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Monday, October 14, 2019

पावर और इंटेंसिटी के मामले में अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में हिंदी के शेक्सपीअर थे शैलेश मटियानी! पलाश विश्वास

पावर और इंटेंसिटी के मामले में अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में हिंदी के शेक्सपीअर थे शैलेश मटियानी!
पलाश विश्वास


इलाहाबाद के मित्र शैलेश मटियानी जी की स्मृति में एक विशेषांक निकाल रहे हैं और उन्होंने मुझसे अपना संस्मरण लिखने के लिए कहा।मैं साहित्य में कहीं नहीं हूं। थोड़ा बहुत जो लिखता पढ़ता रहा हूं,पिछले पांच दशकों से,छपा अनछपा वह सारी सामग्री मैनें विसर्जित कर दी है।मैंने उन मित्रों से कहा था कि शैलेशजी के बारे में मेरे संस्मरण निहायत निजी हैं,जिसकी शायद कोई प्रासंगिकता नहीं है।इसके अलावा एक और हिचक है कि शैलेशजी निजी त्रासदी के चलते जिसतरह सिरे से बदल गये तो उनके बारे में जो पूर्वग्रह है,उसके तहत उनपर लिखे किसी भी तरह के मंतव्य को राजनीतिक आशय से लिये जाने का खतरा है।इसलिए मैंने उन मित्रों से यह भी पूछ लिया कि शैलेश स्मरण का कोई राजनीतिक उद्देश्य तो नहीं है।उन्होंने आश्वस्त किया कि ऐसा नहीं है।
निजी तौर पर अंतिम दौर में निजी त्रासदी की वजह से शैलेज जी की सोच में आये राजनीतिक बदलाव के बावजूद उनके व्यक्तित्व और कृत्तित्व में जनपक्षधरता  के अनिवार्य तत्व में कोई फेरबदल नहीं देखता।
जैसे शेक्स पीअर के नाटक में पावर और इंटेंसिटी के पीछे हम उनकी राजनीति नहीं देखते, ग्रीक नाटकों और भारतीय संस्कृत साहित्य में कालिदास और शूद्रक की रचनाओं के पीछे की राजनीति से बेपरवाह उनके क्लासिक कांटेट को अपना अध्ययन का विषय मानते हैं,उसी तरह टुच्ची राजनीति को अलग रखकर शैलेश मटियानी के व्यक्तित्व और कृत्तित्व का मूल्यांकन  करें तो बारत में वंचितों उत्पीड़ितों अछूतों के रोजमर्रे की जिंदगी से उनके कृत्तित्व और व्यक्तित्व को अलग नहीं रखा जा सकता।उनके कथ्य में ग्रीक,शेक्सपीअरन और संस्कृत नाटकों का पावर और इंटेंसिटी उनकी कहानियों,उपन्यासों और निबंधों में बराबर है।
हमने शैलेश जी को आंचलिक साहित्यकार कभी नहीं माना।जैसे हम शोलोखोव, मार्क्वेज,थामस हार्डी और ताराशंकर बंदोपाध्याय की रचनाओं के आंचलिक पर्यावरण के बावजूद उन्हें क्लासिक रनाकार मानते हैं,उसीतरह हम शुरुआत से उन्हें क्लासिक रचनाकार मानते हैं उनकी अटूट जनप्रतिबद्धता की निरंतर सुलगती आग की वजह से।राजनीति की वजह से उनके बारे में हमारा मूल्यांकन बदला नहीं है।
शैलेश जी जाति से दलित थे। वे अल्मोड़ा से भागकर मुंबई की संघर्ष यात्रा से लेखक बने और उनके लेखकीय वजूद पूरी तरह इलाहाबादी रहा है।लेकिन उनकी रचनाधर्मिता की जमीन हिमालय की वंचित उत्पीड़ित आम जनता और वहां की जुझारु महिलाएं हैं। हल्द्वानी तक पहुंचनेके बावजूद वह पहाड़ में लौट नहीं सकें,लेकिन उनकी लिखी हर रचना में मुकम्मल हिमालय है।वे दलित साहित्यकार नहीं थे।अपनी दलित अस्मिता में और अस्मिता की राजनीति में उनकी कोई आस्था नहीं थी।वे वैज्ञानिक चिंतन से लैस आम जनता के लेखक थे।
