रम शुरू किए गए। लेकिन पता चला कि अमीर और प्रभावशाली लोगों के लाभ के लिए इन संस्थाओं और योजनाओं का खुलेआम दुरुपयोग किया गया। आज बेशर्मी के साथ स्वीकार किया जाता है कि जो चीज मायने रखती है वह है आर्थिक विकास। इस नव उदारवादी ढांचे के बावजूद, गरीबों की बहुत बड़ी संख्या तथा चुनावी राजनीति की मजबूरी के कारण राजनीतिक दल गरीबों की आवश्यकताओं पर ध्यान देने के लिए बाध्य हैं। लेकिन चाहे वह 'गरीबी हटाओ' का युग हो या हाल में 'गरीब हटाओ' का दौर, दलित और सीमांत समुदायों के लिए अपनी व्यथा सार्वजनिक करने के वास्ते लोकतंत्र और लोकतांत्रिक साधन महत्वपूर्ण रहे हैं। व्यापक प्रश्न यह है कि क्या लोकतंत्र कमजोर तबके को अपना भाग्य बनाने के लिए सक्रिय भूमिका का अवसर भी प्रदान करता है। क्या एक-तरफा विकास-प्राथमिकताओं का पर्दाफाश करने तथा वैकल्पिक विकास व्यवस्था की मांग के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों का रचनात्मक उपयोग किया जा सकता है, ताकि गरीब और सीमांत लोगों को बुनियादी सुविधाएं मिल सकें।
यह तथ्य कि एक ऐसे समय में जब राज्य अपनी बुनियादी जिम्मेदारियों से हट रहा है उस समय सूचना का अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) कानून का बनाया जाना बता देता है कि वह कितना प्रभावी हो पाएगा। भारतीय जनता पार्टी ने अपने ''शाइनिंग इंडिया'' अभियान की जो राजनीतिक कीमत चुकाई है वह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के दिमाग में ताजा है। इसी वजह से उसने गरीबों की आवश्यकताओं पर केंद्रित राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम (एनसीएमपी) तैयार किया। एनआरईजीए को स्वतंत्रता के बाद गरीबों के प्रति सबसे महत्वपूर्ण कानूनी वचनबद्ञ्ताओं में से एक माना जा रहा है, लेकिन इसके बावजूद सीमित रोजगार गारंटी के कारण यह महज खानापूर्ति रह गया है। इसके विपरीत बड़े व्यवसायियों को, अक्सर गरीबों की कीमत पर, असीमित आर्थिक सुविधाएं दी जा रही हैं। अमीरों और गरीबों के बीच की इस असमान लड़ाई में सूचना का अधिकार लोकतंत्र में नैतिक सरोकारों को सामने लाने के लिए जन अभियान को पारदर्शिता और जवाबदेही की सुविधा प्रदान करता है। आरटीआइ का अगर सही इस्तेमाल किया गया तो यह आम आदमी और उसकी आवश्यकताओं के खिलाफ खड़ी सत्ता की ताकत के संतुलन को बदलने के लिए कमजोरों का महत्वपूर्ण हथियार बन सकता है।
सूचना के अधिकार के लिए सर्ंञ्ष
राजनीति में, अक्सर आम आदमी का जीवन हम सभी के लिए सबसे महत्वपूर्ण सबक होता है। हम आपको मध्य राजस्थान के लोगों के जीवन की कुछ दृष्टांतपरक कहानियां और सबक बताते हैं जिनके बीच हम रहे और काम किये। यह आम जीवन तथा कुछ लोगों के असाधारण प्रयासों के बारे में है, जिन्होंने अपने विचारों और रचनात्मक ऊर्जा से संयुक्त रूप से बदलाव लाने के प्रयास किये, जिसे वे व्यक्तिगत रूप से नहीं ला सकते थे। सामाजिक-राजनीतिक समस्याएं अन्य लोगों की करनी का फल हो सकते हैं, लेकिन इसका हल हमलोगों के पास है जो इनसे परेशान हैं। यह साबित हो गया है कि स्वशासन के अधिकार के लिए यदि मिलकर दृढ़संकल्प हो प्रयास किए जाएं तो इससे उन सभी लोगों में एक नई आशा जगेगी जो अन्याय का सामना करने में अपने को कमजोर और असहाय पाते हैं। यह अपना नजरिया बदलने और आशा जगाने की कहानी है।
सरकार का पैसा किसका पैसा है?
