न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी
लेखक : रमदा :: अंक: 13 || 15 फरवरी से 28 फरवरी 2012:: वर्ष :: 35 :February 27, 2012 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/this-elecction-will-also-be-like-other-elections/
न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी
लेखक : रमदा :: अंक: 13 || 15 फरवरी से 28 फरवरी 2012:: वर्ष :: 35 :February 27, 2012 पर प्रकाशित
विधानसभा चुनावों की सरगर्मियाँ शुरू होते ही बरबस जो वाक्य दिमाग में कौंधा वह था, 'न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी'। अब जबकि उम्मीदवारों के नसीब ई.वी.एम. में बन्द हैं, यह तय नहीं है कि कौन जीतेगा मगर यह तय है कि लोग इस बार भी हारेंगे। इस असलियत से रूबरू मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ कि 'नौ मन तेल' का क्या मतलब है और 'राधा' कौन है ?
नौ मन तेल अगर नेताओं द्वारा दिये जा रहे आश्वासनों और उम्मीदवारों द्वारा दिखाये जा रहे सब्जबागों के पीछे की हकीकत है तो राधा आम आदमी के अलावा कौन हो सकता है ? और अगर जनोन्मुखी नीतियाँ-चिन्तन और जन आकांक्षाओं की पूर्ति नौ मन तेल हो तो जाहिर है हमारा नेता वर्ग (संदर्भ: वर्ग संघर्ष) राधा। पेंचोखम और भी हो सकते हैं, बस दिमाग को थोड़ा आजाद छोड़ने की जरूरत है।
नौ मन तेल ई.वी.एम. का वह बटन भी हो सकता था, जो 'राइट टु रिजेक्ट' को आधार देता। राष्ट्रीय दलों के प्रति मतदाता का मोहभंग इस बटन को दबाने वाले लोगों के बडे़ प्रतिशत के रूप में दिखाई देता……इसके दूरगामी नतीजे भी होते। सुनते हैं चुनाव आयोग भी ऐसा बटन चाहता है, मगर एक जोरदार कोशिश नहीं हुई। मशीन पर ऐसे एक बटन की मौजूदगी का नेता वर्ग से शायद वैसा विरोध भी नहीं होता जैसा जन लोकपाल को लेकर राज्यसभा में दिखाई दिया, क्योंकि यह उनके खेल को तत्काल कोई हानि नहीं पहुँचाता। वह तो तब होगा जब इस विकल्प में प्राप्त मतों के प्रतिशत को चुनाव के निरस्त होने से जोड़ दिया जायेगा। तब तक यह पारित नहीं होता, लोकपाल बिल की तरह नेताओं के लिए खतरे की घंटी का काम तो करता….. राधा कम से कम नाचने की कोशिश करती तो दिखाई देती!
उत्तराखण्ड बनने के बाद शायद पहली बार इन चुनावों में वह राजनैतिक दल भी नौ मन तेल साबित होता, जो उन आंदोलनकारी ताकतों का मोर्चा होता जो क्षेत्रीय मुद्दों की समझ रखता है और यहाँ की बुनावट के अनुरूप नीति निर्माण की योग्यता, या कम से कम समझ रखता। बड़े राजनैतिक दलों के चेहरों की कालिख तो इस बार छुपाये से भी नहीं छुप रही है। उनके लिए उजड़ती खेती, सुविधाओं के अभाव में गाँवों से नगरों या कम से कम सड़क के पास की जगहों पर पलायन, शहरों पर उनकी धारक क्षमता से अधिक दबाव, जल विद्युत परियोजनाओं के खतरे, अनियंत्रित खनन, बदहाल शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधायें, बेरोजगारी के दबाव में माफियाओं के चंगुल में फँस रहे नौजवान किसी तरह की चिन्ता के लायक नहीं हैं। मगर राधा बेचारी क्या करे? उत्तराखण्ड की समझ रखने वाला यह नौ मन तेल तो कभी का आपसी फूट, सत्तालोलुपता और 'जितने बामन उतने चूल्हे' के अंहकार की भेंट चढ़ गया!
नौ मन तेल होता, अगर दलों के प्रत्याशियों के चयन का आधार विधानसभा क्षेत्र का राजनैतिक दल विशेष में प्रतिनिधित्व होता न कि राजनैतिक दल का क्षेत्र विशेष में प्रतिनिधित्व। रिप्रजेण्टेटिव डैमोक्रेसी शायद यही होती है कि जन प्रतिनिधि जन आवश्यकताओं-आकांक्षाओं को पार्टी फोरम और चुन लिए जाने पर विधानसभा तक ले जाए। ऐसे में सिटिंग गैटिंग/विनिंग/पैराड्रॉप्ड/धनबली – बाहुबली और सोशल इंजीनियरिंग जैसे खतरनाक जुमले राजनैतिक परिदृश्य का हिस्सा नहीं होते। लोगों के बीच काम करने वाले नौ मन तेल बनते और राधा झूम कर नाचती। बागी-दागी की समस्या से दलों को निजात मिलती और संसद में कोलीशन धर्म की दुहाई देने से पहले प्रधानमन्त्री सौ बार सोचते। जन सरोकारों की बात करने वालों को राजनैतिक दलों के प्रवक्ता 'अनइलैक्टेबल पीपुल' का ठप्पा लगाकर कूड़ेदान में डाल देने की बात नहीं कर पाते।
नौ मन तेल वह नौकरशाही भी हो सकती थी, जो चुनाव आयोग का सरमाया मिलते ही तमाम तरह के गठजोड़ों और दबावों से बड़ी हद तक आजाद होकर इतने बड़े चुनावों को अंजाम देती रही है, बशर्ते कि सरकार विशेष के अस्तित्व में आ जाने के बाद भी राजनेताओं के हाथ की कठपुतली बन जाने की नियति से अपने आप को मुक्त रख सकने का साहस उसमें बचा रहे।
विधायिका यदि जन आवश्यकताओं के अनुरूप नीति और विधान निर्माण सम्बन्धी अपने असल दायित्व के निर्वहन में संलग्न होती तो नौ मन तेल साबित होती, मगर यह काम उसने या तो नौकरशाहों को सौंप दिया है या इस मामले में वह अन्तर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय निजी स्वार्थों के अनुरूपसक्रिय होती है, लोग उसकी प्राथमिकताओं में हैं ही नहीं।
तो इस समूचे परिदृश्य के लिये 'न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी' गलत नहीं है ………क्यों ?
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