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Monday, October 14, 2019

शंकर गुहा नियोगी के साथ बिताये कुछ साल-3 एक सहयोद्धा की रपट पुण्यव्रत गुण अनुवाद: पलाश विश्वास

शंकर गुहा नियोगी के साथ बिताये कुछ साल-3
एक सहयोद्धा की रपट

पुण्यव्रत गुण

अनुवाद: पलाश विश्वास

दल्ली राजहरा मशीनीकरण विरोधी आंदोलन
जिन खास आंदोलनों की वजह से दल्ली राजहरा श्रमिक आंदोलन मजदूर आंदोलनों की राजधानी दिल्ली बन गया था, उनमें अन्यतम मशीनीकरण विरोधी आंदोलन है।इस आंदोलन के तेज आखिरी चरण के दौरान मैं वहीं मौजूद रहा हूं।हर हफ्ते मतप्रकाश पत्रिका के लिए रपट लिखी है।बड़ा आलेख अनीक के लिए लिखा है।अनस्टुप के संघर्ष ओ निर्माण संकलन और अभिमुख पत्रिका के शंकर गुहा नियोगी स्मृति विशेषांक में मशीनीकरण विरोधी आंदोलन पर दोनों आलेख मेरे हैं।फिर 1994 में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के नियोगी परवर्ती नेतृत्व ने जब आंदोलन के साथ विश्वासघात करके दल्ली खदान को संपूर्ण मशीनीकरण के लिए भिलाई इस्पात परियोजना के हवाले कर दिया,तब उस फैसले का विरोध करने पर दूसरे कई साथियों के साथ छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से मैं बहिस्कृत भी हो गया।पुराने आलेखों से मदद लेने के बावजूद यह मेरा नया आलेख है।
यह तब की कहानी है,जब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा था। दक्षिण पूर्व के सात आदिवासीबहुल जिलों- दुर्ग, राजनांदगांव, रायपुर, बस्तर, विलासपुर, रायगढ़ और सरगुजा को लेकर छत्तीसगढ़ बना है। प्राकृतिक संपदा से भरपूर छत्तीसगढ़- लोहा, कोयला, चूना पत्थर, डोलोमाइट, कोयार्जाइट, तांबा, यूरेनियम, टीन, बक्साइट, फेल्डस्पार, मैगनीज खदानों  का छत्तीसगढ़। इसके अलावा खेती के लिए विशाल उपजाऊ  मैदान भी हैं। नदियों में साल भर पानी बहता रहता है और नदियों के अलावा पहाड़ी झरनों से उत्पन्न बड़े बड़े जलाशय भी हैं।जंगलों में शाल, सैगुन, तेंदु, महुआ, बांस जैसे वन संपदा हैं।इन्हीं प्राकृतिक संपदा की नींव पर छत्तीसगढ में बड़े बड़े उद्योग लगे हैं।शुरुआत में इनमें अनेक सार्वजनिक सेक्टर के उद्योग कल कारखाने थे। प्राकृतिक संपदा के अलावा छत्तीसगढ़ के औद्योगीकरण में बड़ी भूमिका सस्ती श्रम शक्ति की रही है।
दुर्ग जिले में रूस की मदद से 1958 में भिलाई इस्पात कारखाना का निर्माण हुआ। इस कारखाने के लिए लौह अयस्क दुर्ग जिले की ही दल्ली राजहरा, महामाया और अड़िंगडुंगरी खदानों में उपलब्ध थे।कोयार्जाइट की आपूर्ति जिले की दानीटोला खदान से होती थी। लाइम स्टोन और डोलोमाइट दुर्ग जिले की नंदिनी और विलासपुर जिले की हीररी खदानों से लाये जाते थे। इस कारखाने को तंदुला, गोंदली, बईडिही, खरखरा, गंगरेल, इत्यादि जलाशयों से पानी की आपूर्ति होती थी। नतीजतन दुर्ग में खेती के लिए सिंचाई का पानी नहीं मिल पाता था।लोहा पत्थर ढुलाई के लिए दल्ली राजहरा से भिलाई तक रेल लाइन बनायी गयी,जिसमें हजारों एकड़ कृषि जमीन और वन भूमि खप गयी। कारखाना और खदानों के कचरे से हवा पानी और मिट्टी प्रदूषित हो रही थी। दुर्ग जिले में प्राकृतिक संतुलन गड़बड़ गया।साल दर साल दुर्ग सूखाग्रस्त इलाका घोषित होता रहा।
छत्तीसगढ़ से इतना सबकुछ लेते रहने के बावजूद भिलाई ने लौटाया कुछ भी नहीं। भिलाई इस्पात कारखाना की कर्मचारी वाहिनी में सिर्फ निचले स्तर का एक हिस्सा ही छत्तीसगढ़ी रहा है। ये छत्तीसगढ़ी लोग खदानों में पत्थर तोड़ रहे थे, ट्रकों में पत्थर लोड कर रहे थे।उत्पादन बढ़ाने के बहाने मशीनीकरण के जरिये इन्हीं लोगों की छंटनी की कोशिशों को अपने प्रतिरोध से कैसे नाकाम कर दिया था दल्ली राजहरा के खदान मजदूरों ने,वही कहानी सुनानी है।

दल्ली राजहरा

दल्ली और राजहरा दो पहाड़ों के नाम हैं। लोहा पत्थरों के पहाड़। दल्ली पहाड़ में तीन खदानें हैंः दल्ली ,मयूरपानी और झरना दल्ली।राजहरा में दोः राजहरा और कोकान। दल्ली राजहरा खदानसमूह या Dalli Rajhara Group of Mines में इन पांच खदानों के अलावा और दो खदानें 18 किमी दूर महामाया खदान और बीस किमी दूर आरिडुंगरी खदानें भी शामिल हैं। दल्ली राजहरा की इन सभी खदानों की मिल्कियत भिलाई इस्पात कारखाने की है।
इन पांचों खदानों को केंद्रित पचास के दशक के आखिर में दल्ली राजहरा खदान शहर बस गया।मैं जिस वक्त छत्तीसगढ़ में था (1986 - 1994), उस वक्त दल्ली राजहरा की जनसंख्या एक लाख बीस हजार की थी। दल्ली राजहरा पर निर्भर रहकर डोंडी लोहारा ब्लाक के करीब एक लाख और लोग गुजर बसर करते थे, जो दल्ली राजहरा के वाशिंदों को लकड़ी, सब्जी, अनाज, दूध,वगैरह की आपूर्ति करते थे। वे इनके राशन पानी के लिए खेती में जुते हुए लोग थे।
3 मार्च,1977 को दल्ली राजहरा लोहा खदान के ठेका मजदूरों की आजाद यूनियन या छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ (सीएमएस) बन गयी। इस यूनियन की नये आंदोलनों में खास था मशीनीकरण विरोधी आंदोलन। इस आंदोलन को समझने के लिए मैनुअल खदान और मशीनीकृत खदान के काम के तौर तरीकों को समझना जरुरी है।

मैनुअल खदान में काम करने के तौर तरीके

1.सबसे पहले प्रसपेक्टिंग यानी मिट्टी या पत्थर की खुदाई करके कहां अच्छे अयस्क हैं,यह पता लगाना।
2.इसके बाद क्वालिटी ब्लाकिंग, जिससे खनन के लिए सही जगह चिन्हित कर ली जा सके।
3.ब्लाक प्रिपरेशनः अर्थात अयस्क पर मिट्टी और पत्थरों की परतें हटाना, आवाजाही के रास्ते बनाना।
4.ड्रिलिंगःयानी अयस्क में छेद करना,जिसमें डायनामाइट रखकर धमाके किये जा सके।
5.ब्लास्टिंगः डायनामाइट विस्फोट के जरिये अयस्क के बड़े बड़े हिस्से अलग कर देना।
6.रेजिंग-अयस्क के बड़े बड़े हिस्से को शब्बल और बड़े बड़े हथौड़ों से पुरुष और महिला श्रमिकों द्वारा तोड़ना। इन टूटे टुकड़ों को फिर छोटे हथौड़ों से तोड़कर और छोटा बनाने का काम मूलतः महिला रेजिंग मजदूरों का काम है। इसके बाद 0 से 10 मिमी और 10 से मिमी आकार के हिस्सों में अयस्क को बांटकर रखना।
7.ट्रांसपोर्टिंगः ट्रांसपोर्ट मजदूर टोकरियों में भरकर यह अयस्क टिपर ट्रकों में लाद देते हैं और ड्राइवर उन ट्रकों को मंजिल तक पहुंचाते हैं।
मैनुअल पद्धति में जो यंत्र चाहिएः प्रस्पेक्टिंग के लिए बोर (यानी खुदाई करने का यंत्र)। छोटी ड्रिलिंग मशीन, शबब्ल, हथौड़ा, गैती, कुदाल, वगैरह।

