मणींद्र नाथ ठाकुर जनसत्ता 28 मार्च, 2012: भारतीय जनमानस में व्यवस्था-परिवर्तन को लेकर जो भी संघर्ष चल रहा है उसके तीन महानायक हैं: गांधी, आंबेडकर और मार्क्स। इनके विचारों को लेकर भारतीय राजनीति में तीन अलग-अलग धाराएं निकली हैं। इन तीनों विचारधाराओं में एक आधारभूत समानता है। इनका उद्देश्य मानव कल्याण हैं। इनके अपने तात्कालिक संदर्भों से जुडेÞ होने के बावजूद, 'अपने लोगों' की मुक्ति कामना के साथ-साथ इनमें मानव कल्याण के लिए प्रतिबद्धता भी रही। इसी प्रतिबद्धता के कारण इन तीनों चिंतकों को इक्कीसवीं सदी में भी महानायक के रूप में देखा जा रहा है। सोवियत संघ के विघटन के बाद कुछ समय के लिए लोगों को लगा कि मार्क्स आज की दुनिया के लिए अप्रासंगिक हो गए हैं। लेकिन जल्दी ही आम लोगों और बुद्धिजीवियों की रुचि उनमें फिर बढ़ने लगी, क्योंकि पूंजीवाद की समझ उनसे बेहतर कहीं और उपलब्ध नहीं है। अमेरिका की एक पत्रिका के सर्वे ने यह पाया कि आज के लिए प्रासंगिक चिंतकों में मार्क्स का नाम सबसे ऊपर है। पिछले कुछ वर्षों में गांधी और आंबेडकर भी विश्व बौद्धिक समाज को बेहद आकर्षित कर रहे हैं। लेकिन इस आकर्षण में एक राज भी छिपा है। गांधी, मार्क्स और आंबेडकर का जिक्र अब जिस तरह से हो रहा है उसमें उनका क्रांतिकारी तेवर गायब होता जा रहा है। सोवियत क्रांति के बाद बहुत-से देशों ने केवल राज्यसत्ता को वैध बनाए रखने के लिए मार्क्स के नाम का उपयोग किया। ठीक उसी तरह जैसे गांधी के नाम का उपयोग भारतीय राज्य ने किया। गांधी को महज महापुरुष, महात्मा और राष्ट्रपिता के रूप में पूज कर उनके संघर्ष के तेवर को कुंद कर दिया गया। आंबेडकर का भी कुछ यही हाल होने जा रहा है। मार्क्स पर कई उत्तर आधुनिकता के प्रवर्तक कुछ इस प्रकार लिखने लगे हैं कि उनकी एक नई छवि बनती जा रही है। गांधी पर भी लिखने वाले उदारवादी चिंतकों ने उनकी शांतिप्रियता को ही मूल कथ्य बना डाला है। एक तरफ जहां इनके विचारों से प्रभावित आंदोलन आपस में संवाद नहीं कर पा रहे हैं या एक दूसरे का विरोध करते पाए जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग इनके विचारों की क्रांतिकारिता पर परदा डालने में लगे हैं। ऐसे में आनंद पटवर्धन की फिल्म 'जय भीम कामरेड' इन तीनों चिंतकों के बीच एक संवाद की संभावना की खोज है। एक मार्क्सवादी कवि, गायक और चिंतक ने आत्महत्या करते समय घर की दीवार पर मोटे अक्षरों में लिख डाला कि 'दलित अस्मिता की लड़ाई लड़ो।' यह आश्चर्यजनक घटना नहीं है, लेकिन इस लिहाज से बेहद महत्त्वपूर्ण है कि जीवन भर मार्क्स के विचारों पर चलने वाले एक कामरेड ने आत्महत्या क्यों की और उसे दलित अस्मिता इतनी महत्त्वपूर्ण क्यों लगी। हमारी जातीय अस्मिता क्या इतनी प्रभावकारी है कि साम्यवादी प्रतिबद्धता भी उसे समाप्त नहीं कर पाई? या फिर साम्यवादी प्रतिबद्धता को वर्ग के अलावा शोषण की किसी और सामाजिक संरचना की समझ ही नहीं बन पाती है। जातिगत सामाजिक जीवन की पूरी समझ के बिना साम्यवाद के भारतीय भूमि में जड़ जमाने के प्रयासों का विफल होना लाजिमी है। फिल्म का नायक कामरेड परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों को लेकर चिंतित रहता था, कई बार उसके लिए भी उसे गाना पड़ता था। उसके साथी कामरेडों को यह सही नहीं लगा। उसे पार्टी से निकाल दिया गया। विचारधारा के प्रति समर्पित लोगों के लिए प्रतिबद्धता की कमी का आरोप सजा-ए-मौत जैसा ही लगता है। लखनऊ विश्वविद्यालय के एक छात्रनेता को वामपंथी संगठन के निष्कासन-पत्र में 'कामरेड' की जगह 'महानुभाव' कह