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Saturday, April 27, 2013

भारत का इतिहास:आरक्षण पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास एच एल दुसाध

     भारत का इतिहास:आरक्षण पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास  

                                               एच एल दुसाध

सामाजिक परिवर्तन के लिए हर किसी ने इतिहास से प्रेरणा लेने की कोशिश की है.इस क्रम में उसने मानव के संघर्षों के मूल अंतर्विरोध को समझने का प्रयास किया है,जो देश,काल की परिस्थितियों के आधार पर विभिन्न बिंदुओं पर रहा.किन्तु जो कारण सर्वत्र व्याप्त रहा ,वह आर्थिक कारण है.संभवतः इसीलिए दुनिया के महानतम विचारक मार्क्स को कहना पड़ा कि दुनिया(मानव जाति) का इतिहास वर्ग व आर्थिक संघर्ष का इतिहास है.लेकिन अगर भारत के सन्दर्भ में इतिहास की विवेचना की जाय तो मानव के परस्पर संघर्षो के कॉमन कारण के अतिरिक्त अन्यान्य कारण भी आरक्षण के साथ जुड़े रहे हैं.ऐसे में कहा जा सकता है कि अगर मार्क्स के अनुसार दुनिया का इतिहास वर्ग व आर्थिक संघर्ष का इतिहास है तो भारत में वह आरक्षण पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास है और अगर भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है तो वह मूलतः वर्ण/जातीय संघर्ष का इतिहास है.इसी कारण से फुले-बाबासाहेब और कांशीराम जैसे तमाम समाज परिवर्तनकामी नायकों ने भारत के इतिहास को वर्ण/जाति पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास बताया है.ऐसे में सवाल पैदा होता है कि अगर भारत का इतिहास वर्ण-व्यवस्था पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास है तो वर्ण-व्यवस्था क्या है?

वर्ण-व्यवस्था क्या है,इसकी सुनिर्दिष्ट परिभाषा तय नहीं हो पाई है किन्तु  हिंदुओं के लिए इसका महत्व अमापनीय रहा है.इसके गुरुत्व से अभिभूत होकर स्वामी विवेकानंद ने वर्ण-व्यवस्था को मानव जाति को ईश्वर प्रदत सर्वश्रष्ठ उपहार कहा है.उन्ही की भांति महान कम्युनिस्ट नेता इएसएम नम्बूदरीपाद भी इसके प्रशंसक रहे.यह वह धर्माधारित विधान है जिसका अनुसरण कर सुप्राचीन काल से ही हिंदू अपनी जीवन-पद्धति परिचालित व मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करते रहे हैं..वर्ण-व्यवस्था के अनुसार आचरण के लिए मानव मात्र को प्रेरित करना ही वैदिक काल से धर्मशास्त्रों का लक्ष्य रहा है.प्राचीन धर्मशास्त्र प्रणेताओं का ऐसा मत रहा है कि प्राणीमात्र का कल्याण उसके स्वधर्म पालन में निहित है.इस जगती-तल में जब प्रत्येक प्राणी स्व-धर्म पालन में निमग्न रहता है,उसके नियमों के उलंघन करने की चेष्टा नहीं करता ,तब जगत में सुख और शांति की वर्षा होती रहती है.प्रत्येक प्राणी सुखी और संतुष्ट होकर परस्पर सहयोग एवं सद्भवना से जीवन व्यतीत करते हुए ,अपने परम ध्येय (मोक्ष) की प्राप्ति में तत्पर रहता है और इस प्रकार द्वंदमय जगत से निवृत होकर अनंत आनंद का भोग करने का अधिकारी बन जाता है.

