Twitter

Follow palashbiswaskl on Twitter
Follow palashbiswaskl on Twitter

Monday, April 29, 2013

शूद्र सिर्फ अछूत नहीं है बल्कि गुमशुदा भी है भारतीय समाज में…

शूद्र सिर्फ अछूत नहीं है बल्कि गुमशुदा भी है भारतीय समाज में…


सिर्फ मनोवैज्ञानिक चीज नहीं है जाति उसका ठोस आर्थिक आधार है…

 साहित्य का उद्भव लौकिक या सेक्युलर होता है…

अस्मिता,आंबेडकर और रामविलास शर्मा भाग-2

http://hastakshep.com/hindi-literature/criticism/2013/04/26/shudra-untouchable-missing-indian-society#.UX5606KBlA0

जगदीश्वर चतुर्वेदी

भारतीय समाज में शूद्र सिर्फ अछूत नहीं है बल्कि गुमशुदा भी है। हम उसे कम से कम जानते हैं। हम उसे देखकर भी अनदेखा करते हैं। उसका कम से कम वर्णन करते हैं। अछूतों के जीवन के व्यापक ब्यौरे तब ही आये जब हमें आधुनिककाल में ज्योतिबा फुले और आंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली विचारक मिले। यह सोचने वाली चीज है कि आंबेडकर ने जाति व्यवस्था के मर्म का उद्धाटन करते हुये जितने विस्तार के साथ अछूतों की पीड़ा को सामने रखा और उससे मुक्त होने के लिये सामाजिक-राजनीतिक प्रयास आरम्भ किये वैसे प्रयास पहले कभी नहीं हुये।

आधुनिककाल के पहले शूद्र हैं किन्तु अनुपस्थित और अदृश्य हैं। जाति व्यवस्था है किन्तु जाति व्यवस्था के अनुभव गायब हैं। जाति सिर्फ मनोवैज्ञानिक चीज नहीं है। उसका ठोस आर्थिक आधार है। जाति के ठोस आर्थिक आधार को बदले बगैर जाति की संरचनाओं को बदलना सम्भव नहीं है। संत और भक्त कवियों के यहाँ जाति एक मनोदशा के रूप में दाखिल होती है। मनोदशा के धरातल पर ही ईश्वर सबका था और सब ईश्वर के थे। भक्ति में भेदभाव नहीं था। भक्ति का सर्वोच्च रूप वह था जो मनसा भक्ति से जुड़ा था। वास्तविकता इसके एकदम विपरीत थी। ईश्वर और धर्म की सत्ता के वर्चस्व के कारण भेद और वैषम्य के सभी समाधान मनोदशा के धरातल पर ही तलाशे गये। मन में ही सामाजिक समस्याओं के समाधान तलाशे गये। सामाजिक यथार्थ से भक्त कवियों का लगाव एकदम नहीं था। यही वजह है कि वे जातिभेद के सामाजिक रूपों को देखने में असमर्थ रहे। इस कमजोरी के बावजूद भक्त कवियों ने जातिभेद के खिलाफ मनोदशा के स्तर पर संघर्ष करके कम से कम सामंजस्य का वातावरण तो बनाया। यह दीगर बात है कि सामंजस्य के पीछे वर्चस्वशाली वर्गों की हजम कर जाने की मंशा काम कर रही थी। उल्लेखनीय है सामंजस्य की बात तब उठती है जब अन्तर्विरोध होंटकराव हो, तनाव हो। वरना सामंजस्य पर इतना जोर क्यों ?

डॉ. जगदीश्वर चतुर्वेदी, जाने माने मार्क्सवादी साहित्यकार, विचारक और मीडिया समालोचक हैं। इस समय कोलकाता विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर।

अनेक विचारक वर्णभेद को नस्लभेद के रूप में चित्रित करते हैं। इस चित्रण को बड़े ही चलताऊ ढ़ंग से साहित्य में इस्तेंमाल किया जा रहा है। आम्बेडकर के नजरिये की पहली विशेषता है कि वे वर्णव्यवस्था को नस्लभेद के पैमाने से नहीं देखते।[3] दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि आम्बेडकर की चिंतन-प्रक्रिया स्थिर या जड़ नहीं थी ,वे लगातार अपने विचारों का विकास करते हैं। विचारों की विकासशाल प्रक्रिया के दौरान ही हमें उस विकासशील सत्य के भी दर्शन होंगे जो वे बताना चाहते थे। आम्बेडकर के विचारों को निरंतरता या गतिशीलता के आधार पर पढ़ना चाहिये। आम तौर पर हम यह मानते हैं कि आर्य एक जाति थी,नस्ल थी। आमेहेडकर ने इस धारणा का खण्डन किया है। आर्य एक समुदाय था। "आम्बेडकर ने लिखा- आर्य एक जन समुदाय का नाम है। जो चीज उन्हें आपस में बाँधे हुये थी, वह एक विशेष संस्कृति, जो आर्य संस्कृति कहलाती थी, को सुरक्षित रखने में उनकी दिलचस्पी थी। जो भी आर्य संस्कृति स्वीकार करता था, वह आर्य था। आर्य नाम की कोई नस्ल नहीं थी।"[4] आम्बेडकर ने यह भी लिखा है कि "आर्यों में रंग सम्बंधी द्वेषभाव था जिससे उनकी समाज व्यवस्था निर्धारित हुयी, यह बात निहायत बेसिर-पैर की है। यदि कोई ऐसा जन-समुदाय था जिसमें रंग सम्बन्धी द्वेषभाव का अभाव था तो वह आर्यों का समुदाय था और ऐसा इसलिये कि उनमें कोई ऐसा रंग प्रधान नहीं था जिससे वे अलग पहचाने जाते।"[5]