मैकानाइज्ड खदान में कार्यपद्धति

ब्लाक प्रिपरेशन बुलडोजर से होता है।
आम ड्रिलिंग के बदले हैवी ड्रिलिंग।
आम ब्लास्टिंग के बदले हेवी ब्लास्टिंग।
अयस्क के बड़े टुकड़ों को इस मामले में खदान में ही तोड़कर छोटा नहीं बनाया जाता। इन बड़े टुकड़ों को शावेल के जरिये डंपर में लाद दिया जाता है। कई टिपर ट्रकों का काम इकलौते डंपर से लिया जा सकता है। जिन बड़े पत्थरों का बोझ टिपर ट्रक ढो नहीं सकते, उसे अनायास ही डंपर ढोता है।पत्थर तोड़कर छोटा बनाने का काम प्लांट में होता है।ज.क्रशर एक हजार मिली मीटर तक के पत्थर के टुकड़ों को तोड़कर छोटा बना देता है।इससे भी छोटा बनाने के काम के लिए कोन क्रशर का इस्तेमाल होता है।
इस तरह हम देखते हैं कि मैकानाइज्ड पद्धति के तहत रेजिंग मजदूरों का काम बुलडोजर, शावेल, ज क्रशर ,कोन क्रशर करते हैं। ट्रांसपोर्ट मजदूर का काम भी शावेल से कराया जाता है।
दल्ली राजहरा के खदानों में राजहरा खदान पहले से मैकानाइज्ड थी। कोकान, दल्ली, झरन दल्ली, मयूरपानी, महामाया और अरिडुंगरी में मैनुअल पद्धति से खनन होता था। बाद में अरिडुंगरी खदान को भी मैकानाइज्ड कर दिया गया,जिसका एआईटीयूसी नियंत्रित श्रमिक संगठन प्रतिरोध नहीं कर सका। इसके बाद भिलाई इस्पात परियोजना के मैनेजरों की नजर दल्ली पर टिक गयी। पिछली सदी के आठवें दशक के अंत के आंकड़ों के हिसाब किताब के मुताबिक उस वक्त दल्ली राजहरा के खदानों में लौह अयस्क का  भंडार मोटे तौर पर इस तरह थाः
  • राजहरा                          -         35 मिलियन टन
  • कोकान                          -          3 मिलियन  टन
  • दल्ली और मयूरपानी       -          170 मिलियन टन
  • झरन दल्ली                   -           35 मिलियन  टन
  • महामाया                      -           15 मिलियन टन
  • अरिडुंगरी                     -            18 मिलियन टन
मशीनीकरण के लिए जिस मात्रा में  पूंजी का निवेश करना होता है, उस तुलना में कोकान या महामाया में अयस्क भंडार कम होने की वजह से मैनेजमेंट ने कभी उन दोनों खदानों को पूरी तरह मैकेनाइज्ड बनाने के बारे में नहीं सोचा। दूसरी तरफ, दल्ली खदान का लौह अयस्क भंडार विशाल था और यही नहीं, दल्ली, मयूरपानी और झरन दल्ली खदानें एक ही पहाड़ में थीं- इसलिए किसी एक को मैकानाइज्ड कर देने के बाद बाकी दो खदानों को मैकानाइज्ड करना भी आसान था।
छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक यूनियन बनने से पहले ही यानी 1977 से पहले दल्ली खदान के मशीनीकरण का काम शुरु हो गया था। कोन क्रशर लग चुके थे,जिनसे पत्थर तोड़ा जाता है। प्लांट भी लगा दिया गया- ताकि स्क्रीनिंग (छेंकना), सर्टिंग (छंटनी) और वाशिंग (धुलाई) के जरिये अयस्क की गुणवत्ता बढ़ाकर उसे इस्पात कारखाने में इस्तेमाल लायक बनाया जा सके।
1978 में इस्पात परियोजना प्रबंधन ने बाकी काम पूरा करने की कोशिशें शुरु कर दींः खदान इलाके में आवाजाही के लिए चौड़ी सड़क बनाना, जिसपर शावेल, डंपर आ जा सकें; हेवी ड्रिलिंग के लिए जरुरी मशीनों का सोवियत संघ से आयात; शावेल और डंपरों की खरीद, ज क्रशर लगाना।
ऐसे वक्त बस्तर के बाइलाडिला खदान में एक घटना हो गयी।वहां लोहा खदान के मशीनीकरण के चलते कई हजार मजदूरों की छंटनी हो गयी।वहां मजदूर यूनियन एआईटीयूसी की थी।केंद्रीय नेतृत्व निष्क्रिय थी लेकिन स्थानीय नेता मशीनीकरण के खिलाफ मजदूरों को संगठित करने का  प्रयास कर रहे थे। किंतु पुलिस की गोली और ठेकेदारों की गुंडा वाहिनी के हमलों के मुकाबले मजदूरों ने हार मान ली। बाइलाडिला की घटना से दल्ली राजहरा के मजदूरों ने सबक सीखा।तब शंकर गुहा नियोगी ने लिखा -`किरंदुल के अग्निगर्भ से’।
आंदोलन के जरिये मशीनीकरण के प्रतिरोध के साथ साथ तथ्यों के साथ मशीनकरण के खिलाफ दलीलें भी तैयार कर ली गयीं।नीचे की यह सारिणी तब के पंफलेट से हैः   


सारिणी एक
(टन प्रति उत्पादन लागत,रुपये में,1978-79)
                              मैनुअल खदान           मैकानाइज्ड खदान
रेजिंग खर्च              18.50                            39.75
ट्रांसपोर्ट खर्च            22.42                           66.99
दूसरे खर्च                  5.09                             0.57
कर                           4.00                            4.00
कुल                         50.01                        111.31
स्रोतःभारत सरकार का इस्पात व खनिज मंत्रालय


सारिणी दो
(ड्रिलिंग-ब्लास्टिंग में खर्च की तुलना,रुपये में)


चालू पद्धति                                      प्रस्तावित पद्धति
हैमर ड्रिलिंग        4.30 प्रति मीटर      हैवी ड्रिलिंग       110.00 प्रति मीटर
ब्लास्टिंग            1.50 प्रति मीटर      हैवी ब्लास्टिंग    3.70 प्रति मीटर
स्रोतःछत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का सर्वे


सारिणी तीन
( शावेल पर सालाना खर्च,रुपये में)
विनियोग ब्याज                                                       4,50,000
       डिप्रिसिएशन                                                            4,50,000
रिप्लेसमेंट,डेवेलपमेंट                                                2,00,000
पावर शावेल का बिजली खर्च                                       1,08,000
लुब्रिकेशन                                                                   28,000
शावेल के साथ जुते अफसर,मजदूर पर खर्च                   4,00,000
कुल                                                                      16,36,000
स्रोतःछत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का सर्वे
छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने हिसाब जोड़कर दिखा दिया- दल्ली मैकानाइजेशन के लिए पांच शावेल लगाने की बात थी तो इसके लिए कुल वार्षिक खर्च 81,80,000 रुपये का होता।इस धनराशि से दस हजार नये मजदूरों को काम पर लगाया जा सकता था, जबकि मशीनें लगाने पर साढ़े सात हजार मजदूर बेरोजगार हो जाते।

मशीनीकरण से इलाके की अर्थव्यवस्था भी संकटग्रस्त होती है

मशीनीकरण होने पर रेजिंग और ट्रांसपोर्ट मजदूर के लिए कोई काम नहीं बचेगा, उनके परिजन दाने दाने को मोहताज हो जायेंगे, खदान मजदूरों के रोजगार पर निर्भर दल्ली राजहरा में  दुकान बाजार बंद हो जाएंगे;आसपास के गांवों के लोग जो बाजार में तरह तरह के सामान बेचते हैं, उनकी आजीविका खत्म होगी; खान मजदूरों की आय के एक हिस्से से उनके परिजन गांवों में जो खेती बाड़ी करते हैं, वह सिलसिला बंद हो जायेगा ; ट्रकों की जगह डंपर के ले लेने पर बड़ी संख्या में ट्रक मालिक, ड्राइवर, हेल्पर, गैराज मालिक, गैराज मजदूर बेरोजगार हो जायेंगे।इलाके की अर्थव्यवस्था और जन जीवन के संकट के बारे में व्यापक प्रचार अभियान के जरिये छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ और उसके मशीनीकरण विरोधी आंदोलन को भारी जन समर्थन मिलने में कामयाबी हासिल हो गयी।