धर्मशास्त्र सम्बन्धी संस्कृत – साहित्य इस तथ्य की पुष्टि करता है कि मनु धर्म शास्त्र के आदि प्रणेता हुए.उनका यह मानना रहा है कि प्राणिमात्र का कल्याण ही स्वधर्म पालन में है,पर मनुष्य समाज ऐसे प्राणियों से बना है,जिनमे स्वधर्म परायणता दुर्लभ है.इसलिए इन अशुचि ,अधर्मपरायण प्राणियों को स्वधर्म –पालन के निमित्त बाध्य करने के लिए के उन्हें दण्डित करना आवश्यक है.इसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने दंडविधान की व्यवस्था दी.मनु के अनुसार दंड का सर्जन ईश्वर ने स्वयं किया.इस प्रकार मनु के मतानुसार धर्म और दंड दोनों की उत्पत्ति साथ-साथ हुई है और दंड का उद्देश्य धर्म संस्थान एवं धर्मरक्षा है.मनु ने धर्म रक्षा हेतु जो दंडनीति बनाई,वही राजशास्त्र अर्थात राजधर्म के रूप में मान्य हुई.

दरअसल जिसे धर्मशास्त्रों में स्व-धर्म  पालन कहा गया है वह प्राणीमात्र का नहीं बल्कि हिंदू-ईश्वर(विराट पुरुष) के विभिन्न अंगों से जन्मे  अलग-अलग मानव समूहों का धर्म है .स्वधर्म पालन के नाम पर इनके लिए भिन्न-भिन्न कर्म/पेशे(वृतियां) धर्मशास्त्रों द्वारा निर्दिष्ट की गईं.चूंकि धर्मशास्त्रों के प्रणेताओं की दृढ मान्यता थी कि केवल स्वधर्म पालन द्वारा ही जगत में सुख और शांति कि वर्षा कराई जा सकती है;प्रत्येक प्राणी सुखी और संतुष्ट होकर परस्पर सहयोग एवं सद्भावना से जीवन व्यतीत करते हुए मोक्ष की ओर प्रवृत हो सकता व द्वंदमय जीवन से निवृत होकर अनंत आनंद का भोग करने का अधिकारी बन सकता है इसलिए उन्होंने कुछ ऐसे नियमों-साधनों और उपायों का प्रावधान किया जिससे लोग किसी भी सूरत में स्वधर्म पालन से विच्यूत न हो सकें.ये नियम ,उपायादि ही वर्ण-व्यवस्था बने जिसमें किसी के लिए भी स्वधर्म विच्यूति अर्थात धर्म-संकरता घटित करने का कोई अवसर नहीं रहा.

वास्तव में जिस स्वधर्म पालन में हिंदुओं को सक्षम बनाने में वर्ण-व्यवस्था की प्रशंसा की जाती है उस स्वधर्म को इतिहास की भौतिकवादी अभिधारणा और मूलनिवासियों के नज़रों से देखने का गंभीर प्रयास ही नहीं हुआ.अगर हुआ होता तो लगभग तीन हज़ार सालों से स्वधर्म पालन के नाम पर, मूलनिवासियों के रूप में,मानव संसाधन की विपुल बरबादी देखकर दुनिया सकते में आ जाती.विगत दशकों से वर्ण-व्यवस्था पर मानवाधिकार प्रेमियों की नज़र पड़ने के बावजूद इसका मानव संसाधन हननकारी रूप पूरी तरह उजागर होना बाकी है.बहरहाल स्वधर्म पालन के लिये वर्ण-व्यवस्थाधारित राजधर्म लागू होने के फलस्वरूप जिस वर्ण के लिए जो कर्म/पेशे निर्दिष्ट किये गए ,वे उसके लिए चिरकाल के लिए ही आरक्षित होकर रह गए .ऐसे में स्वधर्म पालन करवाने के उद्देश्य से प्रवर्तित वर्ण-व्यवस्था मूलतः एक आरक्षण व्यवस्था के रूप क्रियाशील होने के लिए  अभिशप्त हुई.इस आरक्षण व्यवस्था में स्वधर्म  पालन के नाम पर चौथे वर्ण के अंतर्गत आने वाले शूद्रातिशूद्रों के लिए ब्राह्मणों के आरक्षित पेशे अध्ययन-अध्यापन ,पौरोहित्य और राज्य-संचालन में मंत्रणादान;क्षत्रियों के शासन-प्रशासन,भू-स्वामित्व व सैन्य-वृति एवं वैश्यों के लिए आरक्षित पशुपालन,व्यवसाय-वाणिज्यादि को अपनाने का कोई अवसर ही नहीं रहा.आरक्षणवादी वर्ण-व्यस्था के चलते मूलनिवासी चिरकाल के लिए शिक्षाहीन,भूमिहीन,व्यवसाय-वाणिज्यहीन बनने के लिए अभिशप्त हुए.पुरोहित और राजा बनने का तो वे सपना भी नहीं देख सकते थे.