भारत में निचले स्तर पर लोग मानते हैं कि सरकार ऐसी वस्तु है जिस पर वे नियंत्रण नहीं रख सकते हैं। जब 1980 के दशक के अंत में मध्य राजस्थान में एमकेएसएस अपने शुरूआती दौर में था, उस समय यह एक आम तथ्य था। लोग सालों से चले आ रहे कुशासन तथा सरकारी कर्मचारियों की निर्दयता से तंग आ चुके थे तथा हताश और निराश हो कर मान चुके थे कि सरकार अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभाएगी। यहां तक कि उनके गांवों में लोक निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार और अक्षमता को भी यह कहते हुए अनदेखा कर दिया जाता कि 'सरकारी पैसा है - जलने दो'। सरकारी कामकाज की यह परिभाषा, भ्रष्टाचार के प्रति उदासीनता और इन कार्यक्रमों को चलाने में अक्षमता तथा सत्तारूढ़ लोगों द्वारा जानबूझ कर आम आदमी को निर्णय लेने की प्रक्रिया से अलग करने के कारण यह विकट स्थिति बनी। प्रश्न और चुनौती ये थी कि इस असहायपन की स्थिति को कैसे बदला जाए।
पहली सफलता: हमारा पैसा, हमारा हिसाब
कई बैठकों में इस समस्या पर विचार किया गया और मध्य राजस्थान के आर्थिक रूप से अत्यधिक पिछड़े इलाकों में से एक के निरक्षर महिलाओं और पुरुषों ने साथ बैठकर विचार किया कि इस विकट स्थिति से कैसे निपटा जाए। इसका उत्तर विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं या शहरी बुदि्ञ्जीवियों से नहीं मिला। ये मोहनजी, नारायण लाल सिंह, सुशीला, चुन्नी सिंह और कई अन्य थे जिनका विश्वास था कि यदि दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं किया गया तो हमारे किसी भी दृष्टिकोण की वस्तुनिष्ठ आंकड़ों के जरिए पुष्टि नहीं हो सकेगी। गरीब अपने अधिकार के लिए लड़ने को तैयार थे, परंतु इस असमान लड़ाई में उनसे हमेशा कहा जाता कि उनका 'सच्चाई से संबंधित विवरण' सरकारी दस्तावेजों के विपरीत है। लड़ाई के इस दौर में उन्हें महसूस हुआ कि उनके प्रति हो रहे अन्याय और शोषण को साबित करने के लिए उन्हें इन दस्तावेजों तक पहुंचना होगा और उन्हें सार्वजनिक करना होगा। इसलिए सूचना का अधिकार दिहाड़ी कमाने, सम्मान से जीने, यहां तक कि जीवन का अधिकार हासिल करने के साधन के रूप में सामने आया। उसने जीविका के मुद्दे को व्यापक नैतिक मुद्दों से जोड़ने के लिए लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल किया।
सरकारी कर्मचारियों की प्रतिक्रिया
सरकार और उसके कर्मचारी किसी चीज को कृपा के तौर पर देने को तैयार रहते हैं न कि किसी हक या अधिकार के तौर पर। इसीलिए दस्तावेज देखने और स्थानीय स्तर पर हुए खर्चे की प्रतिलिपि हासिल करने की मांग पर दो समानांतर प्रतिक्रियाएं सामने आईं। एक प्रतिक्रिया निचले स्तर के कर्मचारियों की थी, जिनके गलत कामों के इस तरह सार्वजनिक करने से, पर्दाफाश होने की संभावना थी। लेकिन जो सीधे तौर पर प्रभावित नहीं थे उनकी भी नकारात्मक प्रतिक्रिया जल्दी ही सामने आई। शासन पर नियंत्रण की इस लड़ाई के लंबे सर्ंञ्ष में बदल जाने के पीछे सत्तारूढ़ लोगों को यह आशंका थी कि बिना जवाबदेही के शासन करने का उनका एकाधिकार समाप्त हो जाएगा। भारत में लोकतांत्रिक ढांचे के कारण सरकार के लिए यह असंभव है कि वह सूचना की मांग का खुलेआम विरोध करे। लेकिन छल-कपट, देरी, दिखावटी आश्वासन जैसे तरीके इस आशा से अपनाए गए कि इस लंबी लड़ाई में लोग थक कर हार मान लेेंगे।
व्यक्ति से समूह तक
शुरुआत में चुनी हुई पंचायतों में विकास व्यय से सम्बद्ञ् दस्तावेजों की जानकारी हासिल की गई तथा मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) ने फैसला किया कि उनका खुलासा करके उन्हें सम्बद्ञ् पंचायतों के लोगों के सामने रखा जाए। दस्तावेजों के सार्वजनिक होते ही लोगों के नजरिए में बड़ा बदलाव आया। न्यूनतम वेतन का भुगतान जैसी लड़ाइयां व्यक्तिगत हक के लिए थीं। यह 'अपने पैसे' की मांग थी। जैसे ही दस्तावेज सार्वजनिक हुए लड़ाई सामूहिक हो गई। दस्तावेजों ने स्पष्ट कर दिया कि केवल मजदूरी से वंचित किए जाने वाले लोगों का ही शोषण नहीं हुआ बल्कि पूरे गांव और क्षेत्र के विकास को नुकसान पहुंचा। लोगों के नजरिए में तेजी से नाटकीय बदलाव आया और 'मेरा पैसा' 'हमारा पैसा' बन गया तथा पहली बार गांवों में शोषण के खिलाफ लड़ रहे गरीबों और भ्रष्टाचार से लड़ रहे मध्य वर्ग के बीच एक महत्वपूर्ण गठबंधन बन गया। इस गठबंधन को बनाने के पीछे एकमात्र कारक था दस्तावेजों के विश्लेषण से मिली जानकारी। दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की मांग से उत्पन्न खतरे को सरकारी कर्मचारी तुरंत भांप गए। वे मांगी गई सूचनाओं को न देने के लिए तुरंत लामबंद हो गए। लेकिन लोग जान चुके थे और यह उनके सशक्त नारे ''हमारा पैसा हमारा हिसाब'' से जाहिर था। इससे पता चलता था कि लोग अपने सर्ंञ्ष में कितने आगे निकल आए थे।