मशीनीकरण परिकल्पना देशद्रोह का पर्याय

मशीनीकरण हुआ तो एक तरफ देश में बेरोजगारों की तादाद में इजाफा होगा तो दूसरी तरफ  आर्थिक व तकनीकी क्षेत्र में विदेश  पर निर्भरता भी बढ़ेगी- छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने अपने प्रचार अभियान में इस मुद्दे पर खास जोर दिया।
मशीनीकरण के लिए सोवियत संघ से कर्ज लेना था, मशीनों और अतिरिक्त कल पुर्जों का आयात भी उसी देश से होना था,तकनीकी ज्ञान भी वहीं से आना था।देश हित, जनहित, देश की आत्मनिर्भरता तिलाजंलि देनी होगी, इसके बदले में कुछ नेताओं और अफसरान के विदेशी बैंकों के खातों  में जमा बढ़ना था।

छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का वैकल्पिक अर्द्ध मशीनीकरण प्रस्ताव

जिस वक्त दल्ली राजहरा में मशीनीकरण विरोधी आंदोलन शुरु हुआ,तब केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी। बीजू पटनायक इस्पात मंत्री थे।शंकर गुहा नियोगी के साथ उन्होंने बातचीत की और उन्होंने छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ की दलीलें भी सुन लीं। सुनकर वे बोले- कोन क्रशर और स्क्रीनिंग, सर्टिंग, वाशिंग प्लांट लगाने में जो चालीस करोड़ रुपये का निवेश हो गया, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। उन्होंने सुझाव दिया  कि छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ कोई वैकल्पिक प्रस्ताव रखें, जिससे मजदूरों की छंटनी न हो और निवेश भी बेकार न जाये।
इस्पात मंत्री की इस चुनौती के मुकाबले छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का वैकल्पिक अर्द्ध मशीनीकरण प्रस्ताव तैयार किया गया।
  • हेवी ड्रिलिंग, हैवी ब्लास्टिंग, शावेल, डंपर और ज क्रशर ,इत्यादि मशीनें लगाने के बजाय चालू पद्धति यानी सामान्य ड्रिलिंग, ब्लास्टिंग, रेजिंग और ट्रांसपोर्ट मजदूरों को बहाल रखकर टिपर ट्रकों को चालू रखने को कहा गया। जिससे मजदूरों की छंटनी नहीं होनी थी और उत्पादन लागत भी कम रहनी थी।
  • जो मशीनें खरीद ली गयी हैं, उनका राजहरा मैकनाइज्ड खदान में इस्तेमाल का सुझाव दिया गया,क्योंकि वहां लगी मशीनें बेहद पुरानी हो गयी थीं।
  • जो कोन क्रशर और स्क्रीनिंग,सर्टिंग ,वाशिंग मशीनें लग चुकी थीं,उन्हें चालू करने के लिए कहा गया क्योंकि इससे अयस्कों की गुणवत्ता में वृद्धि होनी थी।इसके अलावा लोहा पत्थर को बहुत ज्यादा छोटा करने के काम से निजात मिलने पर रेजिंग मजदूर ज्यादा उत्पादन कर सकते थे। बहुत ज्यादा छोटा करने का काम कोन क्रशर से लेना था।
20 अप्रैल ,1979 को छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के साथ भिलाई इस्पात कारखाना मैनेजमेंट ने एक करारनामे पर दस्तखत कर दिया और परीक्षण बतौर दल्ली खदान में सेमी मैकानाइज्ड पद्धति से खनन के लिए हरी झंडी मिल गयी।

मैनेजमेंट ने संपूर्ण मशीनीकरण की परिकल्पना खारिज नहीं की

समझौते के मुताबिक दो साल बाद इस परीक्षण के नतीजे की समीक्षा नहीं हुई। बल्कि दल्ली खदान में 1989 तक सेमी मैकानाइज्ड पद्धति से काम चालू रहा।किंतु इन दस सालों के दरम्यान मैनेजमेंट ने बार बार मजदूरों के प्रतिरोध को तोड़ने की कोशिशें जारी रखीं। मैनुअल खदानों में मजदूरों की संख्या घटाने की कोशिशें हुईं, ताकि मैनुअल खदान में उत्पादन घट जाये और उत्पादन बढ़ाने के बहाने मशीनीकरण के एजंडे को अंजाम दे दिया जाये।
1.सेवा निवृत्ति, मृत्यु, इत्यादि कारणों से रिक्त हुए श्रमिकों के पदों पर नई भर्ती रोक दी गयी।
2.दल्ली रेलवे साइडिंग पर वैगन में अयस्क लादने का काम लगभग एक हजार महिला श्रमिकों के जिम्मे था।उन सभी को डिपार्टमेंटल यानी स्थायी बनाकर अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया गया।फिर वैगन में छोटे शावेल से अयस्क लादने का काम चालू हो गया। ये महिला श्रमिक एआईटीयूसी के अंतर्गत एसकेएमएस यूनियन की सदस्य थीं। जबकि एसकेेएमएस को शावेल के इस्तेमाल पर ऐतराज नहीं था।फिर डिपार्टमेंटल बनीं महिला मजदूरों का दूसरे खदानों में तबादला कर दिया गया। जिनमें से ज्यादातर के पति दल्ली राजहरा में काम कर रहे थे। परिवार को बनाये रखने की मजबूरी में वे स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति का विकल्प चुनने लगीं।
3.दल्ली राजहरा में ज्यादातर मजदूर अपढ़ थे। उनकी निरक्षरता को मौका बनाकर 40 से 58 साल के करीब पांच सौ मजदूरों को रिटायर होने के लिए मजबूर कर दिया गया।
4.कोकान खदान में अयस्क भंडार खत्म है, इस झूठ के सहारे खदान बंद करके छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सदस्य 1200 मजदूरों का तबादला महामाया खदान में कर देने की कोशिश हुई, ताकि यूनियन को कमजोर बनाया जा सके।लंबी लड़ाई जारी रखकर आखिरकार मजदूरों ने मैनेजमेंट को फिर वह खदान 1987 में  चालू करने के लिए मजबूर कर दिया।
5.जिन खदान इलाकों में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का असर कम था, उन सभी जगह ट्रांसपोर्ट मजदूरों की या तो छंटनी कर दी गयी या उन्हें डिपार्टमेंटल बनाने के बहाने उनका तबादला अन्यत्र किया जाने लगा।उनका काम शावेल से लिया जाने लगा।
6.दल्ली और झरन दल्ली में कुछ ठेकेदार और मजदूरों की सहकारी समितियां ठेके पर रेजिंग और ट्रांसपोर्ट का काम करती थीं।उनके ठेके का नवीनीकरण  न करके मजदूरों को बेरोजगार कर देने की कोशिशें हुईं, लेकिन मजदूरों ने उन कोशिशों को नाकाम कर दिया।
7.जिन परिवारों से पति पत्नी दोनों काम करते थे,ऐसे मामलों में पति को डिपार्टमेंटल बनाकर दूसरे खदान में भेज दिया गया।नतीजतन पत्नी ने स्वेच्छा सेवा निवृत्ति ले ली। इस तरह करीब आठ सौ महिला श्रमिकों की छंटनी हो गयी।
8.जो मजदूर लंबे अरसे से काम पर लगे हुए थे, उन्हें आकर्षक रकम के साथ
वोलुंटरी रिटायरमेंट के लिए ललचाया गया। मैनेजमेंट के खास निशाने पर छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ था ,किंतु यूनियन ने अपने मजदूरों की संख्या लगभग अटूट रखने में कामयाबी हासिल कर ली।बहरहाल एआईटीयूसी की सदस्य संख्या पर असर हुआ क्योंकि उस यूनियन के दलाल नेता इस काम में मैनेजमेंट की  मदद करते रहे।