बहरहाल वर्ण व्यवस्था का एक आरक्षण व्यवस्था में तब्दील होना महज संयोग नहीं था.इसे साम्राज्यवादी नीति के तहत सुपरिकल्पित तरीके से अंजाम दिया गया,इसका सुराग पंडित नेहरु की इस टिप्पणी से मिलता है-'एक ऐसे ज़माने में जब फ़तेह करनेवालों का यह कायदा रहा कि हारे हुए लोगों को या तो गुलाम बना लेते या उन्हें बिलकुल मिटा देते ,वर्ण-व्यवस्था ने एक शंतिवाला हल पेश किया और धंधे के बंटवारे की जरुरत से इसमें वैश्य बने,जिनमें किसान कारीगर और व्यापारी लोग थे;क्षत्रिय हए जो हुकूमत या युद्ध  करते.;ब्राह्मण बने जो विचारक थे,जिनके हाथ में नीति की बागडोर थी और जिनसे यह उम्मीद की जाती थी कि वे जाति के आदर्शों की रक्षा करेंगे.इन तीनों वर्णों से नीचे शूद्र थे जो मजदूरी करते और ऐसे धंधे करते थे ,जिनमें  खास जानकारी की जरूरत नहीं थी और जो किसानों से अलग थे.कदीम वाशिंदों से भी बहुत से इन समाजों में मिला लिए गए थे और उन्हें शूद्रों के साथ इस समाज व्यवस्था में सबसे नीचे का दर्जा दिया गया.'

 वास्तव में आर्यों ने वर्ण-व्यवस्था को जो आरक्षण व्यवस्था का रूप दिया ,उसे विजेता का धर्म भी कहा जा सकता है.इतिहास के हर काल में साम्राज्यवादी विदेशागतों ने पराधीन बनाये गए मूलनिवासियों के देश की संपदा-संसाधनों  को अपने  कब्जे में करने और उनको दास के रूप में इस्तेमाल करने का अपने-अपने तरीके से उद्योग लिया है..साढ़े तीन हज़ार वर्ष पूर्व भारत पर कब्ज़ा जमाए आर्यों ने विजेताओं की स्वभाविक आकांक्षा पूरा करने के लिए ही वर्ण-व्यवस्था को माध्यम बनाया.ऐसे में अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए वर्ण-व्यवस्था को आरक्षण व्यवस्था के रूप में तब्दील करने से श्रेयस्कर उनके लिए कुछ हो ही नहीं सकता था.इसी वर्ण-व्यस्था में उन्होंने चिरकाल के लिए भारत के अर्थतंत्र को प्रवाहमान बनाये रखने का सफल उपक्रम चलाया.धर्म के आवरण में लिपटी वर्ण-व्यवस्था का आर्थिक स्वरूप जानने के बाद इस निष्कर्ष पर बड़ी आसानी से पहुंचा जा सकता है कि भारत के इतिहास में अंतर्विरोध और संघर्ष का मूल मुद्दा आरक्षण ही रहा है एवं मार्क्स के अनुसार यदि मानव जाति का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है तो विश्व के एकमात्र जाति के देश भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है.

दिनांक:25 अप्रैल,2013.

मित्रों मेरा उपरोक्त लेख आज के देशबंधु में प्रकाशित हुआ है .इससे जुडी कुछ शंकायें आपके समक्ष रखना चाहता हूँ.

1-वर्ण-व्यवस्था के आर्थिक-चरित्र को देखते हुए क्या आपको भी लगता है कि भारत का इतिहास आरक्षण पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास है?

2-भारत का इतिहास वर्ण/जातिय संघर्ष का इतिहास है,ऐसा फुले से लेकर तमाम बहुजन नायकों का कहना रहा है.पर चूँकि वर्ण/जाति-व्यवस्था हिंदू –ईश्वर के विभिन्न अंगों से विभन्न चार प्रकार मानव समूहों के लिए सम्पदा-संसधान और पेशे आरक्षित करने की व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही,इसलिए क्या ऐसा नहीं कहा जा सकता की बहुजन नायकों ने भी घुमा-फिराकर भारत के इतिहास को आरक्षण पर केंद्रित संघर्ष का इतिहास ही बताया है?