भीमराव आम्बेडकर ने इस धारणा का भी खण्डन किया है कि दस्यु लोग अनार्य थे।[6] वे यह भी नहीं मानते कि आर्य भारत के बाहर से आये थे। वे यह भी मानते हैं कि शूद्र भी आर्य हुआ करते थे।

भीमराव आम्बेडकर ने सन् 1946 में 'शूद्र कौन थे ?' ( हू वेयर द शूद्राज ) नामक किताब लिखी। इस किताब में पश्चिमी विद्वानों की तमाम धारणाओं का उन्होंने खण्डन किया। "आम्बेडकर ने इन विद्वानों की सात मुख्य स्थापनाएँ प्रसुत की है- 1. जिन लोगों ने वैदिक साहित्य रचा था, वे आर्य नस्ल के थे। 2. यह आर्य नस्ल बाहर से आयी थी और उसने भारत पर आक्रमण किया था। 3. भारत के निवासी दास और दस्यु के रूप में जाने जाते थे और ये आर्यों से नस्ल के विचार से भिन्न थे। 4. आर्य श्वेत नस्ल के थे, दास और दस्यु काली नस्ल के थे। 5. आर्यों ने दासों और दस्युओं पर विजय प्राप्त की। 6.दास और दस्यु विजित होने के बाद दास बना लिये गये और शूद्र कहलाए। 7. आर्यों में रंगभेद की भावना थी और इसलिये उन्होंने चातुर्वर्ण्य का निर्माण किया। इसके द्वारा उन्होंने श्वेत नस्ल को काली नस्ल से, यथा दासों और दस्युओं से अलग किया। आगे आम्बेडकर ने इन सातों स्थापनाओं का खण्डन किया।" [7] इन सभी मतों का इन दिनों प्राच्यवादी पश्चिमी विचारक खूब प्रचार कर रहे हैं। इन विचारों से हिंदी लेखकों का एक तबका भी प्रभावित है।

रामविलास शर्मा ने सवाल उठाया है कि शूद्र अनार्य नहीं थे तो वे कौन थे ? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने आम्बेडकर के विचारों का निचोड़ पेश करते हुये लिखा है, "इस प्रश्न के उत्तर में आम्बेडकर की तीन स्थापनाएँ हैः (1) शूद्र आर्य थे। (2) शूद्र क्षत्रिय थे। (3) क्षत्रियों में शूद्र ऐसे महत्वपूर्ण वर्ग के थे कि प्राचीन आर्य समुदायों के कुछ सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली राजा शूद्र हुये थे।"[8]

रामविलास शर्मा ने आम्बेडकर का मूल्यांकन करते हुये अनेक महत्वपूर्ण धारणायें दी हैं। ये अवधारणायें अनेक मामलों में आम्बेडकर के चिंतन से भिन्न मार्क्सवादी नजरिये को व्यक्त करती हैं। रामविलास शर्मा ने लिखा है, "आम्बेडकर के विचार से हिन्दुओं का जो साहित्य पवित्र या धार्मक कहलाता है, वह प्रायःसबका सब ब्राह्मणों का रचा हुआ है। ब्राह्मण विद्वान् उसका आदर करें, यह स्वाभाविक है। उसी तरह अब्राह्मण विद्वान उसके प्रति आदर प्रकट न करें, यह भी स्वाभाविक है। यहाँ ब्राह्मण और अब्राह्मण का भेद करने के बदले पुरोहित और अपुरोहित का भेद करना उचित होगा। बहुत से ब्राह्मणों ने पुरोहित वर्ग के विरुद्ध साहित्य रचा है। इसके सिवा प्राचीन साहित्य का कुछ अंश क्षत्रियों का रचा हुआ भी है। और जो सबसे पवित्र ग्रंथ ऋग्वेद है, उसे रचने वाले सामन्ती व्यवस्था के ब्राह्मण थे, इसका कोई प्रमाण नहीं है। ब्राह्मण और क्षत्रिय जब अवकाशभोगी वर्ग बनते हैं,तब उत्पादन से उनका सम्बंध टूट जाता है। अपने से भिन्न श्रमिक वर्ग के बिना वे अवकाश में जीवन बिता नहीं सकते। ऋग्वेद में शूद्र शब्द केवल एक बार पुरूष सूक्त में आया है और वह सूक्त बाद में जोड़ा गया है, यह बहुत से लोगों की मान्यता है। यदि ऋग्वेद में शूद्र नहीं हैंतो उस में ब्राह्मण और क्षत्रिय भी नहीं हैं।"[9]