मैनेजमेंट का नया हमला

दिसंबर,1988 को भिलाई इस्पात कारखाना ने भिलाई के एक बड़े ठेकेदार को दल्ली मैकेनाइजेशन स्टेज टु के लिए 16 करोड़ रुपये का ठेका दे दिया।पहले चरण में ज क्रशर, स्क्रीनिंग-सर्टिंग-वाशिंग प्लांट लगने थे।
अब की दफा मशीनीकरण के लिए उनकी दलीलें इस प्रकार थींः
  • उत्पादन बढ़ाने के लिए मशीनीकरण जरुरी है।1995 में वार्षिक पचास लाख टन इस्पात उत्पादन के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए मौजूदा मात्रा में अयस्क उत्पादन से काम नहीं चलने वाला है।
  • इस्पात कारखाने के नये ब्लास्ट फारनेस के लिए और अधिक गुणवत्ता के अयस्क चाहिए जो मौजूदा मैनुअल पद्धति से मिलना असंभव है।
  • मशीनीकरण की वजह से कर्मचारियों की छंटनी की यूनियन की आशंका निराधार है।

छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ की जबावी दलीलें इस प्रकार थींः

  • दल्ली राजहरा में उत्पादन लागत ज्यादा नहीं है और अयस्क की गुणवत्ता भी बेहतर है।

खदान का नाम   कहां जाता है?    प्रति टन उत्पादन लागत  गुणवत्ता(Fe%)    मजदूरों की संख्या
दल्ली राजहरा     भिलाई स्टील प्लांट     104 रुपये           63.08 से 65.76         12,000
बरसुरा         राउरकेला,दुर्गापुर ,बोकारो    98 रुपये           60.09 से 62.05           1,900
बोलानी        दुर्गापुर स्टील प्लांट          103 रुपये           61,42 से 62.57           1,700
किरिबुरु       बोकारो स्टील प्लांट           93 रुपये            62.83 से 63.62           1,650
मेगातीबुरु    बोकारो स्टील प्लांट          117 रुपये            61.33 से 62.37           2,000
गुवा            दुर्गापुर स्टील प्लांट            90 रुपये            60.36 से 60.44    आंकड़ा अनुपलब्ध
बाइलाडिला   जापान                           125 रुपये  अयस्क में एलुमिना ज्यादा      3,400
स्रोतः स्टील आथोरिटी आफ इंडिया,1987-88
  • दल्ली राजहरा खदान समूह में मैनुअल खनिज उत्पादन की लागत भारतभर में सबसे कम

खदान का नाम        किस इस्पात कारखाने में जाता है      टन प्रति उत्पादन लागत
मनोहरपुर                    IISCO                                        128.27 रुपये
बोलानी                        दुर्गापुर                                        148.66 रुपये
कालता                       राउरकेला                                      132.97 रुपये
झरनदल्ली                 भिलाई                                           89.23 रुपये
स्रोतः स्टील आथोरिटी आफ इंडिया (1987-88)
  • 1995 में 50 लाख टन के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सिर्फ 540 मजदूर चाहिए।
दल्ली राजहरा से जिस गुणवत्ता का अयस्क मिलता है, उसके 1.6 टन से 1 टन इस्पात तैयार होता है।
अर्थात 50 लाख टन इस्पात के लिए 50 x 1.6 = 80 लाख टन अयस्क की आवश्यकता थी।
1989 में दल्ली राजहरा खदान समूह में वार्षिक लौह अयस्क उत्पादन इस प्रकार थाः
राजहरा मैकानाइज्ड खदान                   28 लाख टन
दल्ली व मयूरपानी                              28 लाख टन
झरनदल्ली                                          6 लाख टन
महामाया,अरि डुंगरी और कोकन           10 लाख टन
कुल                                                 72 लाख टन
अर्थात अतिरिक्त आठ लाख टन अयस्क की और जरुरत थी।
छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने हिसाब जोड़कर दिखा दिया कि सिर्फ नये 540 मजदूर और भर्ती करने से ही  अतिरिक्त आठ लाख टन उत्पादन संभव है।
  • छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने हिसाब जोड़कर दिखाया कि ज क्रशर लगने से रेजिंग मजदूरों के लिए कोई काम नहीं बचेगा। चूंकि ज क्रशर के लिए उपयोगी माल सामान्य ट्रकों से ढोया नहीं जा सकता, इसलिए ट्रांसपोर्ट मजदूर भी अपना काम खो देंगे। इस तरह कुल दस हजार मजदूर बेकार हो जायेंगे,जिनमें 7,500 छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सदस्य थे और बाकी आईएनटीयूसी के।
  • छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने हिसाब जोड़कर दिखाया कि मशीनीकरण संपूर्ण हो जाने पर दल्ली राजहरा की एक लाख बीस हजार की आबादी उजड़ जायेगी,वहां सिर्फ बीस हजार लोग बचे रहेंगे।छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने मांग की कि अगर मशीनें लगानी ही हैं तो बेकार हो जाने वाले दस हजार मजदूरों को काम की सुरक्षा मिलनी चाहिए-
  • ठेकेदारी और कोआपरेटिव सोसाइटी के अंतर्गत काम कर रहे सभी मजदूरों का इजज्त के साथ विभागीकरण कर दिया जाय ताकि विभागीकरण के बाद भी वे जरुरी उत्पादन से जुड़े रहे और मैनेजमेंट अपनी मर्जी के माफिक उनकी छंटनी न कर सके।
  • बिना किसी देरी के ग्रेच्युटी का भुगतान कर दिया जाये।
  • जब तक मजदूरों का विभागीकरण नहीं हो जाता, उन्हें कैजुअल लिव और फेस्टिवल लिव दी जाये।

1989 में मजदूरों ने कैसे लड़ी लड़ाई?

