किसान,जनपदों और खेती के साथ हमने भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था की भी हत्या कर दी.डिजिटल इंडिया एक क्राइम थ्रिलर है।
पलाश विश्वास
हिंदी के किसी मुंशी प्रेमचंद नामक कथाकार को कोई उपन्यास,कोई कहानी,कोई लेख,कोई वक्तव्य को उठा लीजिये,वहां माटी की सोंधी महक,कड़क सर्द पूस की रात, बैलों की दोस्ती,पंचायतों की बहस,लू की मार,लहलहाती फसल,महाजनी सभ्यता का तानाबाना,कर्ज का बोझ,बेदखली और प्राकृतिक आपदाओं से जूझते किसानों की रोजमर्रे की जिंदगी परत दर परत मिलेगी।
किसी महाश्वेती देवी के रचनासमग्र को देख लीजिये,जल जंगल जमीन की लड़ाई का समूचा इतिहास मिल जायेगा।
औद्योगीकरण के संक्रमण काल में किसानों की बेदखली और तबाह होते जनपदों का सारा ब्यौरा थामस हार्डी के अंग्रेजी उपन्यासों में मिल जायेगा तो फ्रांसीसी साहित्यकार विक्ट यूगो के उपन्यास पढ़ ले तो फ्रांसीसी क्रांति के इतिहास को पढ़ने की कोई जरुरत नहीं होगी।
इसके विपरीत समूची कृषि,सारे जनपद,पूरा का पूरा ग्रामीण भारत,भारत की अर्थव्यवस्था और उत्पादन प्रणाली,भारतीय समाज एकाधिकार कारपोरेट पूंजी के हवाले होने के नवउदारवादी मुक्तबाजारी संक्रमणकाल का प्रतिनिधित्व करने वाला साहित्य हमारी नजर में नहीं है न भारतीय सिनेमा और कला माध्यमों में इसकी अभिव्यक्ति देखने को मिली है।
साठ और सत्तर के दशकों तक चूंकि भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित था और कुल मिलाकर कृषि समाज,कृषि आधारित उत्पादन संबंध और खेती बाड़ी गांव देहात से जुड़ी लोक संस्कृति के स्थाई भाव अपने रुप रस गंध के साथ समूचे भारतीय साहित्य, कला, माध्यमों और विधाओं में अभिव्यक्त होते रहे हैं।साहित्य कुल मिलाकर जनपदों का साहित्य रहा है तो भारतीय सिनेमा में भी हम इसी भारतीय समाज और उसके मूल्यों,उसके आदर्शों,उसके सपनों,उसके संघर्षों और उसकी जीजिविषा देखते रहे हैं।कृषि संकट गहराने से पहले भूमि संघर्षों पर केंद्रित समांतर सिनेमा का दौर भी सत्तर के दशक में पैदा हुआ और खत्म हो गया।
रांगेय राघव ने तेलगंना विद्रोह पर उपन्यास जब खेत जागे लिखा तो कृषि समाज के शहरी संस्कृति में समाहित होने की कथा माणिक बंद्योपाध्याय के उपन्यासों और कहानियों में बंगाल की भुखमरी से लेकर तेभागा आंदोलन के पूरे ब्यौरे शामिल हैं।ताराशंकर बंद्योपाध्याय के रचनासमग्र में आजादी के पहले से आजादी के बाद साठ के दशक तक कृषि निर्भर जनपदों के टूटने बिखरने और सामंती प्रभुत्व के खिलाफ आम किसानों के विद्रोह और उनके लोकतंत्र की कथा है।
इप्टा ने नवान्न नाटक के साथ देशभर में सभी विधाओं में साहित्य और सिनेमा लेकर चित्रकला और संगीत में भारत के किसानों के जीवन मरण के मुद्दों को उठाया। याद करें कि सत्तर के दशक में समांतर सिनेमा में जमीन की लड़ाई को केंद्रीय मुद्दा बनाया गया था।
अब भारतीय सिनेमा भी हवा हवाई है,जिसकी न कोई जमीन है और न उसका कोई आसमान है। फ्रेम दर प्रेम सारे के सारे दृश्य आयातित हैं,जिसमें माटी की कोई सुगंध नहीं है।
नक्सलबाड़ी जनविद्रोह में भारतीय विमर्श में कृषि और भूमि सुधार,भूमि संघर्ष अनिवार्य केंद्रीय मुद्दा सत्तर के दशक में बन गया और सत्तर का दशक खत्म होते न होते कृषि कोई मुद्दा ही नहीं रहा।
