शंकर गुहा नियोगी के साथ बिताये कुछ साल-4
एक सहयोद्धा की रपट
पुण्यव्रत गुण
अनुवाद: पलाश विश्वास
श्रमिक संस्कृतिकर्मी फागुराम यादव
6 मई, 2015 को किसी समय मेरे सहयोद्धा रहे फागुराम यादव ने आखिरी सांसें लीं। आधुनिक भारत में मजदूर आंदोलन की चर्चा हो तो छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ की बात निकल पड़ती है। छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के प्रधान संगठक शंकर गुहा नियोगी का नाम याद आ जाता है।याद आती है दल्ली राजहरा के वीर लोहा खदान मजदूरों के संघर्ष, आत्म बलिदान,जीत की कहानी। उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं के मुक्ति आंदोलनों पर चर्चा चलायें तो छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की बात निकल आती है।ठीक इसी तरह छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ की चर्चा करें तो फागुराम यादव का नाम आ जाता है।इस आंदोलन के प्रधान गीतकार थे फागुराम यादव।
फागुराम यादव कोई बुद्धिजीवी नहीं थे।वे लोहा खदान में ट्रांसपोर्ट मजदूर थे। ट्रकों में लोहा लादना उनका काम था।गांव की पाठशाला में चौथी के आगे पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला।रायपुर जिले के चंओर गांव में 1946 में हुआ। पिता की मृत्यु बचपन में ही हो गयी। पटाखे बेचकर मां बच्चों का पालन पोषण करती थीं।दूसरों के टूटे स्लेट के टुकड़े जुगाड़ कर गुरुजी की सेवा करके फागुराम की पढाई हुई। चौथी के आगे पढ़ाई जारी नहीं रह सकी क्योंकि आजीविका के लिए तब उन्हें दूसरों के खेत में खेतिहर मजदूर बनकर काम करना था।बचपन से फागु विशेष गुण से समृद्ध थे और गांव में होने वाली किसी भी घटना पर गीत बनाकर सुर में वे गा सकते थे।
1973-74 में छत्तीसगढ़ में भयंकर अकाल पड़ा।उसी वक्त काम की खोज में फागुराम दल्ली राजहरा चले आये। तभी से भिलाई स्टील प्लांट के दल्ली राजहरा लोहा खदान में ठेका ट्रांसपोर्ट श्रमिक थे फागुराम।
उस वक्त ठेका मजदूरों का अमानुषिक शोषण होता था। भोर तड़के अंधेरा रहते रहते ठेकेदार का ट्रक मजदूरों को उठा लेता था।फिर 14 -15 घंटे तक हाड़ तोड़ काम करके शाम को घर वापसी होती थी। इतनी मेहनत मशक्कत के बाद मजदूरी में मिलते थे सिर्फ दो या तीन रुपये। दोनों जमी जमाई यूनियनें आईएनटीयूसी और एआईटीयूसी मजदूर के हित न देखकर मैनेजमेट और ठेकेदारों के हित साधने में लगी थीं। इन दोनों यूनियनों के अन्यायपूर्ण बोनस समझौते के खिलाफ मजदूरों ने उन यूनियनों को छोड़कर 3 मार्च,1977 को अपनी आजाद यूनियन बना ली- छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ। पुरानी दो यूनियनों के तिरंगा और लाल झंडे के बदले उन्होंने लाल हरा झंडा हाथों में उठा लिया, जो मजदूर किसान मैत्री का प्रतीक है।यूनियन गठन के तीन महीने बाद घर की मरम्मत के लिए बांस बल्ली खरीदने के भत्ते की मांग लेकर चले आंदोलन को तोड़ने के लिए आंदोलनकारी मजदूरों पर पुलिस ने गोली चला दी।ग्यारह मजदूर शहीद हो गये। मजदूर आंदोलन की प्रेरणा से फागुराम ने नई तरह के गीत लिखना चालू कर दिया। संघर्ष के गीत। राजनीतिक चेतना के प्रसार के गीत। 28 सितंबर ,1991 को कामरेड शंकर गुहा नियोगी की हत्या के बाद आंदोलन कमजोर हो जाने की वजह से उनकी लेखनी धीमी जरुर हुई है,लेकिन रुकी नहीं।
फागुराम की प्रतिभा का मूल्यांकन विश्लेषण करने की क्षमता या योग्यता मेरी नहीं है। किंतु वे 1986 से लेकर 1994 तक मेरे सहयोद्धा रहे हैं, इसलिए मुझे यह लिखना पड़ रहा है।मैंने बांग्ला में लिखा है और फागुराम छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखते थे।उनके कुछ खास गीतों का अधकचरा बांग्ला अनुवाद करके मुझे यह समझाने की कोशिश करनी है कि कि वे कैसे गीतकार रहे हैं।1989 में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के प्रकाशन विभाग लोक साहित्य परिषद ने फागुराम यादव के चुने हुए गीत प्रकाशित किया था।उस संग्रह से ही ये गीत लिये गये हैं।
मजदूर कवि फागुराम यादव के पहले चरण के गीतों में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के जन्म का इतिहास का खूबसूरत ब्यौरा इस प्रकार हैः
शहीद मन के छत्तीसगढ़ भूइयां मा हावे कुरबानी गा,
लहू के रंग मा लिखागे सगी लाल हरा के कहानी गा।
छत्तीसगढ़ के मजदूर मन हा दल्ली राजहरा मा आइन गा,
लोहा के पथरा ला फोर फोर के भिलाई ला उत्पादन कराइन गा,
सदा उत्पादन वर जोर लगाथे इये मजदूर के वाणी गा।
लहू के रंग में लिखागे…
लोहा के पथरा फोराइया मन हा अपन पसीना बोहाइन गा,
दिनभर करीन कड़ा मेहनत गा सही मजदूरी नइ पाइन गा।
आघु मा रोहिन दलाल मन हा लूट-लूट के खावन लगीस,
छत्तीसगढ़िया मजदूर ऊपर शोषण अत्याचार होवन लगीस,
तब पापी मन वर जन्म धरीस दु रंग वाला निशानी गा।
लहू के रंग में लिखागे…
छत्तीसगढ़ माइंस मजदूर संघ हा जब जनम धरके आइस गा,
शोषण ले मुक्ति करेवर हर मजदूरला जगाइस गा,
जाग उठीन सब मजदूर साथी,दुश्मन होगे हैरानी गा।
लहू के रंग में लिखागे…
(भावार्थः छत्तीसगढ़ के मजदूर लोहा पत्थर तोड़कर भिलाई इस्पात काऱखाने को भेजने के काम के लिए दल्ली राजहरा आये थे।मैनेजमेंट उनसे उत्पादन,और उत्पादन चाहता था। पत्थर तोड़ने में खून पसीना एक करने के बावजूद उन्हें सही मजदूरी लेकिन नहीं मिली। दलाल नेता मजदूरों को लूटते रहे। छत्तीसगढ़ी मजदूरों के गम का इंतहा नहीं कोई। ऐसे में जन्म हुआ लाल हरा दुरंगे झंडे का।जन्म हुआ छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का, जिसका आह्वान आजादी का।जाग उठे मजदूर और दहशत में मालिकान।)
फागुराम यादव के एक अन्य गीत के एक अंश का अनुवाद इस प्रकार हैः
हजारोंहजार मजदूर ईंट
गूंथ गये एकता सीमेंट से,
तैयार हुआ लोहा दीवाल बांध।
बांध से निकली नाली बहने लगी
विलासपुर की हिररी में,
राजनांदगांव,दानीटोला में।
जिसने नहा लिया इस पानी में
वह बनके निकला नया इंसान।
लाल हरे झंडे का तात्पर्य समझाते हुए मजदूर कवि फागुराम यादव ने लिखा हैः
मेहनतकश के हितकारी हे ये दु रंग वाली निशानी हे,
लाल रंग मजदूर मनके अउ हरिहर रंग किसानी के,
दोनों रंग एकी में मिलके जइसे गंगा यमुना का पानी हे..