शैलेश जी से मेरा कोई अंतरंग संबंध नहीं था।नैनीताल से अंग्रेजी साहित्य में एमए करने के बाद डा. मानस मुकुल दास की गाइडेंस में शोध करने के लिए मैं नैनीताल से भूस्खलन और मूसलाधार बारिश के मध्य पहाड़ से निकला था।नैनीताल की तराई को हम तजिंदगी पहाड़ का हिस्सा मानते रहे हैं,भले ही अब वह उधमसिंह नगर हो गया है।इस हिसाब से पहाड़ से मैदान में उतरकर मैं सीधे शैलेश मटियानी जी के कर्नलगंज स्थित घर जा पहुंचा।उनसे मेरा न परिचय था और न उनके साथ कोई पत्र व्यवहार था।लेकिन नैनीताल समाचार और छात्र जीवन में मेरी छिटपुट पत्रकारिता की वजह से उन्हें मुझे पहचानने में कोई दिक्कत नहीं हुई।
मैं नैनीताल से शेखर पाठक से सौ रुपये का एक नोट औप शैलेश जी को संबोधित बटरोही का पत्र लेकर कर्नल गंज पहुंचा था।इससे पहले डीएसबी में एक मैराथन बहस कविता पर डा. मानस मुकुल दास के साथ हुई थी और उनकी छात्रा और हमारी इंगलिश डिपार्टमेंट की मैडम मधुलिका दीक्षित के सुझाव पर हमने इलाहाबाद जाने का फैसला किया था।
बटरोही ने साठ के दशक में शैलेश जी के घर में छत वाले कमरे में रहकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोध किया था और उन्हें ख्याल था कि वह कमरा अब भी खाली रहा होगा।
डीएसबी में पढ़ाई के वक्त कपिलेश भोज मेरे रुम पार्टनर हुआ करते थे और हम गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी के घर में साथ साथ रहते थे। गुरुजी के मुताबिक सामाजिक यथार्थ से साक्षात्कार के लिए शैलेश मटियानी की कहानी प्रेत मुक्ति अनिवार्य है। कपिलेश और मैने शैलेश जी की रचनाओं में ऐसे डूबे हुए थे कि शैलेश जी के घर पहुंच जाने के बाद वे मुझे किसी भी कोण से अजनबी नहीं लगे।अफसोस है कि उनकी अंतरंगता का योग्य मैं खुद को साबित नहीं कर सका।
मजे की बात यह है कि उनके भतीजे के पास वह कमरा था,जहां मुझे ठहरना था।लेकिन पहली ही मुलाकात में मैं उनके परिजनों में शामिल हो गया। चाय पीने के बाद उन्होंने मुझे तुरंत डा. रघुवंश के पास भेजा क्योंकि उन्हें लगता था कि मुझे शोध अंग्रेजी में नहीं हिंदी में करना चाहिए।वे हिंदी में ही मेरा भविष्य देख रहे थे। पहली मुलाकात में ही उन्होंने जैसे नख से शिख तक मुझे पढ़ लिया थाषअब तो लगता है कि शैलेश मटियानी के सिवाय मुझे किसी और ने न पढ़ा और न गंभीरता से लिया है।मेरे बेहद करीबी परिजनों और अंतरंग मित्रों ,साथियों ने भी नहीं।
मैं इलाहाबाद ज्यादा अरसे नहीं रह सका क्योंकि वहां फ्रीलांसिंग की गुंजाइश नहीं थी और योजना के मुताबिक मुझे अमृतप्रभात में नौकरी नहीं मिल सकी।मंगलेश डबराल के सुझाव पर मैं उर्मिलेश के साथ जेएनयू चला गया और आखिरकार वहां से धनबाद कोयलांचल पहुंचकर पत्रकारिता से जुड़ गया।
