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Thursday, July 4, 2013

उत्तराखंड में नई चिंता, परमाणु विकीरण का खतरा!

 Shailendra Srivastava


उत्तराखंड में नई चिंता, परमाणु विकीरण का खतरा!

उत्तराखंड में आई हिमालयन सुनामी के बाद अब नंदादेवी पीक में चढ़ाते वक्त गुम गई न्यूक्लियर डिवाइस को लेकर एक बार फिर चिंताएं व्यक्त की जाने लगी हैं। चीन द्वारा 1964 में जियांग क्षेत्र में परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए के सहयोग से भारत ने चीन द्वारा अपनी सीमा पर परमाणु रिएक्टर लगाने के खतरों को देख यह डिवाइस नंदादेवी पर स्थापित करने का मिशन शुरू किया था। कहा जाता है कि यह परमाणु परीक्षण यंत्र जिसमें प्लूटोनियम 238 नामक रेडियोएक्टिव तत्व 125 पाउंड तक हो सकता है। गढ़वाल हिमालय की 25650 फुट ऊंची नंदादेवी पर्वत चोटी पर स्थापित करने के लिए अमेरिकी दल के साथ 1965 में भेजा गया था, लेकिन भारी बर्फबारी के चलते यह वहीं गुम हो गया।

ऐसा कहा जाता है कि इस परमाणु परीक्षण यंत्र को ले जाने वाले नेपाली शेरपा मजदूर भी इस यंत्र को ले जाते समय विकीरण का शिकार हो गए थे। यह परमाणु परीक्षण यंत्र उस वक्त इस चोटी में नहीं पहुंच सका था। भारी बर्फबारी के कारण बर्फ में ही दफन हो गया।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस परमाणु परीक्षण यंत्र का रेडियोएक्टिव विकीरण 500 वर्ष तक फैलता रह सकता है। इस बार हिमालय क्षेत्र में आई आपदा ने इस क्षेत्र में दबे पड़े इस परमाणु परीक्षण यंत्र के भी भूस्खलनों एवं ग्लेशियर्स के टूटने एवं गलन दरों के बढ़ने संबंधी सूचनाओं के बाद एक बार पुनः सक्रिय होकर रेडियो विकीरण फैलाने की संभावनाओं की बहस वैज्ञानिकों एवं पर्यावरणविदों ने शुरू करा दी है। 

इस परमाणु परीक्षण यंत्र की गुमशुदगी के बावत पहली बार अप्रैल 1978 में रौलिंग स्टोन प्रकाशन की पत्रिका आउट साइड ने जानकारी दी थी। अमेरिकी पत्रकार हावर्ड कोन द्वारा प्रकाशित इस स्टोरी में इसका खुलासा सबसे पहले दुनिया के सम्मुख हुआ था। वर्ष 1964 में चीन के परमाणु परीक्षण क्षेत्र लूपनूर में घने काले बादल दिखने के बाद यहां हलचल हुई थी। अमेरिका जो यह सोचता था कि चाइना अभी परमाणु क्षमता से कोसों दूर है, को इस सूचना से झटका लगा था।

चूंकि यह दौर भारत और चीन के खराब रिश्तों का दौर था चीन भारत को युद्ध में हरा चुका था इसके बाद भारत के सहयोग से अमेरिका ने इस परमाणु निगरानी यंत्र को यहां लगाने की ठानी थी। लेकिन इसको नंदादेवी की चोटी पर चढ़ाते समय गुम हो जाने के बाद अमेरिका के साथ सहयोग कर रही भारत सरकार इस पर मौन साधकर बैठ गई थी। उसने इसके दूरगामी खतरे भी नजरअंदाज कर दिए।

1962 में भारत को चीन द्वारा युद्ध में हराने के बाद यह संयंत्र स्थापित करने में अमेरिका ने भारत को मना लिया था। दोनों देशों के इस परस्पर सहयोग को ऑपरेशन हॉट का नाम मिला था। इस न्यूक्लियर डिवाइस के फेल होने और रास्ते में गुम होने के बाद 1965 से 1967 के बीच एक दूसरी डिवाइस नंदादेवी से लगी दूसरी पहाड़ी नंदाकोट पर स्थापित की गई।

नंदादेवी पर्वत श्रृंखला भारत की सर्वाधिक ऊंची पर्वत श्रृंखला है। यह चीन के सभी टेस्ट रेंज तक बिना बाधा के दृष्टि डाल सकती है। भारत में उत्तराखंड के चमोली जिले के लाता व रैंणी गांव के ऊपरी हिस्से में यह डिवाइस स्थापित हुई थीअमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए ने भारतीय सरकार के सहयोग से इस न्यूक्लियर पावर्ड मानीटरिंग स्टेशन को 26 हजार 600 फुट की ऊंचाई पर इसलिए स्थापित करने की सोची थी ताकि वह चीन के जियांग प्रांत में चल रहे चीन के परमाणु परीक्षणों की जानकारी हासिल कर सके। इस प्लूटोनियम डिवाइस में 17 किलो न्यूक्लियर तत्व पांच किलोग्राम प्लूटोनियम 238 और 239 शामिल बताया गया था। 