लड़ने में बड़ा बांका है,ये दु रंग वाला पताका हे,
मजदूर के खून मा रंगे हावे,दुश्मन वर एक धमाका हे..
हवा मा लहराके चमकत हे,मानो तो हमार विधाता हे।
लाल हरा झंडा हमारा..
(भावार्थः मेहनती इंसानों का यह दुरंगा निशान है,लाल रंग मजदूरों का तो हरा रंग किसानों के, जैसे मिले गंगा यमुना का जल। लड़ाई के टेढ़े मेड़े रास्ते पर बढ़ते जाने में डर नहीं कोई, मजदूरों के खून से रंगा ये पताका, दुश्मनों के लिए दहशत है।)
1977 में यूनियन बनने के बाद मजदूरों का पहला आंदोलन अपनी झोपड़ियों की मरम्मत के लिए बांस बल्ली की मांग को लेकर था। आंदोलनकारी मजदूरों पर पुलिस ने 2-3 जून को फायरिंग कर दी,जिसमें ग्यारह मजदूर शहीद हो गये।गोली चला कर आंदोलन का दमन नहीं किया जा सका। शहीदों के बलिदान ने दल्ली राजहरा के मजदूरों का संघर्ष को अपने इरादे में और मजबूत बना दिया।उन शहीदों की याद में मजदूर कवि फागुराम यादव का गीतः
शहीद भगतसिंह, वीरनारायण सिंह,
अनुसुइया बाई,जगदीश भाई,
ये सब एक हैं,एक हैं।
इनके संघर्ष आज भी जारी हैं,
आज का संघर्ष हमारी बारी है,
मरना है तो मरेंगे फिरभी बढ़ते जायेंगे,
तुम्हारे अरमान पूरे करते जायेंगे।
शहीद भगतसिंह..
हर जुल्म,हर अत्याचार
जूझेंगे हम बार बार,
मजदूर किसान मिलके आज
उठाये हैं हथियार,
शहीदों के खून से हम सब हैं तैयार…
शहीद भगतसिंह..
आर्थिक आंदोलन के साथ साथ दूसरे मोर्चों पर भी छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने काम करना शुरु कर दिया।उन सभी मोर्चों पर संगीत के रुपकार मजदूर कवि फागुराम यादव। फागु ने दूसरे मजदूर संस्कृतिकर्मियों रामलाल,लखन,आदि के साथ मिलकर लोकतांत्रिक संस्कृति के प्रसार के लिए नया अंजोर सांस्कृतिक संस्था का निर्माण किया।छत्तीसगढ़ी में नया अंजोर का मतलब भोर की सूर्यकिरण है।संस्था के सभी कार्यक्रमों में जिस गीत के जरिये संस्था के उद्देश्यों की व्याख्या की जाती,वह गीत भी फागु का लिखा हैः
गांव के गली गली खोर खोर नवाँ अंजोर
बगराबो रे संगी नवाँ अंजोर।
नवाँ अंजोर के लाल किरण सब जगह बगरही,सब जगह बगरही
आँखें सबके खुल जही अँधियारी रात टरही,अँधियारी रात टरही,
हो जही बिहान जागही मजदूर अऊ किसान
भाग जाग जही सबके तोर मोर नवाँ अंजोर
बगराबो रे संगी नवाँ अंजोर..