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स्थानीय स्तर के खर्च से सम्बद्ञ् दस्तावेजों तक पहुंच का अधिकार जीविका के मुद्दे से शुरू हुआ। काम, मजदूरी, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं की कमी गरीबों के लिए सबसे अधिक चिंताजनक बात है। सरकार से सालों तक बाहर से लड़ने के बाद सूचना के अधिकार ने अंतत: सोच को एकदम उलट दिया। लोग अब मानने लगे हैं कि शासन के सभी संस्थाओं का, जिन पर उनका नैसर्गिक अधिकार होना चाहिए, अपहरण किया जा रहा है। इसका असर हुआ और उन्हें सर्ंञ्ष के रास्ते में आने वाले सबसे बड़े अवरोध लोगों की उदासीनता और असहायपन, को दूर करने में मदद मिली। एक और नारा उभरा जिसने लोकतांत्रिक अधिकार को आर्थिक अधिकार के साथ जोड़ा। 'हम जानेंगे-हम जिएंगे' ने विश्व भर में सूचना के अधिकार पर विचार-विमर्श को नई दिशा दी।
दूसरी सफलता : जवाबदेही
दिसम्बर, 1994 में जब 'जन सुनवाई' के सार्वजनिक मंच पर लोगों के सामने पहली बार दस्तावेज रखे गए तो प्रतिक्रिया अभूतपूर्व थी। ऐसा नहीं कि लोगों को पहली बार भ्रष्टाचार के बारे में पता चला या उसपर गौर किया, बल्कि उन्हें एकदम से यह पता चल गया कि कौन भ्रष्ट है, कहां पर और कैसे भ्रष्टाचार हुआ तथा चोरों की पहचान हुई। व्यक्तिगत शिकायतों की जगह व्यापक मुद्दे के तौर पर पंचायत को सौंपे गए पैसे में की गयी हेराफेरी ने ले ली।
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सबसे अधिक चौंकाने वाली बात थी नियम और कानून को ताक पर रखने की प्रवृत्ति। मजदूरों के मस्टर रोल में मृतक व्यक्तियों के नाम डाल देना जिनके पास बैलगाड़ी नहीं थी उनसे उनका भुगतान करने को कहना, गैर-पंजीकृत कम्पनियों द्वारा काल्पनिक सामग्री का उपलब्ध कराया जाना, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं था। ''हमारा पैसा, हमारा हिसाब'' के नजरिए ने इस सर्ंञ्ष को व्यापक राजनीतिक भागीदारी तक पहुंचा दिया, जिसमें जवाबदेही और वास्तविक स्वशासन की जरूरत पर जोर दिया गया। मेरे पैसे की जगह हमारे विकास, और हमारे काम को तरजीह देने से स्कूल, सड़क, तालाब, चेक डैम, सामाजिक वानिकी जैसे मुद्दे केंद्र में आ गए। ऐसी बात नहीं थी कि पहले लोग इन मुद्दों का विरोध करते थे लेकिन इस तरफ उनका ध्यान नहीं जाता था। मजदूरी का भुगतान न किए जाने और विकास के ढांचे के टूटने के बीच संबंध होने से गरीब और ग्रामीण मध्य वर्ग साझे हित में इस बात पर एकजुट हो गए कि सार्वजनिक पैसे को किस तरह खर्च किया जाएगा। विकास के बारे में चर्चा अब अपेक्षाकृत ज्यादा रोचक और अर्थपूर्ण होने लगी तथा विकास योजनाओं के हाशिए पर रहने वाले योजना से सम्बद्ञ् मुद्दों के महत्व को समझने लगे, जिनकी वे पहले अनदेखी करते थे। भूख और विकास योजनाओं के बीच संबंध के साथ-साथ प्राथमिकताओं तथा आवंटन की परिभाषा की समझ से स्वशासन की प्रक्रिया के प्रति आम लोगों की रुचि में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए।
तीसरी सफलता : स्वशासन का अधिकार
'ये सरकार हमारी आप की, नहीं किसी के बाप की' 
सार्वजनिक लेखा परीक्षा के तरीके तथा लोगों के प्रति सरकार की जवाबदेही की अवधारणा सार्वजनिक सुनवाई के जरिए स्पष्ट हो गयी। इस अभियान के दौरान नजरिए में एक और महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई दिया। लोगों द्वारा सरकार के कार्यों और कुकृत्यों के हिसाब-किताब के अधिकार की मांग किए जाने तथा चुने गए प्रतिनिधियों और सरकारी कर्मचारियों द्वारा इसका विरोध किए जाने से यह प्रश्न पैदा हुआ कि वास्तव में आखिरकार सरकार पर किसका मालिकाना हक है। सार्वजनिक कार्य की लेखा परीक्षा करने के एमकेएसएस के अधिकार क्षेत्र पर शायद प्रश्न उठाए जा सकते हैं। लेकिन लोगों की तरफ से शासन करने वालों की बजाय खुद लोगों द्वारा फैसला करने के तुलनात्मक अधिकार क्षेत्र पर कौन प्रश्न उठा सकता है। यह नारा 'सरकार हमारी आप की नहीं किसी के बाप की!' शासन पर स्वामित्व के प्रति नजरिए में बदलाव की ओर संकेत करता है। इस अभियान में जवाबदेही के लिए लोकतांत्रिक आश्वासनों का उपयोग किया गया। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा अचानक दिए गए इस बयान को गंभीरता से लिया गया कि वह लोगों को पंचायतों के मस्टर रोल, बिल और वाउचरों की फोटो प्रतिलिपि देखने के लिए 'सूचना का अधिकार' देंगे। इस बयान का महत्व इसलिए भी था क्योंकि यह बयान विधानसभा में दिया गया था तथा राजस्थान के एक अखबार 'दैनिक नवज्योति' के पहले पन्ने पर छपा था। लेकिन सरकारी कार्यालयों में बार-बार जाने से कुछ हासिल नहीं हुआ। अंतत: आम लोगों के मन में सभी राजनीतिक वादों की जवाबदेही को जानने के अधिकार से जोड़ने की बात उठी। 1996 में ब्यावर में और 1997 में जयपुर में लंबे धरने के दौरान यह मुद्दा केंद्र में था। इस समय तक यह स्पष्ट हो गया था कि सूचना के अधिकार के बारे में एक नई चर्चा उभर रही है, जिसमें सूचना को जीवन के अधिकार से जोड़ा गया है। 'हम जानेंगे, हम जिएंगे' के नारे ने इस मुद्दे पर न केवल लोगों की भागीदारी को रेखांकित किया बल्कि एक विशाल और सक्रिय जनसमूह को भी जोड़ा, जो इस मुद्दे के लिए सर्ंञ्ष और राजनीतिक लामबंदी के जरिए अभियान चलाने का इच्छुक था। इस नए गठबंधन ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी मुद्दे को समझने में काफी मदद की।
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चुनावी या अन्य वायदों के प्रति राजनीतिक जवाबदेही तय करने की मुहिम ने केवल वोट मांगने के लिए और फिर तुरंत भूल जाने के लिए किए गए अनगिनत वायदों को जवाबदेहीपूर्ण बनाने पर जोर दिया। इस मुद्दे की गंभीरता और लोगों द्वारा तैयार किया गया सैद्ञंतिक आधार सिर्फ सफलता में खत्म नहीं होते बल्कि यह साधारण जनता को बनाये रखने और विधायिका के संक्रमण की प्रक्रिया को ऊर्जावान किये रहने का शक्तिशाली आधार तैयार करता है। एक मजबूत आरटीआइ अधिनियम की आवश्यकता स्पष्ट हो गई थी न केवल इसलिए कि सरकारी गोपनीय कानून (1923) जिसे एशिया और अफ्रीका के अधिकतर ब्रिटिश उपनिवेशों ने औपनिवेशिक विरासत के तौर पर अपना लिया था, बल्कि इसलिए भी कि नौकरशाहों को सक्रिय ढंग से सूचना देने के लिए बाध्य करने के वास्ते एक सशक्त कानून की जरूरत थी। 1996 में ब्यावर के धरने में बड़ी संख्या में सभी वर्गों के लोगों ने हिस्सा लिया और राजस्थान से उठी यह मांग राष्ट्रीय मुद्दा बन गई, तथा जनता के सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान (एनसीपी आरटीआइ) का जन्म हुआ। प्रेस के वरिष्ठ सदस्यों ने विशेष रूप से इसमें रुचि ली तथा न्यायमूर्ति पीबी सावंत की अध्यक्षता में भारतीय प्रेस परिषद ने नागर समाज के विभिन्न वर्गों के सदस्यों - न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिज्ञों, प्रशासनिक अधिकारियों तथा मुख्यधारा के समाचारपत्रों के संपादकों आदि के साथ विचार-विमर्श के बाद पहला कानून तैयार करने की जिम्मेदारी ली। प्रेस परिषद मसौदा नामक इस मसौदे ने बाद के सभी कानूनों के लिए मूल मसौदे का काम किया तथा इसे 1996 में सभी राज्यों और संसद सदस्यों को भेजा गया। कई राज्यों ने अपने कानून बनाए, तथा 1996 में तमिलनाडु द्वारा की गई शुरूआत के बाद कई राज्यों में यह कानून पारित किया गया।
सूचना के अधिकार पर कार्रवाई
विभिन्न राज्यों के आरटीआइ कानून में कई खामियां हैं, जिससे उन्हें लागू करना कठिन हो रहा है। हर व्यक्ति उनकी अलग व्याख्या करता है। लेकिन विभिन्न राज्यों में इसके इस्तेमाल के बारे में सामाजिक कार्यकर्ताओं के सतत एवं नवीन प्रयासों से इस अभियान को गति मिली है। उदाहरण के तौर पर राजस्थान के कानून में दंड का प्रावधान नहीं है। इसका मतलब यह है कि दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई अब भी प्रशासनिक सेवा आचार नियमों की अविश्वसनीय और दुष्कर प्रक्रिया पर निर्भर है। लेकिन इस कानून और इसकी कमियों ने ज्यादा सजग नागरिक कार्रवाई तथा राष्ट्रीय कानून की तैयारी के लिए आवश्यक जागरूकता के वास्ते रास्ता तैयार किया। कर्नाटक में इस अभियान में मजबूती आई क्योंकि लोग 'कर्नाटक सूचना का अधिकार अधिनियम मंच' (केआरआईए-कट्टे) नामक सक्रिय मंच में संगठित हुए। इस नेटवर्क ने न केवल राज्य के कानून से सम्बद्ञ् मुद्दे उठाए बल्कि राष्ट्रीय कानून के क्रियान्वयन, इसके नियम और राज्य में सूचना आयुक्त की नियुक्ति के बारे में त्वरित और कारगर प्रतिक्रिया भी व्यकत की। महाराष्ट्र में राज्य के कानून से सम्बद्ञ् प्रक्रिया