जनपद विमर्श का सिलसिला ही खत्म हो गया।
विडंबना यह है कि नक्सलबाड़ी के पचास साल पूरे होने के मौके पर हम भारतीय कृषि सेपूरी तरह कटे हुए डिजिटल इंडिया के उपभोक्ता समाज के अलग थलग लोग है,जिनका न कोई सामाजिक जीवन है और न कोई राजनीति है।
इस बीच दूसरी हरित क्रांति भी संपन्न् हो रही है।भूमि सुधार का मुद्दा बहुत पहले खत्म हो गया है और खेती,जल,जंगल, जमीन,आजीविका,नागरिकता,नागरिक और मानवाधिकार से भी कृषि और प्रकृति से जुड़े समुदायों को बेदखल करने के लिए पिछले तीन सालों में ही सात हजार सुधार हो गये हैं।
सामतों का वर्चस्व कारपोरेट मुक्तबाजार में और मजबूत हो गया है तो महाजनी सभ्यता का ताना बाना जस का तस है।
पुराने जमींदार अब पूंजीवादी ही नहीं,कारपोरेट हो गये हैं और कारपोरेटहित में देश भर में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक अनंत बेदखली अभियान जारी है।
यह सिर्फ थोक दरों पर किसानों की आत्महत्या का मामला नहीं है ,जिसके आंकड़ों पर किसानों के नाम राजनीति चलती है।
मुंशी प्रेमचंद जिन महाजनी सभ्यता और जांत पांत के शिकार किसानों की बात लिख रहे थे,आधार नंबर,सामाजिक योजनाओं पर बेलगाम लूटखसोट वाले सरकारी खर्च,उपभोक्ता बाजार में खपे हुए गांव और जनपदों के अंधाधुंध शहरीकरण,शिक्षा और तकनीक के विस्तार से लेकर जीएसटी के डिजिटल इंडिया में उनके हालात प्रेमचंद के जमाने के मुकाबले कतई सुधरे नहीं हैं और महाजनी सभ्यता के शिकंजे से वे बाहर नहीं निकले हैं।उनकी बेदखली,उनका सफाया भारत के विकास की अर्थव्यवस्था है।
ऐसा नहीं है कि जल जंगल जमीन की लड़ाई खत्म हो गयी है।
ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेजी हुकूमत की शुरुआत से आदिवासियों,किसानों और मेहनतकशों के आंदोलन का सिलसिला खत्म हो गया है।
गौरतलब है कि बेदखली के खिलाफ तेलंगाना और नक्सलबाड़ी जनविद्रोह की गूंज के साथ कलिंगनगर,नियमागिरि,जगतसिंहपुर,सिंगुर,नंदीग्राम,दादरी,भट्टा परसौल, कर्चना,ट्राईड्रेंट,पोलावरम, काकरापल्ली,सोमपेटा,आंध्र के समुद्रतटवर्ती इलाकों, दंडकारण्य,जैतापुर,नर्मदा घाटी,झारखंड के व्यापक इलाकों में लगातार जनविद्रोह हो रहे हैं।लेकिन इन जनविद्रोह के साथ संस्कृतिकर्मियों की व्यापक भागेदारी हाल के दशकों में लगातार घटती जा रही है।
किसान लगातार जमीन से बेदखल होते जा रहे हैं।
अंधाधुंध शहरीकरण से गांव और जनपद खत्म किये जा रहे हैं।
फर्जी विकास के आर्थिक सुधारों के तहत खेती के बाद अब बाजार और कारोबार से भी बेदखली का अभियान डिजिटल इंडिया का मेकिंग इन है।
आज भारतवर्ष में सिर्फ बीस प्रतिशत लोगों के पास 75 प्रतिशत जमीन की मिल्कियत है।इनमें भी 7.88 प्रितशत के हाथों में 47.91 प्रतिशत जमीन का मालिकाना है।ग्रामीण भारत की आधी से ज्यादा आबादी के पास जमीन नहीं है,जिनके पास थी,वे छिनी जा रही है या छिनी जा चुकी है।
नमूना सर्वेक्षण और 2011 की जनगणना के ताजा आंकड़ों के मुताबिक अब सिर्फ 5 प्रतिशत लोगों के पास देश की लगभग आधी जमीन है,44 प्रतिशत।
आधी से छह प्रतिशत कम।
ये पांच प्रतिशत लोग कौन हैं,इसका कोई लेखा जोखा उपलब्ध नहीं है।