(भावार्थः गांव गांव गली गली नवाँ अंजोर फैलेगा, बिखरेगी नयी सूर्य किरण, नये सूरज की लाल किरण, मनुष्य आँखें खोलकर देखेंगे, कटेगी अँधियारी। भोर होगी, जागेगा मजदूर किसान।)
1980-81 में छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ का `स्वास्थ्य के लिए संघर्ष’ आंदोलन शुरु हो गया।मजदूर कवि फागुराम यादव ने लिखाः
चल संगबारी रे मितान,स्वास्थ्य बर गा संघर्ष करबो
ये जिनगी के करबो सुधार,हम गा बीमार मा काबर मरबो।
(भावार्थःचलो साथी,चलो बंधु,स्वास्थ के लिए लड़ने चलो।जिंदगी में लायेंगे सुधार।फिर बीमार होकर क्यो मरेंगे।)
छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के शराबबंदी आंदोलन में भी फागुराम की कलम चलीः
शराबी भइया रे मत पीबे बटलके शराब ला।
मत पीबे बटलके शराब ला।
शोषण से मुक्ति के लिए आंदोलन कर रहे मनुष्यों को उनके पुरखों की लड़ाई के इतिहास, बलिदान के इतिहास से प्रेरणा मिलती है।छत्तीसगढ़ के पहले शहीद थे नारायण सिंह। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ किसान विद्रोह के वे नेता थे।अंग्रेज शासकों और उनके बाद सत्तावर्ग ने नारायण सिंह को डकैत करार देकर भुलाकर अंधियारे में डुबो दिया था।छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने वीर नारायण सिंह की कहानी जनता के सामने लाने का काम किया।इस कहानी को जनता की समझ के लायक बनाकर छत्तीसगढ़ के गांव गांव तक पहुंचाने का काम किया मजदूर कवि फागुराम ने।
मध्यप्रदेश के दक्षिण और पूरब के सात जिलों को लेकर बना है छत्तीसगढ़। छत्तीसगढ़ की जमीन इतनी उपजाऊ है कि इसे धान का कटोरा कहा जाता है।यहां वन संपदा विपुल है तो अकूत है खनिज भंडार। फिरभी गांव गांव में बेरोजगारी और अकाल, खेत सींचने को पानी नहीं। जंगल पर आदिवासियों का जन्मसिद्ध अधिकार खत्म है। छत्तीसगढ़ के उद्योग धंधों में छत्तीसगढ़ी जनता को काम नहीं मिलता है।मजदूर कवि फागुराम ने एक तरफ जैसे छत्तीसगढ़ के दुःख, वंचना की कथा सुनायी है तो दूसरी ओर आजाद छत्तीसगढ़ का आह्वान भी किया हैः
जनसंगठन,जन आंदोलन,जनयुद्ध के रास्ता मा आघु बढ़ो,
छत्तीसगढ़ की मुक्ति के खातिर, संगी कोई जतन करो।
छत्तीसगढ़ के वीर बहादुर यही बात बतायेगा,
किसान अउ मजदूर संगबारी के खातिर कहायेगा,
ये भुइयां के हम सब बेटा ये माटी के रक्षा करो।
छत्तीसगढ़ की मुक्ति के खातिर..
ये भुइयां के मालिक आगे इहां के मजदूर किसान हा गा।
तेकर बेटा सरहद मा लड़ते हे,देश के जही जवान ये गा।
अत्याचार शोषण ला भगाबो कदम कदम सब बढ़ते चलो।
छत्तीसगढ़ की मुक्ति के खातिर..
(भावार्थः जन संगठन,जन आंदोलन,जन युद्ध के रास्ते पर आगे बढ़ो।छत्तीसगढ़ को आजाद करने की कोशिश करो। इसी माटी की संतांनें हैं हम, इस माटी की रक्षा करेंगे। इस माटी के मालिक इस देश के मजदूर किसान, इनके बेटे नौजवान।सरहद पर वे जवान हैं। अत्याचार शोषण दूर करने कदम कदम आगे बढ़ो।)
लाल हरे झंडे का सबसे बड़ा किसान आंदोलन राजनांदगांव जिले के नादिरा गंव में हुआ।सौ साल से भी पहले नादिरा के गांव वालों ने अकाल के मुकाबले के लिए एक सामूहिक कोष का गठन कर लिया था।वे कबीरपंथी थे,इसलिए वे कबीर मठ के नाम संपत्ति इकट्ठी करते रहे।यह संपदा वक्त के साथ साथ बढ़ती रही।बाद में उत्तर प्रदेश से पधारे एक महंत ने वह संपत्ति आत्मसात कर ली। बहरहाल,गांववालों ने महंत के कब्जे से भूसंपत्ति छुड़ाने में कामयाबी हासिल कर ली और उन्होंने उसपर सार्वजनीन अधिकार बहाल कर दिया।इस आंदोलन में गांववालों को दमन उत्पीड़न का भी मुकाबला करना पड़ा।उस वक्त फागु ने गायाः`अत्याचार का बदला लो।’
छत्तीसगढ़ में पहला उद्योग राजनांदगांव शहर में बेंगल काटन मिल्स है।इस कारखाने में मजदूर आंदोलन का इतिहास भी पुराना है।सन् 1920 में कारखाने के मजदूरों ने 37 दिन लंबी चली हड़ताल की थी।फिर 1923 में पुलिस की गोली से जरहू गोंड शहीद हो गये।1948 में ज्वाला प्रसाद और रामदयाल।1984 में बीएनसी मिल्स में लाल हरा यूनियन का गठन हुआ।मजदूरों ने बेहतर काम के माहौल के लिए आंदोलन किया। शहीद हो गये जगत, राधे, मेहंतर और घनाराम।फागुराम के गीत में अतीत और वर्तमान के संघर्षों की कहानियों का ब्यौरा है।
विकास के नाम उद्योगों में मशीनें लगाकर मजदूरों की छंटनी करना मालिकान की नीति है। सरकार ने दल्ली राजहरा की लोहा खदान में मशीनें लगाने की योजना बना ली।छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ ने 1978 में आंदोलन करके 1994 तक मशीनीकरण रोक दिया था। इस आंदोलन को लेकर फागुराम का गीत हैः
आगे मशीनीकरण के राज,जुच्छा कर देही सबके हाथ,
जागो मजदूर किसान हो।
बेरोजगारी हे अइसे बाढ़े हे, अउ आघु बढ़ जाही रे,
मेहनतकश जनता हा, बिन मौत मारे जाही रे,
फिर होही अनर्थ बात,सब पीटत रबो माथ।
जागो मजूर किसान हो।
आये विदेशी मशीन संगी,देश मा डेरा जमावत हे.