ज्यादा महत्वपूर्ण थी। अन्ना हजारे के नेतृत्व में जन संगठनों के अत्यधिक दबाव के कारण राज्य के इस अत्यधिक कमजोर कानून को रद्द कर दिया गया। इस अभियान की वजह से महाराष्ट्र में देश का सबसे अच्छा कानून पारित किया गया, जिसने राष्ट्रीय अधिनियम को तैयार करते समय क ई मुद्दों पर नमूने का काम किया। इसलिए इस तथ्य के बावजूद कि महाराष्ट्र सहित कई राज्य राष्ट्रीय कानून लागू होने के कारण अपने कानून रद्द कर रहे हैं, हर एक राज्य के अनुभव ने ज्यादा प्रभावकारी केंद्रीय अधिनियम तैयार करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इस आंदोलन का व्यापक आधार इस बात का सबूत है कि साझा सरोकार वाले अनगिनत लोगों और संगठनों के लिए यह मुद्दा महत्वपूर्ण है।
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इन प्रयासों की पराकाष्ठा राष्ट्रीय सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 था, जिसे 2005 के मध्य में पारित किया गया। आरटीआइ कानून ने अपने क्रियान्वयन के पहले साल में नागरिकों की कार्रवाई में नई जान फूंकी तथा प्रकम्पित नौकरशाही ढांचे के होश उड़ा दिए। इसने प्रदर्शित किया कि किस तरह से सही किस्म का कानून लोगों की साझेदारी और कार्रवाई को प्रोत्साहित करता है। लोग देश भर में इस कानून का इस्तेमाल करने लगे हैं, उन क्षेत्रों में भी जहां कोई आरटीआई आंदोलन नहीं हुआ। इसके इस्तेमाल को लोकप्रिय बनाने के लिए अभियान चलाए गए। संचार माध्यमों के एक वर्ग ने इसके उपयोग की वकालत की और खुद भी इसका इस्तेमाल किया तथा नियमित रूप से इसके क्रियान्वयन के बारे में जानकारी दी। इसके जनता का कानून होने का सबसे नाटकीय सबूत था जुलाई-अगस्त, 2006 में इसके प्रावधानाें को संशोधित करने तथा कमजोर बनाने के सरकार के प्रयास का देशव्यापी त्वरित और तीव्र विरोध। देश भर से लोगों द्वारा पूछे गए गहन प्रश्न उन असीमित संभावनाओं की ओर संकेत करते हैं जिनका इस्तेमाल होना अभी शुरू ही हुआ है।
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कार्मिक विभाग के नेतृत्व में सरकार द्वारा की जा रही कोशिश कि फाइल पर की जाने वाली टिप्पणियों और आरटीआइ अधिनियम के महत्वपूर्ण हिस्से को बाहर कर दिया जाए, आने वाले दिनों में इन नेटवर्कों का इम्तिहान लेंगे। लेकिन कार्यकर्ताओं के अलावा अन्य लोगों के बीच जागरुकता बढ़ने से यह मुद्दा लोकप्रिय हो रहा है।
सूचना का अधिकार और अन्य अभियान
तथाकथित मुख्यधारा की राजनीतिक प्रक्रिया के अलावा विभिन्न क्षेत्रों में फैसला करने की प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी के लिए अभियानों और आंदोलनों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है। केरल में जन योजना अभियान, जनजातीय स्वशासन अभियान, स्थाई विकास के वास्तविक मॉडल जिनका प्रतिनिधित्व मछुआरों और मजदूरों के संगठन करते हैं, बजट विश्लेषण समूहों का गठन, बिजली-क्षेत्र की नीति का व्यापक विश्लेषण तथा कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में नागरिक समूहों द्वारा सुधार कार्यक्रम और विकास के वर्तमान प्रारूप के सक्रिय और कट्टर आलोचकों द्वारा नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसा सर्ंञ्ष संभव हो पाया। लोगों द्वारा राजनीतिक भागीदारी के भी अनगिनत प्रयास किए जा रहे हैं, जहां लोगों के संगठन और नागरिक समूह न केवल अनैतिक और भ्रामक नीतियों की आलोचना कर रहे हैं बल्कि विकल्प भी सुझा रहे हैं।
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इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सभी समूहों द्वारा चुनावी प्रक्रिया के बाहर लोकतांत्रिक जगहों का रचनात्मक इस्तेमाल है। स्थापित राजनीतिक दलों की यह स्वयं सिद्ञ् आलोचना है कि जहां वे असफल रहे वहीं ये छोटे समूह वास्तविक राजनीतिक विकल्प तैयार करने में सफल रहे। इससे पता चलता है कि यदि नैतिक मुद्दे प्रतिबद्ञ् लोगों के छोटे समूहों द्वारा भी उठाए जाते हैं तो ये लोकतांत्रिक बहस को सकारात्मक और बुनियादी ढंग से प्रभावित कर सकते हैं।