रामविलास शर्मा इस धारणा का भी खण्डन किया है कि साहित्य का उद्भव किसी धार्मिक पाठ से हुआ है। वे मानते हैं कि साहित्य का उद्भव लौकिक या सेक्युलर होता है। इस मिथ का भी खण्डन किया है कि प्राचीन काल में ब्राह्णणों की प्रधानता थी। उनका मानना है कि "भारतीय समाज में पहले क्षत्रियों की प्रधानता थी, ब्राह्मणों की नहीं, यह उस साहित्य से प्रमाणित होता है जिसे ब्राह्मणों का रचा हुआ माना जाता है।" [10]

रामविलास शर्मा ने यह भी लिखा है कि रामायण, महाभारत के नायक क्षत्रिय माने गये हैं। किसी भी प्राचीन महाकाव्य का नायक ब्राह्मण नहीं है। यही नहींमहाभारत में धर्म और ज्ञान का उपदेश देने वाले अब्राह्मण ही हैं। युधिष्ठिर को धर्म और राजनीति की बातें भीष्म समझाते हैं और अर्जुन को दर्शन और धर्म का ज्ञान कृष्ण देते हैं। महाभारत में एक प्रसिद्ध ब्राह्मण है द्रोणाचार्य। वह राजकुमारों को धनुर्विद्या सिखाते हैं और युद्ध में सेनापति का कार्य करते हैं। इन कथाओं में शस्त्रयुक्त क्षत्रिय और शस्त्रविहीन ब्राह्मण  वर्गों का अस्तित्व नहीं है।"[11]

बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर ने शूद्रों के बारे में प्रचलित मतों का खण्डन करते हुये लिखा "शूद्रों के लिये कहा जाता है कि वे अनार्य थे, आर्यों के शत्रु थे। आर्यों ने उन्हें जीता था और दास बना लिया। ऐसा था तो यजुर्वेद और अथर्ववेद के ऋषि शूद्रों के लिये गौरव की कामना क्यों करते हैं ? शूद्रों का अनुग्रह पाने की इच्छा प्रकट क्यों करते हैं ? शूद्रों के लिये कहा जाता है कि उन्हें वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो शूद्र सुदास् ऋग्वेद के मन्त्रों के रचनाकार कैसे हुये ? शूद्रों के लिये कहा जाता है, उन्हें यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो सुदास् ने अश्वमेध कैसे किया ? शतपथ ब्राह्मण शूद्र को यज्ञकर्ता के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है ? और उसे कैसे सम्बोधन करना चाहिये, इसके लिये शब्द भी बताता है। शूद्रों के लिये कहा जाता है कि उन्हें उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं है। यदि आरम्भ में ऐसा था तो इस बारे में विवाद क्यों उठा ? बदरि और संस्कार गणपति क्यों कहते हैं कि उसे उपनयन का अधिकार है? शूद्र के लिये कहा जाता है कि वह सम्पत्ति संग्रह नहीं कर सकता। ऐसा था तो मैत्रायणी और कठक संहिताओं में धनी और समृद्ध शूद्रों उल्लेख कैसे है ? शूद्र के लिये कहा जाता है कि वह राज्य का पदाधिकारी नहीं हो सकता। ऐसा था तो महाभारत के राजाओं के मन्त्री शूद्र थे, ऐसा क्यों कहा गया ? शूद्र के लिये कहा जाता है कि सेवक के रूप में तीनों वर्णों की सेवा करना उसका काम है। यदि ऐसा था तो शूद्र राजा कैसे हुये जैसा कि सुदास् के उदाहरण से,तथा सायण द्वारा दिये गये अन्य उदाहरणों से मालूम होता है।"[12]

जारी….

[3] .उपरोक्त,पृ.487

[4] .उपरोक्त.पृ.489

[5] .उपरोक्त.पृ.489

[6] .उपरोक्त.पृ.489

[7] .उपरोक्त,पृ.510

[8] .उपरोक्त,पृ.519

[9] .उपरोक्त,पृ.526

[10] .उपरोक्त,पृ.526

[11] .उपरोक्त,पृ.526

[12] .उपरोक्त,पृ.545

ShareThis

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...

Welcome

Website counter

Followers

Blog Archive

Contributors