इहां के कमाइया मनके,हाथ ले काम नंगावत हे,
येमे भिड़े हाबे दलाल,होवत हाबे मालामाल,
जागो मजदूर किसान हो।
(भावार्थः मशीनीकरण राज आया है।सबके हाथों से काम छीनने के लिए।जागो मजदूर,किसान हो।बेकारी तो है ही, आगे और बेकारी बढ़ने वाली है।मेनतकश लोग मारे जायेंगे।तब सर कूटने से कोई फायदा नहीं होगा, जागो मजदूर किसान हो।देश की माटी पर डेरा बांधने लगी विदेशी मशीनें, देशी मजदूरों के काम छीनने को।होशियार हो जाओ, आवाज बुलंद कर लो, जागो मजदूर किसान हो।)
छत्तीसगढ़ आंदोलन की सबसे बड़ी लड़ाइयों में भिलाई मजदूर आंदोलन खास है।1990 से शुरु इस आंदोलन के तहत भिलाई इंडस्ट्रीयल एरिया के तीस कारखानों में यूनियन बन गयी।संगठित होकर मजदूरों ने अपने हक हकूक और बेहतर जिंदगी जीने के लिए बेहतर पगार की मांगें लेकर आंदोलन शुरु कर दिया।जाहिर है कि आंदोलन को तोड़ने के लिए मजदूरों को काम से बर्खास्त करने, गुंडा पुलिस के जरिये हमले करने, नियोगी को जेल में कैद करने, सात जिलों में से पांच में नियोगी के प्रवेश पर रोक लगाने, आखिरकार 28 सितंबर,1991 को गुप्त घातक के हाथों नियोगी की हत्या कर देने और 1 जुलाई,1992 को पुलिस की गोली से सोलह मेहनतकश इंसानों की हत्या करने जैसी वारदातें हुईं। इस दौरान मेहनतकश संस्कृतिकर्मियों की अगुवाई मजदूर कवि फागुराम कर रहे थे।
कामरेड गुहानियोगी के प्रति उनकी श्रद्धांजलि- `शंकर गुहा नियोगी ला भइया करथों मेँहा लाल सलाम’।छत्तीसगढ़ी भाषा में लिखी यह लंबी गीतिकविता www.sanhati.com पर छत्तीसगढ़ आर्काइव में उपलब्ध है।
मैंने फागुराम के कुछ गीतों के सिर्फ उदाहरण पेश करने की कोशिश की है। छत्तीसगढ़ी भाषा,लोकसंगीत के सुर में फागुराम की खुली आवाज में न सुनें तो इन गीतों का कोई मजा मिजाज नहीं है।1992 में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की पहल पर जन संगीत शिल्पी विपुल चक्रवर्ती के तत्वावधान में कोलकाता में फागुराम के आठ गीतों को रिकार्ड किया गया।कैसेट `लाल हरा झंडा हमर’ शीर्षक से निकला था। वह कैसेट अब मिलता नहीं है। फागुराम की मृत्यु के बाद विपुलदा उन गीतों को फेसबुक पर पोस्ट करने,उनका सीडी निकालने की कोशिश में हैं।
इस आलेख का अंत करने से पहले व्यक्ति फागुराम के बारे में कुछ न लिखा जाये तो यह आलेख अधूरा रहा जायेगा। जब मैं छत्तीसगढ़ में था, उस दौर में मैंने फागुराम को एकदम नजदीक से आठ सालों तक देखा है।हर रोज सुबह फटा हुआ हाफ पैंट और लाल हो गयी गंजी पहनकर उनका खदान चले जाना, फिर लौटकर घर का काम या यूनियन का काम करते रहना देखा है। श्रमिक संघ के राजनैतिक दृष्टिसंपन्न मजदूर कार्यकर्ताओं में फागुराम खास थे।उनका कला भंडार विशाल था।इसके बावजूद उनमें न कोई दंभ था और न अहंकार। फागु के सहकर्मियों से मैंने बात की है।फागु अपने इलाके के दो सौ मजदूरों के चुने हुए प्रतिनिधि थे यूनियन में।सभी एक सुर में कहते थे,बाहैसियत मनुष्य अपूर्व मानवीय गुणों के अधिकारी थे फागु।फिरभी फागुराम फागुराम बन नहीं सकते थे, अगर दल्ली राजहरा में जंगी मजदूर आंदोलन की धारा बह नहीं रही होती और सही सांगठनिक नेतृत्व नहीं होता। कामरेड नियोगी की देखरेख में कैसे वे निखरते रहे,वह कुछ मैंने खुद देखा है,बाकी सुना है।
भिलाई शहीद दिवस
असीम दास
इंद्रदेव चौधरी
किशोरी चौधरी
कुमार वर्मा
केेएन प्रदीप कुट्टी
केशव प्रसाद गुप्ता
जोगा यादव
धीरपाल सिंह
पुराणिक पाल
प्रेम नारायण
मधुकर चौधरी
मनोहरण वर्मा
रामकृपाल मिश्र
रामाज्ञा चौहान
लक्ष्मण वर्मा
हीरु राम
तुम्हारी
जिन कसाइयों ने हत्या की है
आज की
अदालत में उनका फैसला होगा।
हम तुम्हारी
हत्या के मुकदमे में न्याय
करने का
हक हत्यारों को नहीं देंगे।
हम लड़ेंगे,हम जूझेंगे,
हम जीतेंगे,
हमारी अदालत
हत्यारों को सुनायेगी
सजा ए मौत।
(दल्ली राजहरा शहीद स्तंभ से )
पहली जुलाई,1992 को भिलाई,उरला, टेढ़ेसरा, कुम्हारी के आंदोलनकारी मजदूर छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष जनक लाल ठाकुर के निर्देश पर सेक्टर एक मैदान का धरनास्थल छोड़कर भिलाई पावर हाउस स्टेशन की तरफ बढ़ चले।जब वे रेल लाइन के पास पहुंचे,तब दोनों तरफ से दो ट्रेंने आ रही थीं।दोनों ट्रेनों को बिना बाधा जाने देने के बाद मजदूरों ने रेल पटरियों पर धरना शुरु कर दिया।बार बार त्रिपक्षीय वार्ता नाकाम होने और 30 जून को त्रिपक्षीय बैठक में मालिक पक्ष की गैरमौजूदगी के मद्देनजर मजदूरों ने अपनी नौ सूत्री मांगों के समर्थन में यह धरना शुरु कर दिया।