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सूचना के अधिकार के अभियान ने इस प्रक्रिया को लोकतांत्रिक बनाने तथा पहले से चल रहे जन अभियानों के दायरे से बाहर तक ले जाने मेें मदद की है। प्रत्येक राज्य में जैसे महाराष्ट्र में शिवाजी राउत या शीलेश गांधी, ऐसे व्यक्ति हैं जो आरटीआइ अभियान का प्रतीक बन गए हैं और जनहित के मामलों के बारे में उनकी लगातार पूछताछ से स्पष्ट हो गया है कि कैसे एक अकेला व्यक्ति प्रश्न पूछने की प्रक्रिया की शुरूआत कर सकता है। दूसरे लोग भी हैं, जैसे त्रिवेणी, जिसका राशनकार्ड दिल्ली में आरटीआइ के इस्तेमाल के नाटकीय असर का प्रतिनिधि बन गया। उसने अन्य लोगों को भी अपने हिस्से की राशन की मांग करने के लिए प्रेरित किया। दूसरी तरफ, राजस्थान में जनवाद की गोपी कई अन्य लोगों की टूटी आशाओं का प्रतीक बन गयी है। उसके मामले ने भ्रष्टाचार का पर्दाफाश किया और उसे राष्ट्रीय प्रचार भी मिला। लेकिन मजदूरी पाए बिना उसकी मृत्यु हो गई, जिसके लिए उसने लंबे समय तक सर्ंञ्ष किया था। इनकी ये व्यक्तिगत लड़ाईयां नीति और क्रियान्वयन से सम्बद्ञ् बड़ी लड़ाई का प्रतीक बन गयी हैं।
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हालांकि आरटीआइ ने कई लोगों की व्यक्तिगत शिकायतें दूर करने में मदद की है, लेकिन यह स्पष्ट है कि व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए आरटीआइ के इस्तेमाल की व्यापक संभावना है। इस तरह का परिवर्तन तभी संभव है, जब एक प्रश्न अपने को समूह के साथ जोड़े और व्यापक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बने। राष्ट्रीय कानून के लागू हो जाने से हम इस तरह की लोकतांत्रिक कार्रवाई की आशा कर सकते हैं, जिसमें से कुछ व्यक्तिगत पहल से शुरू हो सकते हैं। लेकिन व्यापक मुद्दों के साथ इसके जुड़ जाने से निश्चित रूप से यह लोकतांत्रिक बहस और सामूहिक कार्रवाई की तरफ बढ़ेगा।
इसका एक उदाहरण दिल्ली में जलापूर्ति का निजीकरण है। 'परिवर्तन' की मधु भादुड़ी ने दिल्ली जल बोर्ड द्वारा जल सुधार के लिए उठाए गए कदमों के बारे में जानकारी मांगी। एक प्रारंभिक प्रश्न से शुरू होकर यह मामला चार हजार पेजों के दस्तावेज तक जा पहुंचा। इस दस्तावेज की प्रतिलिपियों से विश्व बैंक की भूमिका का पर्दाफाश हुआ, जो पीने के पानी के वितरण के प्रबंधन के निजीकरण के लिए दिल्ली सरकार पर दबाव डाल रहा था। अंतत: नागरिक समूहों के तीव्र दबाव के तहत दिल्ली सरकार और विश्वबैंक ने यह योजना वापस ले ली।
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भारत भर में सूचना का अधिकार के अभियान का असर उसके हालिया संदर्भ तक ही सीमित नहीं रहा है। सार्वजनिक सुनवाई, सामाजिक हिसाब-किताब के जरिए आरटीआइ का संस्थानीकरण, कुछ मामलों में अनुकरणीय कार्रवाई, भविष्य में भी व्यक्तिगत रूप से विवरणों की जांच द्वारा किसी भी अधिकारी के कार्यों और करतूतों पर नियंत्रण के अवसर ने व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकने में नाटकीय और कारगर असर दिखाया है।
सूचना अधिकार का अस्तित्व शून्य में नहीं हो सकता। परिभाषा के तहत इसे किसी मुद्दे या अभियान से जोड़ा जाना जरूरी है। तिरछी काट वाला यह गठजोड़ अधिकार की प्रवृत्ति को भी स्थापित करता है : यह अन्याय और असमानता के खिलाफ सभी संञ्र्षों के लिए लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार है। यह मान्यता इसकी शक्ति है और अन्य अभियानों तथा आंदोलनों से इसके अटूट संबंध को स्पष्ट करती है, जिन्हें यह रचनात्मकता और शक्ति देती है। उदाहरण के तौर पर राजस्थान में महिलाओं के आंदोलन ने महिलाओं पर अत्याचार के मामले में हुई प्रगति की जानकारी के लिए इसका इस्तेमाल किया और मांग की कि सम्बद्ञ् महिलाओं को उनके मामलों की प्रगति के बारे में तथा विभिन्न महत्वपूर्ण चिकित्सा-कानूनी पहलुओं और फोरेंसिक रिपोर्ट की जानकारी दी जाती रहे। नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकार समूह पुलिस और बंदी गृहों में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए सूचना के अधिकार के सिद्ञंतों का उपयोग कर रहे हैं। बांध और फैक्ट्रियों के कारण विस्थापित, राशन की दुकानों द्वारा अपने अधिकारों से वंचित लोग, औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषण से प्रभावित समुदाय, अपने खेतों और ञ्रों से निकाले गए वनवासी, विभिन्न जन आंदोलनों के उदाहरण हैं, जो उनके जीवन की लड़ाई की सच्चाई को सामने लाने के लिए सूचना के अधिकार के प्रावधानों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