3-हर बात आर्थिक को नज़रिए से देखनेवाले मार्क्स ने वर्ण/जाति-व्यवस्था को मात्र श्रम-विभाजन की व्यवस्था बताया है.जबकि साफ नज़र आता है वर्ण-व्यवस्था सिर्फ श्रम विभाजन तक सिमित न रहकर अपरिवर्तित रूप से शक्ति के स्रोतों(आर्थिक -राजनीतिक और धामिक) के बंटवारे की व्यवस्था के रूप में क्रियाशील रही.ऐसे में क्या  खुलकर नहीं कहा जा सकता कि मार्क्स वर्ण-व्यवस्था के अर्थशास्त्र की व्यापकता को समझने में पूरी तरह –व्यर्थ रहे ?

4-जिस वर्ण-व्यवस्था का प्रवर्तन  प्राचीन साम्रज्यवादियों द्वारा अपनी भावी पीढ़ी को चिरस्थाई तौर पर शक्ति के स्रोतों का एकाधिकारी बनाने  के उद्देश्य से किया गया था,उस वर्ण-व्यवस्था में ही सदियों से भारत का अर्थतंत्र प्रवाहमान रहा.ऐसे में वर्ण-व्यवस्था को मीडिया से लेकर उच्च शिक्षण संस्थाओं पर काबिज मार्क्सवादियों द्वारा अर्थ व्यवस्था का उपरी अधिरचना बताना ,क्या यह साबित नहीं करता कि उन्होंने स्व-वर्णीय हित में एक विराट बौद्धिक अपराध किया है?

5 -सिर्फ मार्क्सवादी बुद्धिजीवी ही नहीं दूसरे विचारधारा से जुड़े लोगों ने भी वर्ण/जाति व्यवस्था को मुख्यतः सामाजिक समस्या बताया जबकि आदि से  अंत तक इसकी प्रकृति बताती है कि यह प्रधानतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था होने के कारण मुख्यतः आर्थिक व्यवस्था रही.ऐसे में इसके आर्थिक  पहलू को छिपा कर कर क्या वर्ण-व्यवस्था के वंचितों  के साथ षडयंत्र नहीं किया गया?

6-वर्ण-व्यवस्था में स्वधर्म पालन के नाम पर पेशों/कर्मों की विचलनशीलता(professional mobility)निषेध किये जाने के कारण भिन्न-भिन्न वर्ण /जाति के लोगों को भिन्न –भिन्न पेशे/कर्मो से जुड़ा रहना पड़ा .ऐसे में वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण –व्यवस्था,जिसे मैं हिंदू-आरक्षण व्यवस्था कहता है ,का रुप ले लिया.इस हिंदू-आरक्षण में हजारों साल से ही दलित,आदिवासी,  पिछडों और महिलाओं  को ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्यों के लिए आरक्षित पेशों-अध्ययन-अध्यापन,राज्य संचालन में मंत्रणादान,राज्य संचालन,सैन्य-वृति,व्यवसाय-वाणिज्यादि-में योग्यता आजमाने का कोई उपाय नहीं रहा.इससे दलित-पिछड़े और महिलाएं अवसरों से तो वंचित हुई हीं,राष्ट्र भी विशाल मानव  संसाधन से वंचित रह गया .यह सारा कुछ हुआ स्वधर्म पालन के नाम पर.ऐसे में क्यों न स्वधर्म पालन की हिमायत करनेवाले धर्मशास्त्रों तथा धर्माचार्यों का चिरकाल के लिए बहिष्कार किया जाय?  

7-जिस तरह स्वधर्म पालन की आड़ में दलित-पिछडों और महिलाओं को हजारों साल से शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह वंचित करने की साजिश को अंजाम दिया गया,क्या उसके लिए हिंदू धर्माधिकारियों को खुलकर अनुताप नहीं करना चाहिए?

तो मित्रों आज इतना ही,फिर मिलते हैं कुछ नई शंकाओं के साथ.                           


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