शांतिपूर्ण तरीके से रेल पटरियों पर बैठे मजदूर नारे लगा रहे थे, जन गीत गा रहे थे। दोपहर एक बजे के करीब विशाल पुलिस वाहिनी आ गयी।अफसरों ने रेल पटरियों को खाली करने के लिए कहा। मजदूर अडिग थे। उनकी मांगें बहुत मामूली थीं। फरवरी, 1992 में जिलाधीश, पुलिस अधीक्षक और डिवीजनल कमिश्नर की मौजूदगी में समझौता का जो मसविदा तैयार हुआ था, उस मसविदे के मुताबिक नौकरी से हटाये गये मजदूरों को दो दफा में बहाल करने का वायदा था।मजदूर उस समझौते पर मालिकान के दस्तखत के बाद रेल पटरिया खाली कर देने को तैयार थे।
शाम चार बजे के करीब पुलिस वाहिनी ने चारों तरफ से प्रदर्शनकारियों को घेर कर आंसू गैस के गोले छोड़ना चालू कर दिया।इस पर भी मजदूर नहीं हटे तो पुलिस न लाठीचार्ज और पथराव शुरु कर दिया।आत्मरक्षा की खातिर मजदूरों ने भी जबावी पथराव कर दिया। दर्शकों ने भी नाराज होकर पुलिस पर हमला बोल दिया।शाम छह बजे के बाद गोली चल गयी।
पुलिस फायरिंग में पंद्रह मजदूर शहीद हो गये।जिनमें ग्यारह छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के सदस्य थे तो बाकी चार नहीं थे।(18 जनवरी,1993 को आपरेशन के दौरान दम तोड़ देने से गोली से जख्मी धीरपाल सोलहवां शहीद हो गये।) जख्मी हो गये सौ से ज्यादा स्त्री पुरुष बच्चे।उस दिन की हिंसा में एक पुलिस सब इंस्पेक्टर की जान भी चली गयी थी।
गोलीकांड की पृष्ठभूमि
1990 के सितंबर महीने में भिलाई में मजदूर आंदोलन शुरु हो गया था। सिर्फ दुर्ग जिले के भिलाई में नहीं, राजनांदगांव जिले के रिओयागहन, टेढ़ेसरा, दुर्ग जिले के दुर्ग, भिलाई, कुम्हारी, रायपुर जिले के उरला, महासमुंद, बालोदाबाजार तक फैल गया था यह आंदोलन।
दलाल यूनियनों (किसी कारखाने में एटक तो कहीं इंटक तो फिर कहीं सीटू) छोड़कर कारखानों के मजदूरों ने प्रगतिशील इंजीनियरिंग श्रमिक संघ, प्रगतिशील सीमेंट श्रमिक संघ,छत्तीसगढ़ कैमिकल मिल्स मजदूर संघ जैसे नये संगठन बनाने शुरु कर दिये। कारखाना की सीमा तोड़कर आंदोलन इंजीनियरिंग, डिस्टलरी, कैमिकल और सीमेंट उद्योग तक ब्याप्त हो गया। सिर्फ भिलाई में ही बत्तीस कारखानों में यूनियन बन गयी।
मजदूरों ने जो नौ सूत्री मांगें उठायीं, उनमें खास हैंः1.स्थाई कारखाने में स्थाई नौकरी (ऐसे सभी कारखानों में नब्वे फीसद से ज्यादा ठेका मजदूर थे), 2.जिंदा रहने लायक पगार, 3.मजदूर यूनियन के सदस्य होने की वजह बताकर जिन मजदूरों को निकाला गया,काम पर फिर उनकी बहाली की मांग (यानी संगठित होने का हक)।
सत्ता वर्ग का हमला
आपात दृष्टि से ये मांगें मामूली हैं।देश के श्रम कानून के मुताबिक।तब भी सत्ता वर्ग इन मांगों का महत्व समझ गया।
छत्तीसगढ़ खनिज संपदा,वन संपदा और जल संसाधनों से भरपूर है।इसके अलावा सस्ता श्रम का खजाना है छत्तीसगढ़ी सीधा सादा इंसान।मुनाफा की लालच में देशी विदेशी उद्योगपतियों का आखेटगाह बन गया यह इलाका। हमेशा नये उद्योग लगते जाते रहे हैं।
ऐसे हालात में छत्तीसगढ़ के सबसे बड़़े औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों की स्थाई नौकरी, पर्याप्त वेतन और संगठित होने के हक मान लेने का सीधा मतलब था सस्ता श्रम के उत्स का बंजर हो जाना।
इसीलिए जैसे एक तरफ मजदूर कारखानों की सीमा तोड़कर संगठित होने लगे तो दूसरी तरफ मालिकान भी इलाकावार इंडस्ट्रीयल एसोसिएशन के मार्फत संगठित हो गये। किसी कारखाने के हड़ताल से प्रभावित हो जाने की स्थिति में उस कारखाने के हिस्से के आर्डर की सप्लाई दूसरे कारखाने से की जाने लगी। इसके साथ साथ पुलिस प्रशासन, राज्य और केंद्र सरकारें और सत्ता वर्ग के लगभग सभी राजनैतिक दल मालिकान के पक्ष में मोर्चाबंद हो गये।
पुलिस और गुंडावाहिनी की दहशतगर्दी, झूठे मुकदमों में मजदूरों को जेल में बंद करने के अलावा करीब 4200 श्रमिकों को काम से निकाल दिया गया। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के ह्रदय सम्राट शंकर गुहा नियोगी को दो महीने तक जेल में कैद रखा गया। हाइकोर्ट में अर्जी लगाने पर उन्हें जमानत मिल गयी और उसके साथ ही उन्हें छत्तीसगढ़ के पांच जिलों से जिलाबदर करने की प्रक्रिया शुरु हो गयी। हाईकोर्ट के हस्तक्षेप से यह प्रक्रिया बाधित हो गयी तो 28 सितंबर को मालिकान के सुपारी किलरों ने नियोगी की हत्या कर दी।
नियोगी की हत्या के बाद
वर्ग संघर्ष में कामरेड नियोगी की शहादत के बाद संगठन और आंदोलन की कमान एक नौ सदस्यीय केंद्रीय समिति ने संभाल ली।इस समिति में पांच मजदूर नेता, एक युवा नेता और तीन बुद्धिजीवी शामिल थे।
मैं खुद उस समिति का एक सदस्य था।इसके बावजूद मैं मानता हूं कि जो दूरदर्शिता, मजदूर वर्ग की वैश्विक दृष्टि ने नियोगी को एक कामयाब जनांदोलन का नेता बना दिया था, परवर्ती नेताओं में उस आस्था और दूरदर्शिता का अभाव था।
