प्राग फार्म के पट्टे निरस्त कर उद्योगपतियों को देने की तैयारी तो नही
लेखक : केवल कृष्ण ढल :: अंक: 08 || 01 दिसम्बर से 14 दिसम्बर 2008:: वर्ष :: 32 :December 1, 2008 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/will-tarai-land-would-be-given-to-industrialist/
प्राग फार्म के पट्टे निरस्त कर उद्योगपतियों को देने की तैयारी तो नही
लेखक : केवल कृष्ण ढल :: अंक: 08 || 01 दिसम्बर से 14 दिसम्बर 2008:: वर्ष :: 32 :December 1, 2008 पर प्रकाशित
यहाँ तराई में पैर फैलाये काफी लम्बे समय से चर्चित एवं विवादित बड़े कृषि फार्मों के दिन लदते हुए दिखाई दे रहे हैं। तराई के आबाद न होने के कारण पूर्व में तराई की यह जमीनें अंग्रेज सरकार बहादुर द्वारा सेना के सेवा निवृत्त अधिकारियों, महानगरों के बड़े उद्योगपतियों और उन सभी लोगों को फरोकदिली में बांट दी गई थी जिन्होंने तराई को बसाने का हौसला दिखाया था। पहाड़ के चंद और कत्यूरी वंश के राजाओं, रामपुर के नवाब और पीलीभीत के राजाओं की शिकारगाहों के रूप में प्रयोग की जाने वाली कुमाऊँ की तराई का यह भाग अपनी प्राकृतिक भौगोलिक, राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण पूरे भारतवर्ष में अत्यंत उपेक्षित, पिछड़ा और दुर्गम था। आवागमन के साधनों की कमी, बीमारियों और महामारियों के प्रकोप के कारण इसे बसा पाना अत्यंत दुसाध्य कार्य था। कहते हैं मुगल सम्राट अकबर महान के समय से ब्रिटिश शासन तक इसे बसाने के जितने भी प्रयास किये वो सब विफल हो गये। अंत में 19वीं शताब्दी में तराई को बसाया जा सका। इसलिये जिसने जितनी जमीन मांगी उसे उतनी जमीन दे दी गयी। यहां तक की कुत्ते, बिल्ली तक के नाम से यहाँ तत्कालीन अधिकारियों ने जमीनें बांटी।
इसके बाद भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद यहाँ आये शारणार्थियों को जमीनें दे दी र्गइं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों को पूर्वी बंगाल के दंगा पीड़ितों को तथा भारतवर्ष के किसी भी प्रांत से आये लोगों को यहाँ जमीनें दे दी गई।
ज्यों-ज्यों जनसंख्या दबाव बढ़ा धन और धरती के बँटवारे की बात उठती रही। तेलंगाना की तर्ज पर तराई में भी छुटपुट आंदोलन होते और दबा दिये जाते रहे। अलबत्ता अल्मोड़ा मैग्नेसाइट और पिथौरागढ़ धारचूला के भूस्खलन से प्रभावित लोगों को एक-एक हैक्टेयर भूमि दी गई। ज्यूँ-ज्यूँ तराई में आवागमन के साधन बढ़े त्यों-त्यों जमीन की मांग बढ़ती गई। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद यहाँ भूमिहीनों के काफिले आते और बसते रहे। आज भी बस रहे हैं।
इसी क्रम में बसाये गये अलीगढ़ के उद्योगपति प्राग नारायण और उनके भाइयों को भी यहाँ जमीन 1993 में दी गयी थी, जो 'प्राग' और 'खुरपिया' फार्म के नाम से हैं। युग बदला तराई में आवागमन के साधन बढ़े और बढ़ी जमीनों की मांग। भूमिहीनों और बड़े फार्मो के बीच जमीन के लिये जंग शुरू हुई तो कमान संभाली कम्यूनिस्ट नेताओं ने। भूमिहीनों की बड़ी-बड़ी समितियाँ और संगठन बना आंदोलन को हवा देकर तराई में जल रही इस आग का रुख ही बदल दिया।
जनसंख्या वृद्धि और साधनों की सुलभता के कारण तराई में बसने की चाह में यहाँ आते और बसते रहे लोगों के कारण बेरोजगारी का मसला उठ खड़ा हुआ। बेरोजगारी और भुखमरी की समस्या से निपटने के लिये और पहाड़ों से युवकों का पलायन रोकने के लिये यहां उद्योगों की स्थापना की गई। पंतनगर कृषिफार्म और सितारगंज में सम्पूर्णानंद शिविर में सिडकुल के नाम से औद्योगिक पार्कों की स्थापना भी की गई। बेरोजगारी उन्मूलन के लिये ही सही यहाँ औद्योगिक जोन बनाए गए।
बेरोजगारी उन्मूलन के इसी क्रम में अब ज्यूँ-ज्यूँ उद्योगपतियों की जमीनों की मांग बढ़ती जा रही है, राज्य सरकार भी यहाँ जमीन टटोलती जा रही है। यहाँ प्राग फार्म और खुरपिया फार्म दो ही ऐसे कृषि फार्म रह गये हैं जिनके पास सीलिंग की सीमा से अधिक भूमि है। इस भूमि को लेकर एक लम्बे समय से भूमिहीनों का संघर्ष जारी है। प्रागफार्म में तो एक दशक पूर्व चार भूमिहीनों की हत्या भी प्रबंधक वर्ग के हाथों हो चुकी। भूमिहीन संगठन इन फार्मों की जमीन लेने के लिये संघर्षरत हैं।