करीब तीन महीने मैं इलाहाबाद में रहा।शैलेस जी के वहां रहने की जगह न होने के कारण पहाड़ के दूसरे बड़े लेखक शेखर जोशी के 100,लूकर गंज में लंबी अवधि तक रहा।लूकरगंज में नीलाभ का घर था और खुसरो बाग के पास सुनील श्रीवास्तव के घर में लूकरगंज में ही वीरेन डंगवाल और मंगलेश डंगवाल रहते थे।
इस अवधि में भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, मार्कंडेय और इलाहाबाद के दूसरे साहित्यकारों का बहुत प्यार मिला। विश्वविद्यालय से निकलने वाले एक बेरोजगार छात्र के लिए इलाहाबाद में जितना प्यार हर स्तर पर मिला, वैसा फिर कभी अहसास नहीं हुआ।
इस अवधि के दौरान शैलेश मटियानी जी से लगातार संबंध बना रहा।हम उनकी पत्रिका के लिए सामग्री और विज्ञापन जुटाने रिक्शे में उनके साथ बैठकर इलाहाबाद घूमते रहे थे।बीज बीच में वे घर पर खाने के लिए भी बुला लिया करते थे। अपनी निजी समस्याओं के बारे में परिजनों की तरह खुलकर बात करते थे तो साहित्य और दूसरे गंभीर मुद्दों पर बराबरी का दर्जा देते हुए गंभीर चर्चा भी करते थे।
उसी दौरान धर्मयुग में उनकी एक विवादास्पद तस्वीर संजय गांधी के साथ छप गयी और इस पर उन्होंने धर्मवीर भारती के खिलाफ मानहानि का दावा ठोंक दिया।
वे अपनी लेखकीय साख को इस वारदात से गहरा आघात मानते थे और अपनी जनपक्षधरता साबित करने के लिए बेहद बेचैन थे।हमने उनकी वह बेचैनी बेहद नजदीक से देखी है।
इस दौरान मुकदमे की तैयारी में वे वकीलों और साहित्यकारों से मिलते रहे तो दूसरी तरह अपनी पत्रिका को भी जिंदा रखने का संघर्ष करते रहे।उन्होंने मुझे अपने इस संघर्स में बराबर का हिस्सेदार माना, यह मेरे जैसे किसी औसत व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि रही है।
दरअसल शैलेश मटियानी और शेखर जोशी दोनों ने हिमालयी जड़ों की वजह से मुझे अपनी तरह मुकम्मल पहाड़ी माना और अपने अपने परिवार का सदस्य भी,मेरी कुल जिंदगी की यह बेहद बड़ी पूंजी रही है।
शैलेश मटियानी साहित्य और जीवन में ईमानदारी और जनपधरता के लिए मरने मारने की हद तक लड़ाकू रहे हैं।वक्त मिला तो हम उनके साहित्य पर भी सिलसिलेवार चर्चा करेंगे।
जिंदगी के आखिरी दौर में एक चरम निजी त्रासदी की वजह से उनकी वैचारिक आस्था में बदलाव जरुर आया,लेकिन उनके बेमिसाल संघर्ष और जनपक्षधरता की जमीन कहीं टूटी होगी ,ऐसा मैं नहीं मानता।
यह ठीक वैसा ही है कि जैसे पहाड़ से निकलने के बाद दोबारा पहाड़ न पहुंच पाने के बावजूद हिमालय की जड़ें उनके व्यक्तित्व कृतित्व में लगातार मजबूत होती रही है।

अब भी हम शैलेस मटियानी को सामाजिक यथार्थ और जनपक्षधरता का क्लासिक साहित्यकार मानता हूं और सिर्फ तीन महीने के छिटपुट सान्निध्य के बावजूद वे मेरे वजूद में ठीक उसी तरह शामिल हैं जैसे गिरदा और वीरेन डंगवाल।

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