कर संबोधित कर देने मात्र से उसकी तबीयत खराब हो गई। उसे भयानक मानसिक आघात लगा और वह कई महीनों तक बीमार रहा। मनुष्य के स्वभाव की बारीकियों की समझ वामपंथी आंदोलनों के लिए समस्या है। मुक्त समाज और स्वतंत्र रचनात्मक मनुष्य की संभावना केवल आर्थिक साम्यवाद से संभव नहीं है। उसके बहुआयामी स्वभाव और समाज के जटिल संबंधों की समझ के बिना ऐसे समाज की कल्पना मुश्किल है। इस फिल्म में वामपंथ और दलित आंदोलनों के बीच संवाद की तलाश है। क्या यह संवाद वांछित है? क्या यह संवाद संभव है? इस विषय पर सैद्धांतिक बहस भी हो सकती है। लेकिन इन प्रश्नों का जवाब इस फिल्म ने 'कबीर कला मंच' के गानों और नारों के माध्यम से दिया है। इस मंच ने सरल और संगीतमय तरीके से यह समझा दिया है कि मार्क्स और आंबेडकर को साथ-साथ चलने की जरूरत है। जाति और वर्ग के प्रश्न आपस में जुड़े हुए हैं। इस समझ के अभाव में कहीं ऐसा न हो जाए कि उन्हें एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर शासक वर्ग अपना उल्लू सीधा कर ले। फिल्म का दूसरा पहलू है, गांधी और आंबेडकर के बीच संवाद का। ज्यादातर दलित नेतृत्व गांधी को लेकर बहुत कटु होते हैं। आंबेडकर और गांधी के विवादों का हवाला देकर उन दोनों के विचारों में किसी तरह के संवाद से इनकार करते हैं। महाराष्ट्र के दलित नेतृत्व की आवाज में यह सुनना कि 'एक महात्मा ने दूसरे महात्मा को पहचाना', इस बात का आगाज लगता है कि इन दोनों के बीच संवाद समय का तकाजा है। इनके विचार आपस में टकराते जरूर हैं लेकिन उसका संदर्भ अलग था, और इसमें कोई शक नहीं कि उनका उद्देश्य 'सर्वे भवंतु सुखिन:' ही था।
मार्क्स, आंबेडकर और गांधी के विचारों के बीच जिस संवाद की बात कुछ भारतीय बुद्धिजीवी आजकल कर रहे हैं, इस फिल्म ने वास्तविकता के धरातल पर चल रहे उसी संवाद का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। इस तरह के संवाद की संभावना की खोज अब भारतीय मानस का बौद्धिक परिप्रेक्ष्य है। कई मार्क्सवादी बुद्धिजीवी जो पहले संरचनात्मक हिंसा और क्रांतिकारी हिंसा में फर्क करते थे, पहली को दूसरी का कारण मानते थे और यह सही भी था, अब वे कहने लगे हैं कि हिंसा आखिर हिंसा है और इससे मानवाधिकार का हनन होता है। क्रांतिकारी हिंसा के प्रतिक्रियात्मक हिंसा में बदल जाने की पूरी संभावना रहती है और फिर वह मनुष्य की गरिमा के विपरीत हो जाती है। प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक मनोरंजन मोहंती मानने लगे हैं कि माओवादी आंदोलन की हिंसा भी भटकने लगी है और इस बात का ध्यान नहीं रख पा रही है कि हिंसा का उद्देश्य आखिर में एक अहिंसक समाज की स्थापना करना ही है। यह अलग बात है कि इस विषय पर गांधी का प्रश्न होता कि क्या हिंसा के माध्यम से अहिंसक समाज की स्थापना संभव है। सुमंत बनर्जी तो मानने लगे हैं कि मार्क्सवादियों को भारत में क्रांति के लिए नए तरीके से सोचने की जरूरत है। नागरिक अधिकारों के लिए संघर्षरत चिंतक बालगोपाल, जिन्हें नक्सल समर्थक माना जाता था, अपने आखिरी दिनों में नक्सलवादी हिंसा पर सवाल उठाने लगे थे। प्रसिद्ध मार्क्सवादी रणधीर सिंह से किसी ने सवाल किया था कि 'क्या गांधी उदारवादी हैं, या वे मार्क्सवादी हैं और क्या गांधी आज के लिए प्रासंगिक हैं।' उनका उत्तर था 'गांधी न उदारवादी थे, न ही मार्क्सवादी थे और इसलिए हमारे समय के लिए बेहद प्रासंगिक हैं।' ऐसा लगता है मार्क्सवादी चिंतकों की कल्पना में गांधी की छवि उपस्थित रहती है। ठीक इसी तरह बहुत-से गांधीवादी विचारों को