Wednesday, 28 August 2013 10:58 |
सुभाष गाताडे दस साल डॉक्टरी करने के बाद दाभोलकर उन्हीं दिनों बाबा आढव की अगुआई में जाति उन्मूलन के लिए चल रही 'एक गांव एक पाणवठा' (अर्थात एक गांव एक जलाशय) नामक मुहिम से जुड़े। इस दौरान हुए अनुभवों के कारण उन्होंने तय किया कि अंधश्रद्धा निर्मूलन पर अपने आप को केंद्रित रखेंगे। इसी मकसद से लगभग ढाई दशक पहले उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का गठन किया था। समाज में वैज्ञानिक चेतना फैलाने के काम को किस तरह एक आंदोलन की शक्ल दी जा सकती है, इसकी एक एक मिसाल उन्होंने कायम की है। समिति के कामों के प्रभाव का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अपनी किताब 'डिसएनचेन्टिंग इंडिया: आर्गनाइज्ड रेशनेलिज्म इन इंडिया' (आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2012) में लेखक जोहान्स क्वैक भारत के तर्कवादी आंदोलनों पर जब निगाह डालते हैं तो इस बात का विशेष उल्लेख करते हैं कि महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति भारत का सबसे सक्रिय तर्कशील संगठन है। अतीत के अनुभवों से लेकर आज की गतिविधियों पर निगाह डालने वाली इस किताब में कई पेज समिति के कामों पर ही केंद्रित हैं। दाभोलकर के साथ साक्षात्कार से लेकर समिति के साधारण कार्यकर्ताओं से बातचीत का विवरण भी इसमें शामिल है। प्रस्तुत किताब भारत के तर्कशील आंदोलन के अलक्षित इतिहास और उसकी तमाम शख्सियतों पर रोशनी डालती है। इसमें ज्योतिबा फुले, गोपाल आगरकर, शाहू महाराज, रामास्वामी नायकर, जवाहरलाल नेहरू, डॉ आंबेडकर, एमएन राय, गोपाराजू राव 'गोरा', अन्नादुराई और कई अन्य विभूतियां शामिल हैं। इस अध्ययन में उन आंदोलनों को विशेष जगह मिली है जो महात्मा फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज से प्रेरणा ग्रहण करते हैं। इसकी वजह यही है कि संगठित तर्कवाद का एक महत्त्वपूर्ण आयाम 'पवित्र' घोषित किए गए सामाजिक अन्याय को चुनौती देना रहा है। भारत के तर्कवादियों को यह अहसास था कि उन्हें पश्चिमी जगत का अंधानुयायी करार दिया जा सकता है; लिहाजा इससे बचने के लिए उन्होंने अपने आप को प्राचीन भारतीय भौतिकवाद से भी जोड़ा। समिति के कार्यकर्ता अक्सर राज्य के विभिन्न हिस्सों में जाते और तथाकथित चमत्कार दिखाने वाले बाबाओं को गिरफ्तार करवाते थे। जिन महिलाओं को डायन घोषित किया जाता था उन्हें इस लांछन और उत्पीड़न से मुक्त कराने का काम भी समिति के लोग करते थे। लोगों को वैचारिक तौर पर तैयार करने के लिए पत्रिका का प्रकाशन, व्याख्यानों, कार्यशालाओं का आयोजन भी किया जाता था। समिति की अगुआई में निर्मला देवी और नरेंद्र महाराज जैसों के खिलाफ भी आंदोलन चलाया गया, जिसके चलते उनके समर्थकों के साथ तीखा विवाद हुआ था। वर्ष 2000 में अपने संगठन की पहल पर दाभोलकर ने राज्य की सैकड़ों महिलाओं की रैली अहमदनगर जिले के शनि शिंगणापुर मंदिर तक निकाली, जिसमें महिलाओं के लिए प्रवेश वर्जित था। रूढ़िवादी तत्त्वों और शिवसेना-भाजपा के कार्यकर्ताओं ने परंपरा और आस्था की दुहाई देते हुए महिलाओं के प्रवेश को रोकना चाहा, उनकी गिरफ्तारियां भी हुर्इं और फिर मामला मुंबई उच्च न्यायालय पहुंचा और उसकी सुनवाई पूरी होने के करीब है। वर्ष 2008 में दाभोलकर और अभिनेता-समाजकर्मी डॉ श्रीराम लागू ने ज्योतिषियों के लिए एक प्रश्नमाला तैयार की और कहा कि अगर उन्होंने तर्कशीलता की परीक्षा पास की तो उन्हें पुरस्कार मिल सकता है। अभी तक इस पर दावा ठोंकने के लिए उनमें से कोई भी आगे नहीं आया। प्रतिक्रियावादी तत्त्व भले ही दाभोलकर को मारने में सफल हुए हों, लेकिन जिस तरह से उनकी हत्या हुई है उसने तमाम नए लोगों को भी दिमागी गुलामी के खिलाफ जारी इस व्यापक मुहिम से जोड़ा है। तर्कशीलता और बुद्धिवाद के लिए हुई दाभोलकर की शहादत हमारे सामने कई नए सवाल खड़े करती है। हमारे इर्दगिर्द अतार्किकता का उभार क्यों दिख रहा है? आखिर किस वजह से तर्कशीलता और असहमति पर आक्रमण विभिन्न तरह के धार्मिक कट््टरपंथियों के एजेंडे में सिमट जाता है? आखिर क्यों मीडिया अतार्किकता को बढ़ावा देने में मुब्तिला है? क्यों एक 'पॉप आध्यात्मिकता' एक विशाल उद्योग में तब्दील हो गई है? आज सेक्युलर होने के क्या मायने हैं? अतार्किकता की इस बढ़ती लहर का मुकाबला करने के लिए हमारे पास किस तरह के बौद्धिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, राजनीतिक संसाधन मौजूद हैं? महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों पर हुई रैलियों में तमाम बैनरों-पोस्टरों में एक छोटे-से पोस्टर ने लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, जिस पर लिखा था 'आम्ही सगले दाभोलकर' (हम सब दाभोलकर)। चार्वाकों के इस अनूठे वारिस को इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या हो सकती थी!
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तर्कशीलता की मशाल
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