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हालांकि, लोगों को सूचना के अधिकार से वंचित करना अब लगभग असंभव हो गया है, लेकिन कई मामलों में सूचनाएं निर्धारित तरीके या समय सीमा के भीतर नहीं मिल पा रही है। कुछ मामलों में ये उपलब्ध ही नहीं कराई जा रही है। जैसे-जैसे प्रश्न तीखे होते जाते हैं, प्रशासन इनसे अलग होने को बाध्य हो जाता है। सामूहिक प्रश्नों को सार्वजनिक किए जाने से आरटीआई को फैसले की प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए जनमत तैयार करने और इस तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था को और जबावदेह बनाने के साधन के रूप में लोग देखने लगे हैं।
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इसलिए ऐसा नहीं है कि आरटीआइ ने केवल मनमाने प्रशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में ही अपना महत्व सिद्ञ् किया है। पारदर्शी शासन के सिद्ञंतों ने भी विकास के वैकल्पिक तरीके की वकालत करने वाले पहले से सक्रिय एजेंडे के साथ इस अभियान की सहायता की है।

सूचना का अधिकार और काम का अधिकार
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) के लिए हाल के सर्ंञ्ष से यह स्पष्ट हो गया है कि सूचना का अधिकार और अन्य अभियान एक दूसरे के पूरक हैं। एनआरईजीए को मध्य 2005 में लगभग उसी समय पारित किया गया जब सूचना का अधिकार अधिनियम लागू किया जा रहा था और इस मुकाम को पाने के लिए चलाए गए अभियानों ने कई तरह से एक-दूसरे को मजबूती प्रदान की।
सार्वजनिक कार्यों में रोजगार के बारे में आरटीआइ के जरिये उठाए गए प्रश्नों के कारण एनआरईजीए की मांग बढ़ी। व्यापक रूप से इस बात को स्वीकारा गया कि आरटीआइ अभियान के जरिये राजस्थान में 2001-2002 में सूखा राहत कार्यक्रमों पर खर्च किए गए छह अरब रुपये में संभावित भ्रष्टाचार के स्तर को ञ्टाया गया। मस्टर रोल और सूखा राहत कार्यक्रमों पर जनता की निगाह के कारण हाल में पारित रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत स्वीकृत कार्यों में भ्रष्टाचार से निपटने में कारगर ढंग से मदद मिली है।
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शीञ््र ही रोजगार कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के साथ-साथ लोग इससे सम्बद्ञ् नीतियों पर भी ध्यान देने लगे हैं। सरकार के खर्च के स्वरूप को लेकर लोग नीतिगत प्रश्न उठाने लगे और चूंकि लोगों को भ्रष्टाचार और उनकी जीविका पर इसके असर का पता चल चुका था, उन्हें यह समझने की कोशिश नहीं करनी पड़ी कि पैसे के आवंटन के बारे में भी प्रश्न किए जा सकते हैं, विशेष रूप से जब गरीबों के हित में पैसे का आवंटन न हो। दस्तावेजों को सार्वजनिक करने से लोगों को पता चला कि भ्रष्टाचार, अक्षमता और गैर जवाबदेही से लड़ने के लिए उनके पास एक हथियार मौजूद है। इसे देखते हुए एनआरईजीए के लिए सर्ंञ्ष करने का उनका इरादा और मजबूत हो गया। वे आधिकारिक रूप से सत्यापित तथ्यों की मदद से अपनी दलील पेश कर सकते थे तथा गरीब विरोधी मुद्दों की तरफ ध्यान खींच सकते थे।
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जैसे ही राजस्थान में एनआरइजीए की मांग बढ़ी वैसे ही अन्य समूह, राजनीतिक गठबंधन, मजदूर संगठन और एनआरईजीए के लिए लड़ रहे जन समूह एकजुट हुए तथा 2003-04 के दौरान विभिन्न बैठकें कर विधेयक का मसौदा तैयार किया गया। पीपुल्स एक्शन फॉर इम्प्लॉयमेंट गारंटी नामक व्यापक गठबंधन के नेतृत्व में इस समूह ने राजनीतिक दलों के साथ विचार-विमर्श किया और कई दलों ने इसे अपने चुनावी ञेषणा पत्रों में शामिल किया। 2004 में यूपीए सरकार सत्ता में आयी जिसने चुनावी वायदे पूरे करने के लिए एजेंडे के तौर पर राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार किया। पहली प्रतिबद्ञ्ता निमलिखित थी : ''यूपीए सरकार तुरंत राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम पारित करेगी। यह शुरू में हर साल सम्पत्ति का निर्माण करने वाले सार्वजनिक कार्यक्रमों में प्रत्येक ग्रामीण, शहरी गरीब निम मध्य वर्ग के परिवार में से काम करने योग्य कम से कम एक व्यक्ति को न्यूनतम मजदूरी के साथ सौ दिन के रोजगार की कानूनी गारंटी प्रदान करेगा।''