नियोगी की हत्या के बाद देशभर में जन समर्थन की जो लहरेें पैदा हो गयीं, उसके अनुपात में उत्पादन पर चोट नहीं की जा सकी।नियोगी की हत्या के बाद मजदूरों ने स्वतःस्फूर्त हड़ताल कर दी थी। सात दिनों बाद नेतृत्व के आदेश से वह हड़ताल वापस ले ली गयी। बदले में जमायत, सभा, जुलूस, अनशन, जेल भरो, इत्यादि प्रचारमुखी कार्यक्रमों का सिलसिला चला।
मजूदर लेकिन आंदोलन तेज करना चाहते थे। इसके नतीजतन बीच बीच में आंदोलन के कार्यक्रम का ऐलान किया जाता रहा। मसलन 15 नवंबर को मालिकान के आवासस्थल नेहरु नगर का घेराव, 20 नवंबर को अनिश्चितकालीन जेल भरो, 26 दिसंबर को मुरली मनोहर जोशी की एकता यात्रा रोको या 26 जनवरी,1993 को डायरेक्ट एक्शन। किंतु मजदूरों के आंदोलन के लिए हमेशा तैयार रहने के बावजूद बार बार नेताओं ने प्रशासन के वायदे के भरोसे कार्यक्रम वापस लेना जारी रखा।
महासंग्राम
नेतत्व जब किंकर्तव्यविमूढ़ था और हताशा में मजदूर जब आत्मघाती कोई कदम उठाने की सोचने लगे थे, तभी एक नया कार्यक्रम शुरु हो गया।इस कार्यक्रम की दिशा कामरेड नियोगी ने रायपुर में 1990 में अपने दिये एक भाषण में तय कर दी थी, जिसे छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के एक सहयोगी मित्र ने वक्त के तकाजा के मुताबिक नये रुप में पेश कर दिया।
शीर्ष नेतृत्व, मजदूर नेताओं और मजदूरों ने इस कार्यक्रम पर चर्चा की। मजदूरों ने अहसास कर लिया कि सिर्फ मजदूर वर्ग की ताकत से भिलाई आंदोलन में जीत हासिल करना संभव नहीं है।बल्कि सभी मित्र शक्तियों को संगठित करने की जरुरत है। क्योंकि भिलाई का आंदोलन छत्तीसगढ़ की मेहनतकश आम जनता के लिए बेहद खास था।लोकतांत्रिक पद्धति से फैसला हुआ कि मजदूर किसान युवा बुद्धिजीवी सबको साथ लेकर कुल पांच लाख लोग भिलाई में जमावड़ा करके भिलाई का अवरोध कर दें। रास्ता,रेल लाइन,आफिस कचहरी,कारखाना सबकुछ स्तब्ध तब तक कर दिया जाय, जबतक मांगें पूरी नहीं की जातीं।
व्यापक तैयारी के बाद 28 मार्च को पच्चीस तीस मजदूरों की 29 प्रचार टोलियां पोस्टर, बैज, लिफलेट के साथ प्रचार अभियान के लिए निकल पड़ीं।15 दिनों में इन लोगों ने पांच जिलों के करीब चार हजार गांवों में प्रचार चलाया। हजारोंहजार ग्रामीण लोगों, औद्योगिक इलाकों के मजदूरों ने भिलाई अवरोध के लिए बतौर स्वेच्छासेवक अपना नाम दर्ज कराया।अब भिलाई मजदूर आंदोलन छत्तीसगढ़ के जनमुखी विकास का आंदोलन बन गया था। (जिन लोगों ने बंगाल में कनोड़िया में 28 फरवरी का संग्राम देखा है, उनकी भिलाई महासंग्राम के बारे में कुछ धारणा बन सकती है।क्योंकि दोनों कार्यक्रमों की दिशा एक रही है।)
25 मई भिलाई अवरोध की तारीख तय हो गयी।
अवरोध कार्यक्रम वापस
मजदूरों ने व्यापक पैमाने पर संवाद चर्चा के मार्फत जो अवरोध का कार्यक्रम तय किया, वह व्यापक पैमाने पर प्रचार अभियान के जरिये जनता का कार्यक्रम बन गया।सिर्फ छत्तीसगढ़ी जनता ही नहीं, दूसरे राज्यों के देशप्रेमी और लोकतांत्रिक लोगों ने भी लाखों रुपये जमा करके संग्रामी कोष तैयार कर लिया।
इसी बीच जिन जिन स्थानों से स्वेच्छासेवकों को आना था,उन सभी स्थानों पर भारी संख्या में पुलिस तैनात करके नाकाबंदी कर दी गयी। दहशतगर्दी भी चालू हो गयी।फिर मीठी बातों के बुलेट दागने के लिए मैदान में हाजिर हो गये तत्कालीन उद्योग मंत्री कैलाश जोशी। कैलाश जोशी ने वादा कर दिया कि अविलंब मजदूरों की समस्याएं सुलझा ली जायेंगी। इस वादे पर छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के दो प्रधान नेताओं ने अवरोध कार्यक्रम वापस लेने का ऐलान कर दिया।हालांकि केंद्रीय समिति के दूसरे सदस्य और आम मजदूर कार्यक्रम वापस लेने के खिलाफ थे।
25 मई
अवरोध कार्यक्रम वापस लेने की घोषणा के बावजूद उस दिन भिलाई में पचास हजार मजदूर किसान जमा हो गये। देश के विभिन्न हिस्सों से अनेक नेता समर्थक हाजिर हो गये।अवरोध की तारीख तय करते हुए किसी को ख्याल नहीं था कि 25 मई,1992 को नक्सलबाड़ी जन विद्रोह की रजत जयंती थी।बाकी देश की तरह भिलाई में भी सीपीएमएल के एक गुट ने पोस्टर लगा दिये।
25 मई को जुलूस निकालने पर उसमें नक्सली घुसकर हिंसा के लिए जनता को उकसा सकते हैं,इस आशंका की वजह से पचास हजार जनता के जमावड़े के बावजूद जुलूस निकालकर शक्ति प्रदर्शन किया नहीं जा सका। ढीले ढाले ढंग से बहरहाल एक सभा कर ली गयी। मजदूर हताश जरुर थे, लेकिन एक जगह वे अडिग थे कि इतनी लंबी लड़ाई, इतनी व्यापक तैयारी के बाद मांगें पूरी न होने तक वे घर लौटने को तैयार नहीं थे।