खदान में मशीनें लगाने का ठेका भिलाई की बीके कंपनी को मिला था। पहले उन्होंने मिट्टी खोदने के लिए 97 मजदूरों को काम पर लगाया।जनवरी के पहले हफ्ते में उन्होंने दल्ली खदान में मशीनें ले जाने की कोशिश की।छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के मजदूरों ने लगातार दिन ब दिन मशीनों के लिए रास्ता अवरुद्ध करते रहे।
फरवरी में मशीन लगाने के विरोध में विधायक जनक लाल ठाकुर के आह्वान पर नागरिक सभा हुई। दल्ली खदान में क्रशिंग प्लांट लगना अनिश्चित हो गया तो भिलाई स्टील प्लांट मैनेजमंट ने चार छोटे क्रशर चलाने का ठेका एचसीेएल को दे दिया। छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का हौसला पस्त करने के मकसद से पहले क्रशर का सब कंट्राक्ट एआईयीयूसी के अंतर्गत एक फर्जी सहकारिता समिति को दे दिया गया। नौकरी दिलाने के नाम पर एआईटीयूसी के नेता ग्रामीण बेरोजगार युवकों से रुपये वसूलने लगे।दूसरे क्रशर का ठेका एक स्थानीय ठेकेदार को दिया गया और इस मामले में  भी एआईटीयूसी के मार्फत मजदूरों की भर्ती हुई।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के `नौजवान संगठन ’ ने आंदोलन चला कर तीसरे क्रशर का ठेका छीन लिया और वहां 120 मजदूरों की भर्ती हो गयी। दूसरी तरफ, दूसरे क्रशर के मजदूरों ने न्यूनतम मजदूरी और आठ घंटे काम की मांगों को लेकर एआईटीयूसी से निकल कर छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के संगठन में शामिल होकर आंदोलन शुरु कर दिया।हालात काबू से बाहर होते देखकर एचसीएल ने फिर चौथा क्रशर चालू नहीं किया। हताश होकर एआईयूटीसी ने हिंसा का रास्ता अपना लिया और छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सदस्यों पर हमले होते रहे।
बीके कंपनी ने प्रारंभिक काम के लिए जिन 97 मजदूरों को भर्ती किया था, उन्हें आठ रुपये मजदूरी में दी जाती थी। न्यूनतम 17 रुपये 18 पैसे दैनिक मजदूरी की मांग पर उन्होंने हड़ताल कर दी। शुरुआत में ही छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सदस्यों ने मशीनों का रास्ता रोक दिया था, अब की दफा मशीन ले जाने वाली गाड़ियों का रास्ता भी इन 97 मजदूरों ने रोकना शुरु कर दिया।
संकट में फंसी बीके कंपनी ने छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ और शंकर गुहानियोगी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया ताकि वे गाड़ी रोक न सकें।
मार्च महीने के मध्य एचएससीेएल के तीनों क्रशर का काम बंद कर दिया गया, जहां छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सद्स्य ही संख्या में ज्यादा थे।
इसपर एआईटीयूसी ने बाकायदा जुलूस लेकर छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सदस्यों कि बस्तियों पर धावा बोला और गाली गलौज करके उन्हें उकसाया ताकि वे मारपीट शुरु कर दे- अमन चैन बहाल रखने के नाम धारा 144 लागू थी - मकसद था कि मशीनीकरणविरोधी आंदोलन का दमन कर दिया जाये। छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सदस्यों ने शांत रहकर उनके मंसूबे पर पानी फेर दिया।
फिर खदान प्रबंधन ने छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ से जुड़ी एक सहकारिता समिति को इलाका छोड़ देने का नोटिस जारी कर दिया क्योंकि वे शावेल से खनन चलाना चाहते थे।इसके खिलाफ छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने हड़ताल कर दी।
बीके कंपनी के मुकदमे में दुर्ग सिविल कोर्ट ने फैसला सुनाया कि नियोगी समेत छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के तीन नेता गाड़ियों का रास्ता रोक नहीं सकते। छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने कोर्ट के आदेश की परवाह न करके अवरोध जारी रखा।
पहली अप्रैल को छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने स्लो डाउन शुरु कर दिया तो भिलाई कारखाना चालू रखने के लिए प्रबंधन बाइलाडिला से प्रति टन चार सौ रुपये की दर से लौह अयस्क लाने को मजबूर हो गया।
6 अप्रैल को मशीनीकरण के खिलाफ दल्ली राजहरा में पूरी हड़ताल रही।दूसरी तरफ एआईटीयूसी का जन समर्थन खिसकता रहा।
मई महीने की शुरुआत से दहशत का रास्ता अख्तियार कर लिया एआईटीयूसी ने। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के विधायक की जीप पर हमला कर दिया। छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सदस्यों से मारपीट की।जबावी प्रतिरोध खड़ा कर दिया छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने।किसी आम मजदूर के बजाय छांट छांटकर एआईटीयूसी के नेताओं की धुलाई होने लगी तो दहशत का कारोबार सिरे से बंद हो गया।
6 मई को कोर्ट ने प्रशासन को आदेश जारी कर दिया कि जैसे भी हो, बीके कंपनी के मजदूरों को काम की जगह पहुंचने देने का इंतजाम करना होगा। वक्त की नजाकत भी समझना होगा।1989 का विधानसभा चुनाव और दुर्ग मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोती लाल वोरा का गृह जिला। प्रशासन को मालूम था कि बिना गोली चलाये छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का प्रतिरोध तोड़ना नामुमकिन था और उस वक्त ऐसी कार्रवाई वांछनीय नहीं थी।
लिहाजा पुलिस प्रशासन ने छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के नेताओं से दरख्वास्त किया कि कमसकम अदालत के सम्मान की खातिर एआईटीयूसी के सदस्यों को काम की जगह तक जाने दें। एआईटीयूसी के 800 में से सिर्फ 170 मजदूर बहुत हिम्मत करके अर्द्ध सैनिक बल के जवानों के पहरे में काम की जगह पहुंचे। अदालत का आदेश सिर्फ उन्हें काम की जगह पहुंचाने के लिए सुरक्षा इंतजाम करने का था। अर्द्धसैनिक बल उन्हें वहां पहुंचाकर लौट गया।फिर काम की जगह पहुंचे 170 मजदूर वहीं फंस गये।
पहली अप्रैल से पहली मई तक छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का स्लो डाउन जारी रहा। फिर 2 मई से हड़ताल। भिलाई स्टील प्लांट को रोज चालीस लाख रुपये का नुकसान होता रहा।केंद्रीय इस्पात मंत्रालय में हलचल मच गयी। इस्पात मंत्री माखन लाल पोतेदार के साथ नियोगी की बैठक हुई। उन्होंने कहा कि मशीनीकरण रोक पाना उनके बस में नहीं क्योंकि यह राष्ट्रीय औद्योगिक नीति के तहत हो रहा है। विभागीकरण की मांग का औचित्य मानते हुए उन्होंने कहा कि दल्ली राजहरा  के दस हजार ठेका मजदूरों का विभागीकरण कर दिया जाये तो भारतभर में खदानों में काम कर रहे करीब एक लाख ठेका मजदूरों के विभागीकरण की जिम्मेदारी मंत्रालय पर होगी। इसलिए जो भी फैसला करना हो, भिलाई स्टील प्लांट के स्तर पर करना होगा।
दो मई से हड़ताल शुरु हो गयी।24 मई को मजदूर काम पर जरुर लौटे लेकिन दबाव बनाये रखने के लिए स्लो डाउन जारी रहा।
एआईटीयूसी ने फिर दहशतगर्दी शुरु कर दी तो छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के प्रतिरोध में इलाके के व्यवसायी और दूसरे तमाम तबकों के लोग भी शामिल हो गये।
जून महीने में पहले विधायक जनक लाल ठाकुर ने 19 दिनों तक अनशन किया और फिर कामरेड शंकर गुहा नियोगी ने 12 दिनों तक अनशन किया। दूसरी तरफ मजदूरों ने अवरोध आंदोलन जारी रखा।
आखिरकार 12-13 अगस्त को छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ और भिलाई स्टील प्लांट मैनेजमेंट के बीच एक करारनामे पर दस्तखत हो गयेः
1.ठेकेदारी और सहकारिता समितियों के अंतर्गत काम करने वाले करीब दस हजार मजदूरों को ग्रेच्युटी का हकदार मान लिया गया।1972 में ग्रेच्युटी कानून पास होने के बाद पहली बार ठेका मजदूरों को ग्रेच्युटी मिली।
2.साल में सात दिनों का कैजुअल और पांच दिनों का फेस्टिवल लिव मिला।
3.तय हुआ कि कोंडेकसा `बी’ में मिट्टी और गैरजरुरी पत्थर के स्तर हटाने के लिए ही शावेल और बुलडोजर का इस्तेमाल होगा। खनन किस पद्धति से होगा,इस पर खदान प्रबंधन छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के साथ सलाह मशविरा करके फैसला करेगा।
4.जब तक मौजूदा पीढ़ी के मजदूर काम पर होंगे,तब तक कोंडकसा `ए’, मयूरपानी और झरन दल्ली  में मशीनीकरण नहीं होगा।
5.विभागीकरण का काम शुरु होगा।
फिर एकबार मजदूर आंदोलन की वजह से मशीनीकरण रुक गया।

नियोगी की हत्या और मशीनीकरण

28 सितंबर,1991 को भिलाई के भिलाई के उद्योगपतियों के सुपारी किलरों की गोली से कामरेड शंकर गुहा नियोगी शहीद हो गये।छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा में विचारधारा की लड़ाई जारी रही- वर्ग संघर्ष बनाम वर्ग समझौता।(इस बारे में बाद में बतायेंगे)।
छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के नेतृत्व पर समझौतावादी काबिज हो गये। भिलाई इस्पात कारखाना मैनेजमेंट को उनके बीच अपने दोस्त मिल गये।1994 के बीचोंबीच  छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के नेतृत्व ने विभागीकरण के बदले मशीनीकरण के लिए खदान  छोड़ देने के समझौते पर दस्तखत कर दिये।
यह समझौता अंग्रेजी में लिखा गया था,जिसका अनुवाद करके शहीद अस्पताल के डाक्टरों ने मजदूरों को पढ़ाना शुरु किया। उन्होंने दिखाया कि उम्रदराज मजदूर विभागीकरण के दायरे में नहीं आते, किस तरह विभागीकरण से पहले मजदूरों को मेडिकल जांच के बहाने अयोग्य घोषित करके छांट दिया जाना है..।
डाक्टरों को सबक सिखाने के लिए पहले मुझे संगठन से निलंबित और बाद में निस्कासित कर दिया गया।इसके विरोध में दो और डाक्टरों ने इस्तीफा दे दिया।किंतु हम उस समझौते पर अमल रोक नहीं सके।