गरमागरम बहस और विवाद के बीच यह कानून पारित किया गया। आरटीआइ और एनआरईजीए दोनों को हालांकि एक ही साल पारित किया गया, लेकिन इन दोनों कानूनों के प्रतिरोध की भिन्न वजहें थीं। जैसा कि पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने एनआरईजीए और आरटीआइ के बारे में कहा था कि 'एक में मनी (पैसा) नहीं है और दूसरे में मन नहीं है' कुछ समय तक यह चर्चा टीवी कार्यक्रमों में भी छायी रही तथा कई दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री एनआरईजीए समर्थकों से वाद-विवाद करते रहे। अन्य अर्थशास्त्रियों ने इसकी व्यवहारिकता पर प्रश्न उठाए। इसका नतीजा यह भी हुआ कि कई सालों के बाद मुख्यधारा के प्रचार माध्यमों में गरीबी और बेरोजगारी पर केन्द्रित बहस ने स्थान पाया और इससे सार्थक चर्चा शुरू हुई। इस विवाद का फायदा उठाते हुए सरकार ने इसके अधिकार क्षेत्र को सीमित कर दिया और सार्वजनिक तौर पर इसके स्पष्टीकरण और औचित्य के बारे में पूछा। अंतत: इस कानून को संसद की स्थायी समिति के पास भेजा गया जहां कई आशंकाओं के बावजूद अपेक्षाकृत अच्छी सिफारिशें पेश की गयीं।
जिस समय भारतीय संसद रोजगार गारंटी अधिनियम (ईजीए) को पारित करने वाली थी, भ्रष्टाचार के किस्सों ने इस ऐतिहासिक कानून पर अपनी लंबी छाया डाल दी। संशयवादियों का दावा था कि हालांकि एनआरईजीए गरीबी से लड़ने के लिए एक अभूतपूर्व अवसर है लेकिन भ्रष्टाचार इस अवसर को ऐतिहासिक गलती में बदल देगा। परंतु राजस्थान में जन आंदोलनों द्वारा दी गयी दलीलें इन आरोपों का विरोध करने में अत्यधिक महत्वपूर्ण सिद्ञ् हुईं। कार्यकर्ताओं का कहना था कि लोक निर्माण कार्यक्रमों के बुरे पक्ष का पर्दाफाश होने के बावजूद उन्हें जारी रखा जाना चाहिए, क्योंकि ये गरीब ग्रामीणों के लिए अपरिहार्य जीवन रेखा प्रदान करते हैं। सूखा राहत के लिए पैसा तदर्थ और अनियोजित तरीके से खर्च किया जाता है। इसके विपरीत ईजीए एक स्थायी सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का आधार उपलब्ध करा सकता है तथा नियोजित और समान ग्रामीण विकास का जरिया भी बन सकता है। उदाहरणस्वरूप राजस्थान के बारां जिले में भुखमरी से मृत्यु के कारणों का भंडाफोड़ किए जाने से 'काम के बदले अनाज' और बाढ़ राहत कार्यक्रमों में काफी सुधार आया जिससे न केवल बारां बल्कि राजस्थान के कई हिससों में लोगों की जानें बचाई जा सकीं। अनाज का इससे अच्छा इस्तेमाल नहीं हो सकता था। राहत कार्यों के बिना राजस्थान के कुछ हिस्सों में साल-दर-साल पड़ने वाले सूखे से गयी जानों से होने वाले नुकसान को मापा नहीं जा सकता। जैसा कि राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि जबतक हमारे पास ईजीए नहीं है हमें भुखमरी से मृत्यु के समाचार मिलते रहेंगे।
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राजस्थान के अनुभव ने अनुमानों या संभावनाओं की बजाय वास्तविक अनुभव के आधार पर भ्रष्टाचार की दलील को काटने में मदद की। ऐसा नहीं कहा जा रहा है कि लोक निर्माण कार्यक्रमों में से भ्रष्टाचार समाप्त हो गया है, लेकिन पिछले दस-एक सालों से इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में काफी सुधार हुआ है तथा इस अनुभव से और सीखा जा सकता है। इससे भ्रष्टाचार के विरुद्ञ् सर्ंञ्ष तथा पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए व्यापक अभियान को संभव बनाने वाले कारकों को पहचानने और उन्हें मजबूत करने में मदद मिल सकती है।
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सबसे महत्वपूर्ण कारक है सार्वजनिक चौकसी के प्रति सजग होना, जिसकी शुरूआत बार-बार सूखा पड़ने के दौरान लोगों की बुनियादी आवश्यकताआें तथा लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व के लिए उनके रचनात्मक संघर्ष से हुई। लोगों ने लड़ाइयां लड़ीं और अपने हक का इस्तेमाल किया। सूखे की अवधि के दौरान उन्हें काम और न्यूनतम मजदूरी पाने का अधिकार है। समय के साथ-साथ व्यापक जन चेतना की इस प्रवृत्ति ने सामाजिक न्याय और लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व के लिए प्रतिबध्द लोगों को भी अपने दायरे में ले लियां राजनीतिक टकराव, अखबारों और मीडिया की रिपोर्टिंग और भागीदारी तथा अन्य नागरिक समूहों के सरोकार ने भी इस चौकसी को मजबूती प्रदान की।
रोजगार गारंटी कानून आज विश्वभर में सामूहिक जिम्मेदारी की सबसे अधिक साहसिक और महत्वपूर्ण पहलों में से एक है। इसक विरुध्द दलील थी कि भारत इस तरह के खर्च को वहन नहीं कर सकेगा। इस दलील का मुकाबला राजनीतिक ढंग से किया गया। गरीबों को थोड़ा सा सम्मान और राष्ट्रनिर्माण में श्रमदान का अवसर देकर उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त लोगों को अधिकारों का केवल अंश ही प्रदान किया गया।

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