जबकि यह कहा जाता है कि जापान की नागासाकी क्षेत्र के परमाणु विनाश में प्रयुक्त बम में 6 किलोग्राम प्लूटोनियम का प्रयोग हुआ था। इससे इस परमाणु डिवाइस में मौजूद रेडियो विकीरण तत्व की भयावहता का अंदाजा लग सकता है। वर्ष 1965 में गुम गई डिवाइस को खोजने के लिए एशियन एवं अमेरिकी वैज्ञानिकों ने भारत सरकार को चेताया भी था। यह भी चेतावनी दी गई थी कि यदि इसे खोजा न गया तो कभी भी यह भयानक तबाही का सबब बन सकती है। क्योंकि नंदादेवी ग्लेसियर्स से भी गंगा में एवं सहायक नदियों में पानी का स्राव होता है। ऐसे में इसका किसी भी तरह जमीन से खुलना तबाही मचा सकता है।

इस संबंध में 1 मई 2010 को हल्द्वानी के एक आरटीआई कार्यकर्ता गुरुविंदर सिंह चड्‌ढा ने एक सूचना अधिकार के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय से सूचना मांगी थी। प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसे भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर को भेज दिया।

चड्‌ढा की 1 मई 2010 को लगाई गई सूचना अधिकार की सूचना पर इस बावत किसी भी जानकारी से इंकार कर चुके भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर ने 7 फरवरी 2012 को फिर से वहीं सूचना मांगने पर कहा कि सन 1970 के दशक में नंदादेवी में स्थापित नाभिकीय युक्ति को ऊर्जा प्रदान करने हेतु पीयू 238 युक्त ऊर्जा स्रोत के गुम होने के उपरांत एक समिति द्वारा गंगोत्री से लेकर गंगा नदी तक अनुप्रवाह तक पानी एवं तलछटी बड़े पैमाने पर नमूनों की जांच की गई। भाभा परमाणु केन्द्र के स्वास्थ्य एवं भौतिकी प्रभाग द्वारा नमूनों की जांच के विश्लेषण से पानी अथवा तलछटों में संदूषण का पता नहीं चला। यह रिपोर्ट दी गई कि गुम हुए ऊर्जा स्रोत को सीलबंद कर दिया गया है। इसलिए इसके रिसाव का खतरा अथवा समुद्री प्रजातियों को किरणित किए जाने या गंगा नदी को प्रदूषित करने को कोई खतरा नहीं है।

गंगा के जल तथा समुद्री प्रजाति को किरणित करने या गंगा नदी को प्रदूषित करने के प्रभाव व भय को दूर करने के उद्‌देद्गय से भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के स्वास्थ्य संरक्षक एवं पर्यावरण वर्ग ने सितंबर 2010 से अप्रैल 2011 की अवधि के दौरान सैम्पलिंग कार्यक्रम संचालित किया, जिससे क्षेत्र में किसी भी प्रकार की असामान्यता का पता नहीं चला।

स्पष्ट है कि इस तरह की आशंकाएं इस गुम गए नाभिकीय युक्ति को ऊर्जा देने के लिए ले जाए गए प्लूटोलिनयम 238 युक्त ऊर्जा स्रोत के किसी आपदा में एक्सपोज होने से कभी भी हो सकती है। इसी को लेकर हिमालय के बदलते मिजाज के बीच चिंताएं बढ़ने लगी हैहालांकि प्रख्यात पर्यावरणविद चंडीप्रसाद भट्‌ट से इस बावत जब पूछा गया तो उनका कहना था कि इस वक्त की तबाही खासकर खिरोगंगा वाटरशेड समेत चोराबाड़ी ग्लेशियर दारमा घाटी एवं अन्य जगहों पर आई है। जिस क्षेत्र में इस नाभिकीय ऊर्जा स्रोत के दबे होने की बातें सुनी गई है, वहां ऐसा क्लाउड ब्रस्ट या तबाही का कोई समाचार नहीं है। इसलिए यह कहना मुश्किल है कि इसका प्रभाव इस दबे हुए नाभिकीय ऊर्जा स्रोत पर पड़ेगा या विकीरण फैलेगा या नहीं।

भट्‌ट के अनुसार नंदादेवी क्षेत्र का जो ऋषिगंगा वाटर शेड क्षेत्र है, उसमें इस तरह की अतिवर्षा सामने नहीं आई है। हालांकि भट्‌ट किसी नाभिकीय डिटेक्टर की जानकारी उन्हें न होने की बात कहते हैं। लेकिन मौसम वैज्ञानिकों एवं पर्यावरणविदों के अनुसार हिमालय में आ रहे तमाम बदलावों एवं मौसम के चक्र में हो रहे परिवर्तन से इस खतरे पर नजर फेरना भारी पड़ सकता है।

गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय में भूगर्भ विज्ञान के उपाचार्य डॉ. एमपीएस बिष्ट का कहना है कि अभी ऋषिगंगा क्षेत्र में इस बारिद्गा से क्या हुआ इस बावत कोई जानकारी नहीं है। तथापि इस बार शेडो वाले जोन में भी ग्लेशियर्स का तेजी से पिघलना दृष्टिगोचर होना इस तरह के खतरे का संकेत जरूर देता है। इसलिए हिमालय की इस तबाही के बाद इस खतरे के बावत भी सोचा जाना जरूरी होगा।

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