दल्ली राजहराःअब

1994 में दल्ली राजहरा छोड़ दिया था,जहां फिर तेरह साल बाद 2007 में गया। एक लाख बीस हजार की आबादी वाले दल्ली राजहरा की जनसंख्या तब तक चालीस हजार तक सिमट चुकी थी। शहर में अब साईकिल रिक्शा नहीं चलते। भिलाई इस्पात कारखाना के जो रेगुलर और डिपार्टमेंटल मजदूर शहर में रहते हैं, उनके पास अब स्कूटर, मोटर साइकिल - गाड़ी हैं, उन्हें रिक्शा की जरुरत नहीं होती। अनेक दुकानें हमेशा के लिए बंद हो गयीं।सिनेमा हाल बंद हो गये।जिनके दरवाजे पर घास उग आये हैं...
विभागीकरण के दायरे में वरिष्ठ मजदूर नहीं आये तो उन्हें स्वेच्छा सेवा निवृत्ति के लिए ललचाया गया।मेडिकल टेस्ट में ढेरों लोग अनफिट हो गये।जो फिट निकले, उन्हें स्थाई करके अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया गया।पति पत्नी को अलग अलग जगह काम मिलने की स्थिति में पत्नी को काम छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा...। मशीनीकरण समझौते पर दस्तखत करके  छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ को ही विनाश की ओर धकेल दिया नियोगी परवर्ती नेतृत्व ने।
दल्ली राजहरा के लोहा खदान ठेका मजदूरों ने सोलह साल तक लड़ाई करके मशीनों को रोक दिया था, मजदूरों की छंटनी रोक दी थी।उनके आंदोलन के सकारात्मक नकारात्मक आयाम दूसरे मजदूरों को शिक्षित बनायेगा, मेरी ऐसी धारणा है।





छत्तीसगढ़ में नारी आंदोलन
2-3 जून,1977 के ग्यारह शहीदों में एक नारी भी शामिल थीं- अनुसुइया बाई।लाल हरे झंडेवाली पहली यूनियन छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने समग्र श्रमिक जीवन को अपने कार्यक्रम में लाने के लिए जिन सत्रह विभागों का गठन किया, उनमें एक महिला विभाग भी शामिल है,जो बाद में छत्तीसगढ़ महिला मोर्चा बन गया।जिनकी मृत्यु के बाद मजदूरों ने अपना अस्पताल बनाने का संकल्प किया,वे भी एक महिला थीं- यूनियन की उपाध्यक्ष कुसुम राय।
दल्ली राजहरा के मजदूरों की कामयाबी से प्रेरित होकर  छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ में सबसे पहले बीएसपी (भिलाई स्टील प्लांट) के कैप्टिव खदानों- दुर्ग जिले के दानीटोला कोयार्जाइट खदान, बिलासपुर जिले के हीररी और बरदुआर डोलामाइट खदान, राजनांदगांव जिले के चांदीडुंगरी फ्लुराइट खदान, बस्तर जिले के आड़िडुंगरी लोहा खदान के ठेका मजदूर शामिल हो गये। इसके बाद क्रमशः राजनांदगांव के बेंगल नागपुर काटन मिल्स के मजदूरों ने राजनांदगांव कपड़ा मजूर यूनियन बना ली, राजनांदगांव के राजाराम मेइज फैक्ट्री (ग्लूकोज फैक्ट्री) के मजदूरों ने बनाई छत्तीसगढ़ कैमिकल मिल मजदूर संघ तो भिलाई स्टील प्लांट के मजदूरों ने छत्तीसगढ़ श्रमिक संघ का गठन कर दिया।रायपुर और दुर्ग जिले के गरीब खेतिहर मजदूर छत्तीसगढ़ ग्रामीण श्रमिक संघ बनाकर संगठित हो गये।1990 में भिलाई मजदूर आंदोलन के वक्त प्रगतिशील इंजीनियरिंग श्रमिक संघ और प्रगतिशील सीमेंट श्रमिक संघ भी बन गये।
जहां जहां लाल हरा संगठन गांव या शहर में बना, वहां वहां साथ साथ महिला मजदूरों की अगुवाई में महिला मुक्ति मोर्चा का स्थानीय संगठन भी बनता रहा।
महिला मुक्ति मोर्चा के प्रस्तावित लक्ष्य इस प्रकार हैंः
1.नारी नेतृत्व का विकास
2.नारी का सामंततांत्रिक शोषण रोकना
3. समाज के दूसरे शोषित तबकों के साथ मैत्री
4.पूंजीवादी शोषण का प्रतिरोध
5.श्रमिक वर्ग में नये मूल्यबोध के प्रसार के लिए संघर्ष
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के संगठनों में महिलाओं को कितना महत्व मिलता था, वह छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ की सबसे पुरानी शाखा दल्ली राजहरा शाखा के उदाहरण से समझा जा सकता है। मैनुअल खदान में रेजिंग यानी पत्थर तोड़ने का काम मर्द औरत दोनों किया करते थे। जबकि ट्रांसपोर्टिंग अर्थात ट्रकों में तोड़े गये पत्थर भरने का काम सिर्फ पुरुष करते थे।खदान इलाके में जिस अनुपात में महिला और पुरुषों की संख्या थी, उसी अनुपात में नारी पुरुष मुखिया का चुनाव होता था। लेकिन ट्रांसपोर्टिंग में महिला श्रमिक न होने की वजह से नारी मुखिया की कुल संख्या पुरुषों के मुकाबले कम हो जाती थी।
आर्थिक मांगों को लेकर चाहे ट्रेड यूनियन के आंदोलन हो या फिर छत्तीस गढ़ मुक्ति मोर्चा के विभिन्न आर्थिक सामाजिक राजनीतिक आंदोलन- सर्वत्र महिला नेत्री या महिला श्रमिक की अग्रणी भूमिका होती थी।1977 में अनुसुइया बाई की शहादत के बारे में पहले ही बता दिया है।
1981 में मजदूर आंदोलन तोड़ने के लिए छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के नेताओं को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इन नेताओं की रिहाई की मांग लेकर दल्ली राजहरा की महिलाओं ने 144 धारा तोड़कर विशाल जुलूस निकाला। पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके दूधमुंहे बच्चों के साथ दूर जंगल में छोड़ आयी।बहुत कष्ट उठाकर वे पैदल शहर लौट आयीं और लौटते ही फिर उन्होंने  आंदोलन शुरु कर दिया।
लड़ाई करके दल्ली राजहरा की महिलाओं ने मैटरनिटी बैनेफिट पाने का हक भी हासिल कर लिया।
छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के मशीनीकरणविरोधी आंदोलन की चर्चा इससे पहले की है।उस आंदोलन में भी पुरुषों का कदम से कदम मिलाकर साथ दिया महिला मजदूरों ने।मर्दों के साथ खड़े होकर उन्होंने ठेकादार की मशीनों को रोका,सभाओं और जुलुसों में हिस्सा लिया। महिलाओं की ऐसी ही हिस्सेदारी भिलाई के मजदूर आंदोलन में भी थी।
यह तो ट्रेड यूनियन में महिलाओं की हिस्सेदारी का किस्सा है।अब महिला मुक्ति मोर्चा के कामकाज की बात करें। महिला मुक्ति मोर्चा ने सबसे ज्यादा सक्रियता  शराबबंदी आंदोलन में दिखायी।घर घर शराबबंदी का संदेश उन्होंने पहुंचा दिया, मोहल्लों में शराबबंदी समितियां उन्होंने बनायीं।शराब छोड़ने की कसम उठाकर तोड़ने वाले पुरुषों को सजा देने की जि्म्मेदारी भी उन्होंने उठायी।यहां तक कि पति ने अगर कसम  तोड़ दी तो उसे सजा देने में उसकी पत्नी नहीं हिचकी।
गौरतलब है कि दल्ली राजहरा के ज्यादातर ठेका मजदूर आदिवासी थे। जाहिरा तौर पर आदिवासी परिवार में समाज के दूसरे तबकों की तुलना में महिलाओं की ज्यादा इज्जत होती है। जिन परिवारों में पति पत्नी दोनों खदान में काम करते थे, वहां उन परिवारों में दोनों का करीब करीब समान सम्मान था और उनकी आर्थिक आजादी भी करीब करीब बराबर थी।जिन परिवारों में सिर्फ मर्द खदान में काम करते थे,उन सभी परिवारों में महिलाएं जंगल से लकड़ी लाकर, राज मिस्त्री के जुगाड़ बतौर काम करके या फिर रास्ता बनाने का काम करके काफी पैसे कमा लेती थीं,जिससे उन्हें तमाम हक मिल जाते थे।
1977 में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ बनने से पहले भिलाई इस्पात कारखाने के कुछ अफसर, ठेकेदार और उनकी गुंडा वाहिनी  के लोग महिला मजदूरों का शारीरिक शोषण किया करते थे। नयी यूनियन बन जाने के बावजूद कभी कभार दूसरी महिलाओं के साथ शारीरिक शोषण की वारदातें हो जाती थीं।ऐसे मामलों में नारी की मर्यादा की लड़ाई में कूद पड़ता था महिला मुक्ति मोर्चा। ऐसी ही एक घटना 1977 में हो गयी, जब सीआईएसएफ के कुछ जवानों ने एक आदिवासी युवती से बलात्कार करने की कोशिश की।अपराधियों को सजा की मांग लेकर महिलाओं ने विरोध प्रदर्शन किया और शहर के सभी तबके के मेहनतकश लोगों ने उनका साथ दिया।प्रदर्शनकारी जनता पर पुलिस ने गोली चला दी, जिससे एक व्यक्ति शहीद हो गया।किंतु अंत में दोषियों को सजा भी मिल गयी।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा से जुड़ी दूसरी बड़ी ट्रेड यूनियन बीएनसी मिल राजनांदगांव कपडा़ मजदूर संघ थी। टेक्सटाइल मिल के करीब साढ़े तीन हजार मजदूरों में तीन हजार इस यूनियन के सदस्य थे, जिनमें बड़ी संख्या महिला मजदूरों की थी। मिल में काम का पर्यावरण गर्म होने के खिलाफ 1984 में यूनियन ने हड़ताल कर दी। आईएनटीयूसी की गुंडावाहिनी  और पुलिस ने आंदोलन के खिलाफ व्यापक दमन का रास्ता अपनाया।चार मजदूर शहीद हो गये। मजदूर बस्तियों में कर्फ्यू लागू करके मजदूरों से कर्फ्यू की आड़ में मारपीट की गयी।कुछ महिलाओं पर शारीरिक अत्याचार भी हुए।मैनेजमेंट ने हड़ताली नेताओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई कर दी।नेताओं को सजा के खिलाफ यूनियन के आंदोलन में राजनांदगांव और आसपास के गांवों के गैरश्रमिक नारी पुरुष भी शामिल हो गये।1984 में अगस्त से अक्तूबर तक 35 महिलाएं इस सिलसिले में जेल में कैद रहीं,जिनमें 17 महिलाएं मजदूर नहीं थीं।1984 में ही हड़ताल खत्म हो गयी।
छत्तीसगढ़ की उत्पीड़ित महिलाओं के लिए उम्मीद का आह्वान लेकर बना था महिला मुक्ति मोर्चा-
तोड़ तोड़के बंधनों को
देखो,बहनें आती हैं।
ओ देखो,लोगों देखो
देखों बहनें आती हैं।
आयेगी जुलुम मिटायेगी
वो तो नया जमाना लायेगी।
कामरेड नियोगी की हत्या के बाद राजनीति और ट्रेड यूनियनों के कमजोर होते जाने के साथ साथ महिला मोर्चा संगठन भी कमजोर होता गया।किंतु छत्तीसगढ़ नारी आंदोलन के इतिहास से सीखने के सबक काफी हैं।
(सूत्रः लाल हरे झंडे के आंदोलनों में महिलाओं की हिस्सेदारी,छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ प्रकाशन,1987)