कृषि विकास के नाम पर तमाम योजनाओं,अनुदानों, सुविधाओं,बैंकों का कर्ज, कर्जमाफी इन्ही पांच प्रतिशत के हिस्से में हैं।इसलिए खेती छोटे और मंझौले किसानों के लिए घाटे का सौदा और खुदकशी की वजह बनती जा रही है।
कर्ज और घाटे में डूबे किसान जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन बची हुई है,बेहद तेजी से अपनी जमीनसे बेदखल होते जा रहे हैं।
2011 की जनगणना के मुताबिक भूमिहीनों और खेतमजूरों की संख्या कुल ग्रामीण श्रमजीवी मनुष्यों में आधे से ज्यादा 54.9 प्रतिशत है।
बारत के किसानों में सिर्फ 1.1 प्रतिशत लोग संगठित क्षेत्र के तहत सरकारी फार्म,कृषि विश्वविद्यालयों के फार्म,बगीचों में काम करते हैं।
बाकी लगभग निनानब्वे फीसद काश्तकारी असंगठित क्षेत्र में हैं।नतीजतन किसानों का कोई संगठन नहीं है,जो सत्ता की राजनीति से अलहदा और आजाद हो।
हाल में देशभर में जो किसान आंदोलन होते रहे हैं या हो रहे हैं,उनका सच यही है कि ये तमाम आंदोलन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सत्ता समीकरण साधने के आंदोलन हैं,जिनसे किसानों की बुनियादी समस्याओं या कृषि अर्थव्यवस्था के बुनियादी सवालों को कुछ लेना देना नहीं है।
यही वजह है कि किसानसभा के करोड़ों सदस्य होने के बावजूद किसानों की बेदखली या उनकी थोक आत्महत्या के प्रतिरोध में पिछले करीब तीन दशक से कोई आंदोलन नहीं हो सका है।
यूपी में टिकैत की किसान यूनियन,महाराष्ट्र में शरद जोशी के शेतकरी संगठन और गुजरात में हाल के पाटीदार आंदोलन काफी व्यापक और असरदार होने के बावजूद उसी तरह सत्ता समीकरण में खप गये जैसे कि चौधरी चरण सिंह और चैधरी देवीलाल के नेतृत्व में चले किसान आंदोलन।
हाल के तमाम किसान आंदोलनों का राजनीतिक चरित्र बी वही है,जो कुल मिलाकर जमींदार,बड़े और कारपोरेट किसानों के हित में चलाये जाते हैं और उनकी मांगे पूरी होने का लाभ आम किसानों को कभी नहीं मिलता।
मेहनतकशों के सारे पार्टीबद्ध आंदोलन इसी सीमाबद्धता के शिकार हैं।जिनसे सत्ता वर्ग का कारपोरेट हित सधने के अलावा कुछ और हासिल नहीं हो पाता।
भारत की बहुसंख्य जनता मुक्तबाजारी साइनिंग डिजिटल इंडिया में भी सीधे तौर पर कृषि पर निर्भर हैं।जनपदों में सरकारी गैरसरकारी नौकरियों में लगे लोग बी खेती से जुड़े होते हैं और इन इलाकों में कारोबार भी कृषि पर निर्भर है।खेती में संकट की वजह से जाहिर है कि सिर्फ किसान ही प्रभावित नहीं होते।
मुक्त बाजार के व्याकरण में अगर नागरिक उपभोक्ता है,तो इस उभरते हुए उपभोक्ता समाज में फिर किसान ही बहुसंख्य है और मुक्त बाजार में क्रयशक्ति की अनिवार्यता के मद्देनजर इस व्यापक उपभोक्ता समाज के जल जंगल जमीन और आजीविका से निरंतर बेदखली का मतलब यही है कि जनपद केंद्रित उपभोक्ता समाज का क्रयशक्ति से वंचित हो जाना।जिसका सीधा मतलब यही है कि शहरी इलाकों से बाहर उपभोक्ता बाजार का विस्तार आगे और होना असंभव है।जिससे देर सवेर भुखमरी और बेरोजगारी के साथ मंदी के बादल भी उमड़ घुमड़ रहे हैं।
फिरभी मुक्त बाजार के प्रबंधकों और प्रबंधकों की सरकारों को कृषि संकट में कोई दिलचस्पी नहीं है,यह भारतीय अर्थव्यवस्था के रंग बिरंगे शेयर बाजारी गुब्बारे की असलियत है।सत्ता की राजनीति के पूरी तरह मजदूर विरोधी किसानविरोधी और जनविरोधी हो जाने से इस स्थिति में किसी बदलाव के निकट भविष्य में कोई आसार कम से कम मुझे नजर नहीं आते।