सपरिवार करीब पांच हजार मजदूरों ने जामुल रावनभाटा मैदान में धरना शुरु कर दिया।
त्रिपक्षी वार्ता नाकाम
मजदूरों की सबसे अहम मांग यूनियन के सदस्य होने की वजह से काम से हटाये गये श्रमिकों की बहाली की थी। इस मांग को लेकर दुर्ग और रायपुर में कई दफा बैठकें हुईं। आखिरी बैठक मध्य प्रदेश के श्रम विभाग के मुख्यालय इंदौर में हुई। भिलाई अवरोध के मद्देनजर काम से निकाले गये मजदूरों को दो चरणों में फिर काम पर वापस लेने की बात मालिकान कहते रहे, लेकिन इंदौर की बैठक में उनका सुर बदल गया।कुल 4200 निकाले गये मजदूरों में सिर्फ 500 को वे `मानवीय आधार’ पर `वैकल्पिक रोजगार’ देने को तैयार हो गये। श्रमिकों के प्रतिनिधियों ने जाहिर है कि घृणा के साथ यह पेशकश नामंजूर कर दी।
इधर भिलाई में मजदूर धरनास्थल बदलते रहे। जामुल रावणभाटा से शारदा पाड़ा वैकुंठ नगर, वहां से छावनी, छावनी से रेलवे लाइन के ठीक बगल में सेक्टर एक में मजदूरों ने धरना लगातार जारी रखा।एक के बाद एक दिन बीतते रहे और मई जून में चल रही लू, बीच बीच में तेज आंधी पानी से बेपरवाह मजदूर खुले आसमान के नीचे धरने पर बैठे हुए थे।
त्रिपाक्षिक बैठक में नाकामी की वजह से हताशा फैलने लगी और धरने में शामिल मजदूर घटते रहे। दूसरी तरफ रोजाना करीब बीस बीस हजार रुपये खर्च होते रहने से छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का कोष खत्म होने को हो गया। लेकिन वहां रह गये मजदूर बिना मांग पूरी हुए किसी सूरत में घर वापस जाने को तैयार नहीं थे।
इन्ही परिस्थितियों में 29 जून को भिलाई वर्कर्स के साथ बैठक नाकाम हो गयी। 30 जून को श्रम विभाग की बुलाई बैठक में मालिकों के प्रतिनिधि गैरहाजिर रहे। फिर तीस जून की रात नेताओं ने रेल अवरोध का फैसला किया।
पहली जुलाई को कामरेड शंकर गुहा नियोगी के नक्शेकदम पर पंद्रह श्रमिकों ने महान शहादतें दे दीं। इन शहीदों की भी जैसे अगुवाई ही की कामरेड केशव प्रसाद गुप्ता ने। वे छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के इस दौर के भिलाई के पहले संगठन एससीसी ठेका ट्रांसपोर्ट मजदूरों के संगठन `प्रगतिशील ट्रांसपोर्ट श्रमिक संघ’ के नेता थे।
गोलीकांड के बाद
गोलीकांड के बाद सत्ता वर्ग का श्वेत संत्रास तेज हो गया। हफ्तेभर कर्फ्यू लागू रहा। ढाई महीने तक 144 धारा जारी रही। केंद्रीय समिति के दो चिकित्सक सदस्यों को छोड़कर बाकी नेता भूमिगत हो जाने के लिए मजबूर हो गये। नाना प्रकार के मुकदमों में सौ से ज्यादा मजदूर और उनके नेता गिरफ्तार कर लिये गये।जिनमें केंद्रीय समिति के तीन सदस्य भी शामिल थे।तीन श्रमिक नेताओं को सब इंस्पेक्टर की हत्या के झूठे मामले में बिना न्याय के अठारह महीने तक कैद रखा गया।
मजदूरों ने लेकिन स्वतःस्फूर्त तरीके से कारखानों में करीब हफ्तेभर हड़ताल जारी रखी।नेतृत्व के निर्देश पर वह हड़ताल वापस ले ली गयी।बहुत जल्दी दूसरे दर्जे के नेताओं ने लोकतांत्रिक पद्धति से फैसला लेने वाली समिति बनाकर भिलाई में संगठन की कमान संभाल ली। उन्हींके प्रयास से 15 जुलाई को 144 धारा तोड़कर एक सर्वदलीय आम सभा में दस हजार से ज्यादा लोग जमा हो गये। 3 सितंबर को भोपाल में प्रदर्शन प्रदर्शन जमावड़ा हो गया।15 सितंबर को प्रशासन को 144 धारा वापस लेने को मजबूर कर दिया गया। 28 सितंबर को नियोगी के जन्मदिन पर `पशुशक्ति के खिलाफ जनशक्ति’ का विशाल प्रदर्शन भी हुआ।
डांवाडोल नेतृत्व
25 मई को जो डांवाडोल हालत प्रकट हो गयी थी, वह गोलीकांड के बाद और तेज हो गयी। अब वर्ग संघर्ष के बजाय नेताओं का झुकाव बातचीत के जरिये समस्या समाधान की ओर हो गया। मजदूरों ने आंदोलन के लिए दबाव बढ़ाऩा शुरु कर दिया तो नेतृत्व का प्रभावशाली अंश ने उन्हें श्वेत संत्रास तेज होने का डर दिखा कर काबू में रखने की कोशिशें शुरु कर दीं।संगठन में लोकतंत्र बनाम अफसरशाही का वैचारिक संघर्ष भी शुरु हो गया।आखिरकार गोली कांड के दो साल भीतर छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा टूट गया।वह अलग कहानी है।शहीद दिवस का स्मरण करते हुए वह कथा बांचने का मौका नहीं है।
भिलाई गोलीकांड टाला जा सकता था
भिलाई के शहीदों के महान आत्म बलिदान का पूरा सम्मान करते हुए मुझे कहना है कि मनुष्य का जीवन अमूल्य है।बेहद जरुरी न हो तो मनुष्यों को मौत के मुंह में धकेलना सही नहीं है।
- 25 मई के लिए जो तैयारी थी,उस तैयारी के सात रेल अवरोध करते तो पुलिस को बंदूक उठाने को कोई मौका नहीं मिलता। प्रस्तावित पांच लाख लोगों के जमावड़े की बात छोड़ भी दें तो जो पचास हजार लोग 25 मई को आ गये थे, उनकी संख्या भी बिना खून खराबे के जीत हासिल करने के लिए काफी थी।