शराबबंदी आंदोलनः दल्ली राजहरा की अभिज्ञता


दल्ली राजहरा के मजदूरों में ज्यादातर आदिवासी थे।दूसरे जन समुदायों के लोग कम थे।आदिवासी लोग शराब पीने को अपराध नहीं मानते हैं।जंगल से महुआ बटोरकर वे घर में शराब बना लेते हैं। किसी भी पारिवारिक अनुष्ठान, किसी भी सामाजिक उत्सव का अविच्छेद्य अंग मद्यपान है।स्त्री ,पुरुष,वयस्क अल्पवयस्क -उत्सव में सारे के सारे शराब पीयेंगे- यही रीति है।
यह रीति दल्ली राजहरा में टूट गयी।1977 में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ यूनियन बनने से पहले जहां 95 प्रतिशत मजदूर शराब का नशा करते थे, वहां शराब पीने वालों की तादाद पांच फीसद तक सिमट गयी।जबकि 1991 में शंकर गुहा नियोगी के शहीद होने के वक्त पूरे भारत में वहां के मजदूर सबसे ज्यादा दैनिक मजदूरी कमाने वाले थे। किस तरह उन्होंने शराब का नशा छोड़ दिया, आज की कथा वही है।
1977 से पहले ये मजदूर दो केंद्रीय मजदूर यूनियनों में बंटे थे।दिनभर अक्लांत परिश्रम करके इन्हें तीन से साढ़े तीन रुपये की मजदूरी मिलती थी। भरपेट खाना,पहनने को कपड़ा नसीब नहीं होता था। इन मजदूरों के बच्चे स्कूल का चेहरा तक देख नहीं पाते थे।
1977 को आर्थिक आंदोलन में पहली जीत के बाद इनकी दैनिक मजदूरी सोलह रुपये हो गयी। मजदूरों की पगार बढ़ने का सीधा हुआ शराब की बिक्री पर। 1976-77 में दल्ली राजहरा में देशी शराब 24,588 प्रूफ लीटर बिकी तो 1977- 78 में यह बढ़कर 25,304 प्रूफ लीटर हो गयी। नियोगी ने महसूस किया और मजदूर नेताओं को अहसास कराया कि यदि मजदूरों में शराब का नशा दूर नहीं हुआ तो मजदूरी बढ़ने के बावजूद उनकी जीवन यात्रा के स्तर में कोई विकास नहीं होगा।
फिर छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने शराबबंदी के लिए प्रचार शुरु कर दिया। शराब के शारीरिक,पारिवारिक और सामाजिक कुप्रभाव समझाने के लिए छोटी छोटी सभा, प्रचार पत्र, पोस्टर, आदि की मदद ली जाने लगी।मजदूर समझने लगे लेकिन इस बुरी लत से छूटकारे के लिए एक बड़े धक्के की जरुरत थी।
1978 में ऐसी ही एक घटना हो गयी। शहर से 6-7 किमी की दूरी पर एक गांव चिखली में एक आदिवासी परिवार ने अपने इस्तेमाल के लिए शराब बनायी। कानून आदिवासियों को शराब बनाने के लिए कुछ रियायतें देता है- जिसके तहत वे अपने घर में शराब तो तैयार कर सकते हैं लेकिन उसे बाजार में बेचने की इजाजत नहीं है।आदिवासी अगर अपने लिए शराब खुद ही बना लें तो शराब ठेकेदार की दुकान से शराब कौन खरीदेगा? इसलिए दल्ली राजहरा के ठेकेदार यह चाहते नहीं थे कि आदिवासी अपने लिए खुद शराब बनाये।उस वक्त दल्ली का ठेकेदार तत्कालीन सत्तादल कांग्रेस का सदस्य था, वह भी स्थानीय विधायक,फिर वे उस वक्त राज्य के वित्तमंत्री झुमकलाल भेड़िया के खासम  खास आदमी थे।ठेकेदार को खबर मिली तो उसने चिखली गांव के उस परिवार के पति पत्नी को आबकारी पुलिस से गिरफ्तार करवा दिया।उन्हें पकड़ कर ठेकेदार के घर ले आया गया।उनसे मारपीट की गयी और उनके पैर में तेजाब डाल दिया गया।वहां शराब पीने पहुंच गये छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के कुछ सदस्यों ने पति पत्नी की चीख पुकार सुन ली।यूनियन दफ्तर तक खबर हो गयी।कुछ ही देर में हजारों मजदूरों ने शराब भट्टी को घेर लिया और गुंडों के कब्जे से पति पत्नी को बचा लिया।ठेकेदार ने  पिछवाड़े के दरवाजे से भाग निकल कर अपनी जान बचायी।
सालभर से मजूदर बार बार अपने नेताओं की जुबानी सुन रहे थे कि किस तरह पूंजीपति शराब के जरिये मेहनकश लोगों का शोषण करते हैं।इस वारदात से उन्होंने शोषण का नंगा चेहरा अपनी आंखों से देख लिया।फिर एक आम सभा में हजारों मजदूरों ने शराब छोड़ने का संकल्प कर लिया।किंतु कहने से ही बुरी लत छूटती है क्या? तब मजदूरों ने खुद ही कसम तोड़ने वालों के लिए आर्थिक और सामाजिक दंड तय कर दिया।कुछ मजदूर शारीरिक रुप से शराब पर निर्भर थे (Physically dependent)- उनके लिए खास इंतजाम यह हुआ कि उन्हें परमिट दिया जाने लगा और वह परमिट दिखाकर ही वे दुकान से तय मात्रा में शराब खरीद सकते थे।
शराब की लत छुड़ाने के लिए छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने कुछ नायाब तौर तरीके आजमाये,जिन्हें अमली जामा पहनाने के लिए नारी श्रमिकों और इलाके में महिलाओं के संगठन महिला मुक्ति मोर्चा की खास भूमिका हुआ करती थीः
  • कोई नशे की हालत में पकड़ा गया तो अगले दिन यूनियन दफ्तर में मौजूद लोगों के मुखातिब होकर उस शराब पीने के हक में भाषण देने को कहा जाता था।
  • मर्द मजदूर अगर शराब पीकर पत्नी बच्चों से मारपीट करता तो वे यूनियन दफ्तर में शिकायत कर देते। दोषी के बारे में फैसला महिला मुक्ति मोर्चा मुखिया महिलाएं करतीं।कभी कभी सजा बतौर जुर्माना किया जाता, उस पैसे का 5%-10 % हिस्सा यूनियन फंड में जमा हो जाता और बाकी हिस्सा उस मजदूर की जानकारी के बिना उसकी पत्नी को दे दिया जाता।
  • बार बार कसम तोड़ने पर मजदूर को खदान के काम से सस्पेंड करके उस यूनियन के काम पर लगाया जाता था।
  • जो शराब छोडना चाह रहे थे,लेकिन इस बुरी लत से छूटकारा पाने में नाकाम हो रहे थे,ऐसे मजदूरों को यूनियन के नेता लगातार कुछ दिन शाम के वक्त अपने साथ रखते थे।इस तरह नशा का वक्त टल जाता था और और नेताओं की जीवन यात्रा,विचारधारा और कामकाज का असर मजदूर पर भी हो जाता।