बहरहाल 2009-2010 के नमूना सर्वेक्षण के 66वें चक्र के मुताबिक भारत में मेहनतकश लोगों में 53.2 प्रतिशत लोगों की आजीविका सीधे तौर पर कृषि पर निर्भर हैं।इसके अलावा रोजगार के क्षेत्र में नियुक्त 46 करोड़ लोगों में 24.48 करोड़ लोग कृषि उत्पादन क्षेत्र पर निर्भर हैं।
कपड़ा,जूट,चाय उद्योगों के सफाये के बावजूद रोजगार इस हदतक कृषि पर निर्भर हैंं और इसकी परवाह इस देश के पढ़े लिखे तबकों को नहीं है,यह हैरतअंगेज है।
भारत में बांग्ला ,हिंदी,मराठी या किसी भी भाषा के सत्तर अस्सी दशक की किसी भी विधा में रचे साहित्य को उठा लीजिये,वहां जिस पैमाने पर किसानों की मौजूदगी है,उसकी तुलना में आज के संस्कृतिकर्म का कारपोरेट चरित्र बेनकाब हो जायेगा।अस्सी के दशक से साहित्य का सारा उत्तर आधुनिक पाठ सत्ता वर्ग के हितों के मुताबिक है,छिटपुट अपवादों को छोड़कर जिनमें गांव देहात हैं,तो वे पर्यटन स्थल की तरह हैं ,जिसका सामाजिक यथार्थ से कोई लेना देना नहीं है।
आधारभूत संरचना और निर्माण,विनिर्माण,शहरीकरण और औद्योगीकरण का सच यही है कि देश में कल कारखानों में 2009-2011 के नमूना सर्वेक्षण आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ 11.03 प्रतिशत श्रमजीवियों की आजीविका जड़ी हुई है कृषि क्षेत्र में 53.2 प्रतिशत के मुकाबले।
दूसरी तरफ मुक्तबाजार की नवउदारवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था में हजारों आर्तिक सुधारों का हकीकत यही है कि सेवा क्षेत्र में राष्ट्रीय आय का 53.3 प्रतिशत हिस्सा होने के बावजूद भारत के मेहनतकशों में से सिर्फ 25.28 प्रतिशत यानी 11.87 करोड़ लोगों को ही रोजगार मिलता है।ये आंकड़े 2009 -2010 के नमूना सर्वेक्षण के हैं।
इस बीच खासकर पिछले तीन सालों में आटोमेशन की वजह से सभी क्षेत्रों में व्यापक छंटनी,ले आफ,निजीकरण,विनिवेश की वजह से रोजगार के आंकड़ों में भारी गिरावट आयी है।
स्थिति कितनी भयंकर होने वाली है,उसका आभास यूपी और उत्तराखंड में सत्ता परिवर्तन के बाद पचास पार लोगों की अनिवार्य छंटनी के ऐलान से जाहिर है।
कमोबेश सभी राज्य सरकारों की यही नीति है।जबकि जनपदों के ज्यादातर लोग राज्य सरकार की नौकरियों में हैं।
आटोमेशन और छंटनी की वजह से कल कारखानों में,सेवा क्षेत्र में,सरकारी गैरसरकारी दफ्तरों में, आईटी, बैंकिंग, रेलवे,बीमा जैसे बड़े सेक्टरों में रोजगार कादायरा लगातार संकुचित हो रहा है और किसी भी क्षेत्र में रोजगार सृजन नहीं हो पा रहा है।कारोबार के एकाधिकार वर्चस्व की वजह से बड़े पैमाने पर फिर आम लोगों के रोजगार खोने का डर है।जीएसटी ने ऐसी हालत बना दी है।
ऐसे हालात में कृषि क्षेत्र में ही रोजगार सृजन के सबसे ज्यादा अवसर हैं,जहां अपनी मातृभाषा में ही अदक्ष और अपढ़,अधपढ़ लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिल सकता है।यह क्रय क्षमता बहाल रखकर मुक्तबाजार के हित में भी है।लेकिन कृषि क्षेत्र को देश चलाने वाले लोगों ने सिरे से नजरअंदाज कर रखा है।
जनसंहार संस्कृति की नस्ली फासिस्ट विचारधारा का कारपोरेट हित यही है।
यही डिजिटल इंडिया का क्राइम थ्रिलर है।
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