अभी हाल ही में जिलाधिकारी, उधमसिंह नगर द्वारा प्राग फार्म के पट्टे निरस्त कर दिये जाने से यह संकेत मिलता है कि यह भूमि अब किसी उद्योगपति को दी जानी है। सच बात यह है कि तराई की इस उपजाऊ भूमि के शोषण-दोहन से यहाँ के उद्योगपति इतना अधिक धन अर्जित कर चुके हैं कि उनकी कई पीढ़ियाँ बैठकर आराम से खा सकती हैं। इसके अलावा लीज की अवधि भी समाप्त हो गई है।
प्राग फार्म में दर्ज माल कामकाज के हिसाब से लगभग चार हजार एकड़ भूमि है। परन्तु मौके पर छः हजार एकड़ बताई जा रही है। इसकी जाँच-पड़ताल की मांग भी अक्सर उठती है परन्तु भ्रष्टाचार व घूसखोरी के चलते हर बार रफा-दफा कर दिया जाता रहा। इस बार ऐसी स्थिति नहीं है। इस बार सरकार को उद्योगपतियों के लिए जमीन चाहिए और उद्योगपति हर तरह से अधिकारियों को खुश करने की कला जानते हैं।
प्राग फार्म और खुरपिया फार्म में लगभग 10 हजार एकड़ भूमि है। प्राग फार्म के पट्टे निरस्त किये जाने की कार्यवाही ही इस मुहिम की शुरुआत मानी जा रही है। रतन टाटा की लखटकिया कार नैनो का उत्पादन यहाँ शुरू हो चुका है। सीलिंग की सीमा निर्धारित किये जाने के बाद भी सीलिंग संबंधित मामलों की फाइलों के उच्च और उच्चतम न्यायालय में लंबित पड़े रहने के कारण ही शायद सरकार ने यह निर्णय लिया है कि सीमा से अधिक भूमि के पट्टे ही निरस्त कर दिये जायें तो न्यायालय में अपना पक्ष प्रस्तुत करने में सरकार को आसानी रहेगी। साथ ही लीज की अवधि समाप्त हो गये पट्टे भी निरस्त कर दिये जायें।
टाटा मोटर को जमीन उपलब्ध कराने की कवायदों का ही यह एक हिस्सा बताया जा रहा है। इसके अतिरिक्त भी अन्य कंपनियाँ जगह के अभाव में तराई आना चाहती हैं। बेरोजगारी की समस्याओं से निजात पाने के लिये सरकार ने जो कदम उठाये हैं उनसे जनता और सरकार को काफी राहत मिली भी है। इसीलिये सरकार अब दरिया दिली से बांटी गई जमीनों को वापस भी लेना चाहती है। जनहित में भी इन जमीनों को वापस लेकर सरकार बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध करा सकती है। इसीलिये पट्टे निरस्त करने की कवायद शुरू की गई थी। परंतु संभवतया पिछली कांग्रेस सरकार की प्रस्तावित इस योजना का खामियाजा डी.एम. के ट्रांसफर से चुकाया गया। भाजपा सरकार में प्राग फार्म वालों का खासा दखल बताया जा रहा है। शायद इसी लिये प्रशासन जिलाधिकारी के आदेशों के बावजूद भी कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं कर पाया।
उधर प्राग फार्म वालों द्वारा एक बार फिर स्थगन आदेश द्वारा पट्टे निरस्त करने की कार्यवाही पर विराम लगा तो दिया गया है परंतु यह इस लिये टिकाऊ नहीं लगता कि यह नीति किसी भी राजनैतिक सरकार की न होकर (आई.ए.एस/पी.सी.एस. अधिकारियों की) सरकार की है और सरकार से जमीन हथियाने की फिराक में इस बार गरीब भूमि हीन न होकर साधन सम्पन्न पूंजीपति और उद्योगपति हैं।
लोक सभा चुनाव के अब कुछ ही माह बचे हैं। चुनाव लड़ने के लिये हर एक दल को धन की आवश्यकता होगी इसीलिये तराई में अब बड़े फार्मों के दिन लदते दिखाई दे रहे हैं। हरिद्वार, काशीपुर, रुद्रपुर, सितारगंज में औद्योगिक केन्द्र बन जाने के बाद विकास हुआ ही है और बेरोजगारों को रोजगार भी मिला है। इसी से उत्साहित होकर सरकार ने नई से नई संभावनायें तलाश करनी शुरू कर दी हैं। प्राग फार्म, खुरपिया फार्म, टनकपुर स्ट्रांग फार्म आदि अनेकों ऐसे कृषि फार्म हैं जो तराई को बसाने के लिये सरकार द्वारा लीज पर दिये गये थे। जिन लोगों में यह जमीनें बांटी गई थीं वह तो कबके मर गये मगर जमीनें लीज की अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी अभी तक उन्हीं लोगों के पास हैं। इसीलिये अब सरकार इन्हें निकाल लेना चाहती है।
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