  • शराब से मजदूरों को दूर रखने के लिए शाम को लोकगीत, नाटक, इत्यादि सांस्कृतिक कार्यक्रमों के मार्फत मनोरंजन का इंतजाम किया जाता।
इस इंतजामात का नतीजा कैसा रहा,1982 में प्रकाशित पीपुल्स यूनियन आफ लिबर्टीज (PUCL) की रपट `जनवादी आंदोलन बनाम शराब, पूंजी और हिंसा की राजनीति’ से इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। देखा गया कि 1978 से लेकर 1982 के बीच दस हजार से ज्यादा लोगों ने शराब ने छोड़ दी।1981 में एक पत्रकार ने देखा कि जहां पहले पाक्षिक पगार के दिन दल्ली राजहरा में करीब पांच हजार बोतल शराब बिकती थी, वहां शराबबंदी की वजह से सिर्फ चालीस पचास बोतल शराब ही बिक रही थी। उन्होंने खोज खबर लेकर पाया कि शराब की दुकान के ठेकेदार ने सोलह लाख रुपये देकर शराब की दुकान का ठेका लिया था,लेकिन उससे दो लाख रुपये की भी आय नहीं हो सकी।
जाहिर है कि सत्ता गिरोह और शराब के कारोबारी हाथ पर हाथ धरे खामोश बैठे नहीं रहे।आंदोलन तोड़ने के मकसद से 11 फरवरी 1981 को यूनियन के तत्कालीन सभापति सहदेव साहू और संगठन सचिव शंकर गुहा नियोगी को एनएसए National Security Act के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।18 अप्रैल,1982 को ठेकेदार के ट्रक से `अखिल भारतीय नशाबंदी परिषद’ की राजहरा शाखा के सभापति को कुचलकर मार देने की कोशिश की गयी। इन वारदातों से लेकिन आंदोलन को वे तोड़ नहीं सके।हर दमन पीड़न जुल्मोसितम के जबाव में मजदूर और ज्यादा पक्के मजबूत होते चले गये।
नियोगी ने इस आंदोलन पर सत्ता वर्ग के हमले की धार कुंद करने के मकसद से गांधीवादियों की पहल से बनी अखिल भारतीय नशाबंदी परिषद को इस आंदोलन के साथ जोड़ लिया था। परिषद की नेता सुशीला नायर और पश्चिम बंगाल के फारवर्ड ब्लाक नेता भक्ति भूषण मंडल आंदोलन के साथ एकजुटता दिखाते हुए मजदूरों के साथ खड़े हो गये।
1981 में शराबबंदी आंदोलन जब पूरी मजबूती के साथ जारी था,उसी वक्त कुछ सामाजिक रुप से सचेतन चिकित्सक श्रमिक संघ के साथ काम करने आ गये,जिनके बारे में स्वास्थ्य आंदोलन के प्रसंग में पहले ही चर्चा की है। इन्होंने शराब पीने के शारीरिक कुप्रभाव के बारे में लोगों को सचेत करने के लिए छोटी छोटी संगोष्ठियों का आयोजन का सिलसिला बनाया और पत्र पत्रिकाओं में भी वे लिख रहे थे।1980 के दशक के आखिर में लोक स्वास्थ्य शिक्षामाला पुस्तिका का प्रकाशन `शराब पीने के बारे में सही जानकारी’ पुस्तिका के साथ  शुरु हो गया।फिर शराब पर शारीरिक रुप में निर्भर लोगों को अस्पताल में भर्ती करके उनकी शराब की लत छुड़ाने को कोशिशें भी शुरु हो गयी।
1978 से 1990 (अर्थात जिस वक्त पहली दफा यह आलेख मैंने लिखा) के दौरान दल्ली राजहरा में ठेकेदार की शराब की दुकान नहीं थी।शराब सरकारी देशी शराब  की दुकान पर बिकती थी।जो थोड़े लोग शराब पीते थे,वे भी आंदोलन की वजह से
पहले की तरह खुल्लम खुल्ला शराब नहीं पीते थे या नियमित शराब नहीं पीते थे। इलाके के लोग शराब पीने को सामाजिक अपराध मानने लगे थे।उम्मीद की किरण थी कि नई पीढ़ी यानी  छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के सदस्यों की संतानों में शराब पीने की दर लगभग शून्य हो गयी थी।
शराबबंदी आंदोलन की वजह से मजदूरों की जीवन यात्रा के स्तर में प्रगति हो गयी।1960 के दशक के बीचोंबीच जो लोग रोजगार की तलाश  में गांव छोड़कर लोहा खदान में बतौर ठेका मजदूर भर्ती हो गये, उनमें से ज्यादातर गांव में जमीन के मालिक भी थे। लिहाजा बैंक खातों में उनकी बचत जमा होने लगी। पहले मजदूरों के पास साईकिल तक नहीं होती थी।अब सबके पास साइकिले तो थीं ही,बहुतों ने मोपेड,स्कूटर या मोटर साईकिल खरीद ली। 20-25 साल पहले जो ट्रक ड्राइवर की हैसियत से काम में लगे थे, अपनी बचत की वजह से वे ट्रकों के मालिक बन गये। मजदूरों के परिवार के बच्चों  में अब कोई अपढ़ नहीं रहा। यहां तक कि ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट भी उन परिवारों से निकलने लगे।अनेक बच्चे स्कूल कालेज में शिक्षक बन गये और सरकारी कर्मचारी भी हो गये।दल्ली राजहरा के मजदूर परिवारों से अब तहसीलदार और डिप्टी मजिस्ट्रेट भी बनने लग गये। शराबबंदी आंदोलन ने सचमुच दल्ली राजहरा की जीवन धारा ही बदल डाली।दल्ली राजहरा के कामयाब शराबबंदी आंदोलन से सबक लेकर तेलगंना सामाजिक आंदोलन के संगठकों और तत्कालीन उत्तर प्रदेश के उत्तराखंड की उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के आंदोलनकारियों ने बड़े पैमाने पर लोगों को नशामुक्त कर दिया।
अफसोस का माला यह है कि नियोगी की हत्या के बाद नेतृत्व के विचलन, मशीनीकरण समझौता के जरिये संगठन को विलुप्ति के रास्ते पर धकेलने जैसे कदमों का असर शराबबंदी आंदोलन पर भी हो गया।2007 में दल्ली राजहरा जाकर मैंने अपनी आंखों से देखा है कि जिन लोगों ने शराब छोड़ दी थी, यहां तक कि यूनियन के नेतृत्व में भी जो लोग थे, उन लोगों ने हताशा से निजात पाने के लिए फिर शराब पीनी शुरु कर दी है। शहीद अस्पताल में जो आपरेशन में मेरी मददगार हुआ करता था,एक लैबरेटरी टेक्नीशियन (ग्रेजुएट)- जिसके पिता गीतकार थे, जिन्होंने शराबखोरी के खिलाफ अनेक गीत लिखे और गाते रहे - ऐसे लोग भी अब अवकाश पर कुछ करने को नहीं होने की वजह से शराब पीने लगे हैं




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