मानने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी राज्य मार्क्सवादी मानने लगा है, क्योंकि दोनों में राज्य का विरोध समान रूप से मिलता है। गांधीवादियों को भी अब लगने लगा है कि राज्य ने गांधी का उपयोग शराब की सरकारी दुकानों के ठीक सामने शराब न पीने की नसीहत देने भर के लिए किया है। गांधी का अर्थशास्त्र, उनकी राजनीति, उनका आदर्शवादी जीवन और न्यायपूर्ण समाज के लिए उनके संघर्ष को अगर आम जनता मार्क्सवाद के करीब समझ ले तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हाल के दिनों में आंबेडकर को लेकर भी कई खेमे बन गए हैं, जैसा गांधी और मार्क्स के साथ भी हुआ है। जो लोग आंबेडकर को गांधी और मार्क्स के खिलाफ खड़ा करना चाहते हैं उनकी विडंबना यह है कि नवउदारवाद और भूमंडलीकरण को वे जनहित में मानते हैं। उन्हें लगता है कि अंग्रेज भारत में देर से आए और जल्दी चले गए। उपनिवेशवाद भारत के लिए वरदान था। मैकाले एक महान मुक्तिदाता था। ऐसे विचारक दलित की मुक्ति का माध्यम अस्मिता की लड़ाई को मानते हैं। समझने की बात यह है कि अस्मिता की लड़ाई तभी महत्त्वपूर्ण हो सकती है जब उसका उद्देश्य शोषण-विहीन समाज की स्थापना हो। समाज में अस्मिता के आधार पर बनी शोषण की संरचनाओं को समझना उन्हें तोड़ने के लिए जरूरी है, और इसलिए आंबेडकर दलित अस्मिता को महत्त्व देते थे। सामाजिक मुक्ति तभी संभव है जब जाति या वर्ग अपनी शोषित अस्मिता को आधार बना कर तो लड़े, लेकिन उस लड़ाई में संपूर्ण समाज की मुक्ति की कामना हो और अंत में अपनी ही अस्मिता को समाप्त कर दे। इसके लिए यह जरूरी है कि दलित चेतना केवल दलित-हित की बात न सोचे, मजदूर वर्ग केवल अपने हित की बात न सोचे, औपनिवेशिक समाज केवल उपनिवेशवाद से मुक्ति की बात न सोचे, बल्कि अपनी मुक्तिके सवाल को मानव मात्र की मुक्ति से सीधा जोड़ ले। फिर शायद आंबेडकर, मार्क्स या गांधी के विचारों को सीमित दायरे में रख कर देखना संभव नहीं होगा और इस खास प्रकार के आंबेडकरवादियों को भी भूमंडलीकरण की राजनीति, उसका समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र सही समझ आने लगेगा। भारत में ऐसे विचारकों की कमी नहीं है जो दलित चेतना को मानव कल्याण की चेतना से जोड़ कर देखना चाहते हैं। उनके लिए गांधी एक महात्मा हैं जो आंबेडकर जैसे महात्मा के साथ सतत संवाद में लगे रहे। राजनीतिक विरोध परिस्थितिजन्य था, लेकिन वैचारिक साम्यता लक्ष्यजन्य थी। उनके लिए आंबेडकर का बुद्ध और मार्क्स के बीच तुलना करना एक को दूसरे के विरोध में खड़ा करना कतई नहीं था, बल्कि उनके बीच एक संवाद के सूत्र तलाशने का प्रयास था। इस प्रयास की कुछ आवश्यक शर्तें हैं। पहली शर्त है कि हमारा लक्ष्य उनके बीच विवाद पैदा करने के बदले तत्कालीन संघर्ष के उनके अनुभवों को आधार बना कर नए संघर्ष की रूपरेखा खड़ी करना हो। वर्चस्व की संरचनाओं को समझने में उनकी मदद लें, विभिन्न मुद्दों पर उनके साथ संवाद कर देश, काल और परिस्थिति के संदर्भ में नई समझ बनाएं, ताकि संघर्ष को आगे बढ़ाया जा सके। संवाद की यह प्रक्रिया दुनिया भर के मुक्ति-संघर्षों के अलावा दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फल-फूल रही दार्शनिक परंपराओं के साथ भी चलनी चाहिए। आने वाले समय में मुक्ति-संग्राम की दिशा इस बात से तय होगी कि अलग-अलग मुद्दों को लेकर संघर्षरत लोग इन चिंतकों से संवाद किस तरह स्थापित कर पाते हैं। 'जय भीम कामरेड' इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत है। |
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