- 25 मई के बाद जब त्रिपाक्षिक बैठकें फेल होती रहीं, तब दूसरे दर्जे के नेताओं ने साफ साफ राय दी कि फिर गांवों में वापस लौटकर पहले ताकत बटोरने के बाद ही भिलाई में कोई बड़ा कार्यक्रम किया जाये। प्रधान नेताओं ने तरह तरह के बहाने बनाकर इस प्रस्ताव पर अमल नहीं किया।
- हकीकत में हालात मजदूरों के हक में नहीं थे, फिरभी रेल अवरोध की तारीख तय करने के लिए छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा का कोष खत्म होने के कगार पर पहुंचने की वजह से नेतृत्व राजी हुआ।
- रेल अवरोध शुरु होने के बाद भी गोलीकांड टाला जा सकता था बशर्ते कि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की तमाम शाखाओं ने एक साथ अपने अपने इलाके में रेल अवरोध शुरु कर दिया होता। तब पुलिस पूरी ताकत के साथ भिलाई में जमा होकर दमन का रास्ता अख्तियार नहीं कर सकती थी। गौरतलब है कि दल्ली राजहरा को छोड़कर छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के तमाम प्रधान केंद्र महाराष्ट्र की सीमा पर चांदी डुंगरी से लेकर राजनांदगांव, टेढ़ेसरा, दुर्ग, भिलाई, पुरैना, कुम्हारी, उरला, रायपुर, बालोदा बाजार, हिरी, चांपा, बारदुआर रेल लाइन के पास थे।हर कहीं स्थानीय संगठकों को नेतृत्व के निर्देश का इंतजार था।
गोली कांड के बाद जो करना चाहिए था
कहीं और जाकर सीखने की जरुरत नहीं थी।सबसे पास छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के पहले संगठन की अभिज्ञता ही पर्याप्त थी। 2-3 जून,1977 को नियोगी की गिरफ्तारी के विरोध में प्रदर्शन कर रहे मजदूरों पर गोली चलने से दल्ली राजहरा के ग्यारह श्रमिक शहीद हो गये थे। उसके बाद खदान मजदूर लगातार 19 दिनों तक हड़ताल जारी रखकर नियोगी को जेल से छुड़ा लाये और उन्होंने अपनी तमाम मांगें भी पूरी करवा लीं। वैसा भिलाई में भी किया जा सकता था। गौरतलब है कि मजदूरों ने भिलाई में भी स्वतःस्फूर्त तरीके से सात दिनों तक हड़ताल जारी रखी थी।
सकारात्मक सबक
1.भिलाई आंदोलन हमारे लिए सबक है कि कैसे वर्ग संघर्ष की आंच से तप कर मजदूर इस्पात में तब्दील हो जाता है।
2.भिलाई आंदोलन मजदूर आंदोलन से दूसरी मित्र शक्तियों को जोड़ने का पाठ भी पढ़ाता है।इसके साथ ही हमें यह सीख भी मिलती है कि किसी एक मजदूर आंदोलन को एक बड़े क्षेत्र में जनता के आंदोलन में बदला जा सकता है।
3.भिलाई आंदोलन में कामयाबी हर बार तभी मिल सकी है,जबकि संगठन की लोकतांत्रिक पद्धति के मुताबिक कार्यक्रम का फैसला हुआ है।इससे सबक मिलता है कि जन संगठन में अभ्यंतरीन लोकतंत्र अपरिहार्य है।
4.नियोगी की शहादत और फायरिंग शुरु हो जाने के बाद रेल पथ पर अडिग श्रमिक हमें साहसी होना सिखाता है।
नकारात्मक सबक
कुछ घटनाओं की चर्चा पहले ही की है।
1.इतना बड़ा आंदोलन नियोगी के बाद के नेतृत्व के डांवाडोल हो जाने की वजह से कमजोर हो गया।इसलिए वर्ग संघर्ष ही काफी नहीं है,इसके साथ ही श्रमिकों में राजनीतिक चेतना का विकास भी बहुत जरुरी है।
2.भिलाई आंदोलन से सबक मिलता है कि किसी भी सही मांग पूरी करने के लिए वर्ग संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है,वर्ग समझौता कतई नहीं।
3 .हम सीखते हैं कि लोकतांत्रिक केंद्रिकता के बदले अफसरशाही के तौर तरीके अपनाने से संगठन और आंदोलन,दोनों की अकाल मृत्यु तय है।
4.सत्ता वर्ग के झूठे वायदों के झांसे में भूलना नहीं चाहिए, पहली जुलाई को शहीदों का खून यही सबक सिखाता है।
5.श्वेत संत्रास से आतंकित होकर आंदोलन न करना कोई सही रास्ता नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक आंदोलनों की लहरें पैदा करके श्वेत संत्रास का प्रतिरोध गोली कांड के बाद के दिनों की याद दिलाता है।
6.यह गोलीकांड सबक है कि पर्याप्त तैयारी के बिना सत्ता वर्ग से मुठभेड़ का मतलब खुदकशी है।
आखिरी बात
भिलाई में मजदूर आंदोलन लंबा खींचने (करीब पांच साल हो गये), नियोगी परवर्ती डांवाडोल नेतृत्व, संगठन के बिखराव से बेहद हताश हो गये हैं। कारखानों के मालिकान ने उनका शोषण और तेज कर दिया है।
तो क्या शहीदों का खून बेकार चला जायेगा?
नहीं।शोषण के खिलाफ लड़ते हुए भिलाई के मजदूर फिर एकताबद्द हो जायेंगे। फिर वे लड़ाई के मैदान में कूद पड़ेंगे।तब उनकी पूंजी होगी कामरेड नियोगी की सीख, भिलाई आंदोलन के सकारात्मक और नकारात्मक सबक। तब वे अजेय होंगे और उनकी जीत जरुर होगी।
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